खंड-दो : पुस्तक मेले पर सनातनी-कब्ज़े की कोशिश
पहले खंड से आगे…
इस साल के विश्व पुस्तक मेले में मेरा दो दिन जाना हुआ, 3 मार्च और 5 मार्च को | इन दो दिनों के दौरान मैंने पुस्तक मेले के मिजाज़ को भी समझने की यथासंभव कोशिश की | वह ख़ास मिजाज़ था, लगभग सम्पूर्ण पुस्तक मेले को अपने प्रभाव और ताक़त से आच्छादित करता हुआ सनातनी-प्रभाव, जो उसके हर हिस्से को कम या अधिक मात्रा में अपने प्रभाव में लिए हुए था और अनेक रूपों में उभर-उभरकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा था | इस कारण कहीं उग्रता, आक्रामकता और कुछ-कुछ ढिठाई थी, जिन्हें हम समझने के लिए हिंदुत्ववाद के झंडाबरदार कह सकते हैं | तो कहीं भय, आशंकाओं, अनिश्चितता का बोलबाला था, जिनको हम मुख्यतः मुस्लिम और ईसाई समाज, कुछ वामपंथी और सनातनी विचारधारा के विरोधी विचारधाराओं के प्रकाशन संस्थान और दर्शक के रूप में समझ सकते हैं | जबकि कुछ हिस्से ऐसे भी थे, जो एक अलग क़िस्म के भाव अभिव्यंजित कर रहे थे | ऐसा नहीं है कि ये सनातनी-प्रभाव से अछूते थे, बल्कि यह कि वे उसी सनातनी-प्रभाव को कुछ अंशों में नकारते हुए-से, उनसे लड़ने और उनको चुनौती देने की मुद्रा में दिख रहे थे | इनमें सबसे अधिक ध्यान खींचा दलित-समाज से संबंधित प्रकाशन संस्थानों और दर्शकों ने; हालाँकि कई वामपंथी, मार्क्सवादी, स्त्रीवादी आदि चिंतनधाराओं से जुड़े हिस्सों ने भी इस रूप में कुछ-कुछ कमर कासी हुई थी | लेकिन यह तो एकदम स्पष्ट था कि सम्पूर्ण मेले पर सनातनी-प्रभाव आक्रामक होकर छाया हुआ था, जिसे मैंने बहुत ही साफ़-साफ़ महसूस किया |
इस मेले का यह मिजाज़ तो ठीक प्रवेश-द्वार से ही अपनी झलकियाँ दे रहा था, जहाँ कई स्वयंसेवक और कुछ संस्थाएँ एवं संगठन लम्बी दूरी तय करके मेले के हॉल संख्या 2 तक जाने में कुछ परेशानी महसूस कर रहे लोगों (ख़ासकर वृद्ध, बीमार, शारीरिक रूप से कुछ अक्षम, गर्भवती स्त्रियाँ आदि) की सहायता के लिए निःशुल्क वाहन सेवा के साथ खडे थे | उन स्वयंसेवकों में से कुछ का उग्र और आक्रामक व्यवहार उसी बदले हुए मिजाज़ का हिस्सा प्रतीत हो रहा था, जिनके सीने पर उनकी संस्थाओं का लगा हुआ टैग उनके व्यवहार और संबंधित संस्था या संगठन के बीच के रिश्ते को भी उजागर कर रहा था |
वह ख़ास ‘प्रभाव’, अर्थात् सनातनी-वर्चस्व का प्रभाव, पुस्तक मेले के लिए निर्धारित हॉल में भी चारों ओर व्याप्त था | ऐसा लगता था, जैसे वह समस्त पुस्तक-संस्कृति और पुस्तकीय-दुनिया को अपने ऑक्टोपसी-पंजों में कस के जकड़े हुए लगातार फैलती चली जा रही है | कमाल की बात यह है कि जितनी भी सनातनी-संस्थाएं और संगठन मेले में बतौर प्रकाशक शामिल हुए थे, उनमें एक अलग ही किस्म का अघोषित गठजोड़ दिखाई दे रहा था | हालाँकि समाज में वे सभी एक-दूसरे के मतों और सिद्धांतों का विरोध करने हुए नज़र आते हैं, समाज-सुधार के लिए भयानक रूप से तड़पते दिखाई देते हैं, जैसे यदि उन्होंने समाज-सुधार नहीं किया, तो उनके अनुयायी ग्लानि के मारे मर ही जायेंगे | लेकिन उनके ‘समाज-सुधार’ की पोल यह पुस्तक मेला ख़ूब अच्छी तरह से खोल रहा था, जहाँ उनके आपसी गुप्त गठजोड़ एकदम नग्न होकर प्रकट हो रहे थे |
