खंड-एक : नए रूप-रंग में विश्व पुस्तक मेला
दिल्ली में इस बार तीन सालों के बाद विश्व पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, जो 25 फरवरी से 5 मार्च तक, यानी कुल 9 दिनों तक चला | 2020 के बाद दो सालों तक यह मेला आभासी (वर्चुअल) रूप से आयोजित हुआ था और अब इस साल यह अपने पुराने रूप में लौटा था | लेकिन अपनी पिछली पुस्तकीय संस्कृति और परम्पराओं से अलग, इस बार यह मेला कई मायनों में कुछ अन्य अर्थ लेते हुए और नए सन्देश-आदेश देते हुए ख़ास था, इसका रंग-रूप और मिज़ाज कुछ अलग थे, इसके तेवर कुछ अलग थे… और भी बहुत कुछ, जिनमें से कुछ इस लेख की कड़ियों के रूप में क्रम से आयेंगे |
इस मेले पर पिछले दो सालों की अघोषित पाबंदी या रोक की छाप और प्रभाव दोनों एकदम साफ़-साफ़ नज़र आये | जिस दौरान वर्त्तमान सत्ताधारी पार्टी पूरे देश में अनेक तरह के चुनाव-प्रचार आदि में लाखों-करोड़ों की भीड़ को सड़कों पर बहुत आसानी से उतार रही थी और उसके चुनाव-अभियानों से किसी तरह का कोई कोरोना-संकट नहीं होने का दावा किया जा रहा था; उसी दौरान जनता से जुड़ी शैक्षणिक, बौद्धिक तथा अन्य आवश्यक गतिविधियों से कोरोना के फैलने का अतिशय भय दिखाया जा रहा था | पुस्तक मेले जैसे शैक्षणिक एवं बौद्धिक आयोजन भी उसी में शामिल थे | इसलिए अब इस अघोषित पाबंदी या रोक का कारण कोरोना की मज़बूरी कह लीजिये, या कुछ और अज्ञात कारण; लेकिन उस अज्ञात कारण से उपजी परिस्थितियों की छाया इस मेले पर साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी | जिसमें देश, समाज और लोगों के आर्थिक हालातों से उपजी विवशता और सरकारों की अनिच्छा की भी भूमिका से आसानी से इंकार नहीं किया जा सकता |
इस बार के मेले के स्वरूप में आए परिवर्तनों के कुछ पक्षों या मामलों को देखकर तो ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे किसी बहुत ही ख़ास उद्देश्य से इस मेले को रोक रखा गया हो और खानापूर्ति के लिए या लॉलीपॉप के रूप में ‘वर्चुअल मेले’ का आयोजन किया गया हो | यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिन मेलों का सम्बन्ध जनता के बौद्धिक एवं वैचारिक विकास से सीधा जुड़ा हुआ हो, उनके विकल्प के रूप में वर्चुअल मेले तो खानापूर्ति जैसे ही होते हैं | क्योंकि जिस देश की अधिकांश जनता शिक्षा की दहलीज को केवल छूकर ही अपनी शिक्षा की इतिश्री मान लेती हो, वहाँ स्वतन्त्र चिंतन के विकास के लिए आभासी जुड़ाव की बजाय पुस्तकों से भौतिक रूप से सीधा जुड़ाव कितना आवश्यक होता है, यह किसी से छुपी हुई बात नहीं है | इसलिए पिछले दो सालों के दौरान पुस्तक मेले को ‘वर्चुअल’ रूप देकर जैसे परदे के पीछे-ही-पीछे कोई बड़ी तैयारी की जा रही हो और जिसके मुकम्मल होने का इंतजार किया जा रहा हो | ताकि वह तैयारी पूरी हो तो परदा उठाया जाए और मेले में सबको बुलाया जाए, ‘वह’ चीज सबको दिखाई जाए |
वह तैयारी क्या थी, या क्या रही होगी? पुस्तक मेले का स्वरूप इसे अच्छी तरह बयान कर रहा था | पुस्तक मेले में तमाम स्टॉल एक बहुत ही ख़ास किस्म के प्रभाव से आवेशित दिखे | कहीं वह ‘प्रभाव’ सबपर हावी होने की कोशिशें कर रहा था, तो कहीं उस ‘प्रभाव’ से बचने और उबरने की कोशिशें नज़र आ रही थी; जबकि कहीं-कहीं उस ‘प्रभाव’ के सामने अपने-आप को मजबूती से खड़ा करने और योद्धा के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने की कोशिशें भी दिख रही थीं, जैसे वे कहना चाहते हों— “हम तुमसे डरते नहीं हैं | सत्ता और कलम तुम्हारे कब्जे में हैं, तो क्या हुआ? हमें कम मत आँको, ताकत हममें भी कम नहीं | कलम हमने भी थामना शुरू कर दिया है, क़िताबें हमने भी पढ़नी शुरू कर दी है, अपने नायकों-महानायकों के संघर्षों की कहानियाँ हमने भी जाननी-समझनी शुरू कर दी है |…” इसीलिए प्रकाशन संस्थानों के साथ-साथ दर्शकों के एक बड़े हिस्से में भी कहीं आक्रामकता और तीखे तेवर नज़र आ रहे थे, तो कहीं भय, आशंका और सहमे-से हाव-भाव; जबकि कहीं-कहीं विद्रोही तेवर, नाराज़गी, उत्कंठा, उपेक्षा और आक्रामकता के विरुद्ध प्रति-आक्रामकता जैसे भाव भी |
लेकिन जो भी, इस बार का मेला बहुत सारे सन्देश देकर गया है | उसने भारतीय समाज को सावधान करने की कोशिश की है, समाज को आनेवाले संकट की आहट स्पष्ट रूप से सुनाई है, उस संकट से लड़ने के लिए कमर कसने का आह्वान तो किया ही है, साथ ही उसके लिए हौसला भी दिया है, उत्साह भी बढ़ाया है, निराशा से लड़ने की ऊर्जा भी दी है | लेकिन मैं ऐसा क्यों कह रही हूँ? इन प्रश्नों पर इस लेख की कड़ी में आनेवाले लेखों में एक-एक करके बात होगी और इन बिन्दुओं का कुछ ख़ुलासा करने की कोशिश भी…
डॉ. कनक लता