“मैम, सपने तो हम भी देखते हैं, लेकिन हमारे सपनों की कोई वैल्यू नहीं है | किसी को भी इस बात से मतलब नहीं है कि हम लडकियाँ भी सपने देखती हैं और उन्हें पूरा करना चाहती हैं | हम लड़कियाँ हैं, इसलिए हमारे सपनों का कोई महत्त्व नहीं |…हमारे माता-पिता भी हमारे भाइयों पर ही अधिक ख़र्च करते हैं | हमारे लिए कोई नहीं सोचता, मैम…”
“मैम, ऐसा नहीं है कि जिन लड़कियों ने यह नहीं बताया कि वे भी अपने जीवन और भविष्य के बारे में सपने देखती हैं, उन लड़कियों का कोई सपना ही नहीं या वे कोई सपना नहीं देखती हैं | लेकिन सच तो यही है कि हमारे सपनों की न तो कोई बात करता है और न कोई उन्हें महत्त्व देता है | इसलिए हम अपने सपनों के बारे में बात करें भी, तो क्या बात करे, या सोचें भी क्या सोचें?…”
“मैम, यदि हम सपने देखें और उन्हें पूरा भी करना चाहें, तो कैसे? हममें से अधिकांश के माता-पिता इस बात को बिल्कुल पसंद ही नहीं करेंगे कि हम लड़कियाँ सपने देखें | हमारे माता-पिता हमेशा हमारे भाइयों के बारे में ही सोचते हैं, उन्हीं के सपने पूरे करते हैं, उनको ही सपोर्ट करते हैं, क्योंकि उन्हीं के सपनों की वैल्यू है, हमारे सपनों की नहीं | हम लड़कियाँ ये बातें जानती हैं, इसलिए हम अपने सपनों के बारे में कोई बात नहीं कर पातीं | हमारे माता-पिता के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि वे भाइयों के साथ-साथ हमारे सपनों को भी पूरा करने में मदद करने के बारे में सोचें…”
ये तीन बातें संभवतः कक्षा नौ से बारहवीं की तीन लड़कियों द्वारा कही गईं, जब मैं उनसे मुखातिब थी | अवसर था, श्री एच. एस. बी. एम जैन बालिका इंटर कॉलेज, विकासनगर (उत्तराखंड) में एक कार्यक्रम का | इस इलाक़े में एक मशहूर चाय-बागान और चाय कंपनी ‘बारुमल चाय’ के मालिक हैं, संजय जैन और उनका परिवार | यह परिवार यहाँ कई चीजों से जुड़े व्यवसाय की दुनिया में बेहद सक्रिय और सफ़ल परिवार है | लेकिन इस परिवार के विषय में अब तक की मेरी संक्षिप्त-सी जानकारी के मुताबिक़, इन व्यावसायिक गतिविधियों से भी बड़ी विशेषता है, इस परिवार के कई सदस्यों का समाज के विविध वर्गों के हित में उनके उत्थान के लिए कई सार्थक प्रयास और पहलक़दमी | उन्हीं प्रयासों में से एक है, शिक्षा के मामले में ग़रीब और वंचित समाज के बच्चों के लिए स्कूल का संचालन | संजय जैन उक्त विद्यालय (श्री एच. एस. बी. एम जैन बालिका इंटर कॉलेज, विकासनगर, उत्तराखंड) के ट्रस्टी हैं और वहाँ के विद्यार्थियों की बेहतरीन शिक्षा के लिए न केवल आर्थिक सहयोग देते हैं, बल्कि अक्सर विद्यालय में आकर बच्चों की शैक्षणिक आवश्यकताओं को जानने और उसके मुताबिक़ उसकी अन्य व्यवस्थाओं में भी सक्रिय सहयोग देते हैं | इसी व्यवस्था और कोशिश के अंतर्गत उन्होंने गुवाहाटी में पहले से शिक्षिका के रूप में कार्यरत एक बेहद क़ाबिल शिक्षिका रेखा अग्रवाल को इस विद्यालय की प्रधानाध्यापिका के रूप में आमंत्रित करके यह कार्यभार कुछ साल पहले दिया है |
एक दिन जब संजय जैन हमारे घर आये, तब बातचीत के दौरान उन्होंने अपने इस विद्यालय के बच्चों से एक छोटे-से संवाद के लिए मुझे वहाँ आमंत्रित किया | 30 नवम्बर 2022 की सुबह लगभग 9:30 बजे मैं उन बच्चों के बीच थी | एक विशाल हॉल में लगभग 700-750 बच्चियाँ रही होंगीं, पहली कक्षा से लेकर 12वीं कक्षा तक की— अपने-अपने चेहरों पर ढेरों जिज्ञासा, उत्सुकता और आश्चर्य लिये हुए | उनके शिक्षक-शिक्षिकाएँ भी वहाँ मौजूद थीं, जब आलेख के शुरू में आई बातें उन बच्चियों द्वारा कही गई |
लेकिन ये तीनों लड़कियाँ ये क्या कह रही थीं, और क्यों? इतनी छोटी आयु की लड़कियाँ, जिन्होंने अभी तक जीवन जीना ठीक से शुरू भी नहीं किया था, क्यों अपने सपनों को लेकर इतनी हताश और निराश थीं? इतनी छोटी उम्र की लड़कियाँ आख़िर क्यों इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनी सोच में स्थाई रूप से स्थापित कर चुकी थीं कि परिवार या समाज के मन में उनके सपनों के लिए कोई स्थान ही नहीं है, उनके सपनों का कोई मोल ही नहीं है? आख़िर क्यों वे यह मान बैठी थीं कि अपने सपनों के बारे में उनको किसी से भी बात नहीं करनी चाहिए? भारतीय समाज में लड़कियों या महिलाओं का अपने ही सपनों के विषय में उनका ये निराशाजनक नज़रिया क्यों है?… और भारतीय समाज में क्या केवल महिलाएँ ही ऐसी हैं, जिनको अपने भविष्य और जीवन के विषय में कोई निर्णय लेने और सपने देखने का अधिकार नहीं है, या कोई और भी वर्ग या समुदाय ऐसा है, जिसकी यही मनःस्थिति बन चुकी है या बनाई जा चुकी है?
