बतकही

बातें कही-अनकही…

लॉकडाउन के बाद से खुले विद्यालयों में बहुत सारी बातें बहुत ख़ास दिखाई देती हैं— उनमें से एक बहुत विशिष्ट बात है, जो इस लेख का विषय है, वह है सभी विद्यालयों में अनेकानेक प्रतियोगिताओं (चित्रकला, लेख, निबंध, खेल, शब्दावली और दर्ज़नों ऐसी ही प्रतियोगिताएँ) एवं सांस्कृतिक-कार्यक्रमों की बाढ़ और बड़े से लेकर छोटे स्थानीय छुटभैये नेताओं/नेत्रियों की जयंतियों की रेलमपेल; और उन सबकी आवश्यक रिपोर्ट सहित डिजिटल साक्ष्य भी बनाकर शिक्षा-विभागों को भेजने की अनिवार्यता | तो अब शिक्षा-विभाग या सरकारों की दृष्टि में शिक्षक विश्वास के योग्य नहीं रहे, इसलिए डिजिटल साक्ष्य ज़रूरी हो चुके हैं | कोई विद्यालय इससे न तो मना कर सकता है, न उन्हें मनाने से आनाकानी; यदि कोई विद्यालय या अध्यापक ऐसा करते भी हैं, तो पिछले दरवाज़े से उनकी ‘ख़बर लेने’ की व्यवस्थाएँ भी धीरे-धीरे हो रही हैं…

…और जब विद्यालयों में कोई भी सांस्कृतिक-कार्यक्रम, जयंतियाँ, प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, तो उनकी तैयारियों से लेकर आयोजन के दौरान बच्चों की पढ़ाई अगले कई दिनों तक के लिए पूरी तरह ठप्प हो जाती है; ख़ासकर जहाँ एक या दो ही अध्यापक हों !

इस स्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है, जैसे बच्चे इतने अधिक पढ़-लिख चुके हैं और इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर चुके हैं कि अब उनको और अधिक पढ़ने की आवश्यकता नहीं है; अथवा विद्यालयों पर थोपे गए बेतहाशा सांस्कृतिक-कार्यक्रम अचानक इतने आवश्यक हो उठे हैं कि उनके बिना बच्चों की शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं; या जिन छुटभैये नेताओं की जयंतियाँ मनाने को विद्यालयों को विवश किया जा रहा है, यदि उनको विद्यालयों में नहीं मनाया गया, तो या तो देश रसातल में चला जाएगा, अथवा उन जयंतियों के बिना बच्चों की शिक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा…!

इसी तरह विभिन्न प्रतियोगिताओं की बहुलता और ठेलमठेल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे बच्चों की शिक्षा तो पूर्ण हो चुकी, अब केवल विभिन्न प्रतियोगिताओं के माध्यम से उनकी शिक्षा और ज्ञान की परीक्षा लेना भर ही शेष रह गया है | और इसी कारण अधिकाधिक प्रतियोगिताएँ आयोजित करने की आज्ञाएँ शिक्षा-विभाग से लगातार विद्यालयों और अध्यापकों को दी जा रही हैं |

हालाँकि इससे अधिकांश अध्यापक ख़ुश भी हैं, ख़ासकर ‘सामान्य-वर्गों’ एवं एक अच्छी-ख़ासी संख्या में ‘ओबीसी-वर्गों’ के भी | लेकिन अनेक अध्यापक इस स्थिति से काफ़ी चिंतित और परेशान हैं | जो अध्यापक खुश हैं, उनसे अनौपचारिक बातचीत के दौरान उनकी कुछ ऐसी उक्तियाँ सुनी जा सकती हैं—

  • “…अच्छा है, पढ़ाने से छुट्टी मिली | वैसे भी ये पढ़-लिखकर करेंगे भी क्या? थोड़ा-बहुत दिखावे-भर के लिए प्रतियोगिता कराते रहो, रिपोर्ट बनाने भर के लिए कुछ-कुछ सांस्कृतिक-कार्यक्रम कराते रहो…और आराम से स्कूल आओ-जाओ; कोई काम नहीं, मौज-ही-मौज है…! …वैसे भी क्या करेंगें ये पढ़-लिखकर…?!”
  • “…ये नालायक वैसे भी क्या भाग लेंगें किसी प्रतियोगिता में…? कुछ आता-जाता तो है नहीं, अपना पाठ तो ढंग से पढ़ना जानते नहीं, प्रतियोगिता में क्या ख़ाक भाग लेंगे…? इनके बदले हम ही कर देते हैं और ‘ऊपर’ बढ़िया-बढ़िया रिजल्ट भेज देते हैं…!”
  • “…अरे, ये तो हमारे ही लिए मुसीबत हैं…! पढ़-लिखकर हमारा ही अधिकार छीन लेते हैं…! अच्छा है कि इनको सांस्कृतिक-कार्यक्रम कराते रहो, प्रतियोगिताएँ कराते रहो…और इन्हीं सब में उलझाए रखो इनको…!…”
  • “…इनको पढ़ाने का मतलब है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना…! ये भी पढ़-लिख गए, तो हमारे घरों का कूड़ा कौन उठाएगा…? नालियों, सड़कों, टॉयलेटों की साफ़-सफ़ाई कौन करेगा…? पढ़-लिखकर इनको जज-कलक्टर थोड़े न बनने देना है…? हमारे ही सिर पर नाचेंगें तब…! …इसलिए इनको जितना हो सके, पढ़ने से रोकना होगा…!”

