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खंड-पाँच : पुस्तक मेले में स्त्रियाँ

25 फरवरी से 5 मार्च तक चले इस बार के (2023) विश्व पुस्तक मेले (दिल्ली) में क्या स्त्रियों की भागीदारी थी? यदि हाँ, तो किस रूप में? क्या मानवता-विरोधी सनातनी-परम्पराओं की रक्षा के लिए ‘वीरांगना’ रूप में? अथवा मानवता के पक्ष में खड़ी जुझारू योद्धा रूप में? या वर्त्तमान युवा-पीढ़ी के ऐसे हिस्से के रूप में, जो इस समय भेड़चाल चलती हुई समाज के साथ-साथ अपने लिए भी गहरी खाई खोद रही है? अथवा स्वतंत्र पाठक या लेखक आदि के रूप में स्वतंत्र ढंग से सोचने-समझने, देखने-सुनने-गुनने वाली?

वास्तव में इस पुस्तक मेले में मुझे स्त्रियों के अनेक रूप देखने को मिले | जैसाकि मैंने इस श्रृंखला के खंड-दो ‘पुस्तक मेले पर सनातनी-कब्ज़े की कोशिश’ में लिखा है कि इस पुस्तक मेले में एक महिला, जो अपने गले में एक कट्टर हिन्दुत्ववादी-संस्था का पट्टा अपने गले में लटकाए हुए थी, ने मुझे देखते ही पकड़ लिया, और जबरन ध्यान (मेडिटेशन), योग, साधना आदि के बारे में समझाने की कोशिश करने लगी | वे मेरे मना करने के बावजूद मेरा हाथ पकड़कर लगभग जबरन ही मेडिटेशन के लिए अपने स्टॉल पर ले जाने की कोशिश करने लगीं, जो वहीं बगल में स्थित था और जहाँ किसी ‘माताजी’ का वीडियो एक बड़े से टीवी स्क्रीन पर चलाया जा रहा था | मुझे वहाँ ले जाने की कोशिश करनेवाली वह महिला देखने में तो ठीक-ठाक पढ़ी-लिखी लग रही थी, लेकिन उनकी कोशिश यह बता रही थी कि उनका उद्देश्य एक ख़ास व्यवस्था की स्थापना में अपना सहयोग देना है, इसके लिए यदि स्वतन्त्र चिंतन भांड में जाता है तो जाए, शिक्षा शर्म से मुँह छुपाती है तो छुपाए, उनकी बला से | उस स्टॉल पर भी कई पुरुषों के साथ-साथ कई महिलाएं भी मौजूद थीं | उनमें से अधिकांश स्त्री-पुरुष पढ़े-लिखे ही लगे और वीडियो वाली ‘माताजी’ के किसी पुराने वीडियो का अनुसरण करते हुए ‘मेडिटेशन’ कर रहे थे |

मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं कि व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में क्या धर्म अपनाता है, किस तरह की धार्मिक गतिविधियाँ करता है, वह योग और ध्यान करता है अथवा नहीं | मुझे आपत्ति इस बात से होती है, जब कोई अपने वास्तविक चेहरे को छुपाकर, अपने कलुषित उद्देश्यों को भी सुनहरे पर्दे से ढँककर लोगों को कोई अन्य चेहरा और अन्य उद्देश्य दिखाता है | उस ‘मेडिटेशन’ सेंटर पर भी लोगों को खींचा जा रहा था ‘मेडिटेशन’, ‘योग’, ‘ध्यान’ आदि के नाम पर; लेकिन वास्तव में उनका उद्देश्य लोगों के दिमाग पर कब्ज़ा करके उनको ‘सनातनी उद्देश्यों’ के लिए अपना ‘बकरा’ बनाना था, जिसकी पुष्टि कर रहे थे वहाँ लगे विविध धार्मिक पोस्टर | उन पोस्टरों में लिखे नारे और चित्र उस ‘मेडिटेशन सेंटर’ की पोल खोल रहे थे और संदेह पैदा कर रहे थे | इसलिए उस संस्था के उद्देश्यों की पवित्रता पर मुझे भी कत्तई भरोसा नहीं हुआ, कई अन्य लोग भी वहाँ आपसी बातचीत में कुछ इसी तरह के विचार और भाव व्यक्त कर रहे थे |