वास्तव में भारतीय समाज में एक और बहुत बड़ा तबका है, जिनके सपनों पर पाबंदी लगाने की कोशिश ज़ारी है, लेकिन उनके परिवारों से अधिक समाज के ताक़तवर हिस्से द्वारा | वह तबका कौन है? इसे एक अन्य घटना से समझने की कोशिश करते हैं…
19 जुलाई 2018 का दिन ! स्थान था एक सरकारी विद्यालय, नगरपालिका द्वारा संचालित विद्यालय संख्या 11, पौड़ी, उत्तराखंड | विद्यालय में कक्षा 6 से 8 तक के बच्चे-बच्चियाँ पढ़ते थे | ये बच्चे उस समुदाय से थे, जो खेतों में मजदूरी करने, चमड़े का सामान और जूता बनाने या गांठने, दूसरों के कपड़े धोने, मरे जानवरों के चमड़े उतारने, पाखाना और अन्य गन्दगी साफ़ करने, कूड़ा उठाने, सड़कों की साफ़-सफ़ाई जैसे निम्न समझे जाने वाले कार्य सदियों से करता आया है | उन बच्चों में से भी कई बच्चे सुबह-सुबह अपने माता-पिता की उनके आर्थिकोपार्जन के काम में मदद करने के बाद ही विद्यालय पहुँचते थे और विद्यालय से लौटने के बाद भी उनको उसमें माता-पिता की मदद करनी पड़ती थी; अन्यथा शाम को उनके परिवारों को भोजन मिलना मुश्किल होता था | कुल जमा बात यह कि उन बच्चों में से किसी को भी घर में पढ़ने का अवसर शायद ही मिल पाता था |
मैं अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में बतौर शिक्षक-प्रशिक्षक चयनित होकर पौड़ी पहुँची थी | अपना कार्यभार ग्रहण किए हुए अभी यह मेरा चौथा ही दिन था, जब मैं उक्त संस्था के पौड़ी केंद्र के सबसे वरिष्ठ कर्मचारी गणेश बलूनी के साथ उस विद्यालय पहुँची थी | बच्चों से बातचीत के दौरान जब मैंने उनसे उनके सपनों के बारे में पूछा, तो बच्चे अपने-अपने सपनों के बारे में बताने लगे— लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी | उन बच्चों में किसी को इंजीनियर बनना था, तो किसी को डॉक्टर, कोई शिक्षक बनना चाहता था, तो कोई सेना या पुलिस में जाने का ख्वाहिशमंद था…| हर बच्चे के सपने के पीछे अपना एक तार्किक कारण भी था, जो स्वयं वे बच्चे ही बता रहे थे | शायद इससे पहले उन बच्चों से किसी ने भी उनके सपनों के बारे में नहीं पूछा था, न कभी किसी ने उनसे इस बारे में बात ही की थी (क्योंकि बच्चों ने अगले दिन मुझसे यही बात कही कि मैं पहली व्यक्ति थी, जिसने उनके सपनों के बारे में उनसे पूछा था); इसलिए अपने सपनों के बारे में बताने के लिए उनके स्वर में ही नहीं, बल्कि उनके व्यवहार में भी उतावलापन और उत्साह कुछ अधिक था, चहकती-सी भाषा थी, इस कोशिश में वे अपने स्थानों पर स्थिर बैठ नहीं पा रहे थे |
लेकिन उत्साह और ख़ुशी से भरे लगभग 10 से 13 वर्षीय वे बच्चे चहकते हुए अभी अपने सपनों के बारे में बता ही रहे थे कि गणेश बलूनी की कड़कती-गरजती आवाज़ कक्षा में गूँज उठी | वे उन बच्चों को उनके सपनों के लिए डाँट रहे थे | उनकी विस्फोटक आवाज़ कक्षा में गूंज रही थी— “अच्छा….?! तुम सब टीचर, इंजीनियर, फ़ौजी, या डॉक्टर ही क्यों बनना चाहते हो? तुममें से किसी ने भी ये क्यों नहीं कहा कि वो सफ़ाईकर्मी या किसान बनना चाहता है? …एक बात तुमलोगों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि पढ़े-लिखे लोग ही सबसे ज्यादा क्राइम करते हैं ! हमारे समाज को पढ़े-लिखे लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है… इसलिए आदमी यदि नहीं भी पढ़ेगा, तो भी कुछ नुकसान नहीं होगा… इसलिए तुम सबको केवल किसान या सफ़ाईकर्मी बनने का ही सपना देखना चाहिए… वही तुम सबके लिए सबसे अच्छा है…”
