हिंदी उपन्यासकार भगवान सिंह ने अपने उपन्यास ‘अपने-अपने राम’ में एक पात्र के हवाले से लिखा है—“वसिष्ठ के लिए शूद्र मनुष्य होते ही नहीं | उनका कोई सम्मान नहीं होता | अपमान से उन्हें पीड़ा नहीं होती | उनके लिए गर्हित से गर्हित शब्द और संबोधन प्रयोग में लाये जा सकते है | नहीं संबोधन ही नहीं उन्हें अपना नाम तक ऐसा रखने का अधिकार नहीं जो घृणित न हो | शूद्र का नाम जुगुप्सित होना चाहिए–शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् |” 1
अक्सर हम सुनते ही रहते हैं कि ‘नाम में क्या रखा है, नाम कोई भी हो, कुछ फ़र्क नहीं पड़ता…’ | यदि इस बात की सच्चाई देखती हो, तो किसी दबंग जाति, समुदाय या वर्ग-विशेष को किसी ऐसे नाम से पुकारिए, जो प्रायः उनके द्वारा कमज़ोर लोगों, वर्गों, समुदायों आदि के लिए प्रयोग किए जाते हैं |
दरअसल किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व-निर्माण की शुरुआत उसके नाम से ही हो जाती है, शैशव-उम्र से | व्यक्ति का नाम जिस प्रकार का होता हैं, उसकी छाप अवश्य ही उसके व्यक्तित्व पर पड़ती है | यहाँ ये बात कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि यदि किसी का नाम ‘दयानिधान’ रखा गया है, तो वह ‘ईश्वर-तुल्य’ हो जाएगा; यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जिसका भी यह नाम होगा, कम-से-कम वह अपने को दीन-हीन, लाचार, बेचारा तो कत्तई नहीं समझेगा, बल्कि एक सम्भावना यह हो सकती है कि उसमें कुछ अधिक मात्रा में मजबूर इंसानों के प्रति करुणा हो; अथवा दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि वह अपने-आप को दूसरों का ‘स्वामी’, ‘दूसरों पर दया करनेवाला’ एवं सामने वाले को ‘दयनीय’, ‘बेचारा’, दीन-हीन समझे; हालाँकि यह आवश्यक नहीं है |
और इससे अधिक यहाँ तात्पर्य यह है कि पीढ़ियों से यह या इस प्रकार के नाम किसी वंचित या कमज़ोर समाज के लोगों को रखने की व्यावहारिक अनुमति नहीं दी गई, क्योंकि ‘दया’ करने का अधिकार केवल दबंगों को होता है, इसलिए यह नाक़ाबिले-बर्दाश्त है कि कोई कमज़ोर समाज का व्यक्ति किसी दबंग-समाज के व्यक्ति पर दया करे | इसी प्रकार एक और उदाहरण ‘नारायण स्वामी’ (अर्थात् ईश्वर का स्वामी) केवल कुछ ख़ास लोगों को कहलाने का अधिकार है, इसलिए यह नाम भी परंपरागत रूप से कोई कमज़ोर समाज का व्यक्ति नहीं रख सकता |
इसी प्रकार पुरुषों और स्त्रियों के नाम का भी मामला है | पुरुषों के नाम ‘राधास्वामी’ (राधा का स्वामी), ‘सीतापति’ या ‘सियापति’ अथवा ‘सीतानाथ’ (सीता के पति या स्वामी) तो रखे जा सकते हैं; लेकिन दबंग-समाज में भी उनकी अपनी ही स्त्रियों के नाम ‘कृष्णस्वामिनी’, ‘रामस्वामिनी’ कत्तई नहीं रखे जा सकते !
