‘नवाचार’ एक ऐसा ज़रिया हैं, जिनके माध्यम से विद्यालयों में आसानी से एवं रोचक तरीक़ों से बच्चों को बहुत सारी चीजें हँसते-खेलते पढ़ाया जा सकता है | यही कारण है कि भारत ही नहीं दुनिया के सभी देश, जो ख़ुशनुमा माहौल में बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की वक़ालत करते हैं एवं उसके लिए कोशिश करते है, इन नवाचारों को बहुत महत्त्व देते हैं |
लेकिन एक बात यहाँ बहुत ध्यान से समझने की है… वह यह, कि भारत के सन्दर्भ में क्या निजी महँगे विद्यालय भी अपने विद्यार्थियों के लिए ‘नवाचारों को उसी मात्रा में, उन्हीं तरीक़ों से अपनाते हैं, जितनी मात्रा एवं जिन तरीक़ों से सरकारी-विद्यालयों में अपनाए जाते हैं? यदि ऐसा नहीं है, तो इसका कारण क्या है? जिन निजी-विद्यालयों का सारा बिज़नेस विद्यार्थियों की शिक्षा की ‘गुणवत्ता’ पर ही टिका हुआ है, क्यों वे ही इन ‘नवाचारों’ को अपने यहाँ नहीं अपनाते? तब क्यों भारत के सरकारी स्कूलों में इन ‘नवाचारों’ की ऐसे वक़ालत की जाती है, जैसे उनके बिना शिक्षा संभव ही नहीं? और ‘नवाचार’ भी थोड़े-बहुत नहीं, बल्कि उसकी इतनी ठेलमठेल है कि शिक्षक, बच्चे और शिक्षा उसके बीच खो-से जाते हैं ! कहीं इन दोनों बातों के बीच कोई तारतम्यता तो नहीं है—अर्थात् सरकारी-विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता और नवाचारों की भीड़ के बीच तारतम्यता…!?
इसे समझना हो, तो हमारे सरकारी-विद्यालयों की पाठ्य-पुस्तकों को भी देखा जा सकता है; वे हमारे देश की सरकारों, शिक्षा-मंत्रालयों एवं विभागों, समाज के वर्चस्ववादी-तबकों आदि के बारे में बहुत-सी कहानियाँ अपने-आप बयाँ कर देती हैं; पाठ्य-पुस्तकों पर किसी और लेख में बात होगी…!
लेकिन कहते हैं ना कि ‘अति’ कहीं भी अच्छी नहीं होती, न सकारात्मक बातों में, न नकारात्मक बातों में— “अति का भला न बोलना, अति की भली चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप |” (कबीर) | तब कैसे यह मान लिया जाए कि सरकारी-विद्यालयों में ‘नवाचारों’ की बाढ़, शिक्षकों की एक के बाद एक ट्रेनिंग की रेलमपेल, विद्यालयों में बच्चों की पढ़ाई को रोककर अनेक उत्सव, सांस्कृतिक-कार्यक्रम, बेतहाशा जयंतियाँ मनाने के सरकारी-फ़रमान सरकारी-विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत ज़रूरी और उपयोगी हैं…?!…
जब हम निजी-विद्यालयों की ओर देखते हैं, तो वहाँ ‘नवाचार’ नदारद मिलते हैं, और पाठ्य-पुस्तकों के रूप में NCERT के अलावा अधिकांश निजी-विद्यालय अपनी अनुषंगी पुस्तकें भी पढ़ाते हैं | यह सत्य है कि सभी निजी-विद्यालयों में भी शिक्षा की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है, बल्कि कई जगह वह सरकारी-विद्यालयों से भी ख़राब है | और यह स्थिति अधिकतर सस्ते निजी-विद्यालयों की ही है, जहाँ वंचित-समाज के कुछ गिने-चुने साधन-संपन्न लोगों के बच्चे पढ़ते हैं; न कि महँगे निजी-विद्यालयों की, जहाँ सरकारी-स्कूलों में शिक्षा के लिए नियम-क़ायदे बनानेवाले अधिकारियों एवं मंत्रियों के बच्चे पढ़ते है |
लेकिन इसकी आड़ में इस बात से इंकार तो नहीं किया जा सकता है कि सरकारी-विद्यालयों एवं निजी-विद्यालयों की गुणवत्ता में ज़मीन-आसमान का अंतर है? यदि ऐसा नहीं होता, तो भारत के तमाम सरकारी एवं निजी-क्षेत्रों के कर्मचारियों, राजनेताओं, उद्योगपतियों से लेकर छुटभैये नेताओं, छोटे-मोटे व्यवसायियों, दूकानदारों तक के बच्चे निजी-विद्यालयों में ही नहीं पढ़ते, बल्कि सरकारी-विद्यालयों में जाते ! यहाँ तक कि जिन सरकारी-विद्यालयों में अध्यापक ग़रीबों के बच्चों को ‘नवाचारों’ के माध्यम से पढ़ाते हैं, उन्हीं विद्यालयों में उनके अपने बच्चे नहीं पढ़ते हैं, बल्कि वे महँगे एवं अच्छे निजी-विद्यालयों में पढ़ने के लिए भेजे जाते हैं…!
