बतकही

बातें कही-अनकही…

1857 का विद्रोह या ग़दर, जिसे ज्योतिबाराव फुले ‘चपाती विद्रोह’ कहते हैं और जिसे ‘ब्राह्मण विद्रोह’ भी कहा जा सकता है, अपने-आप में इतने सारे महत्वपूर्ण तथ्य समेटे हुए, जो यदि बाहर आ जाएँ, तो सनातनी-ब्राह्मणों का और उनके तथाकथित ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के विद्रोह’ का एक नया ही चेहरा उजागर हो जाएगा | उन्हीं में से एक है ‘पवित्र डाकुओं’ का सच, जिनको ‘मसीही महापुरुष’ या ‘मसीहा’ कहा गया और इनके डकैती के कार्यों को ‘सामाजिक डकैती’ का पवित्र कार्य | ये ‘पवित्र डाकू’ उक्त विद्रोह के आधी सदी पहले से ही अपने ‘सामाजिक डकैती’ के ‘पवित्र कार्य’ में सक्रिय थे | लेकिन ये ‘पवित्र डाकू’ या ‘मसीहा डाकू’ कौन थे और इन्होंने किस कारण ‘सामाजिक डकैती’ का काम किया? और ये ‘सामाजिक डकैती’ क्या बला है?

‘पवित्र मसीहा डाकू’ और उनकी ‘सामाजिक डकैती’

इन तथाकथित ‘पवित्र डाकुओं’ के कार्यों को इतिहासकार कैथलीन गफ ने ‘सामाजिक डकैती’ (social banditry) की संज्ञा दी है1 और इनके डकैती के काम को ‘सामाजिक डकैती’ कहा गया | ‘सामाजिक डकैती’ के विषय में हॉब्सबॉम ने अपनी किताब ‘प्रिमिटिव रिबेल’ में लिखा है | हॉब्सबॉम के अनुसार ‘यह स्थिति प्राक-औद्योगिक समाज में देखी गई, जहाँ शोषण के खिलाफ कुछ व्यक्तियों ने धनी व्यक्तियों के सामान की चोरी की | इसका उद्देश्य गरीब व्यक्तियों को सहायता प्रदान करना था |’2 स्टीफन फुक्स ने अपनी पुस्तक रिबेलियस प्रोफेट में बताया है कि ‘मसीही’ शब्द का प्रयोग हर धर्म में भविष्य में आनेवाले महापुरुषों के लिए खास सन्दर्भ में किया गया है | लेखक बताता है कि हर धर्म के लोग यह विश्वास करते हैं कि जनमानस के उद्धार और नए समाज की स्थापना के लिए इस धरती पर भविष्य में एक दिन ऐसे महापुरुष का जन्म होगा, जो संसार में फैले शोषण और अत्याचार को ख़त्म करने और एक आदर्श समाज का निर्माण करने के लिए आएगा | उदाहरण के लिए इस्लाम में ‘मुजाहिद’, वैष्णव में विष्णु का ‘कल्कि अवतार’, ईसाई धर्म में ‘ईसा का पुनः आगमन’, बौद्ध-धर्म में ‘मैत्रेय बुद्ध’ | स्टीफन फुक्स बताते हैं कि आधुनिक काल में ऐसे मसीही आन्दोलन किसी समाज में उनके उन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में शुरू हुए, जहाँ बाहरी सभ्यताओं के हस्तक्षेप और प्रभाव के कारण उस समाज में तनाव की स्थिति पैदा हुई | यह स्थिति विशेष रूप से उपनिवेशों में देखी गई, जहाँ स्थानीय समाज में व्याप्त शोषण में बाहरी समाज द्वारा हस्तक्षेप से स्थानीय समाज में टकराव पैदा हुए | इसी कारण उन स्थानीय समाजों द्वारा हिंसा और ‘आत्महत्या’ (अर्थात् आत्म-बलिदान) का रास्ता अपनाया गया और ऐसे आंदोलनों का नेतृत्व जिन व्यक्तियों ने किया, उन्हें ‘मसीही’ पुरुषों अर्थात् ‘मसीहा’ की तरह देखा गया, जिनके आदेश को उसके नेतृत्व में चल रही जनता ने स्वीकार किया | इसके लिए उन ‘मसीही पुरुषों’ ने अपने और अपने कार्यों के बारे में यह घोषणा की कि उनके उद्देश्यों, कार्यों और आदेशों को ईश्वर की मान्यता प्राप्त है; अर्थात् वे ‘मसीही पुरुष’ ईश्वर के आदेश और इच्छा से ही लूटपाट और हत्याओं का वह सब कार्य कर रहे हैं | उन्होंने जनता को ‘स्वर्ण युग’ का ऐसा सुनहरा सपना दिखाया, जिसमें जनता के सारे कष्ट मिट जाएंगे, कि जनता उस सपने से अभिभूत होकर उनके पीछे-पीछे चल पड़ी, कभी डकैतियां डालने, तो कभी उन ‘डाकुओं’ के कार्यों को सरकारों से छुपाने में मदद करने के लिए | भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में ये खूब हुए |3