व्यावहारिक धरातल पर नामों के ‘जादू’ को देखना-समझना हो, तो किसी ऐसे मज़दूर के बच्चे से उसका नाम पूछिए, जिसका नाम कुछ निरर्थक, बिगड़ा हुआ या विकृत-रूप में, या घृणास्पद, या किसी जानवर, कीट-पतंग आदि के नाम पर रखा गया हो | बच्चे के द्वारा नाम बताए जाने के दौरान उसके स्वर एवं उसकी भाव-भंगिमा को ध्यान से देखना चाहिए | फ़िल्म ‘बिल्लू’ (मूल नाम ‘बिल्लू बार्बर’) का एक दृश्य इसे ख़ूब अच्छी तरह व्याख्यायित करता है, जिसमें फ़िल्म के अंत में जब फ़िल्म का एक नायक ‘साहिर खान’ (शाहरुख़ खान अभिनीत) दूसरे नायक ‘बिल्लू’ (इरफान खान द्वारा अभिनीत) के घर जाने पर उसके बच्चों से जब उनका नाम पूछता है और बेटी अपने भाई का नाम बताती है—‘डुग्गू’, जोकि एक निरर्थक नाम है, जिसे माता-पिता ने दुलारवश रखा है; तो लड़का अपने गुस्से-भरे तीखे लहज़े से बहन का विरोध करते हुए और अपना नाम ‘डुग्गू’ को बरजते हुए एकदम तपाक-से कहता है, ‘रौनक नाम है मेरा’ !” 2 ‘रौनक’, जोकि एक सार्थक नाम है, जिसके प्रभावशाली एवं बेहतरीन अर्थ भी हैं— उजाला, रोशनी, चमक, तेज़ ! स्वयं ‘बिल्लू’ का नाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, हमारे समाज के व्यवहार के मुताबिक़ उसके नाम का सन्दर्भ ‘बिल्ली’ या ‘बिल्ले’ से है, और वह एक ‘हजाम’ यानी ‘नाई’ है, एक वंचित-समाज का व्यक्ति !
क्या यह एक दृश्य ही काफ़ी नहीं है, यह बताने के लिए कि किसी व्यक्ति के नाम में क्या रखा होता है, या क्या-क्या शामिल होता है ? क्या फ़िल्म का टाइटल भी उस सामाजिक-संरचना की व्याख्या नहीं करता है ?
अब ज़रा किसी दबंग समाज के बच्चे से उसका नाम पूछकर देखिए, अपना नाम बताते हुए जो चमक उसके चेहरे पर दिखेगी, वह क़ाबिले-ग़ौर होगी…! साथ ही, उसका नाम बताने का लहज़ा, उसकी शारीरिक-अभिव्यक्ति (बॉडी लैंग्वेज), उसका स्वर और उसकी भाषा भी उतनी ही दमदार होगी !
तात्पर्य यह, कि किसी व्यक्ति के नाम से उसकी पहचान ही नहीं जुड़ी होती है, बल्कि उसके नाम यह भी बताते हैं कि वह ‘दबंग’ वर्ग का है या ‘कमज़ोर’ वर्ग का; वह शासन करनेवाले समाज से है या शासित होनेवाले समाज से ! इससे भी बड़ी बात यह, कि उसे सबसे पहले उसके नाम के माध्यम से ही बचपन से सिखाया-समझाया, जताया-बताया जाता है कि उसकी समाज में हैसियत क्या है, उसे किसपर शासन करना है और किसके अधीन रहना है |
इसीलिए गाँवों और क़स्बों में अभी भी कमज़ोर लोगों और वर्गों के नाम ऐसे रखे जाते हैं, जो उस व्यक्ति को अपनी हीनता और तुच्छता का एहसास हमेशा दिलाते रहें; दबंगों द्वारा भी और परंपरा के शिकार बन चुके कमज़ोरों द्वारा भी | किसान, महिलाएँ, वंचित-समाज के लोग, नौकर आदि इसी श्रेणी में आते हैं | इसके लिए उनके नाम कुछ हास्यास्पद, घृणित, निरर्थक, या जुगुप्सा पैदा करनेवाले रखे जाते हैं | ऐसे कुछ लोगों के जो नाम मेरे सामने से गुज़रे हैं या आज भी गुज़रते हैं, उनमें से कुछ की बानगी देखिए— वंचित-वर्गों की महिलाओं के लिए सितबिया, सीती, मुनिया, बुधिया, बुधनी, कुलनी, दुखिया, सनीचरी, सुकिया, मंगरी, रबड़ी, जिलेबिया, सरबती, झुलनी, रुनिया, झुनिया… और इसी प्रकार वंचित-पुरुषों के भी घुटुर, मंगरू, बुधन, बुधई, सुखई, मंगल, रामू, कुकुर, नेउर, बिल्लर, सियरू, जगनू, बूटन, सूखन, सुखनू, दूखन, दुखी, दुखिया…
