बतकही

बातें कही-अनकही…

निबंध

वर्चस्ववादी समाज को डरने की ज़रूरत है !

क्या किसी भी व्यक्ति, समाज या देश को हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तोनाबूत किया जा सकता है? क्या किसी का सिर हमेशा के लिए कुचला जा सकता है? क्या किसी के विवेक को, इच्छाओं और अभिलाषाओं को, स्वाभिमान और आत्म-चेतना को हमेशा के लिए मिटाया जा सकता है... बहुत साल पहले, आज से लगभग दो दशक पहले, किसी अख़बार में मैंने एक शोध पढ़ा था; हालाँकि अब यह याद नहीं कि वह अख़बार कौन-सा था, लेख…

निबंध

वर्चस्व-स्थापना के प्रयास में ‘भूख’ को बचपन से साधती सरकारें

कहते हैं कि ‘बचपन’ ही वह समय होता है, जब किसी बच्चे के भविष्य के लिए उसके व्यक्तित्व की रुपरेखा तैयार की जाती है; अर्थात् उसकी नींव डाली जाती है | बच्चे के मन में जिस प्रकार के बीज रोपित किए जाएँगे, उसका व्यक्तित्व उसी के अनुरूप आकार लेगा | जिस बच्चे को बचपन से आत्म-निर्भर, स्वाभिमानी बनाया जाएगा, वह आगे चलकर उसी के अनुरूप आत्म-विश्वासी, स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनेगा; और जिस बच्चे को बचपन…

निबंध

भोजन केवल ‘भोजन’ नहीं, एक ‘हथियार’ भी है !

भोजन के सम्बन्ध में ‘खाद्य’ और ‘अखाद्य’ जैसे शब्दों को तो हम अक्सर ही सुनते हैं ; जैसे प्याज, लहसुन जैसी सब्जियाँ, अथवा कुत्ते, कौवे, साँप, बिच्छू, घोंघे, चूहे आदि पशु-पक्षियों का मांस वगैरह भारतीय ‘सनातनी-संस्कृति’ में ‘अखाद्य’ की श्रेणी में रखे गए हैं | इसी प्रकार गाय के दूध को ‘बुद्धिवर्द्धक’ कहा गया है और उसी के बरक्स भैंस के दूध को ‘बुद्धिनाशक’, इतना ही नहीं गाय के दूध को ही ‘पवित्र’ कहकर हिन्दू…

निबंध

भूख और भोजन

‘भूख’ क्या है ? ‘भूख’ तो केवल ‘भूख’ है किसी भी व्यक्ति को, परिवार, समाज, नस्लों, पीढ़ियों को भूखा रखकर करवाया जा सकता है उनसे कोई भी काम असंभव जो नहीं कर सकते, खाए-पिए-अघाए लोग — चोरी झपटमारी हत्या बलात्कार...! क्योंकि भूखा इन्सान ‘इन्सान’ नहीं होता है वह केवल होता है— ‘भूख’ — ‘साक्षात् भूख’ एक धधकती आग जिसमें भस्म हो जाती है नैतिकता ईमानदारी प्रेम इंसानियत समझदारी बुद्धि ह्रदय तन और मन भी... (स्व-रचित…

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हमें फ़टी जींस नहीं तन ढँकने का अधिकार चाहिए

घटना 19 सदी के त्रावणकोर (केरल) के हिन्दू रियासत की है | वहाँ की रानी अत्तिंगल की एक दासी एक दिन अपने शरीर के ऊपरी भाग, यानी स्तनों को ढँककर महल में अपना काम करने गई | रानी ने जब देखा कि उसकी अदना-सी दासी ने उच्च-वर्णीय समाज के बनाए नियमों का उल्लंघन करते हुए अपने स्तनों को ढँककर रखा है तो रानी अत्तिंगल के क्रोध की सीमा न रही और उसने राजकर्मचारियों को उस…

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व्यवसाय, धर्म और पितृसत्ता के बरक्स खड़ी फ़टी जींस

‘जींस’ या ‘फ़टी जींस’ से ‘पितृसत्ता’ का क्या संबंध है, इसके एक पक्ष को तो पिछले दो लेखों फ़टी जींस, लड़कियाँ और संकट में संस्कृति और ‘जींस पहनती बेटियाँ माता-पिता को अच्छी नहीं लगतीं’में देख लिया गया, लेकिन साथ में यह भी समझना ज़रूरी है कि क्या ‘पितृसत्ता’ सदैव ही फ़टी हुई जींस या ऐसे ही दूसरे ‘संस्कृति-विरोधी’ तत्वों का विरोध करती है? अथवा उसके सामने कुछ ‘परिस्थितियाँ’ ऐसी भी आती हैं जब वह प्रत्यक्ष…

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जींस पहनती बेटियाँ माता-पिता को अच्छी नहीं लगतीं !

दुनिया के किसी भी हिस्से के पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाज में हर माता-पिता की यह बड़ी गहरी लालसा होती है, ख़ासकर पिता की, कि उनका बेटा आज्ञाकारी और कमाऊ हो, जो श्रवणकुमार की तरह उनकी सेवा करे; और उनकी बेटी संस्कारशील, सुशील, मृदुभाषी, आज्ञाकारी, चरित्रवती हो, जो समाज एवं ख़ानदान में अपने अच्छे व्यवहारों, पवित्र चरित्र एवं सुशील आचरण से उनका सम्मान बढ़ाए | वे चाहते हैं कि उनकी बेटियाँ इतनी ‘संस्कारशील’ और ‘आज्ञाकारी’ हों कि…

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फ़टी जींस, लड़कियाँ और संकट में संस्कृति

‘जींस’ को लेकर चंद महीनों पहले ही उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री का वह सार्वजनिक बयान तो सबको याद ही होगा, जिसमें वे किसी महिला द्वारा फ़टी हुई जींस पहने जाने को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज़ कर रहे थे और जिसपर विवाद खड़ा हो गया था ! यहाँ बात उसी ‘जींस’ की हो रही है | ‘जींस’ वह वस्त्र है, जो यूरोप में पैदा हुई | दरअसल यूरोप में आए ‘नवजागरण’ और उसके परिणामस्वरूप विकसित हुए…

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