दुष्यंत कुमार की एक कविता ‘ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो’ की बड़ी मशहूर पंक्ति है ‘कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता, एक पत्थर तबियत से तो उछालो यारो’ ! इस बात को एक अर्थ में सच कर दिखाया है सम्पूर्णानन्द जुयाल ने, जो राजकीय प्राथमिक विद्यालय, ल्वाली (पौड़ी, उत्तराखंड) के सहायक अध्यापक हैं !
इनके संबंध में इसी स्थान पर पहले भी कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं, ‘सम्पूर्णानन्द जुयाल : वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक’ शीर्षक से | इस बार इस अध्यापक के बहाने एक अलग मुद्दे पर बात होगी, जिसके माध्यम से हम उत्तराखंड में दूर-दराज के भीतरी इलाक़ों में स्थित सरकारी विद्यालयों की एक बड़ी समस्या से भी रू-ब-रू होंगे | वह समस्या है, कई कारणों से दिन-प्रतिदिन पहाड़ों के इन सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों की घटती संख्या और इस कारण बंद होते, या इस ‘बहाने’ बंद किए जाते बहुत सारे सरकारी विद्यालय !
वस्तुतः इस स्थिति के कारण इन विद्यालयों में कार्यरत बहुत-से शिक्षक भविष्य में आनेवाले परिणामों का अनुमान करके हताश और निराश हैं; तो बहुत सारे ‘अध्यापक’ ख़ुश भी हैं ! सबके अपने-अपने कारण हैं, जो कभी खुलकर स्वीकार किए जाते हैं, तो कभी उनकी बातों एवं व्यवहारों से सामनेवाले को किसी ‘ख़ास निष्कर्ष’ पर पहुँचाते हैं |
जो हताश हैं उनमें से अधिकांश उन वर्गों के थोड़े-से जागरूक अध्यापक हैं, जो शिक्षा के अभाव में अपने वर्ग की भावी पीढ़ियों के अंधकारमय भविष्य को देख रहे हैं; अर्थात् वंचित-वर्गों से आनेवाले अध्यापक | इनमें वे अध्यापक भी शामिल हैं, जो वंचित-वर्गों से तो नहीं हैं, लेकिन उनकी मनःस्थिति अपने वर्ग-विशेष से भी संपूर्णतः तय नहीं होती; बल्कि उनमें मानवता और संवेदनात्मक जीवन-मूल्य अभी जीवित हैं…
और जो ख़ुश हैं, वे यह सोचकर ख़ुश हैं, कि “चलो छुट्टी हुई ! जो हक़ केवल हमें ही पीढ़ियों से मिला हुआ था और जो केवल हमें ही मिलना चाहिए था, उसका लगभग आधा हिस्सा इन ‘आरक्षणवालों’ ने हमसे छीन लिया था ! अब न तो ये स्कूलों में पढ़ेंगें, न उच्च-शिक्षा पा सकेंगें, और अनपढ़ रहने के कारण न कोई नौकरी ही पाएँगे ! तब ‘आरक्षण’ क्या कर लेगा, ठेंगा ?! अनपढ़ों का क्या आरक्षण…?? अब ये लोग केवल सड़क और गटर साफ़ करेंगें ! लेते रहें वहीं पर आरक्षण, वो भी शत-प्रतिशत…! हमें वहाँ इनके शत-प्रतिशत आरक्षण से भी कोई ऐतराज़ नहीं ! वैसे भी गटर और सड़क साफ़ करना हमारा काम नहीं, वहीँ पर शत-प्रतिशत आरक्षण लेते रहें ! अब बाक़ी सारी नौकरियाँ केवल हमारे लिए होंगीं, सारे विश्वविद्यालय सिर्फ़ हमारे लिए होंगें, उच्च-शिक्षा केवल हमारे लिए होगी, सारे संसाधनों पर हक़ भी अब केवल हमारा होगा !…”
इन दोनों प्रकार के, यानी ‘हताश’ और ‘ख़ुश’, अध्यापकों की गतिविधियाँ भी अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार चल रहीं हैं, पहलेवाली श्रेणी के शिक्षक अपनी हताश मनःस्थिति के साथ किसी तरह वर्तमान स्थिति को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी श्रेणी के शिक्षक वर्तमान परिस्थिति को और अधिक जटिल बनाने के लिए आख़िरी धक्के के रूप में जी-जान से कोशिश में जुटे हुए हैं, ताकि शीघ्रातिशीघ्र वह समय आए, जब उच्च-शिक्षा, नौकरियों एवं देश के समस्त ससाधनों पर केवल उनके वर्गों का ही अधिकार कायम होगा…