हिंदी-साहित्य की दुनिया में इसका बेहद ही सटीक उदाहरण राही मासूम रज़ा का लघु उपन्यास ‘नीम का पेड़’ है, जिसके तीन पात्रों के नाम इस बात को प्रमाणित करते हैं– बुधई, दुखिया और इन दोनों का बेटा सुखई—“…आज ही उसकी बीबी दुखिया ने उसका वारिस जना है, जिसका नाम उसने रखा है सुखई | बुधई का बेटा सुखई |” 3
यह यूँ ही नहीं है कि ‘बुधई’, जिसका वास्तविक नाम ‘बुधीराम’ था, लेकिन दबंगों ने उसे ‘बुधीराम’ से ‘बुधई’ बना दिया, की चिर-इच्छा यह है कि वह अपने बेटे को ‘सुखीराम’ से ‘सुखई’ नहीं बनने देगा, जिसके लिए वह उसे पढ़ाता है और विविध कोशिश करता है, और आख़िरकार सुखई के राजनीति में आ जाने के बाद उसका सपना साकार होता है—“सुखीराम को सुखई न बनाने का उसका सपना साकार हुआ…” 4
और जब उसका बेटा राजनीति में एक सम्मानजनक एवं ताक़तवर मुक़ाम हासिल करके ‘सुखई’ से ‘सुखीराम’ बन जाता है, तब ‘बुधई’ भी ‘बुधई’ से ‘बुधीराम’ बन जाता है, जिसका असर उसके रहन-सहन पर भी दिखाई देने लगता है— “बुधीराम कायदे से धुली सफ़द धोती-कुर्ता पहनने लगा था और रामबहादुर यादव की तरह सर पर गाँधी टोपी लगाना नहीं भूलता था | …उसकी बहू शारदा, उसकी बुढ़िया दुखिया मियाँ के खानदान के गहनों में लक-दक घूमती थीं | उसका सारा परिवार अब टेबुल पर बैठकर मियाँ के बर्तनों में खाता था |” 5
अब इसी के साथ समाज के दबंगों के नाम भी देखना बहुत ज़रूरी है | यहाँ भी महिलाओं के नाम केवल कुछ ही मामलों में पुरुषों की तरह सम्मानजनक होते हैं, अधिकांश तो ठीक-ठाक भर ही होते हैं, और वे भी उनके विवाह के बाद भुला दिए जाते हैं | पुरुषों के नाम कुछ ऐसे होते हैं— शिवमंगल चौहान, राम विशाल राय, रामचंद्र शुक्ल, विशाल प्रताप सिंह, महावीर प्रसाद त्रिपाठी, अवधेश प्रसाद मिश्र, ब्रजेश कुमार शुक्ला, कृपानिधान चतुर्वेदी, जगतस्वामी ओझा… आदि |
हम देख सकते हैं उनके नाम में कम से कम दो शब्द तो मिल ही जाएँगे, और सामान्य रूप से तीन शब्द | ये दो या तीन शब्द भी कोई मामूली नहीं, बल्कि बहुत ही ख़ास और साभिप्राय होते हैं— पहला शब्द (तीन शब्दों वाले नाम में दूसरा शब्द भी) यह बताने के लिए, कि उस व्यक्ति की कितनी ठसक है, कितना बड़ा प्रभाव और शक्ति है, उसमें कितनी महानता छुपी है; जबकि दूसरा (तीन शब्दों वाले नाम में तीसरा) शब्द यह बताने के लिए कि वह कोई मामूली व्यक्ति नहीं बल्कि उस सामाजिक-समुदाय से है, जिसके आगे समाज को सदा ही नतमस्तक रहना है, उसकी आज्ञाओं का पालन करना है, उसकी निःस्वार्थ सेवा करनी है, जैसाकि सदियों से होता आया है; अतः उस प्रभावशाली नामधारक के सामने भी कमज़ोर समाज को सदैव ही नतमस्तक रहना होगा !