सामाजिक डकैती’ के क्या कारण थे?

लेकिन सवाल तो यहाँ यह भी उठता है कि उन मसीहाओं की ‘सामाजिक डकैतियों’ का समर्थन करनेवाली वह ‘जनता’ कौन थी, किस सामाजिक-वर्ग की थी? उस ‘समर्थक’ जनता ने क्यों और अपने किस स्वार्थ से उन ‘मसीहाओं’ का समर्थन किया? भारत के मामले में क्या वह वंचित-वर्गों की निरीह और शोषण की शिकार जनता थी, जिसने सवर्णों द्वारा अपने उत्पीड़न से मुक्ति के लिए उन ‘मसीहाओं’ की इच्छा की? अथवा भारत का वह सवर्ण-समाज, जिसको वंचित-वर्गों की अंग्रेजी-शासन में थोड़ी-सी मुक्ति भी बिलकुल ही पसंद नहीं आई और उसने वंचितों के मुक्तिदाता अंग्रेजों को अपने दुश्मन के रूप में इस कारण भी देखा और उनको सबक सिखाने के लिए अपनी जाति के भीतर से मुक्तिदाता ‘मसीहाओं’ को खड़ा किया? अथवा दोनों वर्गों के भीतर से वे ‘मसीहा’ अपने-अपने वर्गों के हितों के लिए उठे थे? यदि वे ‘मसीहा’ और उनके समर्थक-अनुयायी दोनों तरह के समाजों से थे, तब तो जरूर ही उन दोनों समाजों के ‘मसीहाओं’ के निशाने पर अलग-अलग वर्ग और लोग होंगे?

ऊपर उल्लिखित विद्वानों की बातों से कम-से-कम यह तो स्पष्ट है कि ब्रिटिश काल में भारत में तथाकथित ‘सामाजिक डकैतियाँ’ हुईं और खूब हुईं | हालाँकि इन विदेशी विद्वानों ने यह नहीं बताया कि वे कौन-सी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ थीं कि भारत में ‘मसीही पुरुषों’ ने उन सामाजिक डकैतियों के लिए अपने दल (गिरोह) बनाए? संभवतः विदेशी विद्वान् भारत के ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण-समाजों की उस जातीय मानसिकता और पुरुषवादी सोच को नहीं समझ पाए, जिसमें भारत के ब्राह्मण सहित सभी सवर्ण-जातियाँ किसी भी तरह से भारत के मूल-निवासियों, अर्थात् दलितों, आदिवासियों और शूद्रों को अपनी बदहाली से ऊपर उठते नहीं देख सकती थीं | जबकि ब्रिटिश शासन में ये वंचित-उत्पीड़ित वर्ग थोड़ी-सी सुविधाएं पाकर और शिक्षा हासिल करके ब्राह्मणों सहित समस्त सवर्णों की चालाकी और जालसाजी को समझने लगे थे, नौकरियाँ करके ब्राह्मणों-जमींदारों-साहूकारों के आर्थिक-चंगुल से निकलने लगे थे; कई दलित, शूद्र और आदिवासी ईसाई धर्म अपनाकर ब्राह्मणों के धार्मिक-चंगुल से भी बाहर निकलने लगे थे | ब्रिटिश नीतियों के कारण ब्राह्मणों का नियंत्रण वंचित-समाजों पर से टूटने लगा था और सभी सवर्ण-पुरुषों का नियंत्रण वंचितों की स्त्रियों सहित अपनी भी स्त्रियों पर से उखड़ने लगा था |