लेकिन मैं यहाँ यह बात क्यों कर रही हूँ? दरअसल मेरा उद्देश्य है पुस्तक-मेले में आई महिलाओं के दिलो-दिमाग में चल रही उथल-पुथल और उनसे अभिव्यक्त हो रही उनकी विविध वैचारिक छवियों को थोड़ा-बहुत उकेरना | यह उपरोक्त उदाहरण इस तथ्य को उजागर करता है कि महिलाएँ अपना क्रूर अतीत भूल गई हैं, उनमें भी सबसे अधिक सवर्ण-समाज की महिलाएँ | उन्हें अब याद नहीं है कि मात्र दो सदी पहले ही उन्हें न केवल अपने समाज बल्कि अपने ही परिवार के पुरुषों की मर्जी के बिना जीवित रहने का हक़ नहीं था और वे ‘सती’, ‘चरित्रहीनता’ आदि के नाम पर जिन्दा जला दी जाती थीं | वे भूल गई हैं कि उनकी हैसियत घर के भीतर पत्नी के रूप में ‘यौन-दासी’ और ‘गृह-दासी’ से अधिक थी ही नहीं, वे किसी निर्जीव वस्तु की तरह कभी भी खरीदी-बेची जा सकती थीं, वे वास्तव में ‘मनुष्य’ तो थीं ही नहीं | और जब भारत स्वाधीन हुआ और इसके लिए संविधान बनने लगा, तो उन्हीं सवर्ण-सनातनी स्त्रियों के दादाओं, नानाओं, पिताओं, भाइयों, पतियों ने दलित-नायक डॉ. आंबेडकर के द्वारा निर्मित ‘हिन्दू कोड बिल’ का जबर्दस्त विरोध किया | आंबेडकर और हिन्दू कोड बिल के विरोध में देशभर में दंगे करवाने की कोशिश की, जगह-जगह आगजनी करवाई, आंबेडकर का पुतला फूँका | जबकि वह हिन्दू कोड बिल केवल दलित ही नहीं, बल्कि सवर्ण महिलाओं को भी वे तमाम अधिकार देने की बात कर रहा था, जिसमें समस्त भारतीय स्त्रियाँ ‘मनुष्य’ के रूप में स्थापित की गई थीं, उनको पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए थे, उनके जीवन और सम्मान की सुरक्षा की गारंटी दी गई थी, उनको पढ़ने-लिखने, व्यवसाय करने, आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने जैसे अति-महत्वपूर्ण अधिकार दिए गए थे |

वास्तव में सवर्ण-स्त्रियाँ भूल गई हैं कि यदि आजादी के बाद उनके दादाओं, नानाओं, पिताओं ने दर्जन-भर शादियाँ नहीं की और उनके सामने सौतेली नानियों, दादियों, माताओं की फ़ौज खड़ी नहीं की; तो इसका कारण केवल और केवल आंबेडकर का हिन्दू कोड बिल ही है | वे भूल चुकी है कि यदि उनकी विवाहिता बहनों की और स्वयं उनकी भी दर्जन भर सौतें/सौतनें नहीं हैं, तो इसका कारण उनके पूर्वज पुरुष नहीं, बल्कि वह दलित-नायक डॉ.आंबेडकर हैं, जिनको ‘शत्रु’ के रूप में उनके पिता, भाई, पति अब तक बताते रहते हैं | हकीकत तो यह है कि उनके दादा, नाना आदि अपनी क्षमता के अनुसार दर्जनों या पचासों शादियाँ करने का हक़ अपने पास रखने के लिए संसद-भवन में डॉ.आंबेडकर से लड़ रहे थे और आंबेडकर उनका विरोध करते हुए उनकी ही बेटियों के आत्म-सम्मान और बराबरी के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे; यहाँ तक कि इसके लिए उन्हें कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि सनातनी-स्त्रियों के दादा-नाना आदि उस ‘हिन्दू कोड बिल’ का विरोध कर रहे थे; ताकि वे दर्ज़नों शादियाँ कर सकें, बेटियों को संपत्ति की एक फूटी कौड़ी न देना पड़े, उनको कोई भी अधिकार न देना पड़े, उनको कभी भी मारा-पीटा जा सके, उनकी हत्या कर देने पर कोई सजा न हो सके |

