भारत में सरकारी-विद्यालयों का शिक्षक-समाज हमारे देश एवं राज्य सरकारों के लिए आसानी से उपलब्ध ‘बंधुआ मजदूरों’ का ऐसा सुलभ कोष है, जिसका प्रयोग कभी भी, कहीं भी, किसी भी रूप में किसी भी कार्य में किया जा सकता है | टीकाकरण, पल्स-पोलियो अभियान, चुनाव, जनगणना, जानवरों की गणना, दूसरी विभिन्न तरह की अनेक गणनाएँ, मतदाता जागरूकता अभियान….और भी न जाने कितने तरह के कार्य…| इसलिए भारत के सरकारी-स्कूलों का शिक्षक-समाज अपने विद्यालयों में यदा-कदा नज़र आता है और सड़कों, दफ़्तरों, गाँवों, क़स्बों आदि में भटकता अधिक नज़र आता है | ध्यान रहे, इस कोशिश में अब सरकारी स्कूलों के विद्यार्थी भी ‘बँधुआ मजदूर’ बनाए जाने लगे हैं…!
2014 से, यानी पिछले सात-आठ सालों में यह प्रवृत्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, शिक्षकों के लिए अभियानों की बाढ़-सी आ गई है, ठीक वैसे ही, जैसे विद्यालयों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों, जयंतियों, छुटभैये नेताओं की जयंतियों, विविध प्रतियोगिताएं आदि की बाढ़ आई हुई है | शिक्षक विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाते हुए कम और विभिन्न अभियानों में अधिक दिखाई देने लगे हैं…! ठीक वैसे ही, जैसे विद्यार्थी अपनी कक्षाओं में पढ़ते हुए कम और विविध कार्यक्रमों में प्रतिभाग करते अधिक दिखाई देने लगे हैं…
हालाँकि किसी भी देश और समाज में शिक्षकों का प्रमुखतम कार्य विद्यार्थियों को पढ़ाना, उनमें स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से चिंतन-मनन करने की क्षमता विकसित करना, देश, समाज और सम्पूर्ण मानव-जगत के लिए बौद्धिक-पीढ़ी तैयार करना ही होता है | इसलिए विकसित देशों और समाजों में उनके शिक्षक-समुदाय विभिन्न जागरूकता-अभियानों से जुड़ते तो हैं, लेकिन उस समय, जब प्रायः स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई नहीं हो रही होती है; अथवा जब देश और समाज के सामने कोई ऐसी विकट समस्या खड़ी हो गई हो, जिसपर तत्काल चिंतन एवं समाज को राह दिखाना अत्यावश्यक हो | इससे शिक्षकों के जागरूकता-अभियानों से जुड़ने से बच्चों की नियमित पढ़ाई बाधित नहीं होती है |
इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षकों का कर्तव्य केवल विद्यार्थियों को पढ़ाना ही नहीं होता है, बल्कि उनके अभिभावकों और सम्पूर्ण समाज को भी अधिक मानवीय, चिन्तनशील एवं तार्किक बनाने के लिए विभिन्न मसलों पर जागरूक बनाना भी उतना ही ज़रूरी होता है | इसीलिए शिक्षकों का विभिन्न अभियानों से जुड़ना बहुत ज़रूरी है | लेकिन कब और किस मूल्य पर, यह उसका समाज और देश तय करता है |
इस संबंध में भारत की स्थिति यह है कि उपरोक्त इसी तर्क का सहारा लेकर यहाँ सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को लगातार विद्यालयों से दूर रखने की जुगत लगाईं जाती हैं और शिक्षा को बर्बाद करने की तरकीबें निकाली जाती हैं | विविध जागरूकता-अभियानों एवं अन्य अनेक दर्ज़नों क़िस्म के कार्यों में शिक्षकों को उलझाकर उनको लगातार विद्यालयों से दूर रखा जाता है |
यह तो कुछ वही बात हुई कि बीते दशकों में स्टोव तो इस उद्देश्य से बनाए गए कि खाना पकाते समय महिलाओं को जो दिक्क़तें होती थीं और धुंएँ से जो उनकी आँखों को हानि पहुँचती थी, उससे उनको कुछ निज़ात मिल सके; लेकिन उसी स्टोव के बहाने दहेज़ के लिए बहुओं की हत्याएँ की जाने लगीं | अथवा कफ़ सिरप ख़ासी के इलाज़ के लिए बनाए गए, लेकिन पिछले एक-दो दशकों से लोग उसका प्रयोग नशे के लिए करने लगे हैं |
अब सवाल है कि सरकारें, वर्तमान सरकार तो विशेष रूप से, शिक्षकों को लगातार विद्यालयों और बच्चों को पढ़ाने से क्यों दूर करती जा रही है ?