वे तथाकथित ‘सामाजिक डकैतियाँ’ वास्तव में ब्राह्मणों द्वारा अंग्रेजों और वंचित-समाजों से लिया जा रहा बदला ही थीं, कुछ और नहीं | इसका प्रमाण उसी युग में पैदा हुए और शिक्षा हासिल करके ब्राह्मणों के उन डकैतियों के षड्यंत्रों को स्वयं देखने-समझने वाले ज्योतिबा फुले से मिलता है | ज्योतिबा ने अपनी रचना सार्वजनिक सर्वधर्म पुस्तक में किस्मत नामक अध्याय में ब्राह्मणों द्वारा उस तथाकथित ‘सामाजिक डकैती’ पर एक बहुत ही अच्छी कल्पना आधारित कहानी की रचना की है, जिसमें सत्यशोधक समाज का एक कार्यकर्त्ता यात्रा करने के दौरान किसी जेल के कुछ कैदियों से बात करता है | इसी सिलसिले में वह एक ब्राह्मण से बातचीत करते हुए उससे यह जानकारी हासिल करता है कि किस तरह ब्राह्मणों ने ब्रिटिश सरकार और भारत की जनता को आर्थिक हानि पहुँचाने के लिए और साथ ही वंचित-समाजों के मन में अपना खौफ पैदा करने के लिए भी उनको लूटा—

यात्री      :- अरे, तू गौ की तरह जाति से ब्राह्मण है फिर भी तेरे पाँवों में इस तरह की बेड़ियाँ पड़ने की वजह क्या है? …..

पहला कैदी :- महाशय, …. मैंने नकली नोट छापे और कई बार चौपाल पर दिन-दहाड़े डाका डाला, मैंने सरकार की आँखों में धूल झोंककर अपने आत्माराम (यानी मन) को शांत किया | लेकिन मेरी यह सारी चालाकी जब सरकार के ध्यान में आई, तब उन्होंने मुझे मेरे अपराध के लिए यह सजा उचित ही दी |…” 4

यह कैदी यह कहते हुए कि नकली नोट छापकर और चौपाल पर दिन-दहाड़े डाके डालकर ‘मैंने…अपने आत्माराम को शांत किया’, साफ़-साफ कह रहा है कि उसने सरकार की आँखों में धूल झोंककर अपने मन की शांति के लिए डाका डाला और नकली नोट छापा | तह पूछा जा सकता है कि अपने मन की शांति के लिए’ का क्या अर्थ है? उसका मन अशांत क्यों था? क्या अंग्रेजी सरकार या चौपाल पर जो जनता उसके द्वारा लूटी गई, उसने कुछ ऐसा किया था कि कैदी ने उनको लूटा?

इस ‘सामाजिक डकैती’ की अवधारणा को आधार बनाकर बंकिमचन्द्र चटर्जी ने आनंद मठ नामक उपन्यास लिखा, तो जयशंकर प्रसाद ने गुंडा नामक कहानी लिखी, प्रेमचन्द ने भी रंगभूमि उपन्यास में ऐसी कहानी मुख्य कथा के समानान्तर लिखी है | ऐसी और भी रचनाएँ विभिन्न साहित्यकारों द्वारा अनेक भाषाओँ में लिखी गईं | हालाँकि प्रायः इन रचनाओं में ‘सामाजिक डकैतों’ की सकारात्मक छवि ही दिखाई गई है | लेकिन कई बार इनमें ऐसी बातें भी समाहित होती हैं, जो हमें रचनाकारों की खास जातीय मानसिकता के संबंध में संदेह करने के पर्याप्त आधार जाने-अनजाने ही दे देती हैं अथवा यह संकेत देती हैं कि ऐसी मनोवृत्तियों के आधार पर साहित्य-रचना की जो धारा उस समय साहित्य-जगत में बह रही थी, उसमें वे जाने-अनजाने ही कैसे बह गए और सच की ठीक से जाँच-पड़ताल किये बिना ही ऐसी रचनाओं में ‘सामाजिक डकैतियों’ और ‘मसीहाई डकैतों’ की सकारात्मक छवि प्रस्तुत की | जैसे 18 वीं सदी के अंतिम चरण में हुए ‘सन्यासी विद्रोह’ पर आधारित ‘आनंद मठ’ में बार-बार हिन्दुत्ववादी सोच के साथ-साथ ‘हिन्दू-राष्ट्र’ की स्थापना की उद्घोषणा | दरअसल इसी उपन्यास में पहली बार ‘हिन्दू-राष्ट्र’ की बात कही गई, जिसे आगे चलकर हिन्दुत्ववादी-राष्ट्रवादियों ने अपना लिया | यह भी देखने वाली बात है कि ये ‘सन्यासी विद्रोह’ के नायक कौन या किस जाति-विशेष के थे और किस कारण उन्होंने वह विद्रोह किया था? क्या उन ‘सन्यासियों’ ने भारत की मूल-निवासी वंचित-जनता के साथ भी उतना ही सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया, जितना सवर्णों के साथ? क्या उन्होंने जो धन ‘गरीब जनता’ को देने के नाम पर अंग्रेजों और मुसलमानों से लूटा था, उसमें से गरीब-वंचितों को भी उसी तरह दिया था, जैसे तथाकथित ‘गरीब सवर्णों’ को दिया था? अथवा उन गरीब-वंचितों की मदद करने की बजाय उन ‘सन्यासियों’ ने अपनी ‘सामाजिक डकैती’ का निशाना अंग्रेजों और मुसलमानों के साथ-साथ दलितों, शूद्रों और आदिवासियों को भी बनाया और उनको भी उसी तरह लूटा? ‘गुंडा’ कहानी की पटकथा भी 18 वीं सदी के अंतिम दो-तीन दशकों के कालखंड को आधार बनाकर बुनी गई है, जिसमें ‘गुंडा’ नन्हकूसिंह हत्या, लूटपाट और डकैतियां डालता है; हालाँकि कहानीकार ने उसकी सकारात्मक छवि ही उकेरी है |

