बतकही

बातें कही-अनकही…

अपने कई आलेखों में मैंने यह बात कही है, कि क्यों मैं एक अध्यापक के काम को, पूरे अध्यापक समाज के काम को किसी भी प्रोफ़ेशन से कहीं अधिक महत्वपूर्व एवं उत्तरदायित्वपूर्ण मानती हूँ…| मेरा स्पष्ट मत है, कि यदि किसी डॉक्टर से अपने प्रोफ़ेशन के दौरान ग़लती होती है, तो उससे केवल उतने ही लोग प्रभावित होते हैं, जितने लोगों का ईलाज उस डॉक्टर द्वारा किया गया है | साथ ही, अपनी उन ग़लतियों से सीखकर वह अपनी भूल और ग़लती को सुधार सकता है | एक इंजीनियर या दूसरे अन्य प्रोफ़ेशन के साथ भी प्रायः यही बात है | लेकिन जब एक अध्यापक अपने अध्यापन के दौरान ग़लतियाँ करता है, तो उसका असर सबसे पहले तो तात्कालिक रूप से सामने आता ही नहीं है, बल्कि उसका वास्तविक प्रभाव तब दिखता है, जब एक अच्छा-ख़ासा समय बीत चुका होता है | इस दौरान वह अनेक पीढ़ियों को ‘पढ़ा’ चुका होता है, जिसमें बच्चों की अच्छी-ख़ासी संख्या होती है | दूसरे, तब उसके पास पीछे मुड़कर अपनी ग़लतियों को सुधारने का अवसर या विकल्प भी नहीं होता है | तीसरे उसकी उन ग़लतियों का खामियाज़ा उन बच्चों को ही नहीं बल्कि उसकी अगली पीढ़ी को प्रत्यक्ष रूप से और उसके बाद अनेक पीढ़ियों को परोक्ष रूप से भुगतना पड़ता है |

यहीं पर दो प्रश्नों पर विचार बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं | पहला, यदि अध्यापकों का एक वर्ग सकारात्मक उद्देश्यों को अपने सामने रखकर, सम्पूर्ण समाज में समानता, भाईचारा, परस्पर-सौहार्द, सह-अस्तित्व की भावना जैसे मानवीय एवं संवैधानिक मूल्यों की स्थापना के लिए काम करे; वह न्याय-संगत एवं तर्क-संगत व्यवस्था की स्थापना के लिए समर्पण-भाव से प्रयास करने को प्रतिबद्ध हो जाय, तब उस समाज की सूरत क्या होगी…? और इसके विपरीत, यदि अध्यापकों का एक बड़ा भाग किसी निश्चित छुपे हुए ख़ास एजेंडे को लेकर और उसके लिए किसी नकारात्मक उद्देश्य को सामने रखकर किसी विशिष्ट वर्ग के वर्चस्व की स्थापना के लिए यह काम व्यापक पैमाने पर कर रहा हो, तब…? …तब क्या होगा, या क्या हो सकता है…?

भारत जब से स्वाधीन हुआ है और लोकतान्त्रिक-व्यवस्था अपनाने हुए समानता, मानवता, सौहार्द, भाईचारा जैसे मूल्यों की स्थापना के लिए संविधान को अपना मार्गदर्शक बनाया है, ‘विधि के शासन’ को स्वीकार करते हुए समाज के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वर्ग के विकास के लिए काम करने की शुरुआत की है; तब से पारंपरिक-व्यवस्थाओं के पोषक और समर्थक ‘वर्चस्ववादी’ सामाजिक-समूहों ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के उद्देश्य से लोकतान्त्रिक-व्यवस्थाओं और संवैधानिक-व्यवस्थाओं की हत्या करने के प्रयासों में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है और उन्हें नष्ट करने में अपनी पर्याप्त तत्परता दिखाई है |

भारत-गणतंत्र ने सभी लोगों के समान विकास के उद्देश्य से उसके मूल या जड़ —शिक्षा— को वरीयता दी | क्योंकि यह एक स्थापित सत्य है, कि शिक्षा ही सभी असमानताओं, विषमताओं, अन्याय, अत्याचार, कुरीतियों, बौद्धिक-अन्धकार आदि से लड़ने की शक्ति, सामर्थ्य, समझ और मार्ग देती है | इसलिए दुनिया के अनेक देशों सहित भारत ने भी स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद शिक्षा को प्रमुखता और वरीयता प्रदान की…

…भारत की जातिवादी एवं ब्राह्मणवादी ताकतें सदियों से यह बात ख़ूब अच्छी तरह समझती रही हैं, कि यदि वंचित तबकों को पढ़ने की छूट, अवसर और अधिकार दे दिए गए, तो वह दिन दूर नहीं, जब सत्ता, शक्ति, संपत्ति, अधिकार आदि प्रत्येक चीज पर वे अपना हक़ माँगने लगेंगें | साथ ही शिक्षा के कारण मिली दृष्टि के बलबूते उन्हें यह भी समझ में आने लगेगा, कि ‘ब्राहमणवादियों’ द्वारा किस प्रकार धर्म, कर्मकाण्ड, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, कर्मफल, भाग्य, जटिल जातीय-संरचना आदि के माध्यम से उनको सहस्त्राब्दियों तक मूर्ख बनाते हुए उन्हें न्यूनतम मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा गया है | …और आज़ादी के बाद पिछले पचास सालों के इतिहास ने शिक्षा के इस पक्ष एयर उसकी शक्ति के इस ‘सत्य’ को स्थापित भी कर दिया है |

…तब पिछली सदी के अंतिम दशकों में वे ब्राह्मणवादी शक्तियाँ नए सिरे से सचेत और सक्रिय हुईं | उन्होंने सरकारी नीतियों का अनुशीलन किया, उनका अध्ययन किया, उनमें ऐसे छोटे-छोटे छिद्र ढूँढने शुरू किए, जिनके भीतर से अपने षड्यंत्रों, स्वार्थों एवं मक्कारियों के विशाल हाथी को इत्मिनान से पार कराया जा सके | उन शक्तियों को वे तीनों मुख्य आयाम नज़र आए, जिनके माध्यम से वंचित तबके पिछले चार-पाँच दशकों से दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे, वे आयाम थे —नौकरियाँ/रोज़गार, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ एवं शिक्षा |

ठीक-ठाक मात्रा में उपलब्ध नौकरियों के माध्यम से वे वंचित-वर्ग आर्थिक रूप से सक्षम होना शुरू हो रहे थे और अब उनकी आर्थिक निर्भरता गाँव में पंडितजी, जमींदार-साहब और साहूकार महाशय के ऊपर से कम होने लगी | हालाँकि यह बहुत कम मात्रा में हो रहा था, लेकिन तब भी परिवर्तन की शुरुआत इस अल्प-मात्रा ने ही कर दी | दूसरे, सबके लिए उपलब्ध सरकारी चिकित्सा-व्यवस्था के कारण वंचित-वर्गों की जीवन-प्रत्याशा (अर्थात् बीमारियों आदि के कारण मौतों से लड़कर जीवन जी सकने की क्षमता) बढ़ गई, जिसके बड़े दूरगामी प्रभाव इन वर्गों की मनोवृत्तियों पर पड़े, हालाँकि इसकी भी मात्रा बहुत कम थी, लेकिन तब भी लोगों की आयु बढ़ी और इससे बच्चे के मामले में उनकी सोच बदली | तीसरे, सबके लिए उपलब्ध अपेक्षाकृत गुणवत्तापूर्ण निःशुल्क सरकारी शिक्षा ने वंचितों में भी कम से कम तीन शिक्षित पीढियाँ तैयार करने में सफ़लता प्राप्त की, हालाँकि यह कुल आबादी का बहुत छोटा-सा हिस्सा ही था, लेकिन परिवर्तन की शुरुआत के लिए यह भी काफ़ी था |

इस आलेख में हम शिक्षा के संबंध में बात करेंगे…शेष दो पर बातचीत फिर कभी…

…तो शिक्षा को लेकर ‘सवर्ण-ब्राह्मणीय-मानसिकता’ से संचालित वर्गों (जिनकी कुल आबादी में हिस्सेदारी 15% से अधिक नहीं है, उसमें भी यदि इन समुदायों की स्त्रियों को भी अलग कर दें, जिनको वंचित वर्गों की ही भाँति कोई भी अधिकार नहीं था— संपत्ति, सत्ता, मानवीय-अधिकार, किसी भी मामले में नहीं, तो इन सवर्ण-पुरुषों की कुल आबादी मात्र 7.5% ही रह जाती है, और यही 7.5% आबादी देश की कुल 92.5% आबादी पर शासन करने की इच्छुक रही है| एक बात और, कि इस वर्ग के भी सभी लोग एक ही तरीक़े से नहीं सोचते, बल्कि वे प्रगतिशील ढंग से, मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए समाज के प्रत्येक व्यक्ति के विषय में चिंता करते हैं | तब ‘वर्चस्ववादी मानसिकता’ वाले लोगों की संख्या और भी कम हो जाती है) के अनेक लोगों को यह पसंद नहीं आया, कि जिन अधिकारों, संपत्तियों, संसाधनों, सत्ता आदि का भोग अब तक वे अकेले करते आ रहे थे, अब उसमें समाज के वे लोग भी भागीदारी करें, जो कल तक उनके सामने आँख उठाकर बात भी करने की हिम्मत नहीं रखते थे |