लेकिन इन्हीं के बीच शिक्षकों की एक तीसरी श्रेणी भी देखी जा सकती है, जिनकी कोशिश है, वर्तमान नकारात्मक स्थिति को सफ़लतापूर्वक बदलने के लिए कुछ ऐसा करना कि झख मारकर नकारात्मक स्थितियाँ उनकी कोशिशों के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जाएँ | मेरा अध्ययन यह कहता है कि ये तीसरी श्रेणी प्रायः उन लोगों की है, जिनके पास या तो खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए सम्पूर्ण संसार है; अथवा वो लोग, जिनको कुछ खोने का भय ही नहीं हैं, क्योंकि ‘कुछ’ पाना उनका लक्ष्य नहीं, कि जैसे उनका लक्ष्य केवल आसमाँ में सुराख़ करना ही हो, जिसके लिए वे बड़ी तबियत से पत्थर उस आसमाँ की ओर उछाल रहे हैं…
अपने हाथों में कोशिशों के कुछ पत्थर थामे इस तीसरी श्रेणी में सम्पूर्णानन्द जुयाल भी खड़े हैं | जब वे अपने वर्त्तमान विद्यालय में 2016 में आए थे, तब यहाँ विद्यार्थियों की संख्या लगभग 20 थी, जिसे उन्होंने मार्च 2020 में देश-व्यापी लॉकडाउन लगने के पहले तक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका मीना लिंगवाल के साथ मिलकर 54-55 तक पहुँचा दिया था |
लेकिन जब देश में कोरोना-संकट के चलते लॉकडाउन लगा और देश एवं समाज के अति-तीव्र गति से हुए आर्थिक विध्वंस ने परिवारों के सामने रोज़ी-रोटी की विकट समस्या खड़ी कर दी, तो इसका सबसे अधिक असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ा, ख़ासकर ग़रीब परिवारों में; जहाँ बड़ी तेज़ी से विद्यार्थियों की संख्या विद्यालयों में घटी— सरकारी और निजी, दोनों तरह के विद्यालयों में | इतना ही नहीं, घर में बंद होकर रहने के कारण बच्चों की पढ़ाई भी ठप्प पड़ गई, बच्चे धीरे-धीरे पढ़ने से दूर भागने लगे | लेकिन सम्पूर्णानन्द ने ठीक यहीं पर मीना लिंगवाल की सहायता और परामर्श से अपनी कुछ प्राथमिक ज़िम्मेदारियाँ तय कीं और उसपर काम शुरू कर दिया | उनमें बच्चों की पढ़ाई से संबंधित दो प्रमुखतम काम थे— बच्चों को पढ़ने-लिखने से निरंतर जोड़े रखना और अधिक-से-अधिक नए बच्चों को विद्यालय से जोड़ने की क़वायद |
यह इसलिए बहुत ज़रूरी हो गया था, क्योंकि आर्थिक तंगी और दूसरे अन्य कारणों से निजी विद्यालयों के बच्चे शिक्षा के विकल्पों की तलाश में भटक रहे थे | और उनको एक बेहतर विकल्प देना शिक्षकों की ज़िम्मेदारी थी |
लेकिन इन कोशिशों को कोरोना-संकट के बहाने समाज के भीतर कुछ ख़ास लोगों द्वारा एक अलग नज़रिए से देखा और दिखाया जाने लगा | लोगों की प्रतिक्रिया थी कि “यहाँ लोग मर रहे हैं और इनको पढ़ाने की सूझी है…|” लेकिन सम्पूर्णानन्द ने इन बातों पर ध्यान देने की बजाय उस आंकड़े को समझने और विश्लेषण की कोशिश की, जिससे पता चल रहा था कि मरीजों की इस बीमारी से मृत्यु-दर क्या है | उन्होंने समाज और सरकारों की गतिविधियाँ भी ध्यान से देखी, जिसमें लोग शादियों, पार्टियों, रैलियों में बेधड़क शामिल हो रहे थे, वह भी अपने बच्चों के साथ | तब उन्होंने ऐसे लोगों से तर्क किया (दूसरों से भी और अपने-आप से भी) कि ‘यदि सारे काम हो सकते हैं, लोग सभी सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं, यदि सरकारें लाखों लोगों को लेकर रैलियाँ कर सकती हैं, तो बच्चों की पढ़ाई क्यों ज़ारी नहीं रखी जा सकती, स्कूल क्यों नहीं खोले जा सकते?…’