‘सामाजिक डकैतियाँ’ किसके खिलाफ की गईं?

यदि ध्यान से देखा जाय, तो ऐसी रचनाओं में अंग्रेजों और मुसलमानों को निशाना बनाया गया है, जिनके खिलाफ ‘सामाजिक डकैत’ अधिक सक्रिय थे | इसका कारण शायद यह रहा हो कि भारत के मूल-निवासियों को इन्हीं के शासन काल में थोड़ी-बहुत हिम्मत मिली, उनकी थोड़ी-सी आर्थिक और सामाजिक हालत सुधरी, जिसके कारण उनमें अपनी दयनीय स्थिति से बाहर निकलने की छटपटाहट के कारण विद्रोह की भावना पैदा हुई |

लेकिन एक बात और, हर सामाजिक डकैती ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मण-वर्चस्व के लिए ही नहीं डाली जाती थी, बल्कि ऐसी डकैतियों में कई बार आदिवासी, दलित या शूद्र समाज भी शामिल होता था, लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इनके द्वारा ऐसा किए जाने के कारण अलग थे | लेकिन ब्राह्मणों सहित अन्य सवर्णों के उद्देश्य अक्सर इनसे भिन्न हुआ करते थे | यह भिन्नता कहाँ थी?

दरअसल ब्रिटिश-शासन (ईस्ट इंडिया कंपनी) ने तब तक भारतीय राजनीति में कई शासनिक-प्रशासनिक सुधार ही नहीं किए थे, बल्कि सामाजिक-सुधर के लिए भी कई ठोस और प्रभावशाली कानून भी बना दिए थे और उनको लागू भी किया था | शासन ने अपने विभिन्न विभागों (सेना, पुलिस, म्युनिसिपालिटी आदि) में नौकरी देकर दलितों और शूद्रों को अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार करने के मौके दिए थे, जिससे इन वर्गों की सवर्णों पर आर्थिक निर्भरता कुछ अंशों में कम हुई और वे ब्राह्मणों, जमींदारों, साहूकारों के चंगुल से कुछ अंशों में बाहर निकलने लगे | इसी तरह सती-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-शिशु-हत्या, भ्रूण-हत्या आदि पर प्रतिबन्ध और विधवा-पुनर्विवाह, विवाह की आयु में बढ़ोत्तरी जैसे नियमों से सदियों तक अपने लिए एक अच्छे जीवन की खातिर तरसती स्त्रियों को भी अपना जीवन जीने के और थोड़ा-बहुत अपनी उन्नति के मौके मिले | इन दोनों स्थितियों से सबसे अधिक ब्राह्मण-वर्ग नाराज हुआ | उसके बाद उसने ब्रिटिश-सरकार के खिलाफ जो विविध खेल रचाए, वे बड़े ही हैरान करने वाले थे | इस बारे में कई इतिहासकार और विद्वान संकेत देते हैं— “जब विलियम बेंटिक ने सती प्रथा विरोधी कानून पारित किया तो उसके खिलाफ हिन्दुओं ने विरोध प्रकट किया था | अनेक जन विद्रोहों में स्वयं को ‘मसीहा’ घोषित करते हुए अनुयायियों को यह आश्वासन दिया कि वे इस पृथ्वी पर ऐसे समाज और राज्य का निर्माण करेंगे, जहाँ उन्हें अधिकार मिलेंगे | उन्होंने यह भी घोषणा की कि स्वयं ईश्वर ने उन्हें शोषितों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए कहा है और उनके आदेशों को ईश्वरीय कृपा प्राप्त है |” 5