जाहिर है, उनके अहंभाव और श्रेष्ठता-भाव को गहरी चोट पहुँची थी, जब हमारे देश में ‘संविधान की व्यवस्था’ और ‘विधि का शासन’ (रूल ऑफ़ लॉ) स्थापित हुआ और वे अहंकारी सवर्ण-पुरुष अपनी सर्वोच्च सत्ता-भूमि से उतारकर समाज के सभी लोगों —समस्त महिलाओं, दलितों-वंचितों, आदिवासियों, मजदूरों-किसानों, सवर्ण-समाज के ग़रीबों— के समकक्ष लाकर खड़े कर दिए गए | प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक ही थी, साथ में अपनी पुरानी ‘सर्वोच्चता’ को प्राप्त करने के लिए ऐसे उपाय करने की छटपटाहट उनमें होनी भी स्वाभाविक ही थी, जिनके परिणाम स्थाई हों, दीर्घकालिक हों, अति-प्रभावशाली हों…

…और इसके लिए उनकी तैयारी एवं यह संघर्ष भी उसी दिन से शुरू हो गए, जिस दिन से भारत के वंचितों ने अपने हक़ की आवाज़ बुलंद की | स्वाधीनता के बाद शिक्षा के क्षेत्र में इस वर्ग द्वारा अपनी सर्वोच्चता-स्थापना के लिए पिछले दरवाज़ों से जो कुत्सित उपाय एवं घृणित काम किए गए, वे बहु-स्तरीय थे —अर्थात् विद्यालयी-शिक्षा, उच्च-शिक्षा, सरकारी मशीनरी, समाज, शिक्षा-विभाग एवं शिक्षा के लिए काम करती स्वयंसेवी-संस्थाओं…आदि के स्तर पर…|

उनमें से कुछ बानगी यहाँ विचार के लिए प्रस्तुत हैं…! आँखों-देखी…! मात्र उदाहरण रूप में…! क्योंकि ऐसे हज़ारों-लाखों उदाहरण भारत में हर रोज निर्मित किए जा रहे हैं, जिन्हें कोई भी संवेदनशील व्यक्ति स्वयं देख और समझ सकता है | यहाँ मात्र कुछेक क्षेत्रों (विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा, विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शिक्षकों के साथ-साथ अन्य कर्मचारियों एवं अधिकारियों द्वारा, समाज-सेवी संस्थाओं द्वारा…आदि) के माध्यम से देश के भीतर ‘वर्चस्ववादी-तबकों’ द्वारा चलाई जा रही उपरोक्त सुनियोजित एवं सायास गतिविधियों की तीक्ष्णता एवं उसके गंभीर परिणामों को समझा जा सकता है | ये उदाहरण भी मात्र ‘उदाहरण-भर’ ही हैं, पूरी तस्वीर नहीं ——  

केस — एक :—

साल 1987, बोकारो इस्पात नगर, तत्कालीन बिहार (वर्तमान झारखण्ड) का एक सरकारी विद्यालय

एक प्राथमिक पाठशाला…! कक्षा एक से छः तक की…! एक लड़की …’अ’ नाम दे देते हैं उसे… तो ‘अ’ का उक्त सरकारी विद्यालय में कक्षा-4 में नामांकन हुआ, जब वह 9 साल की थी और जो दलित-समाज की थी | स्कूल में उसका पहला साल काफ़ी अच्छा बीता और उसने न केवल हँसते-खेलते वह कक्षा पास की, बल्कि विद्यालय एवं घर में मिले अनुकूल वातावरण ने उसके भीतर पढ़ने की इतनी ललक और भूख पैदा कर दी, कि वह आगे चलकर किताबों से और पढ़ने से पागलों की तरह प्यार करने लगी, उसकी दुनिया में खेल-खिलौने नहीं बल्कि क़िताबे थी… केवल क़िताबें…!

समस्या शुरू होती है अगली कक्षा यानी साल 1987 से, जब उसके क्लास टीचर नियुक्त होते हैं, एक ब्राह्मण अध्यापक, जो उस कक्षा को अंग्रेज़ी पढ़ाते थे | मस्तक पर अंकित रोली का लम्बा टीका और सिर के ऊपर लम्बी शिखा यह घोषणा करती थी, कि वे ‘सनातन-समाज’ के ‘बौद्धिक-वर्ग’, अर्थात् ब्राह्मण-वर्ग, से संबंधित थे, क्योंकि उधर के इलाक़े में शिखा और रोली का लम्बा टीका उसी समाज की निश्चित पहचान है |

‘सेल’ (SAIL-Steel Authority of India Limited) के नियमानुसार एक निश्चित वार्षिक आय से कम प्राप्त करने वाले प्लांट के कर्मचारियों के बच्चों को वार्षिक रु. 50/- की आर्थिक सहायता दी जाती थी, बच्चों की स्कूल की क़िताबें, कॉपियाँ, पेन-पेंसिल, स्कूल यूनिफॉर्म, जूते आदि ख़रीदने के लिए, क्योंकि तब स्कूल की फ़ीस को छोड़कर बच्चों की पढ़ाई का शेष ख़र्च अभिभावकों को ही उठाना पड़ता था, यूनिफॉर्म से लेकर क़िताब-कॉपियों तक | हालाँकि यह राशि 1986-87 के उस दौर में भी कितनी मददगार होती होगी, सोचने की बात है, फ़िर भी…

…तो वंचित समुदाय (उस समय दलित और आदिवासी ही वंचित वर्गों में शामिल थे) के ग़रीब बच्चों की मदद के लिए विद्यालय ही अपने विद्यार्थियों का विवरण सेल-प्रबंधन के पास भेजते थे | इसी उद्देश्य से सत्र के शुरूआती दिनों में ही एक दिन उक्त शिखाधारी एवं तिलकधारी अध्यापक महोदय उक्त कक्षा के सभी 40-45 बच्चों से उनकी जाति का विवरण उनके अभिभावकों से लिखवाकर मँगवाते हैं | इस प्रकार उन्हें पता चल जाता है, कि कक्षा का कौन विद्यार्थी किस सामाजिक-समुदाय से है, जिसमें बालिका ‘अ’ भी शामिल थी |

अब एक नया खेल शुरू होता है कक्षा में…! अध्यापक महोदय प्रतिदिन कक्षा में आते ही दलित एवं आदिवासी समुदाय के सभी बच्चों, जिनकी संख्या लगभग 8-10 थी, को उनकी जगह पर खड़ा कर देते और वे बच्चे उनकी कक्षा में पूरे समय खड़े ही रहते | वे हर दिन अपने साथ पाँच–छः किसी झाड़ आदि की मोटी-मोटी कच्ची-हरी टहनियाँ लेकर आते, छड़ी के रूप में प्रयोग करने के लिए और अपने पास ही रख लेते | बच्चों की हाज़िरी लेने से लेकर पढ़ाने के दौरान, कभी बच्चों की एकदम छोटी-मोटी ग़लती पर, तो कभी बिना किसी ग़लती के भी, उन सभी खड़े हुए बच्चों को बात-बात पर पीटते | पीटने का यह काम पूरे समय चलता, जब तक वे कक्षा में रहते और सारी छड़ियाँ टूट नहीं जातीं | कई बार, पीटने का यह काम सामान्य वर्ग के बच्चों, विशेष रूप से शिखाधारी बच्चों, द्वारा करवाया जाता |

जब शिखाधारी अध्यापक से ‘खड़े’ बच्चों को मार पड़ती, तो उन बच्चों की कोमल हथेलियों में लाल-नीली धारियाँ बनतीं, लेकिन जब यह मार शरीर के किसी अन्य हिस्से पर पड़ती, तो कई बार कच्ची-हरी छड़ी बच्चों के शरीर की कोमल त्वचा के हिस्से अपने साथ खींच लेती और वहाँ से खून की नन्हीं-नन्हीं बूँदे प्रायः ही झाँकने लगती थीं…! शायद इसी को मुहावरे में ‘चमड़ी उधेड़ना’ कहते हैं…!

…वैसे…चमड़े के जूते-चप्पल बनाने वाली अच्छी कम्पनियाँ इस मुहावरे को अपने व्यवसाय में भरपूर प्रयोग करती हैं…आप तो जानते ही होंगे…!

नामी कम्पनियाँ सबसे अच्छी क्वालिटी के और बेहद महँगे चमड़े के जूते-चप्पल, जैकेट वैगेरह बनाने के लिए जिस प्रकार के चमड़े का प्रयोग करती हैं, आप अवश्य जानते होंगे, कि वह चमड़ा किस प्रकार प्राप्त किया जाता है…?

हमारे धर्म-प्राण देश में अत्यंत धार्मिक-प्रवृत्ति के लोगों की ‘फैक्ट्री’ में गाय-भैसों के बछड़े को विशेष रूप से बनी मशीनों के बीच खड़ा कर दिया जाता है | बछड़े के ऊपर, मशीन से ही खौलता पानी डाला जाता है और मशीन में लगी दर्जनों लकड़ी की थापियाँ (कुछ वैसी ही, जिनसे घरों में कपडे धोए जाते हैं) बछड़े के शरीर को चारों ओर से लगातार पीटती हैं… यानी ऊपर से लगातार गिरता हुआ खौलता पानी… और अगल-बगल से लगातार पड़ती हुई दर्ज़नों थापियाँ… और उसी के साथ मर्मान्तक पीड़ा से चीखने की कोशिश करता, किन्तु उसके मुँह को कसकर बाँधे जाने के कारण अपनी घुटती आवाज़ में माँ को पुकारता मरणासन्न नन्हा बछड़ा… और बेहतरीन जीवित चमड़ा प्रसिद्द कंपनी के हाथ में…!!!  