अपनी इस कोशिश में उसी डपटती भाषा में गणेश बलूनी ने बच्चों को यह बात विस्तार से ‘समझाई’ कि क्यों उनको सफ़ाईकर्मी और किसान ही बनने का सपना देखना चाहिए, कुछ और नहीं | इस आकस्मिक व्यवहार से बच्चों की वह थोड़ी देर पहले नज़र आनेवाली उत्सुकता, प्रफुल्लता, ख़ुशी, उत्साह, चेहरों की रौनक, सब पूरी तरह ग़ायब हो चुके थे और उसकी जगह उनकी आँखों में अब डर साफ़-साफ़ दिख रहा था, वे चुपचाप सहमे बैठे उक्त ‘समाज-सेवक’ की बातें सुन रहे थे | अब कक्षा में कोई हलचल नहीं थी, बच्चों की कोई आवाज़ नहीं, कोई चंचलता नहीं; बस केवल उक्त ‘समाज-सेवक’ की गूँजती-गरजती आवाज़ थी | संयोग से उस समय उन बच्चों की कोई भी अध्यापिका यह सब देखने-सुनने के लिए कक्षा में मौजूद नहीं थी; और ऐसे व्यवहार के अभ्यस्त उक्त ‘समाज-सेवक’ ने अपनी आवाज़ को इतना भी तेज़ नहीं होने दिया था कि वह बगल के कमरे में बैठी बच्चों की अध्यापिकाओं तक पहुँच जाए |
मैं स्वयं हैरान थी और उक्त ‘समाज-सेवक’ के कठोर व्यवहारों और कुतर्कों के पीछे की वैचारिकी और मनःस्थिति को समझ नहीं पा रही थी कि उस व्यक्ति ने बच्चों के साथ वह व्यवहार क्यों और कैसे किया? इसका उत्तर मिला विद्यालय से बाहर निकलने के बाद, जब मैंने उस ‘समाज-सेवक’ से उनके उस व्यवहार के विषय में पूछा | उनका कहना था, “ये बच्चे जिस समाज के हैं, यदि वे भी बड़े सपने देखने लगेंगे, तो ‘हमारे समाज’ के लिए ख़तरा पैदा कर देंगें | फिर हमारे बच्चों का और ‘हमारे समाज’ का क्या होगा? …इसलिए यही अच्छा होगा, कि ये बच्चे केवल सफ़ाईकर्मी या किसान बनने का ही सपना देखें | सदियों से इनके समाज के लोग और इनके माता-पिता भी तो यही सब करते आये हैं | …हमारे लिए भी यही ठीक है और इनके लिए भी यही ठीक होगा …समाज में इससे शांति और संतुलन बना रहता है | मैंने इसीलिए उनको कोई और सपना देखने से रोका | …अच्छे और बड़े सपने देखने का अधिकार केवल ‘हमारे समाज’ को है |”
सपनों की हत्या होते तो हम सब रोज़ ही देखते हैं, पचासों घटनाओं के रूप में मेरे अनुभवों में भी यह बहुत गहराई से शामिल है | इसलिए उक्त ‘समाज-सेवक’ के व्यवहार ने उन बच्चों पर क्या असर किया होगा, इसका अंदाज़ा मुझे था और वह अनुमान ग़लत नहीं था | जब एक दिन बाद 21 जुलाई 2018 को पुनः उन्हीं ‘समाज-सेवक’ के साथ उस विद्यालय पहुँची, तब हमें देखते ही बच्चों के चेहरों पर पहले तो भय की लकीरें नज़र आईं और उसके बाद उनके चेहरे लटक गए, शायद उन्हें पिछले दिन की घटना का स्मरण हो आया था | लेकिन पाँच मिनट बाद ही किसी अन्य कार्य से गणेश बलूनी वहाँ से चले गए और बच्चों ने जैसे राहत महसूस की और उनके चेहरों पर आई भय की लकीरें कुछ कम हो गईं, लेकिन मायूसी नहीं गई | अब कक्षा में अकेले ही उनसे बातचीत का मुझे मौक़ा मिला, तब मैंने पिछली बातचीत का सिरा पकड़कर उनके दिलों से डर को दूर करने के प्रयास किये, क्योंकि उन चंद मिनटों में उनके चेहरों के बनते-बिगड़ते भावों को मैंने अपनी आँखों से देखा | स्वाभाविक था, कि इस बार उनकी ओर से आने वाले प्रश्न बेहद मायूसी भरे होने थे | जिसमें वे यह जानना चाहते कि वे अपनी पसंद के सपने क्यों नहीं देख सकते, क्या उनको मनपसंद सपने देखने का अधिकार नहीं है, उनको अपनी पसंद के सपने देखने से गणेश बलूनी ने क्यों रोका…आदि | मेरे पास उनके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था, और जो उत्तर था, उसे जानने की उनकी उम्र नहीं थी | इसलिए मैंने उनसे केवल यही कहा कि उन्हें अपनी पसंद के ही सपने देखने चाहिए और उसे पूरा करने के लिए अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और अधिक-से-अधिक कोशिश करनी चाहिए, उनके अच्छे सपनों पर पाबन्दी लगाने का अधिकार किसी को भी नहीं है |