लेकिन भारतीय समाज में उपरोक्त परिवर्तन लाने वाले ब्रिटिश-शासन को हानि पहुँचाने के लिए ब्राह्मण-वर्ग ने कैसे तरह-तरह की कोशिशें गुप्त रूप से की, इसका अभी अतीत से निकलकर बाहर आना बाकी है, क्योंकि इतिहासकारों ने इसपर मौन साध रखा है | उन्हीं में से एक था, 18 वीं सदी के अंतिम चरण से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक भारतीय सामाजिक परिवेश में उपरोक्त उल्लिखित तथाकथित ‘पवित्र डाकुओं’ का आविर्भाव | इन डाकुओं ने अपने-आप को ‘मसीही महापुरुष’ कहकर प्रचारित किया और अपने डकैती के कार्यों को ‘सामाजिक डकैती’ कहकर | इस पृष्ठभूमि पर भारत में सैकड़ों की संख्या में विविध भाषाओँ में फ़िल्में भी बनी हैं |

‘सामाजिक डकैती’ के नाम पर सवर्ण-समाज के कई लोगों ने जगह-जगह डाके डाले, वंचित-जनता को लूटा, अंग्रेज़ों को भी लूटा; मौक़े का लाभ उठाकर अंग्रेज़ों और साहसी शूद्रों-दलितों की हत्याएँ भी की | उनमें ब्राह्मण भी शामिल थे और उनके उकसावे पर अन्य सवर्ण, खासकर जमींदार-वर्ग के उत्साही नवयुवा, जिनकी जमींदारियों पर ब्रिटिश-शासन के कारण आंच आई थी और उनका समाज पर से वर्चस्व टूटा था | और तो और, सवर्ण-समाज के उन ‘मसीहा डाकुओं’ ने ग़रीब दलितों-शूद्रों और ब्रिटिश-अधिकारियों से लूटे गए उस धन से ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों की मदद की, ताकि उनके द्वारा समाज के भीतर अपने बारे में सकारात्मक छवि निर्मित करवाई जा सके, कि ‘वे तो जनता के सेवक हैं और अमीरों से धन लूटकर ग़रीबों को बाँटते हैं’ | लेकिन कौन-सी ‘गरीब-जनता’ की मदद? क्या दलितों और शूद्रों की, अथवा ब्राह्मणों-बनियों की?

लेकिन जो भी हो, उस समय इस प्रकार के ‘पवित्र डाकुओं’ की एक अच्छी-ख़ासी संख्या सामने आती जा रही थी, जो एक ख़ास क़िस्म की जनता, अर्थात् सवर्ण-समाज, के माध्यम से ‘मसीहा’ के रूप में प्रचारित किए जा रहे थे | भारतीय हिंदी सिनेमा और दूसरी अन्य भाषाओँ के सिनेमा में ऐसे ‘पवित्र डाकुओं’ और उनके ‘मसीहापन’ को आधार बनाकर न जाने कितनी फ़िल्में बनी हैं, जिसने 20वीं-21वीं सदी की शिक्षित-अशिक्षित जनता के बीच उनकी ‘मसीहाई’ छवि निर्मित करने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | लेकिन उस समय के उन सवर्ण-प्रचारकों से लेकर 20वीं-21वीं सदी के सवर्ण-इतिहासकारों और सवर्ण-फ़िल्म-निर्माताओं ने यह किसी को नहीं बताया कि वे ब्राह्मण सहित अन्य सवर्ण-लुटेरे ब्रिटिश अधिकारियों के साथ-साथ ग़रीब दलितों और शूद्रों को भी लूटते थे और उस धन में से अपने प्रचारक ब्राह्मणों को भी बाँटते थे |

‘सामाजिक डकैतियों’ का उद्देश्य क्या था?