इन दोनों अध्यापकों का समर्थन किया उन अभिभावकों ने किया, जो इस बात से चिंतित रहते थे कि लॉकडाउन की लम्बी अवधि में उनके बच्चे पढ़ाई में पिछड़ जाएँगें, उनकी पढ़ाई बर्बाद हो जाएगी | ऐसे अभिभावकों में निजी विद्यालयों के बच्चों के अभिभावक भी शामिल थे | तब इन अभिभावकों के साथ मिलकर अपनी जवाबदेही पर उन्होंने बच्चों को स्कूल के बाहर पढ़ाना शुरू किया | सम्पूर्णानन्द की मेहनत और पढ़ाई के प्रति समर्पण को देखकर निजी विद्यालयों के बच्चों के अभिभावकों ने ठीक-ठाक संख्या में अपने बच्चों को निजी विद्यालयों से निकालकर सम्पूर्णानन्द के स्कूल में दाख़िल करवाया |
जब स्कूल खुले, तो जो विद्यालय लॉकडाउन में पूरी तरह बंद थे, उनकी छात्र-संख्या घट चुकी थी | साथ ही, बच्चों में पढ़ने के प्रति रूचि के संबंध में पिछले कई सालों की उनकी मेहनत भी लगभग पूरी तरह से मिट्टी में मिल चुकी थी | क्योंकि बच्चे केवल पिछला पढ़ा हुआ ही नहीं भूल चुके थे, बल्कि उनकी पढ़ाई के प्रति रूचि भी प्रायः ख़त्म हो चुकी थी | लेकिन जिन विद्यालयों ने अपने बच्चों के भविष्य की ख़ातिर विद्यालय के बाहर पढ़ाई ज़ारी रखी थी, उनके सामने ये चुनौतियाँ नहीं आईं | सम्पूर्णानन्द का विद्यालय भी उन्हीं में शामिल रहा |
विद्यालय खुलने के बाद हालाँकि कुछ अभिभावक (जो शायद अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति उतने सजग नहीं हो सके थे) इस कारण बच्चों को विद्यालय भेजने में आनाकानी करने लगे थे कि ‘बच्चों को बाघ-भालू खा जाएँगें’ | लेकिन इस दौरान सम्पूर्णानन्द द्वारा समाज के भीतर जो विश्वास पैदा करने की कोशिशें हुईं थीं, उस कोशिश ने उनको प्रभावित किया और उपरोक्त चुनौतियों के समाधान भी उसी कोशिश के बीच से निकले | एक उदाहरण देखते हैं…
सम्पूर्णानन्द बच्चों की पढ़ाई में गुणात्मक सुधार के उद्देश्य से उनको कुछ अधिक समय देने के लिए छुट्टी के दिन भी छुट्टी नहीं करते हैं, रविवार को भी नहीं; और तो और विद्यालय बंद होने के बाद बच्चों की पढ़ाई पर अतिरिक्त समय में भी परिश्रम करना उनकी दिनचर्या में शामिल है | दरअसल उनका सारा ध्यान बच्चों की पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारने पर लगा हुआ है | इसलिए जब एक माँ ने अपनी चिंता ज़ाहिर की कि ‘एक्स्ट्रा क्लास होने पर बच्चे अँधेरे में घर कैसे आएँगें, रास्ते में बाघ-भालू होते हैं, बच्चों की जिंदगी कैसे ख़तरे में डाली जाए?’ तो इसका समाधान बच्चों के बड़े-बुजुर्गों ने निकाला | एक बच्चे के दादा ने कहा कि “मैं बच्चों को लेने जाउँगा |”
और ऐसे नतीजे एक-दो दिन की कोशिशों के परिणाम नहीं हो सकते | यही कारण है कि पिछले दो सालों की अनवरत कोशिशों ने इस विद्यालय में छात्रों की संख्या इस लेख के लिखे जाने तक 86 तक पहुँचा दी, और इसके अलावा नर्सरी में भी 6-7 बच्चे विद्यालय के प्रांगण तक आ चुके हैं | मार्च 2020 में लॉकडाउन के पहले यह संख्या 50 के आसपास रही थी |
तब प्रश्न उठता है कि समाज का विश्वास हासिल करने और उसको अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति सजग-सचेत करने के लिए सम्पूर्णानन्द जुयाल ऐसा क्या करते हैं कि उनके विद्यालय में बच्चों की संख्या बढ़ी है, जबकि कई विद्यालयों में लगातार घट रही है…?