लेकिन जो अध्यापक अपने विद्यार्थियों की पढ़ाई बाधित होते देखकर परेशान और चिंतित हैं, वे इन अतिशय प्रतियोगिताओं, सांस्कृतिक-कार्यक्रमों और जयंतियों से कत्तई सहमत नहीं हैं | इस विषय में उनका कहना है कि—

  • “इससे बच्चों की पढ़ाई बहुत ज्यादा प्रभावित होती है…लॉकडाउन के कारण वैसे ही इनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई है, बच्चे बहुत अधिक पिछड़ चुके हैं ! पढ़ने की जो आदत हमने बड़ी मुश्किल से लगाईं थी, वह पूरी तरह से छूट चुकी है… ! रही-सही कसर ये सांस्कृतिक-कार्यक्रमों, दुनियाभर की जयंतियों और प्रतियोगिताओं की भरमार पूरी कर रही हैं…”
  • “…यदि हमेशा प्रतियोगिता ही होती रहेगी, तो हम बच्चों को पढ़ाएंगे कब…?…बच्चे पहले ही बहुत पिछड़ चुके हैं…!”
  • “…शिक्षा-विभाग को इससे क्या फर्क़ पड़ता है, कि ये बच्चे पढ़ पाते हैं या नहीं; उनके बच्चे तो पढ़ रहे हैं ना, अंग्रेज़ी-स्कूलों में…!”
  • “…हम कितनी भी कोशिश कर लें, लेकिन जब एक बार समाज के ‘बड़े लोगों’ ने ठान लिया है कि ‘कमज़ोरों’ के बच्चों को नहीं पढ़ने देना है, तो वे कुछ भी करके इन अभागे बच्चों को पढ़ने से रोकेंगे ही…! …फ़ालतू के सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के नाम पर कई दिनों तक विद्यालय में पढ़ाई को ठप्प रखना, बकवास नेताओं की जयंतियाँ मनाना जिनके नाम तक हमने नहीं सुने कभी, फ़ालतू के दुनियाभर की प्रतियोगिताएँ…ये बच्चे पढ़ेंगें कब…? लेकिन इससे उनको क्या, उनके अपने बच्चों का भविष्य तो सुरक्षित है ही…!”

अब यहीं से प्रश्न उठने शुरू होते हैं….

क्या सरकारें और शिक्षा-विभाग उस तथ्य से अनजान है, जिससे शिक्षा अच्छी तरह वाकिफ़ हैं, कि लॉकडाउन के दौरान बच्चों की पढ़ाई पर बहुत अधिक बुरा असर हुआ है और वह कई बच्चों के जीवन में लगभग पूरी तरह से छूट गई है, जिसको पटरी पर वापस लाने के लिए पढ़ाई-लिखाई पर ही सर्वाधिक फोकस करना इस समय सबसे अधिक ज़रूरी है?

क्या सरकारें और संस्थान जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं, ताकि बच्चों की पढ़ाई को अधिक-से-अधिक बाधित किया जा सके…? और यदि यह सत्य है, तो किस कारण से सरकारें और समाज के ‘दबंग-वर्ग’ सरकारी-विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों को पढ़ने देना नहीं चाहते, जिसके लिए उनकी पढ़ाई को रोकने के विविध उपाय करने पड़ रहे हैं?

तब यह भी प्रश्न उठेगा, कि जो ‘सरकारें’ ऐसा चाहती हैं, वे क्या सबके हितों के लिए ‘सरकार’ बनी हैं, अथवा केवल ‘कुछ वर्गों’ के हितों के लिए…? ऐसी ‘सरकारें’ किसने और क्यों बनाएँ, जो केवल गिने-चुने वर्गों के ‘लाभ-लोभ’ को पोषित करने के लिए समाज के अधिकांश बच्चों को अशिक्षित रखना चाहती है और उसके लिए तिकड़मबाज़ियाँ करती हैं…?

‘वे लोग’ कौन हैं, जो सरकारी-विद्यालयों के बच्चों को पढ़ने देना नहीं चाहते; और क्यों उन बच्चों को पढ़ने देना नहीं चाहते? और वे लोग कौन हैं, जिनके बच्चे सरकारी-विद्यालायों में पढ़ने जाते हैं, जिनकी पढ़ाई रोकने की कवायदें स्वयं सरकार कर रही हैं; और क्यों उनकी पढ़ाई रोकने के लिए सरकारें एवं समाज का दबंग-हिस्सा एड़ी-छोटी का ज़ोर लगा रहा है…?