और बछड़ा…? …बछड़ा…आप समझ सकते हैं, कि अब वह किस स्थिति में होगा और उसे कहाँ भेजा जाता होगा…!!! …और यह काम करते हैं हमारे देश के धर्म-प्राण लोग… जो गऊ-माता और गोवंश की ‘रक्षा’ में अपने एवं दूसरों के प्राणों की आहुति ख़ुशी-ख़ुशी दे देते हैं आज… यह तो सभी जानते होंगे…? क्यों… है ना…?!!…

यह जानकारी किसी और ने नहीं, बल्कि एक बेहद मशहूर शू-कंपनी के शो-रूम के मालिक ने दी और उसने अपने शोरूम के कुछ छिपे-से भीतरी हिस्से में ले जाकर वे जूते भी दिखाए, जिसे छूने की हिम्मत हम नहीं कर पाए…! उसमें से चीखता और अपनी मृत्यु के समय माँ को पुकारता बछड़ा जो हमें अपनी निरीह आँखों से झाँकता दिखाई देता रहा… शायद ‘ज़िन्दा चमड़ी खींचना’ इसी को कहते हैं…

…तो उन शिखाधारी अध्यापक का वश चलता, तो उन बच्चों की ‘जीवित चमड़ी’ इसी तरह खींच लेते, जिसकी घोषणा —‘खड़े’ बच्चों के जीवित चमड़े खींचकर उससे अपने लिए जूते बनवाकर पहनने की घोषणा— वे अक्सर उन्हें पीटते हुए करते रहते थे | इस ‘चमड़ी खींच’ मार-पिटाई से अक्सर कक्षा में ‘खड़े’ बच्चों की चीख-पुकार और कोहराम मचा ही रहता था | बच्चों का अपनी चोट को सहलाते-सहलाते तड़पते हुए रोना, ‘शिखाधारी’ अध्यापक को बहुत संतोष देता था…|

तब तो विद्यालय में बच्चों की मार-पिटाई सामान्य दिनचर्या समझी जाती थी, इसलिए अगल-बगल की कक्षाओं के अध्यापक ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे | हाँ, कभी-कभी कुछ अधिक चीख-पुकार मचने पर वे ज़रूर कक्षा के बाहर आकर शिखाधारी अध्यापक से कहते,

  • “अरे …जी, बच्चों के रोने की आवाज़ दूर तक जा रही है…थोड़ा धीरे…!”

…अन्य ‘खड़े’ बच्चे क्या सोचते थे, यह तो मालूम नहीं, लेकिन लड़की ‘अ’ कभी अपने सहपाठियों द्वारा पीटे जाने पर अपमान से, तो कभी अध्यापक द्वारा पीटे जाने पर शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा से अक्सर बुख़ार में रहती | शारीरिक रूप से वैसे भी वह बेहद कमज़ोर थी और उसकी त्वचा बेहद संवेदनशील | साथ ही, उसका मन भी कुछ अधिक संवदनशील था | इसलिए इन मारों का असर उसके शरीर के साथ-साथ उसके मन पर भी बहुत गहरा होता था | नतीज़ा, वह अक्सर बुख़ार में होती, लेकिन उसने कभी अपने माता-पिता से इस प्रतिदिन की मार-पिटाई के बारे में नहीं बताया | पता नहीं संकोच के कारण या पढ़ाई छूट जाने के भय से, क्योंकि ऊपर बताया जा चुका है, कि उसे पढ़ना बेहद पसंद था, अंग्रेज़ी की उस कक्षा के अलावा शेष कक्षाएँ उसके अनुकूल थीं | शायद इसलिए, कि अन्य अध्यापकों के, उस कक्षा के क्लास टीचर न होने के कारण उनको उस कक्षा के बच्चों की जाति के बारे में जानकारी नहीं थी | वैसे भी वे कितनों की जानकारी रखते, उस विद्यालय में कम से कम 400-500 बच्चे थे |

शिखाधारी अध्यापक महोदय बच्चों को पीटते-डाँटते समय जो बातें कहते, उन बातों ने उनमें से अनेक बच्चों का मनोबल तोड़ दिया—

  • “…हरामजादो,…किसलिए यहाँ मरने चले आते हो…? तुम्हारे बाप-दादों ने भी कभी स्कूल की शक्ल देखी है…? …अम्बेडकर ने कह दिया, संविधान ने कह दिया… तो तुम हमारे बराबर हो गए…? अपनी औक़ात देखी है…? …आरक्षण मिल गया, तो हमारे सिर पर चढ़कर नाचोगे…? …स्सालों… हरिजन हो, तो हरिजन ही रहो, तुम्हारे बाप-दादों ने हमारी टट्टी खाई है, तुम्हें भी वही खाना होगा…! …”

‘खड़े’ बच्चे तो उनकी गालियों और दुत्कारों में बार-बार आने वाले इन चार शब्दों —‘संविधान’, ‘अम्बेडकर’, ‘आरक्षण’, ‘हरिजन’— के अभिप्राय और सन्दर्भ समझ ही नहीं पाते थे, ‘बैठे’ बच्चे (अर्थात् सामान्य-वर्गों के) भी उन शब्दों के विषय में कुछ नहीं जानते थे | केवल शिखाधारी अध्यापक की बातों के आधार पर उन्होंने अपने-अपने ‘अर्थ’ बनाए | ये शब्द कक्षा में इतनी बार बोले गए थे, कि इस प्रक्रिया के शुरू होने के पंद्रह-बीस दिन बीतते-बीतते लगभग सभी बच्चों की जुबान पर चढ़ गए, चढ़ ही नहीं गए, बल्कि ‘बैठे’ बच्चे, इन शब्दों का प्रयोग ‘खड़े’ बच्चों को छेड़ने के लिए करने लगे…

  • “…तुमको स्कूल में नहीं पढ़ना चाहिए, क्योंकि तुम तो पढ़ने के लायक ही नहीं हो…!”
  • “…ए… हमको भी दिखाओ ना…तुम्हारे बस्ते में ‘आरक्षण’…”
  • “…ए… हमको भी दिखाओ… कैसा होता है आरक्षण…”

‘बैठे’ बच्चे कई बार जबरदस्ती ‘खड़े’ बच्चों के बस्ते में ‘आरक्षण’ को ढूँढते, दोनों ही भोले थे, दोनों को ही लगता था, ‘आरक्षण’ कोई वस्तु है, जैसे उनकी क़िताबे, कॉपियाँ… 

  • “…छिः-छिः…तुम तो हरिजन हो… पढ़ना नहीं आता फ़िर भी स्कूल आते हो… हरिजन बड़े गंदे लोग होते हैं…”

भोले-भाले बच्चों को लगता था, कि जैसे चोरी करने वाले को ‘चोर’ कहते हैं, हत्या करने वाले को ‘हत्यारा’, झूठ बोलने वाले को ‘झूठा’; उसी तरह ‘हरिजन’ भी कुछ ऐसे ही किसी प्रकार के अपराध करने वाले को या शायद अनाधिकार स्कूल में पढ़ने के लिए आने वाले को कहते हैं…

  • “…छिः-छिः…ये तो पढ़ने के लायक ही नहीं …इसको तो स्कूल में ज़बरदस्ती दाखिला ‘अम्बेडकर’ ने या ‘संविधान’ ने करवाया है…”
  • “…छिः-छिः…तुम्हारे ‘संविधान अंकल’ तो बहुत बुरे हैं,…
  • “…अरे…इसके ‘अम्बेडकर’ अंकल’ तो इतने बुरे हैं, कि इनको पढ़ना नहीं आता था, फ़िर भी इनको स्कूल में भर्ती करा दिया…छिः-छिः-छिः…”

दरअसल ‘बैठे’ बच्चे और ‘खड़े’ बच्चे, दोनों ही दिन-दुनिया से अनजान भोले-भाले बच्चे थे, इसलिए वे नहीं जानते थे, कि ‘संविधान’ और ‘अम्बेडकर’ क्या हैं | उन सभी को लगता था, कि ये दोनों उन ‘खड़े’ बच्चों के कोई ‘ताकतवर’ और प्रभावशाली अंकल, रिश्तेदार या कोई परिचित हैं, जो उन सभी ‘खड़े’ बच्चों को जानते हैं | साथ ही उन सबके मन में यह बात भी ख़ूब अच्छी तरह से बैठ गई, कि ‘खड़े’ बच्चों के ये दोनों ‘अंकल’ बहुत बुरे और ग़लत काम करनेवाले ‘व्यक्ति’ हैं |

‘खड़े’ बच्चे अक्सर मायूस और उदास रहते, दूसरे विषयों को पढ़ते समय भी शारीरिक और मानसिक पीड़ा से उनकी आँखों से आँसू नहीं रुकते थे, जैसे उनकी चोट से खून की नन्हीं-नन्हीं बूँदें बाहर झाँकना नहीं रूकती थीं | उनके सिसकने-सुबकने की आवाज़ प्रायः ही कक्षा में फ़ैली ही रहती थी…! अन्य विषयों के अध्यापकों में से एकाध अवश्य कभी-कभी उन बच्चों में से एकाध के आँसू पोंछ देते, सांत्वना के कुछ शब्द कह देते और हिदायत दे देते, कि “बच्चो, ध्यान से तुमलोग पढ़ाई क्यों नहीं करते, ध्यान से पढ़ोगे, तो क्यों मार पड़ेगी…?” उन्हें कहाँ यह मालूम था, कि बच्चों को मार क्यों पड़ी है, उन्हें लगता जैसे पारंपरिक रूप से न पढ़नेवाले बच्चों को प्रायः कभी-कभी मार पड़ जाती है, वैसे ही इनको भी पड़ी है…