दरअसल इसके लिए यहाँ कई स्तरों पर काम होते हैं—मसलन, बच्चों को पारंपरिक शिक्षा से आगे ले जाकर पढ़ाना, जैसे गणित को जोड़-घटा और गिनती-पहाड़े से आगे ले जाकर उसकी सम्पूर्णता में पढ़ाना-समझाना; ग़रीब बच्चों में विशेष रूप से आत्म-विश्वास पैदा करना कि वे भी मेहनत करके वह सारी सफ़लताएँ पा सकते हैं, जो साधन-संपन्न बच्चे पाते हैं; अभिभावकों से उनकी एवं बच्चों की पढ़ाई संबंधी दिक्कतों और चुनौतियों को ध्यान से सुनते हैं; इसके लिए वे सदैव उनके संपर्क में रहते हैं, उनसे बात करने के लिए पर्याप्त समय निकालते हैं; नवोदय-विद्यालयों में जानेवाले बच्चों को घर से दूर जाकर पढ़ने के लिए मनाते हैं (दरअसल घर और माता-पिता से दूर होने के कारण इन छात्रावासीय-विद्यालयों में जाने से बच्चे डरते और कतराते हैं); नवोदयों आदि में बच्चों के नामांकन के समय बच्चों और उनके माता-पिता के साथ सम्पूर्णानन्द भी जाते हैं, ताकि उनको भरोसा दिला सकें कि वे हमेशा उनके साथ खड़े रहेंगें; बच्चों के अभिभावकों को ‘अभिभावक’ के रूप में देखने–समझने की बजाय अपने ‘साथी’, ‘सहयोगी’ और ‘मित्रों’ के रूप में देखते और व्यवहार करते हैं, इससे उनका विश्वास हासिल करना और अपनी बात समझाना कुछ अधिक आसान हो जाता है; बच्चों के मस्तिष्क को खोलने के उद्देश्य से उनको क़िताबों की दुनिया में ले जाने के लिए आशीष नेगी (अध्यापक गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, एकेश्वर, उत्तराखंड) के साथ मिलकर व्यक्तिगत स्तर पर एक स्वतन्त्र पुस्तकालय की स्थापना और बच्चों को वहाँ निर्द्वंद्व पढ़ने-लिखने और अन्य शैक्षणिक-गतिविधियों की अनुमति देना भी उन उपायों का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा बन रहा है…
इन कोशिशों के कारण ही सामान्य परिवारों के बच्चों के साथ-साथ जब कई वंचित-वर्गों एवं ग़रीबों के बच्चों ने नवोदय आदि विद्यालयों में नामांकन कराने में सफ़लताएँ प्राप्त कर रहे हैं, जिससे उनके जीवन में कई सार्थक परिवर्तनों की शुरुआत हो रही है | तो इससे इस धारणा को तोड़ना आसान हो रहा है कि ‘वंचित-वर्गों और ग़रीबों के बच्चे कुछ नहीं कर सकते |’ इसे समाज और अभिभावक सार्थक कोशिश एवं बेहतरीन कार्य और सफ़लता के रूप में देख रहे हैं |
कमज़ोर और वंचित-वर्गों के बच्चों के संबंध में समाज की यह धारणा तो आहत करती ही है कि ‘ये बच्चे पढ़कर क्या करेंगे?’ लेकिन यहाँ एक बात जो बहुत आहत करती है, वह है हमारे ‘सामान्य सरकारी विद्यालयों’ की तुलना में ‘नवोदय-विद्यालयों’, ‘केन्द्रीय-विद्यालयों’, और अब एक और नई श्रृंखला के रूप में खड़े हो रहे ‘अटल उत्कृष्ट विद्यालयों’ को विशेष महत्त्व दिया जाना ! और इस क्रम में इनको विशिष्टता प्रदान करते हुए ‘सामान्य सरकारी विद्यालयों’ के अध्यापकों को बाध्य किया जाना कि वे बच्चों को नवोदयों आदि में नामांकन के लिए होनेवाली प्रतियोगिताओं में शामिल होने के योग्य बनाएँ; शिक्षकों द्वारा इस उद्देश्य से गिने-चुने बच्चों की तैयारी पर विशेष रूप से ध्यान देना और काफ़ी परिश्रम करना ! साथ ही, इस संबंध में शिक्षकों एवं अभिभावकों की भी एक क़िस्म की नकारात्मक मानसिकता भी कम आहत नहीं करती है | व्यक्तिगत तौर पर मैं इस तरह की दोहरी मानसिकता से सहमत नहीं हूँ…
यह ठीक है कि नवोदय विद्यालय और केन्द्रीय विद्यालय आदि बेहतरीन गुणवत्तापूर्ण विद्यालयों में गिने जाते हैं और यहाँ पढ़ना किसी भी बच्चे के बेहतर विकास और उज्ज्वल भविष्य के लिए बहुत अच्छा विकल्प है | लेकिन मेरा सवाल तो यही है कि केवल गिने-चुने बच्चों को ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों मिलनी चाहिए, सभी बच्चों को क्यों नहीं…?