लेकिन उक्त समाज सेवक द्वारा किया गया वह व्यवहार केवल एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि यह तो भारतीय समाज में उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक विद्यमान है; अंतर है तो केवल मात्रा और प्रकृति या तरीक़ों का | अब उक्त संस्था की ही बात ले लें, तो उस संस्था का दावा है, बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देकर समाज के संतुलित विकास को प्रोत्साहन देने का, लेकिन उसके सदस्यों में वर्चस्ववादी-वर्गों के अधिकांश सदस्यों की मनोवृत्ति गणेश बलूनी जैसी ही है, जिसमें उक्त संस्था के लीडर भी शामिल हैं | क्योंकि मैंने जब इस पक्ष पर गणेश बलूनी जैसे पिछड़ी मानसिकता के सदस्यों से इतर संस्था के अपने विचार और नज़रिए को समझने की कोशिश की, तो पता चला कि जगमोहन कठैत, विजय नन्द नौटियाल, प्रमोद पैनूली, विकास बड़थ्वाल जैसे अधिकांश लीडरों और वरिष्ठ सदस्यों की मनःस्थिति और उनकी परोक्ष कोशिशें भी इससे कत्तई भिन्न नहीं थीं; कुछ-कुछ ‘मुख में राम, बगल में छुरी’ जैसी | अपने अनंत वैध-अवैध अधिकारों की सुरक्षा के प्रति उनका वर्चस्ववादी वर्ग जहाँ भी मौजूद है, वहीँ पर सतत रूप से सजग और प्रयासरत है |
अधिकार ! यही तो वो शब्द है, जिसके इर्द-गिर्द हर प्रकार की सत्ता और वर्चस्व-स्थापना के तमाम ताने-बाने बुने गए हैं, बुने जाते हैं; दुनिया के प्रत्येक कोने में, प्रत्येक ‘सभ्य’, ‘सुसंस्कृत’, ‘विकसित’, ‘उन्नत’ संस्कृतियों और समाजों में | राजनीति, संपत्ति, मानवाधिकार आदि में समाज और परिवार के किस हिस्से या सदस्य को अधिकार मिलेंगें और किसको नहीं मिलेंगें, जिनको मिलेंगे, उनको कितने अधिकार कितनी मात्रा में मिलेंगें, यह इस बात से तय होता है कि उस व्यक्ति या सामाजिक समूह की ताकत कितनी है, उसमें अपना वर्चस्व बनाए रखने की कूवत कितनी है, दूसरों के जीवन को नियंत्रित और निर्देशित करने की क्षमता कितनी है, दूसरों के जीवन और अस्तित्व पर अपना दबदबा क़ायम रख पाने की ज़िद और कोशिश कितनी है | लेकिन इसी के साथ यह बात इससे भी तय होती है कि किसी समाज में वर्चस्ववादी तबक़ा अपने से कमज़ोर तबकों के प्रति क्या नज़रिया रखता है, उसमें संवेदना, मानवीय भावना एवं मानवता का भाव कितने हैं…आदि? यही बात कमोवेश परिवार के भीतर भी वर्चस्व के मामले में लागू होती है |
यही कारण है कि ‘सभ्य’, ‘सुसंस्कृत’ और ‘विकसित’ समाजों में विविध रूपों में स्तरीकरण किया गया, जिसमें प्रत्येक स्तरीकरण के शीर्ष पर वे लोग और वर्ग होते हैं, जिन्हें बिना कोई शारीरिक परिश्रम किये समस्त साधन-संसाधनों का उपभोग करना पसंद है | ये वह वर्ग होते हैं, जिनके भीतर अपने अधीनस्थों का ‘भाग्य-विधाता’ और ‘स्वामी’ बनने की तीव्र इच्छा होती है | इन दोनों इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे अपने अधीनस्थों (अर्थात् अपने से कमज़ोर वर्गों, जैसे स्त्रियाँ एवं वंचित समाज) पर शासन करना पसंद करते हैं | जिसके लिए वे समस्त साधन-संसाधनों, धर्म एवं राजनीति पर ही नहीं, बल्कि समस्त निर्णयों पर भी अपना वर्चस्व क़ायम करके समाज और सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित करते हैं | इसके लिए ये वर्ग जो नियम-क़ायदे बनाते हैं, उन नियम-क़ायदों के माध्यम से वे समस्त समाज और उसके प्रत्येक सदस्य के सभी अधिकारों और गतिविधियों को अपने कठोर नियंत्रण में रखते हैं | ये वर्ग ही यह तय करते हैं कि किसको कौन-से अधिकार मिलेंगें और कौन-से नहीं, जो अधिकार मिलेंगें, वे कितनी मात्रा में मिलेंगें…आदि | इन सभी बातों को चिरकाल तक बनाये रखने के लिए वे सभी वर्गों के सदस्यों को वर्ग के अनुसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनौपचारिक प्रशिक्षण देते हैं | वास्तव में इसी सतत प्रशिक्षण का नाम है— ‘संस्कार’, ‘परंपरा’, ‘मान्यताएँ’, ‘रीति-रिवाज’…आदि; जिसका सबसे अधिक जाप अक्सर यही वर्चस्ववादी वर्ग करते हैं |
भारतीय समाज में, विशेषकर उत्तर भारत में, समाज का जो ताना-बाना है, उसमें सबसे अधिक सामाजिक स्तरीकरण जाति, धर्म और लिंग के आधार पर नज़र आता है; अन्य आधारों पर वर्गीकरण तो हैं ही | इस स्तरीकरण में जातियों के आधार पर वंचित-वर्गों पर सवर्णीय-वर्चस्व है, तो लिंग के मामले में स्त्रियों के जीवन पर पुरुष-वर्चस्व और धर्म के तहत समस्त ग़ैर-सनातनी वर्गों पर सनातनी-वर्चस्व की स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है | इसी स्तरीकरण को बनाए रखने के लिए स्त्रियों के मामले में उनके सपनों पर रोक लगाने के लिए समाज के निर्देशन में परिवार मुख्य भूमिका निभाता है; जबकि वंचित-वर्गों के मामले में स्वयं वह वर्चस्ववादी समाज ही मुख्य भूमिका में होता है और उनके परिवारों के सामने ऐसी आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है कि बच्चे अपने परिवारों के जीवन-निर्वाह के लिए बचपन से ही अपने-आप को आर्थिक-उपार्जन में झोंक देते हैं और उनके सपनों की मौत वहीं से शुरू हो जाती है |
ऊपर वर्णित दोनों घटनाएँ दरअसल इसी बात का प्रतिबिम्ब हैं | जिसमें प्रथम घटना में लड़कियाँ हैं, जिनके जीवन पर सदियों से न केवल समाज, बल्कि स्वयं उनके अपने ही परिवारों के पुरुषों का नियंत्रण रहा है | जबकि दूसरी घटना में शामिल बच्चे उन वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जो अधिकांशतः ऐसे तबकों से ताल्लुक रखते हैं, जिसको जातीय आधार पर भारतीय समाज में ‘वंचित’ की स्थिति हासिल है, जिन्हें ‘दलित’ और ‘शूद्र’ (ओबीसी) कहकर संबोधित किया जाता है | जबकि उक्त ‘समाज-सेवक’ उस शक्तिशाली वर्चस्ववादी-वर्ग का प्रतिनिधि है, जो सदियों से समस्त संसाधनों, अधिकारों और सत्ता पर अवैध कब्ज़ा और वर्चस्व रखता आया है और जो अपने से कमज़ोरों को केवल उतने ही अधिकार देने का हिमायती रहा है, जितने अधिकारों से उनकी सत्ता और वर्चस्व को संकट न हो, उनके जायज़-नाजायज़ अधिकारों में कोई भी कमी न आए | यह वर्ग वंचित-तबक़े और स्त्रियाँ, दोनों पर ही अपना कठोर नियंत्रण रखता है |
इन दोनों घटनाओं में शामिल बच्चे और उनकी हताशा-निराशा वास्तव में उस समाज का चित्र प्रस्तुत कर रही हैं, जिसमें वे जीते हैं, रोज़-रोज़ उन तमाम बातों, व्यवहारों से होकर गुज़रते हैं, जो उनकी एक ख़ास क़िस्म की मानसिकता विकसित करते हैं, अपने ही प्रति एक ख़ास किस्म की पराजित स्थिति का बोध कराते है | वे हर दिन बहुत कुछ देखते हैं, सुनते हैं, समझते हैं, महसूस करते हैं, सहन करते हैं | इन दोनों घटनाओं में शामिल बच्चों के सपनों की मौत कोई आकस्मिक बात नहीं, न ही यह अनजाने में हुआ है या हो रहा है; बल्कि इसके पीछे पूरा का पूरा मनोविज्ञान है, जिसको वर्चस्ववादी वर्ग निर्मित करता है | इसलिए यह प्रश्न तो स्वाभाविक है कि सपने क्या हैं? व्यक्ति या समाज के जीवन में उनकी भूमिका क्या होती है? सपनों में ऐसा क्या होता है कि किसी व्यक्ति या वर्ग को सपने देखने से रोका जाता है?…
सपने !