लेकिन ऐसी सनातनी-स्त्रियों के अलावा भी पुस्तक मेले में स्त्रियों के और भी महत्वपूर्ण चेहरे नज़र आए | कई सुशिक्षित स्त्रियाँ नारीवाद के नए अध्याय लिखती दिखाई दीं | वे उभरती हुई लेखिकाओं के रूप में दिखीं, पत्र-पत्रिकाओं का संचालन करती नज़र आईं; विविध मंचों पर, बेशक थोड़ी-बहुत ही सही, लेकिन कुछ बेहतरीन और उल्लेखनीय उपस्थिति अपने तर्क-वितर्कों के माध्यम से दर्ज़ कराती हुई समाज को अपनी वैचारिकी का एहसास करा रही थीं | हालाँकि इनमें भी कई स्तर साफ़-साफ़ देखे जा सकते थे |

पुस्तक मेले में कई स्थानों पर पुस्तकों के विमोचन जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से उनकी मनःस्थिति का जायज़ा साफ़-साफ़ लिया जा सकता था | उनमें से कुछ लेखिकाएँ दरबारी किस्म के पुरुष-लेखकों की तरह ही दरबारीपन की परम्पराओं का निर्वहन कर रही थीं | शायद अपने लिए कुछ सुविधाएँ, कुछ पुरस्कार और कुछ अन्य तरह के लाभ पाने की आशा में ! हालाँकि अपने उस ‘स्वरूप’ के प्रकटन से उन स्त्रियों में कुछ छिपी हुई सी झिझक, अफ़सोस, बेबसी जैसे भाव भी कुछ अंशों में देखे जा सकते थे, जो शायद यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि ‘पुरस्कारों, सम्मानों, प्रशस्तियों और अन्य सुविधाओं को पाने के लिए ये सब करना ही पड़ता है’ | लेकिन ठीक यहीं पर यह भी तो तय होता है कि कोई लेखक या कोई भी कलाकार देश, समाज और सदियों की प्रताड़ित जनता के नज़रिए से कितना प्रामाणिक, विश्वसनीय, जनहितकारी रूप के सामने आता है | इसी बिंदु पर यह भी तय होता है कि जिस कला का प्रयोग उसने घोषित रूप से जनपक्षधरता के लिए आरम्भ किया है, वह उसके साथ कितना न्याय कर पाता है | वह कितना जनता के पक्ष में खड़ा है और कितना येन-केन-प्रकारेण हासिल होनेवाले अपने लाभ के पक्ष में |

वैसे यह भी हो सकता है कि अपनी कलम को लम्बे समय तक थामे रखने के लिए भी सत्ताधारी वर्गों और वर्चस्ववादी सनातनी-समाज की यह चरण-वंदना हो रही हो? और यह भी हो सकता है कि उनके मन में यह धारणा भी बलवती हो चुकी हो कि यदि ऐसा करने से कुछ अतिरिक्त लाभ-अर्जन भी हो जाए, तो क्या बुरा है? लेकिन एक सम्भावना यह भी तो बनती है कि उनमें से सनातनी-समाज की लेखिकाओं के एक हिस्से का वह रूप उनका वास्तविक रूप हो, जो ‘अनुकूल समय’ पाकर अपनी लोकतान्त्रिक-जनहितकारी कछुए की खोल से बाहर निकलकर अपनी वास्तविक छवि प्रकट कर रहा हो; शायद यह सोचते हुए कि समाज में अपने-आप को ‘लेखक’ या ‘कलाकार’ के रूप में स्थापित करने के लिए अब किसी बनावटी ‘मानवतावादी’, ‘लोकतान्त्रिक’ चेहरे के प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं? कौन बता सकता है कि सच क्या है?

लेकिन इतना तो अवश्य कहा जायेगा कि जो स्त्रियाँ भारतीय परिवेश में स्वयं ही वंचना की शिकार रही हैं, उनका इस तरह से अपने ही शोषक समाज और उस शोषणकारी व्यवस्था की पुनर्स्थापना को उद्धत वर्चस्ववादी दलों/पार्टियों की चरण-वंदना कत्तई उनके लिए हितकारी नहीं है | दूसरी बात, कि उन स्त्रियों में भी जो स्त्रियाँ शूद्र, दलित आदि वंचित-जातियों से आती हैं, यदि वे भी अपने वंचित-समाज के कुछ चरण-वंदनाकारक लेखकों और बुद्धिजीवियों की ही तरह चंद लाभों के लिए अपने समाज के उत्पीड़क वर्गों और दलों की चरण-वंदना करने लगें, तो ऐसे समाज को अपनी तबाही के लिए किसी और शत्रु की आवश्यकता ही नहीं |