इसलिए मेरा दृढ़तापूर्वक यह मानना है कि अब यह अन्यायपूर्ण स्थिति बदलनी चाहिए | क्योंकि ये गिने-चुने ‘गुणवत्तापूर्ण विद्यालय’ भी हमारे शैक्षणिक-जगत में भेदभाव के ज्वलंत उदाहरण हैं, जहाँ मुख्यतः समाज के वर्चस्वशाली-वर्गों के बच्चे पढ़ते हैं, जिन्हें जानबूझकर समाज के ‘अन्य’ बच्चों के लिए निर्धारित ‘सामान्य-सरकारी विद्यालयों से अलग रखा गया है; हाँ, उनका लोकतान्त्रिक चेहरा दिखाने भर के लिए अवश्य यहाँ कुछ गिने-चुने वंचित-वर्गों के बच्चों को पढ़ने के मौक़े दिए जाते हैं |
इसलिए अब सम्पूर्णानन्द जैसे सक्षम अध्यापकों को आगे आकर इस स्थिति को बदलने की सायास कोशिश दृढ़तापूर्वक करने की ज़रूरत है, ताकि सामान्य-सरकारी विद्यालय सफ़लता और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नए प्रतिमान बनकर उभर सकें, जहाँ हर एक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने के अवसर और अधिकार मिल सकें |
कई देश ऐसे हैं, जहाँ हर बच्चे को एक जैसे विद्यालय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के समान अवसर मिलते हैं, वहाँ समाज के किसी भी वर्ग के किसी भी बच्चे के लिए कोई अलग से ‘ख़ास गुणवत्तापूर्ण’ विद्यालय नहीं हैं, जो उनमें उनके ‘सबसे ख़ास’ और ‘सबसे ऊपर’ होने की भावना भर सकें |
इसलिए मैं, भारत की एक आम नागरिक के रूप में, शिक्षकों की अपने विद्यार्थियों को नवोदय आदि विद्यालयों के ‘योग्य’ बनाने की विशेष क़वायद से सहमत नहीं हूँ | इसके स्थान पर मैं सदैव यही कामना करती रहूँगी कि हमारे ‘सामान्य सरकारी विद्यालय’ ही अपनी गुणवत्ता में इतने ऊँचे हो जाएँ कि अपने विद्यार्थियों में ‘विशिष्ट एहसास जगाने वाले’ एवं समाज पर शासन करने एवं कमज़ोरों को अपना ग़ुलाम समझने की सीख देनेवाले इन विद्यालयों के बच्चों के अभिभावक अपने बच्चों के लिए ‘सामान्य विद्यालयों’ का रुख करें…
हालाँकि इस स्थिति के लिए सारा दायित्व या दोष केवल अध्यापकों का ही नहीं है, बल्कि हमारी सरकारें और उसमें बैठे हुए ‘दबंग-समाज’ के लोग इस स्थिति को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए ही न केवल ‘नवोदयों’ आदि को ख़ास महत्त्व देते हैं, बल्कि शिक्षा-विभाग के माध्यम से शिक्षकों को बाध्य भी करते हैं, कि वे ‘कुछ’ विद्यार्थियों को उन विद्यालयों में जाने के लिए ‘प्रतियोगिता’ के ‘योग्य’ बनाएँ…! साथ ही, समाज में इन विद्यालयों के लिए बनी हुई धारणाएँ भी अभिभावकों को इस बात के लिए ‘प्रेरित’ करती हैं, कि वे अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ाने का सपना देखें; इसलिए अभिभावक भी शिक्षकों पर ख़ूब दबाव बनाते हैं |
