खंड-चार : पुस्तक मेले में वंचित-समाज
हॉल संख्या 2, 3 और 4 (जो अगल-बगल ही थे) के बाहर लगभग 8-9 बच्चे (जिनमें लड़के और लड़कियाँ दोनों ही थे) एक-दूसरे का हाथ पकड़े चहलकदमी करते हुए दिखाई दिए | वे या तो उनमें से किसी हॉल की ओर जाने का उपक्रम कर रहे थे या किसी हॉल से निकलकर बाहर जाने से पहले पूरे परिसर को देख लेने के ख्वाहिशमंद थे | बच्चों की उम्र अंदाजन 4-5 साल से लेकर 15-16 के बीच रही होगी | कभी ऐसे दृश्य दशहरे आदि के मेले में दिखाई देते थे, जिसमें अपने-अपने परिवारों के साथ आए हुए भाई-बहन, मेले में गुम हो जाने से बचने के लिए एक-दूसरे का हाथ पकड़े मेले में चहलकदमी करते थे | यह दृश्य बचपन की कई स्मृतियाँ जगा गया | बच्चे अचंभित आँखों से चारों ओर देख रहे थे | उनकी आँखों में व्याप्त आश्चर्य और उस आश्चर्य से उत्पन्न उनके भोले-भाले चेहरों पर फ़ैलती हुई सरल मासूम सुखद अनुभूतियाँ ही बता रही थीं कि उन्होंने क़िताबों का इतना बड़ा संसार अब तक नहीं देखा था |
लेकिन ठहरिए ! दृश्य अभी बाक़ी है, रहस्य अभी खुला नहीं, क्योंकि यह पुस्तक-मेला था, दशहरे-दिवाली का मेला नहीं…! और उस पुस्तक-मेले में दाने-दाने को तरसते ग़रीब वंचित-समाज के बच्चे…? ऐसा दृश्य तो मैंने अभी तक किसी भी पुस्तक-मेले में इतना अधिक हाईलाइट होकर उभरते नहीं देखा…! जबकि साल 2000 से लेकर अभी तक दिल्ली में आयोजित पुस्तक-मेलों में मैं कम-से-कम दर्ज़न भर बार शामिल हो चुकी हूँ | उन बच्चों के साथ 3-4 महिलाएँ भी थीं और उतने ही पुरुष भी | उनमें से एक या दो की गोद में साल-डेढ़ साल के शिशु भी थे | उन स्त्री-पुरुषों की आँखों और चेहरों पर भी एकदम उनके काफ़िले के बच्चों जैसा ही आश्चर्य फ़ैला हुआ था, जो बता रहा था कि पुस्तकों का इतना बड़ा संसार उन्होंने भी पहली ही बार देखा है |
यह छोटा-सा काफ़िला कई परिवारों का समूह लग रहा था | उन सभी के चेहरों के साथ-साथ उनकी अलग से नज़र आती हुई वेशभूषा भी बता रही थी कि वे किसी झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाले दलित-समाज के ही परिवार थे | बहुत साल पहले, साल 2011 की बात है, तब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में, बतौर असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, पढ़ाती थी | नया सत्र (सेशन) आरम्भ होनेवाला था, जिसके लिए बच्चों के नामांकन हो रहे थे | शिक्षिका होने के कारण मैं भी इस कार्य में शामिल थी | कोई वंचित-समाज (दलित) की लड़की आई थी, जिसके जाति-प्रमाणपत्र को लेकर कोई समस्या हो रही थी | तब एक ब्राह्मण-शिक्षिका, जो बाद में वहाँ की प्रधानाचार्या भी बनीं, ने उस लड़की का नामांकन प्रक्रिया पूरा कर रही शिक्षिका (जो मेरी बगल में ही बैठी थीं) से कहा कि “लड़की की शक्ल बता रही है कि वह दलित है, यह इन लोगों की शक्ल पर ही लिखा होता है; इसलिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, ओके कर दो, मैडम…!”