जवाब स्पष्ट है | भारत में पिछले दो-तीन दशकों की स्थिति देखें, तो पता चलता है कि यहाँ सरकारी विद्यालयों में 90-95 फ़ीसदी बच्चे अब केवल विविध वंचित-समाजों एवं अल्पसंख्यकों के ही रह गए हैं, यहाँ इक्का-दुक्का ही ‘दबंग-हिन्दुओं’ के बच्चे दिखाई देते हैं, जो अत्यंत ग़रीब परिवारों के ही हैं | दरअसल अनेक कारणों से ‘सामान्य-वर्गों’, अर्थात् ‘दबंग-समाज’ का रुख बड़ी तेज़ी से अंग्रेज़ी माध्यम के निजी विद्यालयों की ओर हुआ है और उनके बच्चे अब प्रायः वहीं पढ़ने लगे हैं | और अब तो ग़रीब दबंग-हिन्दुओं के लिए भी और अधिक चोर दरवाज़े बनाए जा रहे हैं, ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालयों’ के रूप में | उनके बच्चों के लिए ये चोर दरवाज़े पहले भी थे, नवोदय विद्यालयों, केन्द्रीय विद्यालयों आदि के रूप में और उन्हीं को ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालयों’ के रूप में और अधिक विस्तार दिया जा रहा है |
तात्पर्य यह कि वंचित-समाजों के मुट्ठी-भर लोग पढ़ लिखकर कुछ तो बेहतर जीवन-स्थितियाँ हासिल करते रहे हैं, और यही वह स्थिति है, जो दबंग-हिन्दुओं को नागवार गुजरा | वंचितों-कमज़ोरों की वह तनिक-सी उन्नति भी दबंग-हिन्दुओं की आँखों की किरकिरी बन गई है | इसलिए उनकी कोशिश अब खुलकर यही है कि सरकारी विद्यालयों में बची-खुची शिक्षा भी ख़त्म हो जाए और वंचित समाज पूरी तरह से शिक्षा से दूर कर दिए जाएँ |
इसीलिए पिछले एक दशक से शिक्षकों को विद्यालयों से दूर रखने और विद्यालय में रहने पर पढ़ाने से दूर रखने के लिए कुछ अधिक ही ज़ोर-शोर से तमाम तरह के अभियानों को उनके मत्थे मढ़ा जा रहा है | इस सरकार के शासनकाल में यह प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ी है और शिक्षक अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए बहुत कम मिलते हैं और अभियानों में शिरकत करते हुए सड़कों पर अधिक दिखाई देते हैं | विद्यालयों में रहते हुए भी बच्चों के साथ अनेक तरह के अभियानों में जुटे रहने का सरकारी फ़रमान सरकार में बैठे सवर्ण-हिन्दुओं के षड्यंत्रों को खुलकर उजागर करता है |
हालाँकि यह प्रवृत्ति औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गई थी, जिसके अपने कारण थे | तब शिक्षक-समाज अंग्रेज़ों के शासन के विरुद्ध समाज को प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीक़े से जगा रहा था | समाज अपने शिक्षकों का बहुत आदर करने के कारण उनकी बात पर विश्वास करते हुए उनके विचारों का अनुसरण करते हुए अंग्रेज़ों के विरुद्ध आवाज़ उठाता था | इसी स्थिति को काबू में करने के लिए अंग्रेज़ों ने न केवल उनका वेतन घटाकर क्लर्कों से भी कम कर दिया, ताकि उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत कम की जा सके; बल्कि शिक्षकों के ऊपर इतनी सारी ग़ैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियाँ लाद दीं, कि उन्हीं में लगातार उलझे रहने के कारण शिक्षकों को सोचने-समझने का मौक़ा ही नहीं मिल सके | इससे समाज में उनकी पैठ कम करने एवं जनता से लगातार उनको दूर रखने में मदद मिल सकती थी और परिणाम में शिक्षकों की महत्ता समाज में अपने-आप कम हो जाती |