इस गठजोड़ को कई रूपों में वहाँ देखा जा सकता था | वे तमाम सनातनी-संस्थाएँ न केवल अपनी, बल्कि एक-दूसरे की किताबें बेचने के लिए भी उन किताबों के प्रचार-प्रसार करने में एक-दूसरे की मदद कर रही थीं | जो यदि केवल मदद की भावना से होती, तो वह कितनी सुन्दर होती, कितनी प्रशंसनीय, कितनी मानवीय, कितनी सद्भावनापूर्ण ! उनका एक-दूसरे की किताबें बिकवाने के लिए कभी-कभी कुछ आक्रामक होकर पाठकों/दर्शकों को ‘समझाना’ और किताबों में उल्लिखित सनातनी-संस्कृति की महानता और ‘विशेषताओं’ का बखान करना भी उसी गठजोड़ का हिस्सा प्रतीत हो रहा था | इतना ही नहीं, उनकी परस्पर बातचीत में कुछ बहुत ही ख़ास किस्म के बिन्दुओं पर उनकी बातचीत का केन्द्रित होना भी अपने-आप में बहुत कुछ कह रहा था |
उन आक्रामक-हिन्दुत्ववादी सनातनी प्रकाशन संस्थानों के स्टॉल पर मौजूद लोग और उन संस्थानों तथा अन्य सनातनी-संस्थानों की ओर से लोगों की मदद के लिए नियुक्त किये गए लोग जो बातचीत कर रहे थे, कभी-कभी वे बेहद भयानक होते थे और सुननेवालों को डरा सकते थे | इस लेखिका के कानों में भी कुछ बातें पडीं | वे एक-दूसरे से बातचीत में कहते मिल जाते थे कि “सनातनी-संस्कृति की महानता को हर हाल में भारत में स्थापित करना है और सबको सनातनी-संस्कृति के अधीन ले आना है…”; “भारत को हर हाल में ‘हिन्दूराष्ट्र’ बनाना है…”; “हर हाल में मोदीजी के सपनों का भारत बनाना है…”; “रामराज्य की स्थापना करना हमारा परम कर्तव्य है…”; “मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों को उनकी असली औकात में ले आना है…”; “सनातनी ‘वर्णाश्रम-व्यवस्था को लागू करने का हरसंभव प्रयास हम सभी को मिलकर करना है…”; …आदि |
ऐसा भी सुनने में आया कि 1 मार्च को कुछ हिन्दुत्ववादी-संगठनों के तथाकथित कार्यकर्त्ता एक ईसाई स्टॉल पर पहुँच गए और बेहद आक्रामक और हिंसक होकर तोड़-फोड़ की, उनकी धार्मिक पुस्तक बाइबिल की कुछ प्रतियाँ फाड़ी, लोगों से हाथापाई और मारपीट की और कुछ को शारीरिक चोटें भी पहुँचाई | उनका कहना था कि वह संस्था मुफ्त में बाइबिल बाँट रही थी और लोगों को ईसाई बनने को प्रेरित कर रही थी | उन्होंने उस स्थान पर उग्र-धार्मिक नारा भी दिया— ‘जय श्रीराम’, ‘हर हर महादेव’…आदि |
लेकिन एक सवाल यहीं पर उठाना ठीक होगा कि यदि धर्म के दायरे में जबरन घसीटने का आरोप ईसाइयों और मुस्लिमों पर लगता है, तो यही आरोप इन हिन्दू संगठनों पर भी क्यों नहीं लगना चाहिए? क्योंकि अनेक हिन्दू-संगठन भी ठीक वैसा ही जबरन प्रयास उस मेले में कर रहे थे, जिसे मैंने भी वहाँ देखा (कई अन्य स्थानों पर भी उनके ये व्यवहार एकदम आम हैं) और भोगा | क्योंकि मैं भी जब पुस्तक मेले में गई, तो हिन्दुत्ववादी प्रकाशन संस्थानों के ‘कर्मचारी’ (जो कर्मचारी की बजाय हिन्दुत्ववादी कार्यकर्त्ता अधिक प्रतीत हो रहे थे) मेरे पीछे पड़ गए और तब तक मुझे जबरन एक तरह से घेर-घेरकर हिन्दू-धर्म और सनातनी-संस्कृति की महानता का बखान करते हुए जबर्दस्ती कई किताबें मुफ़्त में पकड़ाने की कोशिश करते रहे | और वे तब तक मेरे पीछे पड़े रहे, जब तक मैंने उनके द्वारा मुफ्त में बाँटी जा रही वे किताबें स्वीकार नहीं कर ली |
थोड़ा आगे बढ़ने पर एक हिन्दुत्ववादी-संस्था का पट्टा गले में लटकाए एक महिला ने मुझे घेर लिया, जो पढ़ी-लिखी लग रही थी; और जबरन मुझे मेडिटेशन, योग, साधना आदि के बारे में समझाते हुए मेडिटेशन के लिए अपने स्टॉल पर ले जाने की कोशिश करने लगीं, जो वहीं बगल में ही था | वे जिस स्टॉल की ओर इशारा कर रही थीं, मैंने नज़र घुमाकर उधर देखा, तो वहाँ पहले से ही कम-से-कम 25-30 लोग किसी ‘माताजी’ की वीडियो एक बड़े से टीवी स्क्रीन पर देखते हुए ‘मेडिटेशन’ में व्यवस्त थे | उस स्टॉल के चारों ओर सनातनी-धर्म के विविध पोस्टर और श्लोगन आदि लगे हुए थे, जो वहाँ आनेवालों को सनातनी-धर्म में समाहित होने का आह्वान-सा कर रहे थे; स्क्रीन पर नज़र आनेवाली ‘माताजी’ भी धार्मिक-प्रवचन दे रही थीं | इसलिए मैं समझ गई कि वहाँ मेडिटेशन, योग, साधना की चाशनी में लपेटकर हिन्दुत्ववाद की घुट्टी पिलाई जा रही है |
