सरकारी विद्यालयों में एक बहुत ख़ास बात देखी जा सकती है; वहाँ पिछले दो दशकों से नवाचारों एवं शैक्षणिक-गतिविधियों से संबंधित शिक्षकों की विविध प्रकार की ट्रेनिंग की बाढ़-सी आई हुई है, जिससे न केवल अधिकांश शिक्षक असहज होते रहे हैं, बल्कि कंफ्यूज और असहमत भी हो रहे हैं | इसमें वे शिक्षक भी शामिल हैं, जो पूरी ईमानदारी से अपने शिक्षकीय कर्तव्यों का पालन करते हैं, बिना अपने विद्यार्थियों से किसी भी तरह का भेदभाव किए; इसलिए यह समझना बहुत ज़रूरी हो चुका है कि ऐसा क्यों है !
इन असहजताओं, दुविधाओं और कन्फ्यूजन को मैं अपनी आँखों से बहुत क़रीब से देखती रही हूँ और शिक्षकों की आपसी बातचीत में सुनती रही हूँ, जब मैं अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन नामक एक संस्था के साथ काम करते हुए इन ट्रेनिंग्स में शामिल होती थी | ट्रेनिंग के संबंध में अध्यापकों की धारणाओं, आरोपों, नाराज़गियों को देखना और उसके समानांतर उनको दी जा रही विभिन्न ट्रेनिंग के बीच की परस्पर दूरियों को भी देखना— जैसे ‘आईएसटीटी’ (ISTT-In Service Teacher’s Training), ‘निष्ठा’ (NISHTHA-National Initiative for School Heads and Teachers’ Holistic Advancement) आदि; ये सब अपने-आप ही बहुत-सी कहानियाँ कहते रहे हैं | हालाँकि इससे संबंधित सैद्धांतिक अनुभव तब भी मुझे मिले थे, जब मैं दिल्ली में रहते हुए शिक्षण-जगत से जुड़ी और वहां विश्वविद्यालयों, बुद्धिजीवियों, समाजशास्त्रियों आदि की बहसों से लेकर समाज में प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों के अनुभवों को देखने-समझने, सुनने-गुनने के मौक़े मिले | इसलिए प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि भारत के शिक्षा-जगत की मंशाओं, सरकारों की नीयतों, समाज के वर्चस्ववादी-वर्गों की किसी कूटयोजनाओं पर ये आरोप या उनके संबंध में ये धारणाएँ बेबुनियाद भी नहीं हैं…
इस धारणा के संबंध में सटीक समझ तब बननी शुरू हुई, जब उक्त संस्था में काम करने के दौरान (2018 से 2020 के दौरान) शिक्षकों की ट्रेनिंग में शामिल होने के ठीक-ठीक एवं पर्याप्त मौक़े मिले | तब तो जो अनुभव हासिल हुए, उन्होंने मुझे भारत में सरकारी-विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता और उसके भविष्य के प्रति चिंतित कर दिया और साथ ही उन समाजों के बच्चों के भविष्य के प्रति भी, जो सरकारी-विद्यालयों में शिक्षा हासिल करने के लिए भेजे जा रहे हैं |
सन्दर्भदाताओं (रिसोर्स पर्सन) द्वारा अध्यापकों को दी जा रही ट्रेनिंग के दौरान भी उन सन्दर्भदाताओं के स्वयं अपने मन में अस्पष्टता, असमंजसपूर्ण मनःस्थितियाँ स्पष्ट दिखाई देती | और सबसे बड़ी बात, वे कभी यह नहीं बता पाते थे कि पिछली ट्रेनिंग से तत्कालीन ट्रेनिंग का क्या संबंध है; यानी दोनों ट्रेनिंग्स के बीच क्या तारतम्यता और सह-संबंध है | मैं समझती हूँ कि शायद उनको भी इसके बारे में कुछ विशेष मालूम नहीं होता था; क्योंकि मैं, बतौर सन्दर्भदाता, जब भी इस विषय में उनसे बातचीत करती थी, तब वही अस्पष्टता, असमंजसपूर्ण मनःस्थिति, नाराज़गी, कोफ़्त, और हाँ इन ट्रेनिंग्स के प्रति उनकी असहमति भी, उन सन्दर्भदाताओं के मन और भाषा में साफ़-साफ़ दिखाई देती थी, जो शिक्षकों के मन और बातचीत में होती थी | हो सकता है कि ये ट्रेनिंग आपस में संबंधित हों, लेकिन वे कैसे परस्पर संबंधित हैं, इसको किसी भी ट्रेनिंग में नहीं समझाया जाता है; क्योंकि मैंने एक भी ट्रेनिंग में किसी भी सुगमकर्ता (Resource Person) को यह बात समझाते-बताते नहीं देखा कि कैसे तत्कालीन ट्रेनिंग उन्हें दी गई पिछली ट्रेनिंग की ही अगली कड़ी के रूप में दी जा रही है |