… शिखाधारी अध्यापक महोदय की कोशिश रंग लाने लगी, दो-तीन महीने बीतते-बीतते उन 8-10 ‘खड़े’ बच्चों में-से 3-4 ही स्कूल में शेष रह गए, जिनके माता-पिता अपने बच्चों को हर हाल में पढ़ाने के प्रति प्रतिबद्ध थे | शेष ने मार के डर से विद्यालय छोड़ दिया | और उन 3-4 में से भी ‘अ’ ही एकमात्र छात्रा बची थी, शेष 2-3 छात्र थे…

…अब बालिका ‘अ’ के बारे में…

बालिका ‘अ’ भी अपने अन्य ‘खड़े’ सहपाठियों की भाँति अपने स्कूल के बस्ते में अक्सर ‘आरक्षण’ को ढूँढती | उसने ‘आरक्षण’ को ढूँढने के चक्कर में अपने घर की एक-एक वस्तु को उलट-पलट डाले, जो उसके हाथ की पहुँच में थी, अपनी माँ से उन वस्तुओं के नाम पूछे, जिनके नाम वह नहीं जानती थी, इस उम्मीद में कि …शायद उनमें से ही कोई ‘आरक्षण’ हो…? उसकी माँ ने भी ‘बच्चे की सामान्य जिज्ञासा’ समझकर इस विशेष ख़ोज-बीन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, उसके माता-पिता कभी नहीं जान सके, कि उनकी बेटी ‘आरक्षण’ को ढूँढा करती है…

…वह अपने घर आनेवाले प्रत्येक मेहमान के नाम माँ से पूछती, इस आशा में, कि हो न हो, उन्हीं मेहमानों में ही कोई ‘संविधान’ और ‘अम्बेडकर’ हैं…! ‘अ’ के मन में यह बात गहरे बैठ गई, कि उसके पिता अपराधी हैं, उन्होंने ग़लत तरीक़े से उसको स्कूल में भेजा, जबकि वह ‘स्कूल में पढ़ने के लायक’ ही नहीं थी, इसलिए वह, उसके पिता, उसकी माँ और उसके साथ ही स्कूल में पढ़नेवाली उसकी छोटी बहन भी अपराधी हैं, यानी ‘हरिजन’…, जैसे चोरी करनेवाला ‘चोर’, हत्या करनेवाला ‘हत्यारा’, वैसे ही ग़लत तरीक़े से स्कूल में एडमिशन लेने वाले और एडमिशन दिलानेवाले ‘हरिजन’…! यह भी कि उसके पिता ‘संविधान’ एवं ‘अम्बेडकर’ नाम के बहुत ही ‘बुरे और अपराधी’ क़िस्म के लोगों के साथ संबंध रखते हैं

इसके अनेक बहुत गहरे दूरगामी असर ‘अ’ पर पड़े | मार-पिटाई से बचने की कोशिश में ‘अ’ ने अपने उस विषय को पढ़ने में जी-जान से कोशिशें की और सबसे अधिक समय उसपर लगाया | परिणाम, वह सत्र समाप्त होते-होते फाइनल इम्तहान में अंग्रेज़ी में उसे 100 अंकों में से 93 अंक मिले, जबकि उसकी कक्षा के ‘खड़े’ और ‘बैठे’ बच्चों को ही नहीं बल्कि पूरे विद्यालय में किसी भी कक्षा के किसी भी बच्चे को शायद ही 65 से अधिक अंक मिले थे | स्कूल ने उसके पिता को बुलाकर ‘क’ की एवं उसके पिता की भूरि-भूरि प्रशंसा की; लड़की के अंग्रेज़ी अध्यापक, शिखाधारी अध्यापक महोदय की प्रशंसा की गई, पिता ने उन शिखाधारी अध्यापक महोदय को ख़ूब धन्यवाद दिया | वे बेचारे कहाँ जानते थे, कि उनकी संवेदनशील बेटी को ये विशिष्ट अंक कैसे मिले थे…?

लेकिन किसी ने भी नहीं देखा, न कभी जान सका, कि ‘अ’ को उस एक साल के अनुभव के कारण ‘अंगेज़ी-विषय’ से हमेशा-हमेशा के लिए वितृष्णा और जुगुप्सा हो गई…! और जब कक्षा 7 में आने के बाद उसने उन चार शब्दों —संविधान, अम्बेडकर, आरक्षण और हरिजन— के सन्दर्भ समझे, तब उसे शिखाधारी-समाज से भी उतनी ही वितृष्णा और जुगुप्सा हो गई, जितनी अंग्रेज़ी से हुई थी…!

…वर्चस्वशाली समाज, उसमें भी शिखाधारी समाज, को अपने प्रयासों में बड़ी सफ़लता मिली थी, अधिकांश ‘खड़े’ बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था… और ‘अ’ ने अंग्रेज़ी से लगाव छोड़ दिया…

केस—दो :—

साल 2009, उत्तरी दिल्ली का एक सरकारी बालक विद्यालय…

यह उच्च प्राथमिक विद्यालय लड़कों का है, जिसमें उस समय अंदाजन लगभग दो-ढाई सौ लड़के पढ़ रहे होंगे | तब यहाँ विद्यालय में अंदाजन दस-बारह अध्यापक हुआ करते थे | अधिकांश द्विज-समाज के…! वंचित समुदायों के इक्का-दुक्का अध्यापक…| अर्थात्, सरकारी विद्यालयों में अधिकांश बच्चे तो वंचित तबकों के हैं, लेकिन उन्हें पढ़ाने वाले अधिकांश अध्यापक ‘वर्चस्वशाली-वर्गों’ के…

…वैसे एक सवाल है…! जिन वंचित तबकों के बच्चों के कारण इन ‘ब्राह्मणीय-मानसिकता’ वाले अध्यापकों को मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं, उन्हीं बच्चों का पढ़ना-लिखना इन्हें क्यों पसंद नहीं है…? मैं कई बार सोचती हूँ, कि यदि इन तमाम वंचित समुदायों ने सचमुच में किसी दिन स्कूल जाना और पढ़ना-लिखना बंद कर दिया, तो उन 15% सवर्ण-अध्यापक-अध्यापिकाओं एवं शिक्षा-विभाग के कर्मचारियों की नौकरी का क्या होगा, जो इस क्षेत्र की 50.5% नौकरियों पर काबिज़ हैं…? क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, कि देश के सभी वंचित समुदाय, जिनकी आबादी में हिस्सेदारी 85% है, वे केवल 49.5% नौकरियाँ भी ईमानदारी से नहीं प्राप्त कर पाते हैं…  

…बच्चों की वार्षिक परीक्षा का दिन… कक्षा छः से आठ तक के बच्चों की परीक्षा चल रही थी और बच्चों को एक शब्द लिखना नहीं आता | अब चूँकि विद्यालय और अध्यापकों को सरकार एवं दूसरों के सामने अपनी नाक भी बचानी थी, इसलिए सभी कक्षाओं में अध्यापकों द्वारा बच्चों को नक़ल कराई जा रही थी | इसके लिए प्रश्नों के उत्तर ब्लैकबोर्ड पर धड़ाधड़ लिखे जा रहे थे, जिन्हें देखकर बच्चों को अपनी कॉपियों में नक़ल करनी थी |

लेकिन अपनी प्राथमिक कक्षाओं के पूरे पाँच साल और उच्च-प्राथमिक कक्षा के तीन सालों तक के कुल आठ वर्षों में केवल विद्यालय आने की खानापूर्ति करने के कारण इन बड़ी कक्षाओं के बच्चों की पढ़ाई का जो हश्र हुआ है, उसका परिणाम यह हुआ है, कि किसी भी बच्चे को शायद एक भी अक्षर ठीक से लिखना, पढ़ना और समझना नहीं आता, छोटी कक्षाओं की बात क्या ही की जाय | अध्यापकों को लगता है, कि जब सरकारी नियम के अनुसार सबको पास ही कर देना है, तो पढ़ाने की क्या ज़रूरत ? बिना पढ़े भी ये पास हो ही जाएँगे, तब फ़िर क्यों इनके पीछे माथापच्ची करना…?