सवाल बहुत सारे हैं, जिनपर बहुत सचेत होकर सोचने की ज़रूरत है; ख़ासकर उनको, जिनके बच्चे इन्हीं सरकारी विद्यालयों में पढ़ने के लिए जाते हैं…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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4 thoughts on “स्कूलों में कार्यक्रमों की रेल और धीरे-धीरे ग़ायब होती शिक्षा

  1. आप दबंगता से लिख तो सकती है।हम तो बस इन सब आदेशों का हिस्सा बनकर इसको निभाने में अपनी पूर्ण सहभागिता देते रहते है। पर यह प्रश्न उठाये कौन कि बच्चा अपनी पढाई से कितना बाधित हो रहा है। आपके शब्द प्रत्येक जनमानस तक पहुंचने चाहिए,ताकि इस दर्द की आवाज वहां तक पहुँच पाय जहाँ से इन सभी कार्यक्रमों का जन्म होता है ।अच्छा लगता है आपके हर पक्ष को छूते हुवे ओजश्वी विचारोँ को पढ़कर।आपकी दबंग लेखनी की लम्बी यात्रा का हम हमेशा स्वागत करते है।

    1. प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद संगीता मैडम…
      समस्या उठाना बहुत ज़रूरी है, हमारी पिछली पीढ़ियों ने हमारे लिए आवाज़ उठाई, तो हम यहाँ तक आ सकीं | अब हमारी बारी है, अगली पीढ़ियों के प्रति हमारा दायित्व है ! वैसे भी जितनी तेज़ी से शिक्षा का विनाश किया जा रहा है, उसे देखते हुए आज आवाज़ नहीं उठाएंगे, तो कब उठाएंगे ? यदि हमने अपना काम नहीं किया, तो हमें कोई भी मानव-अधिकार लेने का हक़ नहीं !

  2. नव वर्ष की शुभकामनाऐं कनक मैडम।
    ये जो यक्ष प्रश्न उठे हैं तो उत्तर भी अवश्य ही होंगे।बस ज़रा कड़वे हैं।शायद न निकलते बनें न उगलते।
    बहरहाल, वर्ग विभेद की जो प्रतिध्वनि उठी है वह तो शाश्वत है हालांकि अब 50%अपवाद भी हैं जिन में अधिकांश लोगों से आप बखूबी परिचित हैं ही।मैं 50% ही लिख रही हूँ हो सकता है यह ज्यादा हो।
    जो लोग हाँके जा रहे हैं वो नियमबद्ध होने की मज़बूरी से विवश हैं।जो नियम बना रहे हैं उनका उद्देश्य तो स्पष्ट है कि सरकारी शिक्षा और शिक्षक का अस्तित्व मिट जाए ।जो कुछ खर्च कर सकते हैं उनके पाल्य ही शिक्षा के अधिकारी हों।उत्तरोत्तर बढ़ते कार्यक्रम, विभिन्न दिवस समारोह, विभिन्न प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग की बाध्यता,ऑनलाइन प्रेषण की विगत वर्षों में बाढ़ सी आ गई। बह गए वो शिक्षक जो बच्चों को सबके साथ लाना चाह रहे थे और वो बच्चे जो समय की धारा का रुख़ मोड़ना चाहते थे ।स्कूलों की सजावट की प्रतियोगिता,प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा बच्चों और
    शिक्षकों का अमूल्य समय बर्बाद कर रहे हैं और न चाहते हुए भी इस दौड़ मे शामिल होना पड़ता है।
    अगर सब शिक्षक जो इस बात को महसूस करते हैं एकजुट होकर कड़े कदम उठाए तो शायद कुछ बदलाव आ सकता है नहीं तो भेड़ों के रेवड़ की गति होगी।आगे की पंक्ति खाई में गिरी और फिर दूसरी, फिर अगली———

    1. जी अंजलि मैडम… आप ठीक कह रही है
      आज तो शिक्षा से जुड़े मुद्दों और समस्याओं को उठाना बहुत ज़रूरी है, हमारी पिछली पीढ़ियों ने हमारे लिए आवाज़ उठाई, तो हम यहाँ तक आ सकीं | अब हमारी बारी है, अगली पीढ़ियों के प्रति हमारा दायित्व है ! वैसे भी जितनी तेज़ी से शिक्षा का विनाश किया जा रहा है, उसे देखते हुए आज आवाज़ नहीं उठाएंगे, तो कब उठाएंगे ? यदि हमने अपना काम नहीं किया, तो हमें कोई भी मानव-अधिकार लेने का हक़ नहीं !

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