यदि अपने अनुभवों की बात कहूँ, तो मैंने भी यह स्पष्ट महसूस किए, और हर बार, कि दरअसल हर ट्रेनिंग दूसरी ट्रेनिंग से एक अलग बात कह रही सी लगती है, अलग तरीक़ों की वक़ालत कर रही सी प्रतीत होती है, उनका आपस में कोई संबंध नहीं दिखता | इसलिए अध्यापकों की ऐसी मनःस्थिति एकदम स्वाभाविक है | और यह एक-दो बार की बात नहीं, बल्कि प्रत्येक ट्रेनिंग में मैंने यही देखी | इसलिए अध्यापकों की नाराज़गी (कम से कम अपने विद्यार्थियों के पढ़ने-लिखने को गंभीरता से लेनेवाले अध्यापक), असहमति और उकताहटों को समझा जा सकता है |
शिक्षक अक्सर कहते हैं…
- “…जब हम एक ट्रेनिंग पूरी करके स्कूलों में उसको क्रियान्वित करने जाते हैं, तब तक दूसरी ट्रेनिंग की सूचना आ जाती है’…”
- “…कई बार हमें समझ में नहीं आता कि इन ट्रेनिंग्स का स्कूल में कैसे प्रयोग किया जाय, क्योंकि इस बारे में हमें कभी कुछ नहीं बताया जाता है’…”
- “…कई बार इन ट्रेनिंग्स का हमारे विद्यालयों की वास्तविक समस्याओं से कोई सीधा संबंध तक नहीं होता है, फ़िर भी हमारा बहुत-सा समय इन ट्रेनिंग्स में बर्बाद हो जाता है’…”
- “…इससे अच्छा तो यही होता कि हमें विद्यालय में रहने देते, कम से कम हम बच्चों को कुछ तो पढ़ा ही लेते, यहाँ आकर हमारा भी समय बर्बाद होता है और स्कूल में बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित होती है’…!”
लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है? क्यों शिक्षकों को विद्यालयों में रहकर बच्चों की पढ़ाई को आगे बढ़ाने नहीं दिया जा रहा है? अन्य सैकड़ों विद्यालयी-गतिविधियों को देखें, जहाँ जब-तब कोई न कोई सांस्कृतिक-कार्यक्रम, किसी-न-किसी की जयंती, कोई-न-कोई प्रतियोगिता आदि के नाम पर बच्चों की पढ़ाई ठप्प पड़ जाती है ! तो सवाल उठता ही है कि बच्चों की पढ़ाई, जोकि सबसे अधिक ज़रूरी है, उसी को रोककर जयंतियाँ, सांस्कृतिक-कार्यक्रम, प्रतियोगिताएँ क्यों आयोजित की जा रही हैं?
क्या शिक्षा-मंत्रालय और सरकारें ऐसा जानबूझकर कर रही हैं? यदि हाँ, तो क्यों और किसके कहने से? बच्चों की पढ़ाई बाधित करके वे क्या हासिल करना चाहती हैं? इसे समझने के लिए एक-दो सत्य-घटनाओं का ज़िक्र ज़रूरी है |
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में ही कार्य करने के दौरान एक दिन जब मैं एक विद्यालय में बच्चों से उनके सपनों (भविष्य के लिए सपने, जिसे व्यक्ति खुली आँखों और सचेत मन से बुनता है) पर बातचीत कर रही थी और बच्चे अपने एक-से-बढ़कर एक सपनों के बारे में बता रहे थे, तब मेरे सहकर्मी, जो ‘हिन्दू-समाज’ के शीर्षस्थ तबके से थे और उस समय मेरे साथ ही वहाँ मौजूद थे, ने बच्चों को बहुत बुरी तरह से न केवल डाँटकर चुप करवा दिया, बल्कि अपने कुतर्कों से बच्चों के सपनों को अनावश्यक भी साबित किया और अंत में उनको हिदायत दी— “तुमलोगों को केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने का ही सपना देखना चाहिए, क्योंकि वही सबसे ज़रूरी है” !