उन्होंने एकदम ठीक कहा था, कि दलितों की जाति उनके चेहरों पर लिखी होती है; हालाँकि यह बात अन्य कई जातियों पर भी लागू होती है, लेकिन अलग तरीक़े से | उक्त शिक्षिका की बात दलित-वंचित समाज पर सबसे अधिक लागू होती है | दलित-समाज जो बेबसी, मुफ़लिसी, प्रताड़नाएँ, अपमान, तिरस्कार आदि जीवनभर झेलता और भोगता है, वह उनके वयस्क सदस्यों ही नहीं, बल्कि उनके छोटे-छोटे बच्चों के चेहरों पर भी छप जाता है, उनकी ग़रीबी और संघर्ष उनकी वेशभूषा और उनके व्यवहारों में साफ़-साफ़ दिखाई देते हैं |
अस्तु, तो झुग्गी-झोपड़ी निवासी वह दलितों के परिवारों का काफ़िला पुस्तक-मेले में चहलकदमी कर रहा था | पूरे पुस्तक-मेले में मुझे उससे अधिक सुन्दर और सुखद दृश्य कोई दूसरा नज़र नहीं आया | इसके कारण हैं | एक तो वंचित-परिवारों का समूह; दूसरे, उसमें शामिल बच्चे; ये दो कारण उस सुन्दर और सुखद दृश्य की सबसे बड़ी वजह थे, कम-से-कम मेरी दृष्टि में |
पिछले डेढ़ दशकों से जितनी तेज़ी से हमारे देश और समाज का परिदृश्य बदला है (और सम्पूर्ण विश्व का भी), वह बेहद चिंताजनक, डरावना और आशंकित करनेवाला है | अभी बस थोड़े ही समय पहले घोषित रूप से देश की कम-से-कम 65% (अस्सी करोड़) आबादी भिखारियों की तरह मुफ़्त राशन की क़तारों में खड़ी थी और सरकारें उनकी झोली में अपनी दया के टुकड़े तथाकथित ‘मुफ़्त राशन’ के नाम से डाल रही थीं | ज़ाहिर है कि उस आबादी में सबसे अधिक वंचित-समाज के लोग ही थे, उसमें भी दलित | वही वंचित-समाज जब थोड़े ही समय बाद पुस्तक-मेले में नज़र आने लगे, तो इसके बहुत बड़े निहितार्थ हैं | मेले में भीतर का दृश्य उस निहितार्थ को और भी अधिक स्पष्ट कर रहा था |
हॉल के भीतर अनेक प्रकाशन-संस्थानों, जो दावा करते रहे हैं कि वे वंचित-समाज को जगाने और उनके अधिकारों की आवाज़ उठाने के उद्देश्य से वंचित-समाज के साहित्य को प्रकाशित और प्रसारित कर रहे हैं, पर इकट्ठी भीड़ अपने-आप में बहुत कुछ कह रही थी | …कि बेशक सनातनी-समाज ने वंचित-समाजों के बहुत बड़े हिस्से को संक्रमित करके ‘हिंसक-अराजक भीड़’ में तब्दील कर दिया है, इसके बावजूद उन्हीं वंचित-वर्गों का एक छोटा-सा हिस्सा कुछ और ही मंसूबे लेकर चल रहा है और उस छोटे-से हिस्से में वंचित-समाज के सुशिक्षित लोग ही नहीं बल्कि उनका अनपढ़ हिस्सा भी शामिल है | …कि अनपढ़ हिस्सों को भी यह समझ में आने लगा है कि अपनी भावी पीढ़ियों में क़िताबों की आदत विकसित करना और पुस्तक-संस्कृति को निर्मित करना कितना ज़रूरी है | …कि यही पुस्तक-संस्कृति और क़िताबों की आदत आगामी पीढ़ियों को उनकी समस्याओं से और समस्याओं के कारणों से परिचित एवं अवगत कराती है, उन समस्याओं से निपटने के लिए उनको उनकी शक्ति और क्षमताओं का एहसास कराती है, उनको संघर्ष करना सिखाती है, उन्हें संघर्ष के रास्ते दिखाती है, भविष्य के प्रति सचेत करती है, शत्रु और मित्र को पहचानना सिखाती है | …कि इसी कारण वंचित-समाज भी पुस्तक-संस्कृति को अपने समाज में उत्पन्न करने के लिए पुस्तक-मेले का रुख़ करेगा | …कि सम्पूर्ण वंचित-समाज को कोई भी ताक़तवर-से-ताक़तवर शासक-वर्ग अपना गुलाम नहीं बना सकता | …कि उस वंचित-समाज के छोटे-से हिस्से ने यह तय कर लिया है कि वह अपने नायक-महानायक स्त्री-पुरुषों की राह पकड़ेगा | …कि अपनी स्वाधीनता और मानव-अधिकारों की रक्षा के लिए क़िताबों को अपना हथियार बनाएगा | …आदि |