लेकिन आज़ादी के बाद यह स्थिति बदल जानी चाहिए थी, जो नहीं हुआ | यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वाधीन भारत में भी देश की सत्ता पर दबंग-सवर्णों का ही एकाधिपत्य था, जिसका लाभ उठाकर वे ब्राह्मण-वर्चस्व की पुनर्स्थापना हेतु हर प्रयास करते थे, जिनमें शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर वर्चस्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण था |
हालाँकि उस समय अभी-अभी आज़ाद हुए देश के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में आर्थिक मजबूरियाँ बहुत बड़ी चुनौती थीं, जिस कारण कुछ दशकों तक तत्कालीन सरकारें ऐसे कार्यों के लिए कर्मचारियों का एक नया वर्ग नहीं खड़ा कर सकती थीं, जिसमें एक विशाल कोष की ज़रूरत थी | लेकिन वर्तमान सरकार की आर्थिक मजबूरी समझ से परे है | क्योंकि इस सरकार के पास इतना बेतहाशा धन है कि एक अच्छे-ख़ासे आलीशान संसद-भवन और एक बेहतरीन सुविधायुक्त प्रधानमंत्री आवास के होते हुए भी खरबों रुपए ख़र्च करके वह दूसरा संसद-भवन (सेंट्रल विस्टा) और एक भव्य प्रधानमंत्री आवास बनवा रही है, जो किसी राजमहल से कम नहीं है |
सवाल है कि क्या वर्तमान प्रधानमंत्री बारिश में भीग रहे थे या ठंढ में काँप रहे थे अथवा धूप में जल रहे थे, कि उनके लिए तत्काल एक घर बनाना बेहद ज़रूरी था ? अथवा वह आवास लाखों का सूट आदि पहनने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री के स्टेटस के अनुकूल नहीं था और इन्हें रहने के लिए एक आलीशान ‘राजमहल’ ही होना चाहिए था ? अथवा क्या हमारे ‘जन-सेवक’ सांसद कड़ी धूप में जलते हुए या बारिश में भीगते हुए विभिन्न सत्रों में प्रतिभाग कर रहे थे, कि तत्काल नया संसद-भवन बनाना आवश्यक था; वह भी उस समय जब कल तक अपने दम पर जीवन-यापन करती देश की 80 करोड़ जनता अब अपना रोजगार, व्यवसाय और नौकरियाँ खोकर अपने बच्चों के साथ हाथों में भीख का कटोरा थामे सरकारी भीख (मुफ़्त राशन) के लिए पंक्तियों में खड़ी थी ?
ऐसी क्या तात्कालिक या आपातकालिक आवश्यकता आन पड़ी थी ?
क्या निकट भविष्य में स्थापित होनेवाले ‘रामराज्य’ को देखते हुए भव्य और विशाल ‘सेंट्रल-विस्टा’ बनाया जा रहा है, जो भव्य ‘राम-दरबार’ की अनुभूति देगा ? क्या उस ‘रामराज्य’ में ‘राम’ की भूमिका में शासन करनेवाले प्रधानमंत्रियों के निवास के लिए ही ‘राम’ की पद-प्रतिष्ठा के अनुकूल नए राजमहल ‘प्रधानमंत्री आवास’ का निर्माण आवश्यक समझा गया है ?
दुर्भाग्य से इनके निर्माण हेतु पुस्तकालय, संग्रहालय सहित बीसियों सरकारी संस्थान तुड़वा डाले गए | अब उनको भी नए सिरे से बनाया जाएगा और उनमें भी अरबों-खरबों रूपए ख़र्च होंगे | इसलिए यह तो तय है कि इस सरकार के पास कोई छोटा-मोटा ख़जाना नहीं, बल्कि कुबेर का अकूत ख़जाना है |
तब सवाल तो उठता ही है, कि क्यों बच्चों की शिक्षा को सुचारू रूप से चलने देने के लिए शिक्षकों को इन अनावश्यक कार्यों से दूर रखने की पहल नहीं हुई ? क्यों इस सरकार ने अपने विविध अभियानों के लिए कर्मचारियों का एक नया वर्ग खड़ा नहीं किया ? क्या देश का ख़जाना देश के बच्चों के लिए नहीं है, जो किसी भी समाज और देश का भविष्य होते हैं ? क्या देश का ख़जाना केवल प्रधानमंत्री, उनके ‘राम-दरबार’, नए रामराज्य के दरबारियों और कृपापात्रों के लिए ही है ? क्या भारत की जनता का कुबेर के उस ख़जाने पर तनिक भी अधिकार नहीं, जिसको उसी जनता ने अपने खून-पसीने से भरा है ?