ख़ुली आँखों के सपने !
पूरे होशोहवास में देखे गए सपने !
सोच-समझकर, नाप-तोलकर, दृढ़-निश्चय करके देखे गए सपने !
सपने ! जो भविष्य की खिड़की खोलते हैं, अनंत संभावनाओं के द्वार खोलते हैं !
सपने ! जो देखनेवाले के भीतर आशा और उत्साह का सृजन करते हैं, उसमें नई उर्जा पैदा करते हैं !
सपने ! जो व्यक्तियों और समाजों में स्वाधीनता की भावना, आत्म-सम्मान की भूख, अदम्य आत्म-विश्वास, अपने अस्तित्व के प्रति चेतना के भाव पैदा करते हैं |
सपने ! जिनके माध्यम से कोई व्यक्ति, परिवार, समाज और देश आगे बढ़ता है | जिन्हें व्यक्ति अपने बेहतर जीवन और उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में देखता है; जिन्हें कोई परिवार अपने सदस्यों की उन्नति के माध्यम से अपने उत्थान के रूप में देखता है; जिन्हें कोई समाज अपने सदस्यों और भावी पीढ़ियों के विकास और बेहतरीन भविष्य के निर्माण के सन्दर्भ में देखता है |
कवि पाश (मूल नाम अवतार सिंह संधू) ने लिखा ही है—
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सपनों के मर जाने को क्यों सबसे ख़तरनाक माना जाता है? इसका उत्तर ऊपर वर्णित वे दोनों घटनाएँ हैं, जहाँ एक मामले में बच्चों (लड़कियाँ) पर बाहर (समाज) और भीतर (परिवार) से चौतरफ़ा दबाव से उनपर निराशा पूरी तरह से हावी हो चुकी है और उन्होंने यह मान लिया है कि उनको सपने देखने की अनुमति नहीं है, इसलिए उनका सपने देखना व्यर्थ है; जबकि दूसरे मामले (वंचित-वर्गों के लड़के-लड़कियाँ, दोनों) में बच्चे अभी चूँकि छठी से आठवीं कक्षा में थे, महज़ 10 से 13 वर्ष की आयु के, इसलिए अभी उनपर भीतर (परिवार) से उतना दबाव (परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए बड़े सपने देखना छोड़कर आर्थिकोपार्जन का दबाव) नहीं पड़ा था, इसलिए अभी तक उनके सपनों की मौत नहीं हुई थी, अभी उनके मामले में बाहरी दबाव (वर्चस्ववादी समाज) द्वारा ही उनके सपनों की हत्या की प्रक्रिया ज़ारी थी |
और यही तो वर्चस्ववादी वर्ग चाहता है | क्योंकि यदि ये कमज़ोर समाज सपने देखेंगें, तो वर्चस्ववादी समाज के अनन्त नैतिक-अनैतिक अधिकारों पर संकट खड़ा हो जाएगा, उनके वर्चस्व को चुनौती मिलने लगेगी | उन्हें सबको अपने बराबर समझना पड़ेगा | दरअसल जब कोई व्यक्ति, परिवार, समाज या वर्ग अपने जीवन और भविष्य के विषय में सपने बुनता है और उसको पूरा करने के लिए कोशिश शुरू करता है, तो इस प्रक्रिया में वह बौद्धिक और चारित्रिक स्तर पर एक ऐसी यात्रा से गुजरता है, जिसमें उसके व्यक्तित्व में दृढ़ता, साहस, निश्चय, संकल्प की क्षमता, आत्म-निर्णय की क्षमता, आत्म-निर्भरता, आत्मसम्मान की भूख आदि विशेषताएँ स्वतः ही विकसित होती चली जाती हैं | इसलिए यह यात्रा अंततः उसकी स्वाधीनता की ओर उसे पहुँचाती है, उसे अपने जीवन एवं भविष्य के विषय में स्वतन्त्र निर्णय लेना सिखाती है | इसके दूरगामी परिणाम यह होते हैं कि ऐसे व्यक्ति और समाज पर किसी भी रूप में एकान्तिक रूप से शासन करना, उसको अपने वर्चस्व के अधीन रखना, उसके विवेक को कुचलना, उसके मन-मस्तिष्क में अपनी श्रेष्ठता की भावना स्थापित करके स्वयं उसका भाग्यविधाता बनना बेहद मुश्किल हो जाता है | इसीलिए हज़ारों सालों से वर्चस्ववादी सामाजिक समुदाय और वर्ग यही कोशिश करते रहे हैं कि शारीरिक श्रम द्वारा तमाम तरह के उत्पादक कार्य करनेवाली बहुसंख्य आबादी कभी भी अपने जीवन के किसी भी ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं न ले सके, जिससे वर्चस्ववादी वर्गों की सत्ता को किसी भी रूप में किसी भी अंश में ख़तरा उत्पन्न होने की सम्भावना हो | इसी कारण समस्त वर्गों को सपने देखने से रोकने के लिए जो भी काम किया जा सकता था, किया गया, किया जा रहा है |