जब वहाँ से निकलने के बाद मैंने उनसे इस बारे में पूछा, तो उनका कहना था कि ‘ये बच्चे जिस समाज (वंचित-समाज) के हैं, उस समाज के भी बच्चे यदि हमारे समाज (वर्चस्ववादी ‘सवर्ण-समाज’) जैसे सपने देखेंगें, तो फ़िर हमारे बच्चों के लिए ख़तरा बन जाएँगें; इसलिए बेहतर होगा कि वे केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने का ही सपना देखें…’!
दूसरी घटना दिल्ली के एक सरकारी विद्यालय की है…| उक्त विद्यालय के अध्यापक (जिनका उपनाम ‘भारद्वाज’ था) अक्सर अपने विद्यार्थियों को अपने जूते पहने पैरों से बुरी तरह से मारते हुए कहते देखे जाते थे— “सालों ! हराम की पैदाइशों ! यहाँ क्यों मरने चले आते हो…? कुतिया की औलादों, यदि तुमलोग भी पढ़-लिख जाओगे तो हमारे घरों से कूड़ा कौन उठाएगा, हमारा टट्टी-पाखाना कौन साफ़ करेगा? तुम्हारा मरा हुआ दादा आएगा क्या…? कमीनों, क्यों नहीं तुमलोग स्कूल आने की बजाय अपनी माँ के…में घुस जाते हो…?!”
इस तरह की बातें मैंने इससे पहले भी सैकड़ों लोगों से सुनी थी और इसके बाद भी सैकड़ों लोगों से सुनती रही हूँ; देवताओं की नगरी ‘उत्तराखंड’ और पौड़ी में भी…! कल्याणकारी समाज-सेवी संस्थाओं के ‘समाज-सेवकों’ के मुखों से भी, सरकारी विद्यालयों में शिक्षा को समर्पित अध्यापकों के मुखों से भी…!
तो क्या वंचित-वर्गों के बच्चों का इक्का-दुक्का संख्या में भी थोड़ी-सी शिक्षा हासिल करना दबंग-वर्गों को पसंद नहीं आया? वंचित-तबक़े वैसे ही शिक्षा और तमाम अवसरों से वंचित हैं; आज भी ! लेकिन अपनी ग़रीबी एवं तमाम अवरोधों के बावजूद चंद लोगों ने कुछ हद तक शिक्षा हासिल की और एकाध अच्छे पदों तक पहुँच सके | यह अब प्रमाणित सत्य है कि वंचितों की ये थोड़ी-सी शिक्षा और अच्छे पदों पर पहुँचना भी दबंगों के आँखों की किरकिरी बन गई है | इसी स्थिति को मिटाने के लिए दबंग वर्गों ने कमर कस ली है और नए-नए उपाय किए जा रहे हैं, जिससे समस्या की जड़ों को ही काटा जा सके— अर्थात् शिक्षा तक वंचितों की पहुँच को पूरी तरह रोक देना |
इसी कारण सरकारी-विद्यालयों में वे सारे काम किए जा रहे हैं और वे सारे उपाय अपनाए जा रहे हैं, जिनसे सरकारी विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों की पढ़ाई बाधित हो सके…! क्योंकि इन विद्यालयों में अब ग़रीबी के कारण केवल वंचित-वर्गों के बच्चे ही रह गए हैं; एक्का-दुक्का ही वर्चस्ववादी सवर्ण-समाज के होंगें…
क्या इसी समस्या के निराकरण के लिए पिछले कुछ दशकों में सरकारी-विद्यालयों में ऐसी दर्ज़नों गतिविधियाँ नहीं शुरू की गई हैं, जिससे बच्चों की पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित होती रहे…? और क्या इसी कारण इनको करना विद्यालयों के लिए अनिवार्य नहीं बनाया गया है, ताकि किसी भी हाल में बच्चे पढ़ न सकें; चाहे वे बेतहाशा सांस्कृतिक-कार्यक्रम हों, या छुटभैये नेताओं और ‘महानुभावों’ की जयंतियाँ मनाना अथवा, ‘सपनों की उड़ान’, ‘मतदाता जागरूकता’, बेतहाशा विभिन्न प्रतियोगिताएँ जैसे कार्यक्रमों का अनिवार्य आयोजन…? और क्या इसीलिए बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की गंभीर कोशिश करनेवाले अध्यापकों को भी पढ़ाने से रोकने के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि अध्यापक अपने विद्यालयों में बच्चों से ये सभी गतिविधियाँ करवाते हुए उसकी फ़ोटो आदि अपने शिक्षा-विभाग को भेजें…???