…और सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण बात, कि इनको पढ़ाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारनी है क्या…? आरक्षण ने वैसे भी सवर्ण-समाज के एकाधिकार को छीनकर उनके लिए अवसर कम कर दिए हैं | सच तो यह है, कि ‘आदिकाल’ से ही ईश्वर ने पृथ्वी पर उपलब्ध सारी सम्पति, सुविधा, साधन-संसाधन, सुख, सत्ता आदि के भोग का अधिकार केवल और केवल ‘सवर्ण-समाज’ को ही दिया था | ‘भगवान’ की बनाई ‘व्यवस्था’ थी यह, जिसे ‘ब्राह्मण-देवताओं’ ने बड़े-बड़े धार्मिक-ग्रंथों में शब्दबद्ध किए हैं | और इसी कारण वर्त्तमान समय में भी देश में उपलब्ध समस्त नौकरियों, देश की सारी संपत्ति, धन-दौलत, सारी सुविधाओं और संसाधनों पर केवल और केवल सवर्ण-समाज का ही अधिकार होना चाहिए था | लेकिन ‘संविधान’ के कारण उनका यह ‘जन्मजात’, ‘ईश्वरप्रदत्त’, धर्म-सम्मत’, ‘धर्म-स्वीकृत’ एकाधिकार छिन चुका है, जिसके विरुद्ध ‘स्वाभाविक क्रोध’ उनमें निरंतर बढ़ता ही जा रहा है…

…इसलिए अब बहुत से उपाय तलाशने की ज़रूरत पड़ी सवर्ण-समाज को …ऐसे उपाय जिनसे साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे | वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह सहित आरएसएस एवं भाजपा के अनेक नेता अनेक बार सार्वजनिक मंचों से इसका ऐलान भी करते रहे हैं, कि “हम संविधान को बिना हाथ लगाए उसे पूरी तरह ख़त्म कर देंगें…!” और शायद इसी नीति पर चलते हुए पिछले दशकों से ही ब्राह्मणीय-मानसिकता वाले इन अध्यापकों ने अपने स्तर पर कार्य एवं कोशिशें प्रारम्भ कर दीं |

उन्हें एक स्तर पर बल मिला शिक्षा में ‘सुधार’ के अंतर्गत उस नियम से, जिसके अंतर्गत कक्षा 8 तक किसी भी बच्चे को फ़ेल नहीं करना है | अर्थात् बिना पढ़ाए उन्हें पास करते चले जाओ | साथ ही, ज़िम्मेदारीपूर्वक न पढ़ाने के संबंध में कोई भी व्यक्ति आपकी नीयत पर सवाल न खड़ा कर सके, इससे बचने के लिए परीक्षाओं के समय नकल कराकर न्यूनतम ‘उपलब्धि’ दिखाते चलो | एक पंथ, दो क़ाज…! …नहीं, नहीं, …दो नहीं बल्कि दो से अधिक क़ाज…!

एक, अपना सवर्ण-समाज सरकारी नौकरियों सहित दूसरे सभी साधनों-संसाधनों पर धीरे-धीरे अपना नियंत्रण पुनः प्राप्त कर लेगा | दो, वंचित-वर्गों के बच्चे कभी भी सही मायनों में पढ़-लिख नहीं सकेंगें और धीरे-धीरे अपने-आप ही शिक्षा और उससे मिलने वाले तमाम लाभों से वंचित होते चले जाएँगे और उनके नेता अम्बेडकर का नारा ‘शिक्षित बनो’ अपने-आप ही खोखला होता चला जायेगा | तीन, उनको पढ़ाने का ढोंग करने के बदले में अर्थात् ‘शिक्षक’ के रूप में नौकरी के बदले में अपनी मोटी-मोटी तनख्वाहें हर महीने मिलती ही रहेगी, जिससे अपनी हालत निरंतर सुदृढ़ होती चली जाएगी | चार, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अज्ञानता, भय, पिछड़ेपन, कूपमंडूकता, निराशा, अन्धकार आदि से जो मुक्ति के रास्ते पाने लगता है, उससे इन वंचित-तबकों को नितांत दूर रखा जा सकेगा | …इसके अलावा और भी बहुत कुछ…!

ब्राह्मणीय-सोच वाले लोगों के द्वारा ऐसा करने के क्या उद्देश्य थे और आज भी हैं, इसपर विस्तार से बातचीत अगले आलेख में…………

…तो… अपनी जाति के वर्तमान एवं दूरगामी हित एवं लाभ को ध्यान में रखते हुए उनको ईमानदारी से न पढ़ाने में ही सवर्ण-वर्गों की भलाई थी और है…| क्योंकि यदि इनको ठीक से पढ़ाया ही न जाय, तो आरक्षण क्या खाक कर लेगा…? न ये दसवीं पास करेंगें, न कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में जाएँगें, न नौकरी पा सकेंगें, न ही कुछ और कर सकेंगें | इसलिए क्यों न विद्यालयों में इनको पढ़ाने की केवल खानापूर्ति की जाय, और अपने हिस्से के मोटे वेतन उठाए जायँ…? …इससे अधिक कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है…

…तो कुछ इसी उद्देश्य से उक्त विद्यालय में नक़ल तो कराई जाती थी, लेकिन साथ ही पढ़ने-लिखने के अनभ्यस्त बच्चे जब नहीं लिख पा रहे हैं, तब कई अध्यापक महोदय, अपने पैरों में पहने जूते लगातार उन बच्चों की पीठ, पैरों, हाथों पर बरसा रहे थे | ऐसे ही एक अध्यापक थे —‘भारद्वाज’ उपनामधारी ! जो धड़ाधड़ पवित्र मंत्रोच्चारण करनेवाले अपने पवित्र मुख से ‘हरामजादे’, ‘हराम के बीज’, हराम की पैदायिश’, ‘कमीने’, ‘दोगले’, ‘स्साले’, ‘तेरी माँ को चोsss..’, ‘तेरी बहन को चोss…’ आदि गालियाँ और अपने ‘पवित्र चरणों’ में पहने हुए जूते पहने-पहने ही उन्हें बच्चों पर लगातार बरसा रहे थे |

सबसे बढ़कर, उन बच्चों के पढ़ने को लेकर तंज, उनके प्रति द्वेष, ईर्ष्या भी उनकी बातों से साफ़-साफ़ जाहिर हो रही है, बिना लाग-लपेट के…! वैसे भी द्विज-समाज के लोगों और शिक्षकों को क्या डर ? किसका डर ? और सबसे बड़ी बात, क्यों डरना ? पूरी व्यवस्था तो अपनी है… और जो विरोध कर सकते हैं, उनके पास तो विरोध के लिए न मुँह में शब्द ही नहीं हैं, न सीने में कलेजा…! तब क्यों डरना…?

‘भारद्वाज’ उपनामधारी अध्यापक के द्वारा परीक्षा-हॉल में प्रयोग की गई भाषा का एक अंश इसपर अवश्य कुछ रौशनी डालेगा…

  • “स्साले, हरामियो, …ठीक से देखकर उतारो…! …हराम के बीजों को ठीक से नक़ल करना भी नहीं आता…| तेरी माँ को चो..ss क्या…?…तेरी बहन को..ss क्या…?”
  • “……स्साले हराम की पैदाइशो…! जब भगवान ने तुम लोगों को पढ़ने के लिए खोपड़ी में भेजा ही नहीं दिया, तो यहाँ मरने के लिए क्यों चले आते हो…? अपनी माँ चु..ss…? …अपनी बहन चु…ss…? …कमीनो, हमारी बराबरी करोगे…?”
  • “…स्साले, सब के सब पढ़ जाओगे, तो हमारे घरों का कूड़ा कौन उठाएगा… हमारे जूते कौन पॉलिश करेगा, रिक्शा कौन खींचेगा हमारे लिए…? …हम खुद करेंगे क्या ये सब क्या…मादरच…?”

भारद्वाज जी का गर्जन-तर्जन अपने शबाब पर होता, ऐसे मौक़े पर…| उनकी श्रेणी यानी वर्ग के अन्य अध्यापकों का भी यही रंग-रूप रहता… अक्सर…! बच्चे सहमे-सहमे उनकी आज्ञा का पालन ‘यथासंभव’ करने की कोशिशें करते…

…तो इस प्रकार हमारे देश में ‘सर्वशिक्षा अभियान’ की मशाल जलाई जा रही थी …और है, …देश का विकास अपने पूरे उत्थान पर है…! और सभी बच्चों के ‘शिक्षा के अधिकार’ (Right to Education) की रक्षा की कोशिशें अपने चरम पर…   

केस—तीन :—

साल 2019, उत्तराखंड में पौड़ी जिले का एक सरकारी विद्यालय…

इस विद्यालय में भी अधिकांश बच्चे वंचित वर्गों के हैं | वहाँ पाँच शिक्षक-शिक्षिकाएँ हैं, जिनमें तीन अध्यापिकाएँ और और तीनों सवर्ण-समाज की हैं, उनके अलावा दो पुरुष अध्यापक हैं, जिनमें से एक वंचित-समाज से हैं और शेष द्वारा प्रायः अलग-थलग रखे जाते हैं, …अक्सर उपेक्षित से…| प्रधानाध्यापिका द्विज समाज की हैं, लेकिन मानवीय-संवेदना से ओत-प्रोत, और इसी कारण सभी बच्चों के प्रति काफ़ी हद तक मानवीयता की भावना से संपन्न…| उनकी लगातार कोशिश रहती है, कि सभी अध्यापक बच्चों को कुछ न कुछ पढ़ा दें, जिसके लिए वे अध्यापकों की एक प्रकार से मिन्नतें और चापलूसियाँ भी करती हुई कई बार नज़र आती हैं | लेकिन वंचित-वर्ग के अध्यापक के अतिरिक्त शेष तीन अध्यापक-अध्यापिकाओं को यह ‘फ़ालतू का काम’ लगता है, सवर्ण-समाज के लिए हानिकारक भी…|