लेकिन स्त्री-लेखकों का समस्त हिस्सा ऐसा ही नहीं है | बहुत-सी लेखिकाएँ समाज के प्रति प्रतिबद्ध होकर काम करती हैं | चाहे वंचित-समाज की स्त्रियाँ हो, जो ‘स्त्री’ रूप में भी और ‘वंचित-जातियों’ के रूप में भी काम करती है | चाहे सवर्ण-समाज की वे स्त्रियाँ, जो किसी भी जातीय या धार्मिक दुराग्रही मानसिकता से मुक्त रहकर समस्त समाज को ध्यान में रखकर काम करती हैं | लेकिन दुःख की बात यह है कि ऐसी लेखिकाओं की बहुत दमदार उपस्थिति मैंने महसूस नहीं की, जैसाकि इसके पूर्व होता था | उनमें भी जितनी स्त्रियाँ लेखक, संपादक, संचालक आदि के रूप में पुस्तक-मेले में शरीक हुई थीं, उनमें सनातनी-माहौल से भय, आशंका जैसे भाव देखे जा सकते थे | लेकिन तब भी मानना पड़ेगा कि उन्होंने अपना संघर्ष नहीं छोड़ा था | बेशक कुछ दबे-ढँके रूप में ही सही, लेकिन वे लगातार एक मानवीय माहौल निर्मित करने की कोशिश कर रही थीं | ये चंद स्त्रियाँ भी समस्त समाज के लिए, स्त्री-समाज के लिए भी, आशा की महत्वपूर्ण किरण हैं |

तीसरा रूप उन नवयुवा और किशोरी स्त्री-वर्ग का दिखा, जिनमें उत्साह भी था, समाज और देश के हालात को जानने-समझने की ललक भी थी, उग्रवादी धार्मिक-वातावरण से नाराज़गी और असहमति भी थी | यह वर्ग किताबों में सिर गड़ाए जैसे वह आइना तलाश कर रहा था, जिसमें भविष्य के भारत की कुछ झलक दिख सके और वे जान सकें कि कैसे उस भविष्य के भारत की एक बेहतरीन मानवतावादी छवि गढ़ी जा सकती है |

एक वर्ग उन अनपढ़ या अक्षर-ज्ञान तक सीमित युवा और प्रौढ़ स्त्रियों का भी उभर रहा था, जो अपने-अपने बच्चों का हाथ थामे उन्हें पुस्तकों की दुनिया से रू-ब-रू कराने के लिए अपने परिवार के पुरुषों के संग आया था | हालाँकि इनकी संख्या बहुत ही कम नज़र आ रही थी, इतनी कम कि अभी उनके बारे में कुछ भी ठीक से कहना कठिन है | उन स्त्रियों की आँखों का फैलाव कहता था कि वे यह जानकार ही अचम्भित हैं कि किसने और कैसे उनको इतनी प्रकाशमान दुनिया से दूर कर दिया, क्यों वे समय रहते पुस्तकों की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकीं, किसने उनसे पढ़ने-लिखने का हक़ छीनकर उनको अज्ञानी और पंगु बना दिया | उनकी पुतलियों का फैलाव उनके मन की व्यथा को बहुत अच्छी तरह उजागर कर रहा था, जिन्हें पढ़ा जाना अभी बाक़ी है |

लेकिन जो भी हो, ये समस्त स्त्रियाँ उस पुस्तक मेले में एक ही साथ, एक ही समय पर दर्ज़नों किस्म की कहानियाँ लिख रही थीं, जो निश्चित रूप से भविष्य में अपना असर दिखाएंगी | देखते हैं कि वे कहानियाँ कौन-सा रूप लेकर भविष्य में प्रकट होती हैं…

  • डॉ. कनक लता

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One thought on “विश्व पुस्तक मेला 2023

  1. आज नारी की सोच में बदलाव आया है जो द्योतक है कि समाज भी किंचित परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है।ऐसा नहीं है कि बदलाव की प्रक्रिया तीव्र हो और लघुकालीन हो ,वरन धीमी हो और हल्की बारिश की तरह पृथ्वी की अंतर्तम जड़ों तक पहुँचे।
    असीम शुभकामना

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