पौड़ी में उक्त संस्था में रहते हुए और उत्तराखंड के विभिन्न इलाक़ों में स्कूलों के भीतर की स्थिति देखते हुए, ट्रेनिंग के दौरान अध्यापकों की बातचीत के दौरान आनेवाले तथ्यों के आलोक में मैंने यही बात बार-बार प्रमाणित होते हुए देखी | और आज जब देश, समाज, राजनीति आदि की दिशा को देखती हूँ और उसी के बरक्स शिक्षा-मंत्रालय के कार्यों को देखने-समझने, उनपर चिंतन-मनन करने की कोशिशें करती हूँ, तो उस ‘सत्य’ का वीभत्स रूप बार-बार सामने आकर उस छुपी कटु-कथा को उजागर करने लगता है…
ऐसा लगता है कि यहाँ केवल ‘दाल में कुछ काला’ ही नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है…! निकट भविष्य में सरकारों, शिक्षा-विभागों, समाज के दबंग-वर्गों की इन ‘कोशिशों’ के नतीजे भी भयानक रूप से सामने आने वाले हैं, जिसकी शुरुआत हो चुकी है…
दबंग-वर्गों के ग़रीब बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए पहले से ही नवोदय-विद्यालयों, केन्द्रीय-विद्यालयों आदि की व्यवस्था है, जिसको ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालय’ के रूप में और विस्तार दिया जा रहा है | इन विद्यालयों में केवल खानापूर्ति भर के लिए वंचित-बच्चों को प्रवेश मिलता है और उनको भी समय-समय पर विविध तरीक़ों से बाहर का रास्ता दिखाकर बाहर कर ही दिया जाता है | और अब वह दिन भी दूर नहीं, जब यहाँ भी बहुत जल्दी ही कोई-न-कोई परोक्ष व्यवस्था करके इन बच्चों का यहाँ प्रवेश तक वर्जित हो जाएगा…और वंचित समाज बहुत जल्द ‘शिक्षा के मौलिक अधिकार’ से पूरी तरह से वंचित कर दिया जाएगा…
उनको शिक्षा से पूर्णतः वंचित करने के लिए दूरगामी योजना के तहत सरकारी विद्यालयों का निजीकरण तो आरम्भ हो ही चुका है |
लेकिन कृपया कोई वंचित-समाज की नींद में ख़लल न डाले, वह निश्चिन्त सो रहा है…
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
अब तक का सबसे बेहतरीन आलेख. मैंने देखा कि किसी भी ट्रेनिंग लेने के बाद किसी भी अध्यापक में कोई परिवर्तन नहीं आए. उसकी जैसी सोच है, पढ़ाने का जैसा तरीका है, स्कूली आचरण जैसा है, वह कभी बदला ही नहीं. ट्रेनिंग देने का तात्पर्य है कि शिक्षक के विचारों में परिवर्तन आए, वह छात्रों के साथ परिवार के सदस्य जैसा आचरण करे. उसको सही गायड करे.
बहुत सारी बातें हैं.
आप ने बिल्कुल सही मुद्दा उठाया है।दिवस मनाने की बाढ़,फिर प्रमाण स्वरूप फोटो/वीडियो भेजना इस सब में व्यर्थ होता समय ,हैंग होते हमारे फोन विभाग हमारी व्यथा समझ नहीं पा रहा।
हमारे प्रशिक्षण भी उद्वेलित कर देते हैं ।जब हम सीखे हुए को अपने बच्चोंके साथ प्रयोग नहीं कर सकते या कहें कि उनके स्तर के अनुसार प्रयुक्त नहीं करते होते तो शायद कभी संतुष्टि नहीं हो सकती।
बहुत खूब लिखा है आपने