उन तीन में से एक, शिखाधारी वर्ग के, अध्यापक महोदय को बाहर अपनी प्रसिद्धि के इंतज़ाम से ही फुर्सत नहीं मिलती, वे लोगों की आँखों में धूल झोंकने में माहिर हैं, इसलिए बच्चों से कुछ भी सतही तौर पर करवाकर, जिनसे कम-से-कम बच्चों का तो कोई भला नहीं ही होता है, तुरंत अपने परिचित-मित्र पत्रकारों के माध्यम से अख़बार में अपनी प्रशस्तियाँ छपवा देते हैं और सबकी आँखों का तारा बन जाते हैं | …लेकिन उनकी वास्तविकता उनके विद्यालय में जाकर और वहाँ थोड़ी देर रुककर देखने से, या उनके विद्यार्थियों के पढ़ने-लिखने की स्थिति को देखकर या उनसे बातचीत में स्वतः ही प्रकट हो जाती है |

विद्यालय में आने के बाद उन तीनों ‘सवर्णी-अध्यापकों’ के अनेक कार्य होते हैं, सिवाय पढ़ाने के | यानी वे सबकुछ करते हैं, पढ़ाना छोड़कर…| यदि उनमें से किसी के सामने कोई छोटी-मोटी पारिवारिक समस्या आ गई, जोकि अक्सर आती ही रहती है, तो इनको कुछ भी याद नहीं रहता, न ही वे कुछ और करना चाहते हैं | हालाँकि विद्यालय में ‘कुछ न करने’ की उनकी सामान्य आदत है, इसलिए वे अक्सर बच्चों को शोर मचाने से रोकने के लिए कक्षा में कोई कार्य देकर कक्षाओं के बाहर ही अपनी-अपनी कुर्सियाँ जमाकर देश की दुरवस्था पर, बढ़ते अपराधों पर और आरक्षण के दुष्परिणामों पर घंटों बहसें करते हुए मिल जाते हैं… ! हाँ, बीच-बीच में जब कक्षा में अध्यापकों की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर बच्चे अपने बाल-सुलभ स्वभाव के अनुसार कुछ शोर मचाने लगते हैं, तब वे अपनी-अपनी कक्षाओं में कुछेक मिनट को चले जाते हैं, डंडों के साथ-साथ गालियों से भी बच्चों की जमकर धुनाई करने के लिए, जिसे वे ‘बच्चों की मरम्मत करना’ कहते हैं |

उन अध्यापकों को वंचित तबकों के ये बच्चे ‘हरामी’, ‘हरामजादे’, ‘कमीने’ …आदि ही नज़र आते हैं, जिनका (इन शब्दों का) प्रयोग वे ‘बच्चों की मरम्मत करते’ हुए लगातार करते हैं…| और इनको पढ़ाना या इन बच्चों का पढ़ जाना… अपने स्वयं के बच्चों के भविष्य के लिए बहुत बड़ा ख़तरा नज़र आता है उनको…!

लेकिन सनद रहे… वंचित तबकों के बच्चों को दी जानेवाली इन गालियों और इन अभागे ‘हरामी बच्चों’ को ‘पढ़ाने’ के एवज में इनको सालाना लाखों की मोटी तनख्वाह मिलती है, जिससे इनको कोई आपत्ति नहीं है …

…तो उन तीन में से एक बेहद धार्मिक अध्यापिका महोदया की बेटी की शादी है और वे अपनी बेटी की शादी की तैयारियों में इस हद तक डूबी हैं, कि विद्यालय में आने के बाद भी उनको बेटी की शादी के अलावा और कुछ भी याद नहीं रहता… हमेशा की तरह…| और इसी सिलसिले में उनकी चिंता शिखाधारी-वर्ग के अध्यापक महोदय से हो रही है | हालाँकि उनके मस्तक पर लंबी शिखा नहीं थी, इसलिए वह दिखी नहीं | हो सकता है कि एक छोटी-सी शिखा वहाँ मौजूद हो, लेकिन छोटी-सी शिखा, बालों में छुप जाने से सबकी नज़रों में आने से बच जाती हो…? …तो उन अदृश्य शिखाधारी अध्यापक एवं बेहद धार्मिक अध्यापिका की बातचीत कुछ यूँ हुई ——   

  •  “सर, मैं तो जा रही हूँ, मुझे ज़रूरी काम है, वैसे भी इन हरामियों को पढ़कर कौन-सा जज-कलक्टर बनना है ? इनको करना तो वही सब है, जो इनके माँ-बाप करते हैं ! इनपर अपना टाइम बर्बाद करना बेकार है |”
  • “हाँ मै’म, आप आराम से जाओ, क्या करेंगें ये लोग पढ़कर …? अपनी ड्यूटी बजा रहे हैं हम, क्या ये कम है… इससे अधिक और क्या करें हम…? इनको पढ़ा देंगें, तो ये हमारे ही सिर पर नाचेंगें…! फिर हमारे बच्चों का क्या होगा…?”
  • “और नहीं तो क्या, सर,…? पता नहीं क्यों इन सबको पढ़ाने की धुन सवार हो गई सरकार पर ? ये पढ़-लिखकर हमारा एहसान कहाँ मानते हैं, उल्टे हमारी ही नौकरियाँ छीन रहे हैं आरक्षण के नाम पर ? इनको पढ़ा दिया, तो आगे भी हमारे बच्चों के लिए मुसीबत खड़ी करेंगें… | इससे अच्छा तो यही है, कि इनको पढ़ाओ ही मत ! मिलता रहे आरक्षण…! नाक में दम कर रखा है इन हरामियों ने ….! दिन भर इनके पीछे चिक-चिक करो, घर जाओ तो वहाँ की चिक-चिक… ! घर तो चलो अपना है, लेकिन ये कमीने हमारी जान के दुश्मन बने हुए है, जीने ही नहीं देते…|”
  • “हम्म्म्म…मरने दो स्सालों को, …..आप कह तो ठीक ही रही हैं, इनके मारे तो नाक में दम हो जाता है, और ये हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं लेते | कितना भी पढ़ा लो, इनके भेजे में कुछ घुसता ही नहीं है …..! भेजा हो इनकी खोपड़ी के अन्दर, तब तो कुछ घुसे….?”
  • “…ठीक है, सर, …तो मैं जाती हूँ, बेटी वेट (इंतज़ार) कर रही होगी मेरा पार्लर के बाहर, थोड़ी भी देर हो जाएगी मुझे, तो बेटी बहुत गुस्सा करेगी, सड़क पर ही चीखने-चिल्लाने लगेगी मुझपर…! उसकी शादी है, तो मैं भी उसे गुस्सा नहीं दिलाना चाहती | आप तो समझ सकते हो सर, आख़िर आपके भी तो बच्चे हैं…! आप संभाल लेना सर…”
  • “हाँ-हाँ मै’म, मैं देख लूँगा, आप निश्चिन्त होकर जाओ, आखिर एक-दूसरे का ध्यान हम नहीं रखेंगे, तो कौन रखेगा …”

…तो यहाँ भी ‘सर्वशिक्षा-अभियान’ अपने पूरे शबाब पर था… और देश का भविष्य अति-उज्ज्वल…! उन बच्चों का क्या… वे तो कूड़ा खाकर भी जी लेंगें… नाली में भी रह लेंगें…

केस—चार :—

साल 2005-07, दिल्ली के एक प्रसिद्द विश्वविद्यालय का एक कॉलेज

दिल्ली…! हमारे देश की राजधानी…! …तो यहाँ के एक विश्व-विश्रुत विश्वविद्यालय में एम.ए. में नामांकन के लिए प्रवेश-परीक्षा में एक वंचित समाज की लड़की, …उसे एक नाम दे देते हैं ‘ब’… सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों के बराबर अंक अर्जित करती है और सरकारी नियम के अनुसार वंचित-वर्ग की श्रेणी में नहीं बल्कि ‘सामान्य श्रेणी’ के तहत नामांकन की हक़दार बनती है | विभाग का ही एक अधिकारी उसे इसकी सूचना देता है | लेकिन उसी अधिकारी ने ‘ब’ को नामांकन के लिए दिए गए फॉर्म पर एक कोने में छोटा-सा S/C अंकित कर दिया, पता नहीं जानबूझकर, या अनजाने में…! लेकिन इस एक छोटी-सी ‘ग़लती’ से ‘ब’ ने पूरे दो सालों तक जो परेशानियाँ उठाईं, उसको केवल वही समझ सकती है या उसके जैसे लोग…

…जब वह अपना नामांकन फॉर्म लेकर आवंटित कॉलेज पहुँचती है और वहाँ संबंधित कर्मचारी को देती है, तो स्थिति कुछ ऐसी बनती है…

  • “…अरे, …तू तो एससी है…तेरा सर्टिफिकेट कहाँ है, तेरी जाति वाला…?”
  • “…सर, मुझे तो ये बताया गया, है कि मेरा एडमिशन ‘सामान्य श्रेणी’ में होना है…!”
  • “अपनी औक़ात देखी है…? ‘सामान्य श्रेणी’ में आएगी…! …अपनी औक़ात देख, फिर बात कर…! तेरी औक़ात है ‘सामान्य श्रेणी’ की बराबरी करने की…? …जा भाग यहाँ से… पहले अपना जाति-प्रमाणपत्र लेकर आ… फ़िर तेरा एडमिशन किया जाएगा…! जा भाग…!”
  • “लेकिन सर, मुझे तो विभाग में …सर ने कहा कि जाति-प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं है…”
  • “…तो ठीक है… जा यहाँ से और …से ही कह दे, तेरा एडमिशन लेने के लिए…! यहाँ तेरा एडमिशन नहीं होगा…”

आसपास मौजूद उक्त कॉलेज के 6-7 कर्मचारियों और आस-पास ही विभिन्न कारणों से खड़े 15-20 विद्यार्थियों के सामने इस प्रकार अपमानित और दुत्कारे जाने से दुःखी और हतोत्साहित ‘ब’ चली जाती है और पुनः अगले दिन अपना जाति-प्रमाणपत्र लेकर आती है | लेकिन उसे दो-ढाई घंटों तक इंतज़ार कराया जाता है, उसके बाद ही उसका फॉर्म और बाक़ी प्रमाणपत्र लिए जाते हैं, जाँच के लिए और लेकर रख लिए जाते हैं…| उक्त कर्मचारी उससे कहता है, कि “आज मेरे पास टाइम नहीं है, कल आना”, तब अगले दिन ‘ब’ फ़िर आती है, पुनः ढाई-तीन घंटे का इंतज़ार… उसके बाद प्रक्रिया शुरू… और पूरे दिन कभी इस काग़ज़ की फ़ोटोकॉपी, तो कभी उस काग़ज़ की फ़ोटोकॉपी के लिए उसे दौड़ाया जाता है, उसे एक साथ नहीं बताया जाता, कि किन-किन कागजातों की ज़रूरत है…| यदि एक बार में बता दिया जाएगा, तो उसे कैसे दौड़ाया जा सकेगा पूरे दिन…?

