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पुस्तक समीक्षा

‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ (लेखक : हितेन्द्र पटेल)

राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

इसी साल जनवरी के पहले सप्ताह में मेरे पास एक किताब आई थी, जिसका शीर्षक था ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ | राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘समयांतर’ के संपादक महोदय पंकज बिष्ट जी ने यह किताब मुझे इसकी समीक्षा लिखने के लिए भेजी थी | दरअसल यह किताब पिछले साल (2022) अपने दो-दो संस्करणों के साथ प्रकाशित हुई है और पाठक-जगत में काफ़ी हलचल मचाए हुए है | इसलिए इस किताब पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है | इस पुस्तक की उक्त समीक्षा विस्तृत रूप में ‘समयांतर’ के फ़रवरी 2023 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है— ‘उपन्यास का आइना इतिहास के चेहरे’ शीर्षक से |

इस पुस्तक का मूल विषय इतिहास-लेखन के पीछे काम करती विचारधाराओं को लेकर सवाल-जवाब है, और कुछ नए विचारधाराओं के आधार पर लिखे जाने का प्रस्ताव-सा भी | पुस्तक के लेखक हितेन्द्र पटेल (वर्त्तमान में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता में इतिहास विभाग के अध्यक्ष और प्रोफ़ेसर) का कहना है कि स्वाधीनता-संग्राम और उसके बाद नए भारत के निर्माण की प्रक्रियाओं के इतिहास को एक पार्टी-विशेष (कांग्रेस) के नज़रिए से देखा और लिखा गया; जबकि इन चीजों को अन्य नज़रिए से भी देखे जाने की ज़रूरत है | लेखक प्रस्तावित करता है कि वे अन्य दृष्टिकोण ‘हिन्दुत्ववादी’, ‘समाजवादी’, ‘वामपंथी’ हो सकते हैं, जिनके आधार पर इतिहास को लिखा जाना चाहिए |

लेकिन इस किताब को पढ़ते हुए मुझे कई बातें कुछ अधिक विस्तार से समझ में आईं, जिन्हें पिछले 8-9 सालों के दौरान सम्पूर्ण समाज ने बहुत शिद्दत से महसूस किया है | और उन्हीं में से कुछ को साझा करना इस संक्षिप्त लेख का उद्देश्य है, विस्तृत समीक्षा तो ‘समयान्तर में प्रकाशित है ही | वे मुख्य बातें कुछ इस प्रकार हैं— पहली बात, बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग का एक ख़ास विचारधारा ‘हिन्दुत्ववाद’ की ओर झुकाव का तेज़ी से बढ़ना; दूसरा, यह देखना कि कैसे ‘हिन्दुत्ववादी’ शक्तियाँ अपने साथ बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों, साहित्यकारों आदि को अपने साथ लेकर अपनी कुटिल योजना को पिछली एक सदी से लगातार आगे बढ़ा रही हैं |

‘गोदी बुद्धिजीवियों’ का तेज़ी से प्रकटन

पिछले 8-9 सालों के दौरान जिस तरह मीडिया का बहुलांश हिस्सा बड़ी तेज़ी से जनता की पक्षधरता को छोड़कर सत्ता की चरण-वंदना में लिप्त होते हुए उसके क़दमों के नीचे बैठ चुका है, वह अब किसी से छुपा नहीं है; जनता उसे अब ‘गोदी मीडिया’ के नाम से संबोधित करती है | लेकिन इसी बीच एक और काम बहुत तेज़ी से हुआ है, जो पहले छुपे रूप में होता था; वह है बुद्धिजीवियों, लेखकों, इतिहासकारों आदि के एक विशाल हिस्से का स्वाधीन चिंतन-मनन और लेखन से दूर छिटकना और सत्ता की, बल्कि कहना चाहिए कि ‘हिन्दुत्ववादी राजनीति’ करने वाले आरएसएस-भाजपा की, गोद में जाकर बैठना और उसके अनुसार कार्य करना | इसलिए यह सवाल उठता है कि चरण-वंदना करनेवाले मीडिया की ही तरह क्या सत्ता की चरण-वंदना करनेवाले बुद्दिजीवियों आदि को ‘गोदी बुद्धिजीवी’ (या ऐसा ही कोई अन्य संबोधन, जो उनके द्वारा सत्ता की चरण-वंदना को स्पष्ट करे) कहा जाएगा? लेकिन स्वतंत्र चिंतन-मनन करनेवाले ये बुद्धिजीवी ऐसा क्यों कर रहे हैं?