लेकिन यही तो वह वास्तविक चुनौती है, जिसे सम्पूर्णानन्द जैसे कर्मठ और लगनशील आध्यापकों को स्वीकार करना है; केवल स्वीकार ही नहीं, बल्कि उसे जीतना भी है | अन्यथा जिस तेज़ी से वर्त्तमान सरकारें इन सरकारी-विद्यालयों को बंद करने की कोशिशों में जुटी हैं, उनकी कोशिशों को सफ़ल होने में देर नहीं लगेगी | उसके बाद शिक्षा की दुनिया में बचेंगें केवल ‘नवोदय-विद्यालय, ‘केन्द्रीय-विद्यालय, ‘अटल-उत्कृष्ट विद्यालय…आदि ! जिनमें समाज के केवल दबंग-वर्गों के बच्चे ही जा सकेंगें, वह भी सभी नहीं, बल्कि जो प्रतियोगिता में ‘सफ़ल’ होंगें; दबंग-वर्गों के शेष बच्चे भी उसी तरह शिक्षा से पूर्णतः वंचित हो जाएँगें, जैसे कमज़ोर-वर्गों के बच्चे वंचित होंगे…
अब देखना यह है कि भविष्य में ‘शिक्षा का अधिकार’ क्या रूप लेगा…? क्या हमारा शिक्षक-समाज इस चुनौती को स्वीकार करता है, और सभी बच्चों के लिए एक समान ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ के दरवाज़े खोल पाता है; जिसके लिए डूबने का भय छोड़कर शिक्षकों को संकट और चुनौतियों की लहरों से जूझ पड़ने की ज़रूरत है? अथवा उनकी कोशिश केवल डूबती नैया को बचाने भर तक ही सीमित होकर रह जाएगी, यानी सरकारी स्कूलों को बचाने-भर की? क्या समाज के सभी बच्चों को मौलिक अधिकार के रूप में मिला हुआ ‘शिक्षा का अधिकार’ बना रहेगा? अथवा यह भी दम तोड़ देगा? या शिक्षकों की कोशिश से यह अधिकार अपना विस्तार करते हुए ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के एक समान अधिकार’ के रूप में कभी परिणत हो सकेगा…?…
अब यह देखना है कि इन नई चुनौती के आसमाँ में सुराख़ करने के लिए शिक्षक-समाज अपने हाथों में पत्थर उठाने का सत्साहस कर पाता है या नहीं…? क्योंकि यदि ‘तबियत से पत्थर उछाले जाएँगें, तो आसमाँ में छेद होना निश्चित है, एक साल से अधिक समय तक आन्दोलन चलाकर किसानों ने यह साबित तो कर ही दिया है !
खैर, सम्पूर्णानन्द जुयाल ने अपने विद्यालय में बच्चों को आश्चर्यजनक संख्या में लाकर और उनको पढ़ाई से जोड़कर शिक्षक-समाज के सामने एक मिसाल के साथ-साथ उनके लिए चैलेंज तो खड़ा कर ही दिया है, अब यह देखना बाक़ी है कि इस चैलेंज को कितने अध्यापक स्वीकार करते हैं और कुछ और पत्थर आसमाँ की ओर उछालते हैं या नहीं…
और इसका भी इंतज़ार समय को है कि सभी बच्चों के लिए ‘शिक्षा के अधिकार’ को ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के एक समान अधिकार’ में परिणत करने के लिए शिक्षक-समाज और अभिभावकों द्वारा क्या कोशिश होती है…
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
नमस्कार मैडम। फिर एक ज्वलंत मुद्दा जो मुझ जैसे कई शिक्षकों की चिंता का कारण बना हुआ है।और कैसे न होगा जबकि आम शिक्षक छात्र संख्या की भयंकर कमी की समस्या से जूझ रहा है।इस पर नवोदय जैसे विद्यालयों के पेपर में प्रतिभाग कराने और चयन हेतु तैयारीऔर चयनित होने पर काॅलर ऊँचे कर के खुशी मनाने को हमारी योग्यता का मापदंड निर्धारित कर दिया गया है।हम भूल जाते हैकि ऐसे में हमारी छात्र संख्या और भी कम होनेवाली है।लेकिन भेड़चाल का हिस्सा बनते हैं सब।
लिखना तो बहुत चाह रही थी लेकिन फिर बाद में।