बतकही

बातें कही-अनकही…

कथेतर

महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

भाग-दो— 'शिक्षक' बनने की प्रक्रिया में एक शिक्षक का संघर्ष...! यदि किसी माता-पिता को अपनी ऐसी किसी संतान, जिसपर उनकी सभी भावनाएँ, समस्त सपने और उनका भविष्य भी टिका हो, जिसका उन्होंने बड़े ही जतन से अपने मन और अपनी भावनाओं की पूरी ताक़त लगाकर पालन-पोषण किया हो, उसके लिए अपनी सारी उम्र लगाईं हो; उसी संतान के बड़े हो जाने के बाद अचानक उसे ‘किसी’ के द्वारा ‘मृत’ घोषित कर दिया जाए, और उस…

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विनय शाह : लोकतान्त्रिक प्रयोगों का अध्यापक

भाग-दो :- कक्षा में बैठने की व्यवस्था भी लोकतान्त्रिक हो विद्यालय वह स्थान है, जहाँ ज्ञान की न तो कोई सीमा होती है, न कोई दायरा; वहाँ न सीखने के लिए कोई भी चीज बेकार समझकर नज़रंदाज़ की जा सकती है, न की जानी चाहिए | और इसलिए जिन अध्यापकों ने यह तय कर लिया हो कि उनका एक ही लक्ष्य है— समाज को सहिष्णु बनाते हुए उसके भीतर सह-अस्तित्व की भावना को उन सभी…

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संदीप रावत : भाषा के माध्यम से शिक्षा की उपासना में संलग्न एक अध्यापक

भाग-दो :-  बच्चे, भाषा और शिक्षा एक समृद्ध एवं सक्षम भाषा किसी व्यक्ति, समाज एवं देश के जीवन में क्यों आवश्यक है? साथ ही, अपनी भाषा को समय के साथ निरंतर समृद्ध एवं सक्षम बनाते चलना भी क्यों आवश्यक है? इन प्रश्नों का उत्तर इस तथ्य में छिपा है कि कोई भाषा किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के जीवन में क्या भूमिका निभा सकती है या निभाती है? इसे समझना हो तो भाषाओँ के…

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अंजली डुडेजा : विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

भाग दो : पढ़ना सबसे अधिक ज़रूरी है ! हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, अर्थात् पचासी फ़ीसदी से भी अधिक, समाज का वह भाग है, जो वास्तविक धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन के मौलिक अधिकारों से भी वंचित है | उसके लिए तथाकथित मुख्यधारा के समाज, अर्थात् समाज के क़रीब पंद्रह फ़ीसदी हिस्से द्वारा सदियों पहले उस बहुसंख्य आबादी के जीवन-यापन के लिए कार्यों के कुछ निश्चित दायरे भी…

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