लेकिन इसी अनैतिक-अमानवीय कोशिश के विरुद्ध सैकड़ों-हज़ारों लोग सामाजिक समानता और मानवता की स्थापना में लगातार संलग्न हैं | विकासनगर के उक्त विद्यालय के ट्रस्टी संजय जैन और प्रधानाध्यापिका रेखा अग्रवाल भी मानवतावादी और विकसनशील समाज के निर्माण के उन्हीं अभियानों में शामिल हैं और मेरी भी अकिंचन-सी कोशिश इसी दिशा में है | और उस कोशिश में बच्चों से, विशेषकर लड़कियों और वंचित-समाज के बच्चों से, उनके सपनों के बारे में बातें करना सबसे अधिक पसंद करती हूँ; इसके बावजूद कि बच्चों से बातें करने के लिए मेरे पास कई विषय होते हैं |
ऐसा करने का एक कारण तो हमारी अधूरी शिक्षा-प्रणाली ही है, जिसकी नीतियाँ और तौर-तरीक़े अब तक कुछ इस तरह के रहे हैं, जिनमें अक्षर-ज्ञान, विषय-ज्ञान आदि तो शामिल हैं, लेकिन उस ज्ञान का हमारे व्यावहारिक जीवन से क्या सम्बन्ध है, उसे अपने रोज़मर्रा के जीवन से कैसे जोड़ा जाय, यह हमारी शिक्षा-नीतियाँ प्रायः नहीं समझा पाती हैं | वह अब तक यह भी स्पष्ट कर पाने में भी असफ़ल रही है कि उस ज्ञान का उपयोग व्यवस्थित ढंग से अपने व्यक्तित्व-विकास, अधिकतम ज्ञान-अर्जन, परिवार और समाज के भविष्य-निर्माण, अपने साथ-साथ परिवार और समाज के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने आदि में कैसे किया जाय | इसीलिए शिक्षा हासिल कर चुकने के बावजूद युवाओं को यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि उनके पढ़ने-लिखने का उद्देश्य क्या था | इस कारण अपने ज्ञान, करियर, भविष्य की दिशा, समाज एवं परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी और भूमिका को लेकर उनमें अक्सर ही असमंजस की-सी स्थिति बनी ही रहती है | हम में से अधिकांश इसके भुक्तभोगी हैं | बहुत ही कम ऐसे बच्चे होते हैं, जिनके अभिभावक, सदियों से ही अवसरों का लाभ उठाने के अभ्यस्त होने के कारण, अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उनकी शिक्षा-प्राप्ति को सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाते है | इसलिए व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसा लगता है कि हमारे इस विशाल देश और इसके विस्तृत समाज के प्रत्येक बच्चे में उसके सपनों के विषय में एक स्पष्ट समझ और नज़रिया विकसित करना ज़रूरी है |
सबसे महत्वपूर्ण बात, विशेष रूप से लड़कियों और वंचित-समाज के बच्चों की आँखों में सपनों के बीज बोना मैंने अपने कार्यों में शामिल किया है; क्योंकि, जैसाकि ऊपर देखा गया, समाज के ये दोनों हिस्से अपने शैशव-काल से ही समाज की लगातार अनियोजित-सुनियोजित कोशिशों द्वारा कई कारणों से अपने सुनहरे भविष्य और बेहतर जीवन के लिए सपने देखने से वंचित करके रखे जाते हैं, जिस कारण युवा होने से पहले ही, अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही, कोई सपना ठोस ढंग से देखने से पहले ही अपने सपनों को मरा हुआ पाते हैं और जीवन को लगभग एक बोझ की तरह निरुद्देश्य बस जिए चले जाते हैं |
