खंड-छः : पुस्तक मेले में धार्मिक अल्पसंख्यक समाज
इस बार 2023 का विश्व पुस्तक मेला (दिल्ली) जिस तरह से सनातनी समाज के एक हिस्से के आतंक से व्याप्त था, उस प्रभाव को देखते हुए यह प्रश्न बहुत मायने रखता है कि धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग, ख़ासकर मुस्लिम और ईसाई समाज की कैसी उपस्थिति और भागीदारी उस पुस्तक मेले में थी? वास्तव में पिछले 12-13 सालों में जो भय, आशंका और आतंक का माहौल पूरे देश में बनाया गया है, उसने मुस्लिम और ईसाई (सर्वाधिक मुस्लिम) समाज पर बहुत गहरा असर डाला है, और उस असर के कुछ प्रभावों और परिणामों को पुस्तक मेले में भी बहुत स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता था | ऐसा सुनने में भी आया था, जिसका ज़िक्र इस श्रृंखला के खंड-दो के लेख ‘पुस्तक मेले पर सनातनी-कब्ज़े की कोशिश’ में भी किया गया है कि पुस्तक मेले में 1 मार्च को कुछ हिन्दुत्ववादी-संगठनों के तथाकथित कार्यकर्त्ताओं ने एक ईसाई स्टॉल पर पहुँचकर उनके द्वारा जबरन धर्मान्तरण की कोशिश का आरोप लगाकर बेहद आक्रामक और हिंसक तरीक़े से वहाँ तोड़-फोड़ और मारपीट की, उनकी धार्मिक पुस्तक बाइबिल की प्रतियाँ फाड़ी, लोगों को धमकाया और उनकी हाथापाई और मारपीट से उस समुदाय के कुछ लोगों को चोटें भी आईं | उनको डराने-धमकाने के लिए उन हिन्दुत्ववादी युवकों ने वहाँ “जय श्रीराम, “हर हर महादेव जैसे उग्र-धार्मिक नारे भी लगाए |
स्पष्ट है कि ऐसे हालातों का असर धार्मिक-अल्पसंख्यकों पर दिखना ही था | देश में सायास बनाए गए उपद्रवी माहौल से वैसे भी अधिकांश लोग भयभीत और सशंकित रहते हैं, केवल धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं, सभी वर्गों के लोग | उसपर से ऐसे उद्दंडतापूर्ण कार्य अल्पसंख्यकों पर और भी अधिक नकारात्मक असर डाल रहे हैं | ऐसे ही सायास निर्मित माहौल का प्रभाव पुस्तक मेले में उनकी उपस्थिति पर भी दिखी | वास्तव में पुस्तक मेले में मुस्लिम समुदाय और ईसाई समुदाय मुझे बहुत ही कम नज़र आए | हालाँकि विदेशों के इस्लामिक देशों और अन्य धर्मों के माननेवाले देशों के प्रकाशक भी अनेक भाषाओँ की पुस्तकों का जखीरा लेकर वहाँ आए थे, लेकिन भारतीय समाज के धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों की उपस्थिति ने निराश किया | हाँ, इतना अवश्य है कि स्कूल-कॉलेजों के विद्यार्थियों में वे अवश्य रहे होंगे, जिन्हें अलग से पहचानना मुश्किल था, क्योंकि उन्होंने कोई धार्मिक पहचान नहीं धारण की थी | दरअसल विद्यार्थियों का समाज एक अलग ही समाज होता है, जिसकी पहचान होती है उसकी किताबें | वे किताबें ही उसकी संपत्ति होती हैं, वे किताबें ही उसका धर्म और साधना होती हैं | यह ज़रूरी भी है |