वर्तमान सरकार की एक-एक हरकत गहरे संदेह पैदा करती है | ऐसा लगता है जैसे इस सरकार ने ठान रखा है कि चाहे जैसे भी हो, वंचित-वर्गों को पूरी तरह से स्कूल की बाउंड्री से भी दूर भगा देना है; ठीक वैसे ही, जैसे ‘रामराज्य’ में होता था | जब ‘रामराज्य’ में एक शूद्र (वर्तमान में ओबीसी) शंबूक के चिंतन-मनन से ब्राह्मण का बेटा मर गया, तो दलित-आदिवासी समाज की क्या बिसात रही होगी उस ‘रामराज्य’ में ?
क्या वर्तमान सरकार उसी ‘रामराज्य’ की पुनर्स्थापना के लिए प्रयासरत है, जिसमें शूद्र (ओबीसी), दलित और आदिवासी स्कूल का मुँह तक न देख सकें, मुसलमान और ईसाई तो इस लिस्ट में हैं ही ? क्या इसी कारण विविध तरीक़े अपनाए जा रहे हैं, जिससे बच्चों को पढ़ने के अवसर कम से कम मिलें, शिक्षक उनको कम से कम पढ़ाएँ ? क्या इसी कारण शिक्षकों को विद्यालयों से लगातार दूर रखने की कोशिशों में उनको विविध अभियानों में भेजा जा रहा है ? क्या इसी कारण विद्यालयों में दर्ज़नों जयंतियाँ, प्रतियोगिताएँ, छुटभैये नेताओं के जन्मदिन-मरणदिन मनाए जाने के आदेश दिए जा रहे हैं, जिनको मानना अनिवार्य ही नहीं है, बल्कि उसके प्रमाण के रूप में फ़ोटो, वीडियो आदि भी शिक्षा-विभाग को भेजना अनिवार्य है ?
अब देखना यह है कि भारत का शिक्षक-समाज क्या अपनी हैसियत ‘बँधुआ मजदूर’ की ही रहने देगा, अथवा वह कोई नई क्रांति खड़ा करते हुए अपनी भी ‘बँधुआ मजदूरी’ से मुक्ति की ओर अग्रसर होगा, अपने विद्यार्थियों को भी सरकारों की ‘बँधुआ मजदूरी’ से मुक्ति दिलाएगा और समाज को भी उसके वास्तविक मानवीय कर्तव्यों के प्रति सचेत करेगा…???…
–डॉ. कनक लता
शानदार लेख।वर्तमान समय में सरकारी विद्यालय से समाज की निरन्तर नीरसता बढ़ती ही जा रही है। उस पर शिक्षकों का किसी न किसी कार्य से अन्यत्र व्यस्त रहने के कारण विद्यालय के पठन पाठन पर बहुत गहराअसर पड़ता है।आपके इस लेख को पढ़कर ऐसा लगा कि कोई तो है जो इस विषय में इतनी गहराई से सोचता है। आपकी लेखनी हर पहलू को छूते हुवे निरंतर आगे बढ़ती रहे ऐसी हम हमेशा भगवान से कामना करते है।
एक बार फिर प्रमाण प्रस्तुत हो गया आप की जागरूकता और बेबाकी से अपनी बात रखने की शैली का।एकदम सही समस्या है यह और शायद सभी जागरूक शिक्षाविद् चिन्तित हैं। प्रतिदिन कोई ऐसी बात होती है जो विद्यालय के क्रिया- कलाप में
अनचाहे ही बाधक हो जाती है।और हम ठगे से रह जाते हैं।स्टाफ की कमी से तो जूझते हैं ही, फिर अनेक नियम प्रक्रियाओं से प्रतिबद्ध हम सिस्टम को ही दोष देते हैं।जब कि हम कठपुतलियों की डोरी खींचने वाला तो कोई और ही है।
बेहतरीन लेख…