इसकी तीन संभावनाएँ नज़र आ रही हैं— एक तो सत्ता से उनका डर, जोकि स्वाभाविक ही है; क्योंकि जिस तरह का दमन-चक्र भाजपा-आरएसएस ने चला रखा है, उसे देखते हुए बुद्धिजीवियों आदि का डरना लाज़िमी है | दूसरा कारण लोभ हो सकता है; अर्थात् धन, राजकीय सम्मान/पुरस्कार, यश-प्राप्ति का लोभ | और तीसरा कारण उनकी अपनी ही हिन्दुत्ववादी मानसिकता भी हो सकती है, जो पिछली सदी में ख़ास कारणों से छिपी हुई थी, लेकिन इस समय अनुकूल माहौल पाकर उभर आई है | दरअसल प्रशंसा की भूख एक ऐसी आग है, जिसमें बहुत कुछ जलता है और बहुत कुछ पकता भी है | पिछली सदी के दौरान ‘जन-पक्षधरता’ जहाँ कुछ लोगों के लिए उनके सामाजिक-दायित्वबोध की उपज थी, तो कुछ के लिए फ़ैशन | बहुत संभव है कि फ़ैशन वाले बुद्धिजीवी-समुदाय अपने मन में ‘हिन्दुत्ववाद’ को संजोकर रखते हों, लेकिन ‘हिन्दुत्ववाद’ के जन-विरोधी चरित्र के कारण उसे अपने विचारों और लेखन में प्रकट न करते हों | आख़िर बदनामी और मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ जाना किसे पसंद है…?! लेकिन 2014 में हिन्दुत्ववादी पार्टी के सत्तासीन होते ही उनको अपनी वास्तविक भावना के अनुरूप माहौल मिल गया और उन्होंने अपनी वास्तविक मनोवृत्ति को प्रकट करने में संकोच न किया | तब क्यों न मान लिया जाए कि ऐसे बुद्धिजीवियों के सपने में भी ‘हिन्दूराष्ट्र’ और ‘आर्य-शासन’ की मनोहारी छवि किसी-न-किसी रूप में पहले से ही रची-बसी रही होगी…?  

इस पुस्तक के लेखक हिन्तेंद्र पटेल के विषय में मुझे जो संक्षिप्त जानकारी मिली (अन्य विद्वानों की राय के आधार पर), उसके अनुसार लेखक वामपंथी विचारधारा के विद्वान् और आलोचक हैं तथा जनपक्षधरता के साथ खड़े माने जाते रहे हैं | लेकिन जैसाकि यह माना जाता है कि किसी भी विद्वान् के चिंतन को समझने के लिए उसकी क़िताबें, लेख आदि (यदि उसने लिखी हों) बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होते है | इसलिए जब मैं लेखक की इस क़िताब को पढ़ रही थी, तब मुझे लेखक के चिंतन और विचारों के सम्बन्ध में विद्वानों की राय के विपरीत बातें क़िताब में देखने को मिलीं | वैसे भी हितेन्द्र पटेल का नाम मेरे लिए अनजाना था, इसलिए मेरे पास उनकी यह क़िताब ही सबसे बड़ा माध्यम थी, उनके वैचारिक आयाम को कुछ अंशों में समझने के लिए |

इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बात बहुत शिद्दत से महसूस हुई कि किस तरह आरएसएस-भाजपा ने पिछले लगभग 100 सालों के दौरान बुद्दिजीवियों, लेखकों, इतिहासकारों आदि की एक पूरी जमात तैयार की है, जिसके एक छोर पर औपनिवेशिक काल से ही गुरुदत्त जैसे अति-हिंसक (वैचारिक-हिंसक) साहित्यकार सक्रिय रहे हैं, जो हर हाल में ‘आर्य-शासन’ और ‘ब्राह्मण-वर्चस्व’ की स्थापना के लिए छटपटा रहे थे; जबकि दूसरे छोर पर हितेन्द्र पटेल जैसे 21वीं सदी के आधुनिक बुद्धिजीवी सक्रिय हैं, जो ‘जनपक्षधरता’ और स्वतन्त्र-लेखन के नाम पर उसी ‘हिन्दुत्ववाद’ की योजनाओं को पर्दे के पीछे से आगे बढ़ा रहे हैं और जिनकी कोशिश अपनी पुस्तकों के माध्यम से कॉलेज और विश्वविद्यालय जानेवाले नव-युवाओं (जिनके चिंतन-जगत अभी ठीक से निर्मित नहीं हुए हैं, जो बौद्धिक रूप से बेहद कच्चे हैं और जिनके विचारों को बहुत आसानी से इच्छानुसार आकार दिया जा सकता है) की ऐसी विशाल भीड़ तैयार करने की है, जो ‘हिन्दुत्ववाद’ की स्थापना के लिए बेसब्र हो, उग्र हो, प्रचंड-हुंकार भरने को तैयार हो सके, मरने-मारने, कटने-काटने को प्रस्तुत हो |