ज़ाहिर सी बात है कि इसका संबंध जितना दिखावे से है, उससे कहीं अधिक सरकारी-विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता से है | और यह गुणवत्ता जिन कारणों से ख़राब हुई है और हो रही है, उनमें वे सभी बातें शामिल हैं, जिनसे सरकारी-विद्यालयों में बच्चों को ठीक से पढ़ने-लिखने के अवसर नहीं मिल पाते हैं |
जैसाकि पहले ही कहा गया है कि यह ठीक बात है कि ‘नवाचारों’ के ज़रिए बच्चे बहुत आसानी से और जल्दी सीखते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जब यही नवाचार अत्यधिक मात्रा में अपनाए जाते हैं, तब इसके जो नकारात्मक असर सामने आते हैं, उन्हें इस प्रकार समझा जा देखा और सकता है—
- उनमें सबसे पहला और बड़ा प्रभाव यह हो सकता है और होता है, जहाँ भी अत्यधिक मात्रा में नवाचार अपनाए जाते हैं, कि इससे बच्चे इन ‘नवाचारों’ की दुनिया में खो जाते है और उनकी रोचकता में ही उलझकर रह जाते हैं |
- आगे चलकर ‘नवाचारों’ पर उनकी निर्भरता इतनी बढ़ सकती है कि उसके बिना कुछ भी सीखना उनके लिए कठिन हो सकता है |
- बच्चे धीरे-धीरे जब इसके आदी हो जाते हैं, तब हर दिन एक नए नवाचार’ की प्रतीक्षा भी उनके मन में हो सकती है, जिसके बिना पढ़ने में उनका शायद मन भी न लगे |
- प्रतिदिन एक नया ‘नवाचार’ अपनाने के लिए अध्यापकों पर तब अत्यधिक मनोवैज्ञानिक एवं विभागीय दबाव पड़ सकता है, जिससे न केवल उनके सभी विद्यालयी-कार्य प्रभावित हो सकते हैं, बल्कि उनपर मनोवैज्ञानिक दबाव भी पड़ सकता है, जो उनके मानसिक तनाव का कारण बन सकता है और जिसे समझना बहुत ज़रूरी है |
- शिक्षकों पर रोज़ नए ‘नवाचार’ के दबाव के चलते और बच्चों का उसके बिना पढ़ने में मन न लगने के कारण उनकी पढ़ाई पीछे छूटने का ख़तरा बना ही रहता है और वह भी बहुत बड़ी मात्रा में |
कौन जाने विद्यालयों में अध्यापक इन समस्याओं से रोज़ रू-ब-रू होते भी हों, लेकिन विभागीय-दबावों एवं अन्य शिक्षक-साथियों की आलोचनाओं के शिकार बनने से बचने के लिए वे मौन रहते हों…!?
याद रखने की ज़रूरत है कि ‘नवाचारों’ का उद्देश्य बच्चों की शिक्षा को आसान बनाना होता है, न कि पढ़ाई से उनका ध्यान भटकाना | इसलिए ‘नवाचार’ शिक्षा के लिए होने चाहिए, न कि शिक्षा और विद्यालय को ‘नवाचारों’ के लिए…!
लेकिन अब यहीं पर रुककर सोचने की ज़रूरत है कि क्या यह सब सायास किया जा रहा है, इन सरकारी-विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों की शिक्षा को अधिक-से अधिक बर्बाद करने के लिए ? लेकिन क्यों…? और सरकारी-विद्यालयों को ही विशेष रूप से इस निशाने पर क्यों रखा गया है…? क्यों नहीं निजी-विद्यालयों पर भी ‘नवाचारों’ के माध्यम से पढ़ाने का दबाव डाला जाता है, जहाँ इन नियमों को बनानेवालों के बच्चे पढ़ते हैं ? और वे बच्चे कौन हैं, किस समाज के हैं, जिनके पढ़ने से देश की सरकारों, शिक्षा-मंत्रालय एवं शिक्षा-विभागों को ‘दुःख’ होता है, और जिससे बचने के लिए उनकी पढ़ाई को नष्ट करने या बाधित करने के उपाय लगातार सरकारों एवं विभागों द्वारा किए जा रहे हैं ? और यह भी कि इन बच्चों के पढ़ने से इनको दुःख क्यों होता है…? तब यह भी समझना होगा कि जिनको इन बच्चों के पढ़ने से दुःख होता है, वे लोग कौन हैं और इन बच्चों के समाज से इन ‘दुखी लोगों’ का क्या संबंध है…?
–डॉ. कनक लता
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