वैसे व्यक्तिगत तौर पर मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि किसी भी धर्म के अनुयायी अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करें | आपत्ति इस बात से है कि वे अपने और दूसरों के धर्म के मामलों में दोहरा रवैया अपनाते हैं, जैसे धार्मिक-पुस्तकों के मुफ्त वितरण या धर्मान्तरण (आदिवासियों का धर्मान्तरण हिन्दू में) के मामले में; दूसरी बात कि वे कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं, जैसे मेडिटेशन आदि के नाम पर अपने धर्म में किसी को जबरन घसीटना; तीसरे, उनका अति-आक्रामक और हिंसक व्यवहार |
अस्तु, मैंने बड़ी मुश्किल से उन महोदया से पीछा छुड़ाया, हालाँकि वे कत्तई मुझे बख्शने को तैयार नहीं थीं | थोड़ी-सी तबियत ख़राब और बुखार होने के कारण मुझे वैसे भी जल्द-से-जल्द पुस्तकों की दुनिया को यथासंभव देखकर घर लौटना था, ताकि अगले दिन मेले में आ सकने के लायक ऊर्जा और स्वास्थ्य बचा रहे |
लेकिन अन्य किसी भी धर्म या सामाजिक-समुदाय की बजाय हिदुत्ववादी-संगठनों को ही सबसे अधिक संख्या में बेहद आक्रामक ढंग से अपने आक्रामक सनातनी-विचारों का (जिसमें मानवतावादी कम, हमलावर सिद्धांत अधिक थे) प्रचार-प्रसार करते मैंने अपनी आँखों से देखा, जिसके लिए कई स्थानों पर सनातनी-धर्म के नायकों और तथाकथित समाज-सुधारकों पर आधारित क़िताबें मुफ़्त में बाँटी जा रही थीं |
इतना ही नहीं, मेले में आनेवाले दर्शकों का व्यवहार और कोशिशें भी कुछ इसी तरह की दिखाई दे रही थीं, जैसे वे पुस्तकों के बारे में जानने-समझने के उद्देश्य से उतना नहीं आये हैं, जितना वे यह जानने की कोशिश में कि भविष्य में उनको अपने हिंदुत्व के लिए आक्रामक होने की खातिर क्या-क्या बहाने ढूंढने हैं, कौन-कौन से कारण तलाशने हैं, जिनके माध्यम से वे अपने ‘टारगेट’ (अर्थात् दलित, आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, वामपंथी, मार्क्सवादी, अम्बेडकरवादी, स्त्रीवादी आदि) को चोट पहुँचा सकें | अन्य धर्मावलम्बियों पर भय का दबाव बनाते हुए मैंने न केवल उग्र-आक्रामक हिन्दुत्ववादी-संस्थाओं को देखा, जिनके कपड़ों पर उनकी संस्थाओं या संगठनों के टैग लगे हुए थे, जिससे उनको आसानी से पहचाना जा सकता था, बल्कि इस काम में मेले में शरीक होनेवाले दर्शक/पाठक भी अपने-अपने तरीक़े से ‘योगदान’ दे रहे थे; बल्कि दर्शकों के एक ख़ास मानसिकता वाले वर्ग को भी अपनी क्षमता-भर ऐसा करते देखा | दर्शकों का हाल यह था कि वे यह जाहिर करने की ख़ूब कोशिशें भी बढ़-चढ़कर करते दिखे कि वे ही सबसे बड़े ‘हिन्दुत्ववादी’ हैं, वे ही सबसे बड़े ‘मोदीजी के समर्थक’ हैं, वे ही सबसे अधिक ‘रामराज्य’ और ‘हिन्दूराष्ट्र’ के लिए कृतसंकल्प हैं…आदि | ‘गीता प्रेस’ पर उनके हुजूम-के-हुजूम उमड़ना, उस स्टॉल पर पैर रखने की भी जगह न होना, भारतीय समाज के बदलते मिजाज़ को खूब अच्छी तरह समझा रहा था | कम से कम उन दो दिनों (3 और 5 मार्च) का सच तो यही है, जिन दिनों मैं उस मेले में गई थी और अपनी आँखों से ये हाल देखा था, क्योंकि मुझे भी ‘मनुस्मृति’ और ‘वाल्मीकि रामायण’ आदि कुछ पुस्तकें शोधकार्य के लिए गीता प्रेस से ख़रीदनी थी | अन्य अनेक हिन्दुत्ववादी प्रकाशन संस्थानों की कथा भी इसी से मिलती-जुलती थी |
क्रमशः अगले अंक में…
—डॉ. कनक लता