‘आर्य-शासन’ और ‘ब्राह्मण-वर्चस्व’ हेतु प्रयास

इस किताब को पढ़ते हुए दूसरी बेहद महत्वपूर्ण यह बात बहुत आसानी से समझ में आ रही है कि किस तरह आरएसएस अपनी स्थापना (1925) के समय से भारत में ‘आर्य-शासन’, प्रकारांतर से ‘ब्राह्मण-शासन’, की स्थापना के लिए प्रयासरत है | पुस्तक में शामिल गुरुदत्त (फ़िल्मकार गुरुदत्त नहीं, बल्कि साहित्यकार गुरुदत्त, जोकि एक अन्य व्यक्ति हैं, लेकिन हिंदी-साहित्य में उनका कोई नामोनिशान नज़र नहीं आता) के उपन्यास चिल्ला-चिल्लाकर यह कह रहे हैं कि ‘भारत में ब्राह्मण-शासन होना चाहिए, कुछ और नहीं’; कि ‘भारत में दलितों, शूद्रों, महिलाओं, मुसलमानों आदि को केवल जीवित रहने भर के अधिकार मिलने चाहिए, और सत्ता, शासन, अर्थव्यवस्था में उनकी कोई भागीदारी नहीं होनी चाहिए’; कि ‘दलितों, शूद्रों, महिलाओं को केवल सनातनी-आर्यों और उनमें भी ब्राह्मणों की सेवा करना ही उनका धर्म बनाना चाहिए’; कि ‘शासन करने का अधिकार केवल-और-केवल ब्राह्मण को है, किसी और को नहीं’; कि ‘ब्राह्मण कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि दैवीय हैं, पृथ्वीदेव हैं, जिनके आगे ईश्वर भी नतमस्तक होते हैं’; कि ‘समस्त संसाधनों का उपभोग केवल सनातनी-आर्यों को ही करने का अधिकार होना चाहिए, दलितों, शूद्रों, महिलाओं, मुसलमानों आदि को नहीं’…आदि |

इस किताब में आए अन्य उपन्यासकारों (भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर ) के यहाँ तो दिख ही रहा है, लेकिन उनसे भी अधिक, बल्कि सबसे अधिक गुरुदत्त के उपन्यासों से पता चल रहा है कि किस तरह बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों, क्रांतिकारियों, समाजवादियों, साहित्यकारों और इतिहासकारों की एक पूरी जमात ‘आर्य-शासन’, ‘हिन्दू-राष्ट्र’, ‘ब्राह्मण-वर्चस्व’ के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल निर्मित करने में दशकों तक जी-जान से लगी रही | और उसी का प्रतिफल है आज का ये आरएसएस-भाजपा का शासन, जो बहुत तेज़ी से ‘हिन्दूराष्ट्र’ की ओर बढ़ रहा है और यदि वास्तव में वह इसी तरह सफ़ल होता गया, तो उसके बाद ‘आर्य-शासन’ की स्थापना की ओर क़दम बढ़ाएगा | और यह पुस्तक ये बात बता रही है कि उस कोशिश का एक प्रतिफल या उदाहरण हितेन्द्र पटेल जैसे लेखकों का तेज़ी से उभरना और सत्ता के उद्देश्यों में अपना योगदान देना भी है |

इसलिए यह पुस्तक और इसके जैसी अन्य पुस्तकें पढ़ी जानी इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि इन्हीं पुस्तकों में उन कोशिशों के जाल-जंजाल और अनेक ताने-बाने दिखेंगे, जिनसे पता चलता है कि ‘जन-विरोधी’ शक्तियाँ किस तरह से कार्य कर रही हैं | ताकि उन्हें जानकर समय रहते समस्त विध्वंस को रोकने की कोशिशें की जा सकें और जनता (समस्त स्त्रियाँ, ओबीसी, शूद्र, दलित, आदिवासी, ग़ैर-हिन्दू, तीसरा जेंडर, ट्रांसजेंडर…आदि) को मिले मूलभूत मानव-अधिकार बचे रह सकें |

  • डॉ. कनक लता

17 फ़रवरी 2023

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