यदि ध्यान से उस काल के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन किया जाए, जो सवर्ण मानसिकता वाले इतिहासकारों से अलग लिखे गए थे, तो यह स्पष्ट रूप से उजागर होता है कि कई उद्देश्य में से एक उद्देश्य था ब्रिटिश-सरकार को नाकारा साबित करते हुए उनको शासन के अयोग्य ठहराना और इस रूप में उसको बदनाम करना | दरअसल ब्रिटिश-सरकार की सुधारवादी नीतियों और कार्यों से चिढ़े हुए सवर्णों ने जानबूझकर उनके शासनकल को और उनको शासन के अयोग्य और नाकारा साबित करने की कोशिश में उसको बदनाम करने के लिए सवर्णों द्वारा ऐसी डकैतियां डाली गईं प्रतीत होती हैं | ताकि यह दिखाया जा सके कि ब्रिटिश सरकार के शासन में समाज और देश में अव्यवस्था है, जिसको वे नियंत्रित करने के लायक नहीं थे |

दूसरा उद्देश्य सरकार को आर्थिक-नुकसान पहुँचाना भी था | उनका तीसरा उद्देश्य था ब्रिटिश-अधिकारियों और कर्मचारियों के मन में अपना खौफ पैदा करना | चौथा उद्देश्य था ब्रिटिश-शासन की छत्रछाया में विद्रोही और साहसी बन रही वंचित-जनता और महिलाओं के मन में भी अपना पहले जैसा खौफ पैदा करना, ताकि उनको पहले की तरह डरा-धमका कर उनको उनकी ‘औकात’ में वापस लाया जा सके |

‘पवित्र डाकुओं’ की ‘सामाजिक डकैतियों’ के परिणाम

इसलिए जब 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद शासन की बागडोर ब्रिटिश-राजशाही एवं संसद ने अपने नियंत्रण में ले ली; तब नई ब्रिटिश-सरकार ब्राह्मणों की पिछली क्रूरताओं को देखते हुए और उक्त विद्रोह के पीछे के सामाजिक सुधार के रूप में कारणों को समझते हुए उन सभी नीतियों, क़ानूनों आदि के प्रति सचेत हो गई एवं उनमें हस्तक्षेप से कुछ दूरी बनाने लगी, जिससे ताक़तवर ब्राह्मण-समाज फिर से नाराज़ हो सकता था | उन्होंने यहाँ सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत धीमी कर दी, ताकि सनातनियों द्वारा पुनः उनसे चिढ़कर विद्रोह न किया जाए | उनमें कई ऐसे मुद्दे थे, जिनपर राजकीय या सरकारी हस्तक्षेप बहुत ज़रूरी था, उदाहरण के लिए अस्पृश्यता, जातिवाद, भ्रूण-हत्या, बालिका-शिशुओं की हत्या, महिलाओं एवं दलितों से संबंधित क्रूर परम्पराएँ आदि |

लेकिन सवर्णीय-मानसिकता वाले इतिहासकारों ने इस मुद्दे पर बड़ी सफाई से ख़ामोशी अख्तियार कर ली और पाठकों को, नई पीढ़ियों को, यह नहीं बताया कि सवर्ण-समाज के ‘पवित्र मसीहाई डाकुओं’ ने किस कारण डाके डाले और भारतीय समाज के किन वर्गों को नुकसान पहुँचाया |

सन्दर्भ-सूची

  1. पृष्ठ-196, अमृत कौर बसरा, ‘1757 से 1857 के बीच ब्रिटिश भारत में जन-विद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर.एल.शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, संस्करण- 2003
  2. पृष्ठ-198, वही
  3. पृष्ठ-198, वही
  4. पृष्ठ-146, ज्योतिबा फुले, सार्वजनिक सर्वधर्म पुस्तक’, महात्मा ज्योतिबा फुले रचनावली–2, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2009
  5. पृष्ठ-202, ‘1757 से 1857 के बीच ब्रिटिश भारत में जन-विद्रोह – अमृत कौर बसरा, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, सितम्बर 2003

–डॉ. कनक लता

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