लेकिन यदि मुस्लिम और ईसाई समाज के युवा-वर्ग और वरिष्ठ-वर्गों की अपनी पहचान के साथ उपस्थिति को देखने की कोशिश की जाय, तो उससे वहां निराशा ही हुई | तनिक-से संतोष की बात यह थी कि कुछेक मुस्लिम महिलाओं को भी देखा जा सकता था, हालाँकि उन्होंने आंशिक रूप से बुर्का पहन रखा था, लेकिन संतोष की बात यह थी कि कम-से-कम उन्होंने किताबों की दुनिया में कदम तो रखा, चाहे दर्शक के रूप में ही सही | और कौन जाने उनमें से कुछ महिलाएँ धार्मिक-पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों की पाठक भी रही हों? यह भी तो हो सकता है कि पुस्तकों के विशाल जखीरे को देखकर उनके दिलों में भी उनमें से कुछ पुस्तकों को पढ़ने की लालसा जाग उठे और वे धार्मिक-पुस्तकों के साथ-साथ उनको भी पढ़ने की कोशिश करें? और यह तो हम सब जानते ही हैं कि कोई काम सफलतापूर्वक करने के लिए सबसे ज़रूरी बातों में से एक है उस काम के प्रति इच्छा और रूचि का जागना |
ईसाई समाज तुलनात्मक रूप से थोड़ा-सा अधिक जागरूक और सचेत रहता है, अवश्य ही शिक्षा को महत्व देने के कारण | लेकिन सम्पूर्ण ईसाई-समाज का सच यही नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज की जातीय-व्यवस्था ने वहां भी अपना जहर फैला दिया है | भारतीय सवर्ण-समाज के बारे में यह कहा जाता है कि ये जहाँ भी जाते हैं, अपनी जाति अपने साथ ले जाते हैं | अमेरिका में वहां के एक शहर ‘सिएटल’ के सिटी काउंसिल द्वारा इसके ख़िलाफ़ कानून बनाया जाना और संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐसे कानून की मांग उठना इसका सबसे ठोस प्रमाण है |
शायद इसीलिए जाति का संक्रमण ईसाई समाज में भी चला गया है | कुछ ईसाई परिवारों से निजी संपर्क और परिचय के जरिए मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानती हूँ कि कई ब्राह्मण स्त्री-पुरुष धर्मान्तरित होकर वहां गए और उन्होंने अपनी जाति के बल पर वहां भी वे तमाम सुविधाएँ ही हासिल नहीं की, जो वे ‘हिन्दू’ रहते हुए हासिल करते थे, बल्कि उन्होंने हिन्दू वंचित-समाजों से धर्मान्तरित होकर वहां गए लोगों के साथ ‘हिन्दू-समाज’ के जैसा ही व्यवहार किया है और करते हैं | इसलिए वे लोग (धर्मान्तरित ब्राह्मण भी और धर्मान्तरित वंचित भी) धर्म से तो ‘ईसाई’ हैं, लेकिन सामाजिक-संरचना में ‘हिन्दू’ हैं | यही कहानी मुस्लिम-समाज की भी है | इसलिए यदि इसे इस्लाम और ईसाइयत का ‘हिंदूकरण’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी |
अस्तु, ईसाई समाज के चुनिन्दा लोग ही सही, लेकिन उनमें कुछ अधिक जागरूकता है और वे कोई ऐसा धार्मिक-चिह्न भी धारण नहीं करते, जिनसे उनकी अलग से पहचान की जा सके | इसलिए हो सकता है कि वे संतोषजनक संख्या में वहां शामिल हों | अथवा यह भी संभव है कि भयपूर्ण और आशंका-जनित वातावरण को देखते हुए उन्होंने पुस्तक मेले से कुछ दूरी बनाई हो और नाममात्र को सम्मिलित हुए हों |
लेकिन माहौल जो भी हो, धार्मिक-अल्पसंख्यक समाज के स्त्री-पुरुष भले ही इस पुस्तक मेले में नाममात्र को दिखाई दिए, लेकिन उनके युवा और बच्चे भविष्य की उम्मीद हैं और वे अपने समाज की बेहतरी के पक्ष में अवश्य एक उज्ज्वल भविष्य-गाथा लिखेंगे |
—डॉ. कनक लता
जब तक हमारा देश जाति ,धर्म और भेदभाव की संकुचित मानसिकता से ऊपर उठकर नहीं देखेगा तब तक ऐसे दृश्य हर जगह होंगे।