अंततः पूरे दिन भूखी-प्यासी रहते हुए और दिन भर दौड़ते हुए ‘ब’ का नामांकन हो जाता है | शुक्र था, कि केवल काग़ज़ी प्रक्रियाओं के लिए ही उसे उक्त कॉलेज आना होता था, और पढ़ाई यूनिवर्सिटी में ही होती थी. अन्यथा पता नहीं, कि …

उसके बाद जब भी कॉलेज से संबंधित कोई प्रक्रिया पूरी करनी होती थी —यानी फ़ीस जाना करना, इम्तहान के लिए फॉर्म भरना, लाइब्रेरी-कार्ड बनवाना आदि— तब हर बार कम से कम उसे दो-तीन घंटे इंतज़ार करवाया जाता, जो कभी-कभी चार-पाँच घंटे तक भी हो जाता था -सुबह से लेकर शाम तक, और उसके बाद कहा जाता ‘कल आना’ | अगले दिन भी यही होता और प्रक्रिया पूरी करने के लिए ‘ब’ को कभी ‘यह सर्टिफिकेट लाओ’, कभी ‘वह डॉक्यूमेंट लाओ’ के नाम पर पूरे दिन दौड़ाया जाता | और इस कारण किसी एक प्रक्रिया के पीछे उसकी दो-तीन दिनों की सारी क्लासेज छूट जातीं, जो विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में होती थीं…|

इस बीच ‘ब’ ने इस तरह जानबूझकर परेशान किए जाने के लिए एकाध बार अपना विरोध भी दर्ज़ कराया, लेकिन उस विरोध ने आग में घी का काम किया | एक वर्चस्वशाली-वर्ग का व्यक्ति वंचित-तबकों द्वारा अपना विरोध कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसमें भी सवर्ण-पुरुष का विरोध एक वंचित-समाज की महिला द्वारा…! यह तो कलियुग का घोर रूप है…! और जब उस पुरुष के पैरों के नीचे उस वंचित-समाज की महिला का भविष्य दबा हो, तब तो कहना ही क्या…? उस पुरुष के पास अवसर ही अवसर है…उस लड़की की औक़ात दिखाने के लिए…

वह कर्मचारी इस छोटे-से विरोध को कत्तई बर्दाश्त करने को तैयार नहीं था, उसके अन्य समान-वर्गी कर्मचारी भी व्यंग्य से मुस्कुराते हुए उसका मौन समर्थन करते, उसकी हौसला-अफ़जाई करते |

इतना ही नहीं, वहाँ जिन कर्मचारियों को ‘ब’ की जाति और ‘विरोध’ के बारे में पता नहीं होता था, ठीक ऐन वक़्त पर उसे भी वह कर्मचारी अवगत कराने पहुँच जाता और ‘ब’ के साथ सामान्य व्यवहार करने से उसे रोकता | एक उदाहरण देखिए…

‘ब’ ने लाइब्रेरी-कार्ड बनवाने के लिए जब उसी ऑफिस, जहाँ वह कर्मचारी कार्यरत था, में संपर्क किया, तब उक्त कर्मचारी ने उसे वहाँ देख लिया | ‘ब’ को प्रक्रिया के तहत लाइब्रेरी सेक्शन में भेजा गया, जहाँ वह अन्य विद्यार्थियों के साथ ही संबंधित खिड़की पर लाइन में खड़ी हो गई, उसके आगे बमुश्किल 4-5 लड़के-लड़कियाँ ही खड़े थे, इसलिए क़रीब आधे घंटे बाद ही ‘ब’ की भी बारी आ गई | उसके आगे केवल एक लड़की खड़ी थी, जिसका काम हो रहा था |

ठीक उसी समय वह कर्मचारी भागा-भागा आया और तेज़ी से उस कमरे में घुस गया, जिसकी खिड़की पर अन्य विद्यार्थी और ‘ब’ खड़े थे | उक्त कमरे में दीवार के स्थान पर काँच लगे होने से कमरे के भीतर की एक-एक गतिविधि साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी | तब तक ‘ब’ के आगे खड़ी लड़की का काम हो गया और वह चली गई थी और ‘ब’ ने अपने कागज़ात आगे बढ़ा दिए थे |

लेकिन उसी समय कमरे में घुसे उक्त कर्मचारी ने काम कर रही महिला-कर्मचारी के हाथ से ‘ब’ के कागज़ात लेकर वापस महिला की टेबल पर रख दिया और उसके कान में 2-3 मिनट तक कुछ कहता रहा | उसकी बात सुनने के बाद उक्त मैडम ने ‘ब’ से कहा— “अब मैं बहुत थक गई हूँ, मुझे दूसरे काम भी करने है, तो तुम कल आना…” और उसके कागज़ात वापस लौटा दिए | तब लाइब्रेरी में लगी घड़ी में समय हो रहा था, दिन के 11:25 |

अगले दिन ‘ब’ पुनः पंक्ति में लगकर जब खिड़की तक पहुँची, तब मैडम ने पिछले दिन की तरह कहा—“मैं बहुत थक गई हूँ, लंच का टाइम भी होने वाला है, उसके बाद आना…” तब वहाँ लगी घड़ी में समय हो रहा था 12:40 | ‘ब’ ने कहा कि “लंच तो 1:30 बजे होता है, ना मैडम, प्लीज़ कर दीजिए…” | लेकिन वह टस-से-मस नहीं हुई और उसी समय पुनः भागा-भागा वह कर्मचारी आता हुआ दिखा | वह पहले उक्त, अपने काम और देश के विकास के प्रति ‘समर्पित’ एवं ‘बेहद ज़िम्मेदार’ मैडम के कमरे में गया और दोनों ने एक-दूसरे के कानों में कुछ आदान-प्रदान किया और उसके तुरंत बाद वह सामने वाले कमरे में चला गया | वहाँ भी सामने की तरफ़ ईंट की दीवार की बजाय पारदर्शी काँच लगा था, जो सब दिखा रहा था | उसने वहाँ भी बैठे और बाहर सबको ध्यान से देख रहे उन ‘अपने फ़र्ज़ को समर्पित’ समान-वर्गी महाशय के कान में कुछ मन्त्र फूँके, जिसका असर तुरंत दिखा, ‘फ़र्ज़ को समर्पित’ महोदय ने सिर उठाकर अपना फ़र्ज़ निभाते हुए मैडम से कहा— “मैडम आप यहाँ आ जाओ…कुछ ज़रूरी काम है…”

देश के विकास को ‘पूर्णतः समर्पित’, ‘अति-ज़िम्मेदार’ तथा ‘अति-योग्य’ उक्त तीनों कर्चारियों की बातचीत देर तक चलती रही | लंच का समय हुआ और वह भी 2:30 बजे तक ख़त्म हो गया, घड़ी ने उससे भी आगे सरक कर समय दिखाया—2:50 | मैडम अपने स्थान पर आकर विराजमान हुईं, और पूरी ज़िम्मेदारी से अपनी ‘फ़र्ज-अदाई’ करते हुए अपने हाथों में ‘रामचरितमानस’ लिए, अपनी कुर्सी के ऊपर पैर मोड़कर बैठकर ‘वेतन के बदले अपनी ड्यूटी’ निभाते हुए ‘रामचरितमानस’ का भक्तिभाव से पाठ करने लगीं | सुबह से भूखी-प्यासी और परेशान किए जाने से त्रस्त एवं बुझ चुकी ‘ब’ पुनः खिड़की पर आई और प्रक्रिया पूरी करने के लिए प्रार्थना की…

  • “…मैडम, अब तो लंच भी ओवर हो गया, प्लीज़ मेरा फॉर्म देख लीजिए…”
  • “अब्भी-अब्भी तो खाना खाकर बैठी हूँ, मुझसे हिला भी नहीं जा रहा है, मेरे पेट में दर्द हो रहा है…! मैं नहीं करुँगी अभी कोई काम…! अभी जाओ तुम, आधे घंटे बाद आना..”
  • “…अजगर हैं क्या आप…? हाथी-घोड़े निगलकर बैठी हैं क्या, कि हिल नहीं पा रही हैं…? …कल से आपको देख रही हूँ, जब से ….ने आपके कान में मंत्र फूँका है…!” ‘ब’ के सब्र का बाँध टूट चुका था 
  • “ये क्या बकवास कर रही है तू…? जा भाग यहाँ से …मुझे नहीं करना तेरा काम…? जा अम्बेडकर से करवा ले अपना काम… उसी को बोल, कि नरक से आकर तेरा काम करेगा…! नाक में दम कर रखा है, इन लोगों ने… जीना हराम कर दिया है हमारा…! जा बोल अम्बेडकर को, जिसने तुझे आरक्षण दिया है ! खुद तो नरक में पड़ा सड़ रहा है कमीना, यहाँ हमारे ऊपर इन कमीनों को लादकर ख़ुद मर गया…! …इन कमीनों को तो कुछ करना नहीं आता, आरक्षण के बल पर हमारा जीना हराम करने चले आते है कमीने…!”