इन तमाम परिस्थितियों को हम रोज़ देखते-सुनते हैं | तीन साढ़े तीन दशक पहले अपनी स्कूली-शिक्षा के दौरान मैंने अपने कुछ ख़ास अध्यापकों को कक्षा के वंचित-समाज के बच्चों और कई लड़कियों को भी केवल पढ़ने-मात्र के लिए प्रताड़ित किये जाते देखा, स्वयं भी उसकी भुक्तभोगी रही | उनकी मार के डर से कई लड़कियाँ और वंचित समाज के बच्चे कक्षा में सबसे पीछे बैठते थे और कभी कोई सवाल-जवाब उधर से नहीं होता था | लड़कियाँ केवल इसलिए विद्यालय आती थीं, क्योंकि माता-पिता उनको भेजते थे, ताकि दसवीं पास कर सकें और उनका ठीक-ठाक लड़के से विवाह हो सके | उन लड़कियों का पढ़ने-लिखने का कोई उद्देश्य नहीं था, तब उनके सपनों की क्या बात की जाय? कुछ विद्रोही प्रकृति की होने के कारण और समाज की ऐसी व्यवस्थाओं से खफ़ा-सी होने के कारण भी मैंने वहीं से, कक्षा सातवीं-आठवीं से, लड़कियों के मन में सपनों के बीज बोने की शुरुआत की; वह भी अनजाने में |लेकिन जब शिक्षा की सीढ़ियाँ कुछ और चढ़ते-चढ़ते समाज के हालातों की कुछ-कुछ समझ बनने लगी, तब मैंने सायास ये तय किया कि मुझे जब भी कोई छोटा-बड़ा अवसर मिलेगा, विशेष रूप से बच्चों से उनके सपनों के बारे में बात करने की कोशिश करूँगी, उनके अस्पष्ट सपनों को उनके समक्ष व्यवस्थित करने और ठोस दिशा देने में उनकी यथासंभव मदद करुँगी, जिन बच्चों की आँखों में किसी भी कारण से कोई सपना नहीं होगा, उनकी आँखों में सपनों के बीज बोने की यथाशक्ति कोशिश करूँगी | इसी निश्चय के तहत दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्यार्थी और शिक्षिका होने पर इस सम्बन्ध में मुझे कुछ और मौके मिले |
और इसी कारण जब उक्त विद्यालय के ट्रस्टी संजय जैन जी का निमंत्रण मिला, तो मैंने निश्चय किया था कि मैं उन बच्चियों से उनके सपनों के विषय में ही बात करूँगी और अन्य सभी बातें उसके ही इर्द-गिर्द रहेंगी | जब विद्यालय की प्रधानाध्यापिका रेखा अग्रवाल, ट्रस्टी संजय जैन और अन्य शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा मुझे भाषण या संबोधन देने के लिए मंच पर खड़ा किया गया (हालाँकि मैं इसे ‘भाषण’ या ‘संबोधन’ की बजाय बातचीत ही कहूँगी, क्योंकि मैं वाकई बच्चों से बात करना ही पसंद करती हूँ), तब उन लड़कियों की सैकड़ों जोड़ी उत्सुक आँखें न जाने क्या कहने की कोशिश कर रही थीं, न जाने कितने अनकहे प्रश्न, न जाने कितनी अव्यक्त पीड़ाएँ, कितने टूटे सपनों के काँच उनकी आँखों में तैर रहे थे | मैं यह सब साफ़-साफ़ देख सकती थी, क्योंकि ऐसी आँखें मेरे लिए अनजानी नहीं थीं | मेरी बात समाप्त होने के बाद जब लड़कियों ने हिम्मत करके टूटती भाषा और चेहरों पर तकलीफ़ की रेखाओं के साथ सवालों के रूप में अपनी व्यथा व्यक्त की, तब उनके शिक्षक-शिक्षिकाओं के ह्रदय भी द्रवित हो उठे, अपनी छात्राओं के लिए उनके चेहरों पर उभरती दुःख की लकीरें स्पष्ट पढ़ी जा सकती थीं | मंच पर बैठी बच्चों की प्रधानाध्यापिका रेखा अग्रवाल और ट्रस्टी संजय जैन भी द्रवित हो उठे थे | आख़िर वे यही कोशिश तो लगातार कर रहे हैं कि उनकी छात्राएँ फ़िर से सपने देखने का हौसला करें, जिसमें वे उनकी मदद कर सकें; लेकिन सालों के सामाजिक अनुभव से होकर गुजर चुकी लड़कियों की मायूसी ख़त्म नहीं हो रही |
लेकिन अच्छी बात यह है कि प्रधानाध्यापिका महोदया और ट्रस्टी महोदय ने हार नहीं मानी है और विद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाओं के साथ मिलकर लगातार इस दिशा में कोशिश कर रहे हैं; जिनके विषय में अनौपचारिक बातचीत के दौरान उन दोनों व्यक्तियों ने बताया |
कवि शम्भु बादल अपनी कविता ‘सपनों से बनते हैं सपने’ में लिखते हैं—
“हमारे सपनों से बनते हैं सपने
गली-गली
सपने रोप
खुद भी
सपनों का जीवन बन
सपने बचा रखते हैं |”
शायद हमारे देश की लड़कियाँ और वंचित वर्गों के बच्चे भी एक दिन निडर होकर ख़ुशी-ख़ुशी अपने भविष्य के सपने देख सकेंगें, उनके लिए कोशिश कर सकेंगे और उनके सपनों से समाज में अनेक सपने जन्म लेंगें, जो एक दिन हमारे समाज को सुन्दर, संवेदनशील, मानवीय बनायेंगे |
डॉ. कनक लता
19 दिसम्बर 2022