दरअसल जिन दो दिनों मैं पुस्तक-मेले में शामिल हुई थी, उन दो दिनों में मेरी आँखों ने वंचित-समाज का साहित्य प्रकाशित करनेवाले उन प्रकाशन-संस्थानों में से कुछ पर उतनी ही भीड़ इकट्ठी देखी थी, जितनी भीड़ ‘गीताप्रेस’ और उसी की श्रेणी के अन्य प्रकाशन-संस्थानों पर थी | वंचित-समाज उन स्टॉलों पर अपने नायक-महानायक स्त्री-पुरुषों के बारे में, उनके संघर्षों और सफ़लताओं (फ़िलहाल वंचित-समाज के पास अपने नायक स्त्री-पुरुषों की असफ़लताओं के बारे में जानने की फ़ुर्सत नहीं, क्योंकि असफ़लताएँ तो उनके और उनके नायकों के जीवन की चिर-सहचरी रही हैं) के बारे में जानने के लिए उपयुक्त क़िताबों को ढूँढने को बेचैन था | इसके अलावा यह वर्ग अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दर्ज़नों अन्य तरीक़ों से कर रहा था | जिसमें शुभकामनाएँ देने वाला कार्ड भी शामिल था, लिफ़ाफ़े भी थे (विवाह, जन्मदिन आदि में शगुन देने वाला लिफ़ाफ़ा), कैलेण्डर, पोस्टर, तस्वीरें, मूर्तियाँ, चाभी की रिंग, …और भी न जाने कितनी तरह की चीजें शामिल थीं, जिनको अपने-अपने घरों में ले जाने को यह समाज उत्सुक और बेचैन दिख रहा था | मुझे याद नहीं कि कभी वंचित-समाज, उनमें भी दलित-समाज ऐसे प्रत्यक्ष उत्साह के साथ अपने-आप को और अपने मंसूबों को प्रकट (हाईलाइट) करता हुआ इससे पहले कभी पुस्तक मेले में नज़र आया था | यह तथ्य वंचित-समाजों का किंचित उत्साह बढ़ानेवाला भी है, तो सनातनी-वर्चस्ववादी समाजों को चेतावनी देनेवाला भी |
क्योंकि यदि एक सच यह है कि इस बार (साल 2023) का विश्व पुस्तक मेला (दिल्ली) अपने ख़ास प्रभाव, सनातनी-प्रभाव’ से आवेशित रहा, जिसमें नरेंद्र मोदी को एक दमदार चेहरा बनाकर जनता को अलग तरीक़े से अपने वश में करने की कोशिशें होती दिख रही थीं | यदि यह भी सच है कि उस प्रभाव के माध्यम से जनता के एक हिस्से को अपना वशवर्ती बनाया (हिंदुत्ववाद, रामराज्य और हिन्दूराष्ट्र की मुरीद जनता का धड़ा) जा रहा था | यदि यह भी सच है कि उन्हीं ‘हिंदुत्ववाद’, ‘रामराज्य’, ‘हिन्दूराष्ट्र’ से आवेशित वंचित-समाजों के माध्यम से समाज के अन्य हिस्सों को डराने-धमकाने और उनमें असुरक्षा एवं भय पैदा करने की कोशिशें होती दिख रही थीं; ख़ासकर ईसाई, मुस्लिम, दलित, आदिवासी समाज और इन्हीं के साथ-साथ वामपंथी, अम्बेडकरवादी, लोकतंत्र के समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग को | तो इसके साथ-साथ यह भी उतना ही बड़ा सच बनता हुआ दिख रहा है कि सम्पूर्ण वंचित-समाज इस फैक्टर से नकारात्मक ढंग से प्रभावित नहीं है— चाहे उनके पीछे-पीछे अंधों की भाँति चलने की बात हो, अथवा उनसे भयभीत होने की | वहाँ भी समाज के कुछ हिस्से ऐसे दिख रहे थे, जिनमें इन आक्रामक हिस्सों से लड़ने-भिड़ने का उत्साह भी ठीक-ठाक मात्रा में नज़र आया | यह वही वर्ग था, जिसकी बात ऊपर की गई है, जिसमें वंचित-वर्ग और उनमें भी दलित वर्ग सबसे ऊपर था |
वास्तव में है तो यह हैरानी की ही बात, कि जिन दलित-वर्गों को अभी तक भारत के कई इलाक़ों में ‘मनुष्य’ (Human Being) तक नहीं समझा जाता है, उनमें यह उत्साह और चेतना कैसे आई, जो उस मेले में दिख रही थी | हालाँकि ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उग्र हिन्दुत्ववादियों से उनमें आशंका, अनिश्चितता या डर का भाव नहीं था | लेकिन इसके बावजूद उसी मात्रा में उनमें अपने अधिकारों की ललक भी कम नहीं थी; अपने नायक स्त्री-पुरुषों के साथ किये गए दुर्व्यवहारों के प्रति आक्रोश भी उनमें कम नहीं था, देश में अपने समाज के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों के प्रति नाराज़गी भी कम नहीं थी |
तब भविष्य में क्या होना तय है, यह कौन बता सकता है? इसलिए यदि कोई यह दावा करता है कि भविष्य में ‘हिन्दूराष्ट्र’ या ‘रामराज्य’ की स्थापना तय है; वही रामराज्य, जिसमें एक महारानी (सीता) और उनके पुत्रों (कुश-लव) का भविष्य तक सुरक्षित नहीं, जिसमें वंचित-समाज के व्यक्ति (शम्बूक) को केवल इसलिए मृत्युदण्ड मिलता है, क्योंकि उसने पढ़ने का दुस्साहस किया; तो ऐसे व्यक्ति को अभी ठहरकर समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए | क्योंकि भविष्य का केवल अनुमान लगाया जा सकता है, सटीक भविष्यवाणियाँ हमेशा संभव नहीं…
वैसे…उस पुस्तक मेले में महिलाएँ थीं या नहीं…? यदि थीं, तो वे क्या कर रही थीं…? वही महिलाएँ, जिनका भविष्य ‘रामराज्य’ में कोई हैसियत नहीं रखता था, चाहे वह महारानी हो या दासी…! इसे अगले अंक में देखते हैं…
- डॉ. कनक लता