…और वे मैडम ‘देश के विकास को समर्पित’ होकर, देश में ‘शिक्षा के विकास के लिए’ अपने काम के समय में, जिसके लिए वे मोटी तनख्वाहें हर महीने लेती हैं, ‘रामचरितमानस’ का पाठ करने में पूरे भक्तिभाव से डूब गईं….

…देश का ‘शैक्षिक-विकास’ पुनः अपने चरम पर था… और भविष्य अति-उज्ज्वल… मार्तण्ड (दोपहर का सूर्य) की भाँति देदीप्यमान… भारत का उज्ज्वल भविष्य….   

केस—पाँच :—

साल 2018, बच्चों की शिक्षा को समर्पित एक समाज-सेवी संस्था (पौड़ी, उत्तराखंड)

देश के भविष्य के निर्माण एवं समाज के सतत विकास की राह में यूँ तो अनेक समाज-सेवी संस्थाएँ समर्पित हैं, लेकिन शिक्षा के माध्यम से अपना ‘अमूल्य योगदान’ देने वाली समाज-सेवी संस्थाओं की संख्या भी कम नहीं है | उत्तराखंड में भी इस उद्देश्य से अनेक संस्थाएँ एवं उसमें कार्यरत अनेक ‘समर्पित समाज-सेवक’ इस दिशा में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं | उनमें से अनेक कार्यकर्ताओं पर तो ईश्वर की इतनी कृपा है, कि ईश्वर-प्रदत्त उनकी योग्यता छलक-छलक पड़ती है और सँभाले नहीं सँभलती | उतनी योग्यता भला वंचित-तबकों में कहाँ…? वंचित वर्ग उतने काबिल हो भी सकते हैं क्या…?

तब वे ‘अति-योग्य’ वर्ग और सामाजिक-कार्यकर्ता, वंचितों को उनके जीवन-यापन के लिए अपने जीवन में सही रोजगार और कार्यों के चुनावों के सन्दर्भ में उन्हें बहुविध रूप में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं | कुछ इसी प्रकार की मदद एवं मार्गदर्शन, शिक्षा और समाज के सतत् विकास को समर्पित एक ऐसी ही संस्था के एक ‘अति-योग्य’ समाज-सेवक कर रहे थे | वे उसी शिखाधारी समाज से थे, जिस समाज के ‘सराहनीय कार्य’ ऊपर भी अभी कई रूपों में देखे गए…! हालाँकि उन समाजसेवक महोदय की शिखा नहीं थी… लेकिन एक अदृश्य शिखा आप कभी भी देख सकते हैं ऐसे लोगों के सिर पर खड़ी…

एक विद्यालय में जब बच्चे अपने-अपने भविष्य के सुन्दर सपनों की बातें कर रहे हैं, तब वे बच्चों के साथ बेहद आवेश में कुछ इस तरीक़े से बात करते हैं ….

  • “…अच्छा…! तुम सब टीचर, इंजीनियर, फ़ौजी, या डॉक्टर ही क्यों बनना चाहते हो….? तुममें से किसी ने भी ये क्यों नहीं कहा, कि वो सफ़ाईकर्मी या किसान बनना चाहता है…? क्या सफ़ाईकर्मी या किसान बनना बुरी बात है…? …क्या तुमलोग नहीं जानते, कि सफ़ाईकर्मी या किसान बनना ही सबसे अधिक ज़रूरी काम है…? …तो तुममें से किसी ने भी क्यों नहीं कहा, कि वो सफ़ाईकर्मी या किसान बनना चाहता है…? …तुमलोगों को डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर या कुछ और बनने की ज़रूरत बिलकुल नहीं है, बल्कि तुम्हें केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने की ज़रूरत है…!

और जब उन ‘समर्पित’ समाज-सेवक की एक सहकर्मी बच्चों के साथ उनके इस व्यवहार पर आपत्ति जताती है, तब वे बड़ी निडरता और बेबाकी से अपने ‘मन की बात’ कहते हैं | वैसे भी अपने ‘मन की बात’ कहने और करने का हक़ केवल हमारे प्रधानमंत्री को ही नहीं है, बल्कि उनके जैसे सभी ‘धर्म-प्राण’ एवं ‘विकास के अग्रदूत’ व्यक्तियों को भी है, सिवाय वंचित और कमज़ोर समाज के… 

  • “सर, आपने बच्चों को सपने देखने से क्यों रोका…?”
  • “…ये बच्चे जिस समाज के हैं, यदि वे भी बड़े सपने देखने लगेंगे, तो हमारे समाज के लिए ख़तरा पैदा कर देंगें | फिर हमारे बच्चों का और हमारे समाज का क्या होगा ? …इसलिए यही अच्छा होगा, कि ये बच्चे केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने का ही सपना देखें | हमारे लिए भी यही ठीक है और इनके लिए भी यही ठीक होगा !…समाज में इससे शांति और संतुलन बना रहता है ! …मैंने इसीलिए उनको कोई और सपना देखने से रोका…”
  • “…लेकिन हमारी संस्था तो शिक्षा के लिए काम करती है…! …और हम बच्चों को सपने देखने के लिए प्रेरित करने की बात भी करते हैं …! …तो फिर मुझे यह समझ में नहीं आया, कि बच्चों को सपने देखने से क्यों रोक रहे हैं आप ?”
  • “रोका कहाँ मैंने…? …सपने देखने को तो कहा ही मैंने… ! सपने देखें, खूब देखें, …लेकिन सफ़ाईकर्मी या किसान बनने के सपने देखें…!”
  • “…लेकिन क्यों उनको केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने का ही सपना देखना चाहिए, कोई और सपना नहीं…?
  • “…क्योंकि यही काम उनके समाज के लोग, इन बच्चों के बाप-दादे पीढ़ियों से करते आए हैं… और सफ़ाई करना कोई बुरी बात थोड़े ना है ? …कोई भी काम बड़ा या छोटा नहीं होता, सब काम बराबर होते हैं…|”
  • “…यदि सभी काम बराबर होते हैं, तो वे बच्चे क्यों सफ़ाईकर्मी और किसान बनने के अलावा कोई दूसरा सपना नहीं देख सकते ? …क्या सामान्य-वर्गों के बच्चों को भी आप सफ़ाईकर्मी और किसान बनने की नसीहत देंगे…?”
  • “बकवास बंद करो…हमारे बच्चे क्यों करेंगे नीच काम…? ये काम उन्हीं को करना चाहिए…!”

…और अपने कर्तव्य के प्रति बेहद समर्पित ‘समाजसेवी’ संस्थाओं एवं ‘समाजसेवकों’ के हाथों समाज का उत्थान बड़ी तेज़ी से हो रहा था, समाज-सेवकों का ‘कर्तव्य-बोध’ एवं उनका ‘समाज-धर्म’ अपने चरम पर था…! समाज के ‘सतत-विकास’ का रथ भी वायुगति से आगे बढ़ रहा था…जो आज भी बढ़ रहा है…

…और इस प्रकार प्रत्येक स्तर पर—विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, शिक्षा-विभाग, शिक्षा-मंत्रालय, समाजसेवी-संस्थाओं के अथक उद्द्योग निरंतर ज़ारी हैं, देश के सर्वांगीण विकास के लिए… देश के चहुँमुखी विकास और समाज में प्रतिदिन स्थापित होती मानवीय-सद्भावना एवं अहिंसात्मक वातावरण इसके प्रमाण हैं, जहाँ देश के प्रत्येक वर्ग के एक-एक व्यक्ति का उत्थान सुनिश्चित किया जा रहा है…और शिक्षा उसमें भरपूर सहयोग प्रदान कर रही है….

…आप सब भी तो इसे महसूस कर ही रहे होंगे…! …क्यों…? …है ना…!!??…   

… … …

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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33 thoughts on “शिक्षा का अधिकार, सरकारी विद्यालय और वंचित-समाज

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    अस्तु आप पुनः समाज को झकझोरने में कामयाब हो गईं। आप को शत शत धन्यवाद।

  9. यह बात तो बिल्कुल सही है। आज भी दलितों व वंचितों को समाज में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कदम – कदम पर उन्हें “सभ्य समाज “द्वारा अपमानित होना पड़ता है। चाहे वह एक बच्चा हो, युवक हो अथवा बुजुर्ग। आपने समाज के इस दोयम दर्जे की सोच को अच्छी तरह उभारा है।

  10. वर्तमान समाज की वास्तविकता को दिखाता बेहद मर्मस्पर्शी लेख

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