समाज की इस मानसिकता को यदि समझना हो तो सबसे आसान है अपने आसपास देखना; जैसाकि ऊपर कहा गया है, फ़िल्में भी इसका बहुत बढ़िया फ़िल्मांकन करती हैं | फ़िल्मों में किसी ज़मींदार, साहूकार, पण्डित या उद्योगपति के नाम वैसे ही होते हैं, जैसा ऊपर बताया गया है; जबकि उनके नौकरों के नाम प्रायः रामू, फुलिया, मंगल, छोटू, बिरजू जैसे ही होते हैं ! ढाबों, रेहड़ियों, ठेलों पर खाद्य-सामग्री परोसने एवं जूठे बर्तन उठानेवाले बच्चे का नाम, गाड़ियों के गैराजों पर मेकैनिकों के सहायकों (हेल्पर) का नाम प्रायः ही हिंदी-फ़िल्मों आदि में ही नहीं हक़ीकत में भी ‘छोटू’ होता है |
ऐसा इसलिए है, क्योंकि फ़िल्में भी न केवल उस सामाजिक-समीकरण को बताती हैं, बल्कि कहीं-न-कहीं और कुछ मामले में उसको प्रकारांतर से प्रोमोट भी करती हैं, जोकि दुःखद ही है |
यही कारण है कि इतिहास में 750ई. से 1300ई. के दौरान पूर्वी भारत में सदियों के सामाजिक-अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह करनेवाले ‘बौद्ध-सिद्धों’ ने उस अत्याचारी सामाजिक-व्यवस्था को बहुत सारी बातों के अलावा उसकी नाम-सम्बन्धी इन उपरोक्त प्रवृत्तियों के कारण धिक्कारने और धता बताने के लिए अपने नामों को ही एक हथियार के रूप में तब्दील कर दिया | इसके लिए सिद्धों ने अपने नाम रखे— ‘कुक्कुरिपा’ (ऐसा ‘कुत्ता’ तो सिद्धत्व प्राप्त करके महान बन गया), ‘पनहपा’ या ‘उपानहपा’ (ऐसा ‘जूता’ तो सिद्धत्व प्राप्त करके महान बन गया); इसी प्रकार कंकालिपा (कंकाल), चमारिपा (चमार), डोम्भिपा (डोम), सरहपा (बाण बनानेवाला) आदि भी है | सिद्धों के ये नाम मठाधीशों के भारी-भरकम नामों ‘श्री श्री 108’, ‘श्री श्री 1008’, ‘महामंडलेश्वर’, ‘महामहोपाध्याय’, ‘सिद्धेश्वर’, ‘जगतस्वामी’, ‘महा-आचार्य’ आदि का मज़ाक उड़ाते हुए रखे गए थे | कबीर भी जब कहते हैं “मैं तो कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊ”, तो ‘मोती’ की जगह ‘मुतिया’ उन्हीं भारी-भरकम नामधारी महानुभावों का मज़ाक उड़ाते से प्रतीत होते हैं |
सदियों के आंदोलनों और विविध जनजागरण-अभियानों के बाद ‘नाम’ के महत्त्व को कमज़ोर समाज के लोगों ने समझा ही नहीं, बल्कि साहस करते हुए अब कुछ दशकों से अपने बच्चों के नाम बेहतरीन, सार्थक, सुन्दर, कर्णप्रिय, प्रभावशाली रखने लगे है | हालाँकि यह बात दबंग-समाज के लोगों को अच्छी नहीं लगती, लेकिन अब लोकतंत्र के कारण वे चुप हैं…
तो यदि कोई कहे, कि ‘अरे यार, नाम में क्या रखा है’, तो एक बार उसे किसी ऐसे ही निरर्थक, बिगड़े हुए या बिगाड़े गए, जानवरों या कीट-पतंगों को इंगित करनेवाले, जुगुप्सा पैदा करनेवाले, व्यंग्य करनेवाले, कानों को चुभनेवाले, अपमानजनक लगनेवाले नामों से संबोधित करके देखिए; सत्य अपने-आप सामने आ जाएगा और उक्त कथन कहनेवाले को यह बात आसानी से समझाई जा सकेगी कि नाम में क्या रखा है; बल्कि कहना चाहिए कि क्या-क्या रखा है…!
सन्दर्भ
- पृष्ठ- 306, भगवान सिंह, अपने-अपने राम, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2011
- फ़िल्म ‘बिल्लू’ (मूल नाम ‘बिल्लू बार्बर’), निर्देशक-प्रियदर्शन, 2009
- पृष्ठ-10, राही मासूम रज़ा, नीम का पेड़, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007
- पृष्ठ-35, वही
- पृष्ठ-36, वही
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
नमस्कार कनक मैडम आप ने पुनः एक ज्वलंत मुद्दा उठाया है।नाम का प्रभाव ताउम्र हमारे जीवन को प्रभावित करता रहता है।यह एक चरम सत्य है।इसीलिए आज सभी सम्पूर्ण जागरूकता से अपने बच्चों के नाम तय करते हैं।
बहुत उम्दा विचारोत्तेजक लेख।