बतकही

बातें कही-अनकही…

1857 के विद्रोह को ‘जन-विद्रोह’ के साथ-साथ ‘सैनिक-विद्रोह’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें सैनिकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था; सवर्ण-सैनिकों ने | केवल अवध से ही 75000 सवर्ण-सैनिकों (अधिकांश ब्राह्मण) के इस ‘महाविद्रोह’ में भाग लेने की जानकारी मिलती है | ‘ब्रिटिश-सैनिक’ के रूप में सवर्ण-पुरुष अपनी ही मर्जी से ब्रिटिश-सेना में शामिल हुए थे, अंग्रेजों ने इसके लिए उनको मजबूर नहीं किया था | सवर्ण-सैनिक भारतीय-शासकों के ख़िलाफ़ विभिन्न ब्रिटिश-अभियानों में जाते थे, भारतीयों को स्वयं अपने हाथों से मारते-काटते थे | तब सवाल उठता है कि उन्हीं सैनिकों ने विद्रोह क्यों किया, वह भी इतनी बड़ी संख्या में कि यह ‘महाविद्रोह’ ‘सैनिक-विद्रोह’ के नाम से भी जाना जाने लगा? यदि सैनिक वास्तव में ‘देशभक्त’ थे, तो वे ब्रिटिश-सेना में गए ही क्यों? ब्रिटिश-सैनिकों के रूप में अपने ही भारतीय भाई-बंधुओं को मारते-काटते समय क्यों उनकी ‘देशभक्ति’ नहीं जागी? अपने ही समाज और स्वजाति के राजाओं, नवाबों आदि के राज्य को धवस्त करते समय उनकी देशभक्ति कहाँ खो गई थी?

इसलिए समझना होगा कि ऐसा क्या हुआ था कि 1857 में अचानक सवर्ण-सैनिकों की देशभक्ति जाग गई और वे उन्हें नौकरी देनेवाले अंग्रेजों के ख़िलाफ़ ही हथियार उठा बैठे? साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या भारतीय-सैनिकों में शामिल हर जाति के सैनिक ने इस विद्रोह में भाग लिया था? यदि नहीं, तो वे कौन-सी जातियाँ थीं, जिन्होंने विद्रोह में भाग न लेकर ब्रिटिश-सरकार के प्रति अपनी ईमानदारी और वफ़ादारी निभाई?

इसलिए सबसे पहले ब्रिटिश-सेना के भारतीय-सैनिकों की सामाजिक-स्थिति को देखना-समझना होगा |

ब्रिटिश-सेना के भारतीय-सैनिक कौन थे?

जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई और अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया, तो उसके अधिकारियों को भारतीय जातीय-संरचना और उनकी व्यवस्थाओं के बारे में न तो ख़ास जानकारी थी, न ही वे उन बातों की परवाह करते थे | इसलिए उन्होंने अपनी सेना और अन्य नौकरियों में हर जाति और धर्म के लोगों को रखा; ब्राह्मण से लेकर दलित-समाज तक | हालाँकि ब्राह्मणों ने हमेशा की तरह इस बार भी चालाकी से ब्रिटिश-सरकार के सभी महत्वपूर्ण जगहों पर दलितों-शूद्रों को पहुँचने से यथासंभव रोक दिया और उनपर स्वयं कब्ज़ा कर लिया; जैसे न्यायापालिका, सेना में उच्च-अधिकारियों के पद, शिक्षा-विभाग, म्युनिसिपालिटी, आदि | इतिहासकार भी बताते हैं कि ब्रिटिश-सेना में सवर्णों का ही वर्चस्व था, उनमें भी ब्राह्मण-वर्ण का | अवध के 75,000 विद्रोही सवर्ण-सैनिकों में से अधिकांश ब्राह्मण थे | बंगाल-सेना के बारे में भी बिपिन चन्द्र बताते हैं—

“19वीं सदी के मध्य में बंगाल सेना में ऊँची जातियों का ही वर्चस्व था |” 1

लेकिन इसके बावजूद ब्रिटिश-अधिकारियों ने अपनी सरकारी ज़रूरतों के कारण वहाँ केवल सवर्णों को ही नहीं भरा | चूँकि सेना के माध्यम से ही रियासतों पर कब्ज़ा करना था और विद्रोहों का दमन भी, इसलिए ब्रिटिश-सरकार का सेना पर कठोर नियंत्रण था; इसलिए उन्होंने जिन लोगों को सेना में भर्ती किया, उनमें भारत के मूल-निवासी (शूद्र और दलित) भी थे; बेशक बहुत कम संख्या में ही सही |

लेकिन दलितों और शूद्रों की सेना में ये थोड़ी-सी संख्या भी सवर्ण-सैनिकों को नागवार गुजरी और उनको ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि उनकी जूठन खानेवाले दलित और शूद्र जातीय-व्यवस्थाओं को तोड़कर उनकी बराबरी करते हुए वही काम करें, जो केवल सवर्णों के लिए ही निर्धारित है | इसीलिए सेना में दलितों-शूद्रों की यह थोड़ी-सी उपस्थिति भी सवर्णों द्वारा 1857 के विद्रोह का एक महत्वपूर्ण कारण बनी; अन्य छोटे-मोटे कारण तो थे ही |

भारतीय-सैनिकों की शिकायतें और उनके कारण

ब्रिटिश-सेना में चूँकि ब्रिटिश-सैनिकों के साथ-साथ भारतीय-सैनिक भी थे; भारतीयों में भी सवर्णों के साथ-साथ शूद्र और दलित भी | सैनिकों के मामले में अंग्रेजों की जो नीतियाँ थीं, उन नीतियों में से अनेक के कारण सवर्ण-समाज को ब्रिटिश-सरकार से शिकायतें हुईं | वे शिकायतें किस तरह की थीं, यह देखना बहुत दिलचस्प है |

  1. जातीय-दुराग्रह

परंपरागत रूप से सदियों से सवर्ण-समाज अपने-आप को भारत के मूलनिवासी शूद्र-दलितों से अलग रखता आया है | उनकी जीवन-शैली, रहन-सहन, खान-पान, घर-निवास, कार्य आदि सभी वंचित-वर्गों (दलित और शूद्र) से एकदम अलग और बेहतरीन रहे हैं | लेकिन ब्रिटिश-सेना में शामिल होने के बाद अवर्ण-सैनिकों के जीवन में विविध ब्रिटिश नियम-कानूनों के कारण जो बदलाव होने लगे, उससे सवर्णों को बेहद ऐतराज हुआ | ब्रिटिश नियम-कानूनों के ही तहत सभी सवर्ण-अवर्ण सैनिकों को रहना पड़ता था, एक साथ कई कार्य करने पड़ते थे; जैसे दलित-शूद्र-सैनिकों का सवर्ण-सैनिकों के साथ ही खाने-पीने की व्यवस्था, एक साथ परेड करना; बैरकों में भी सवर्णों के लगभग साथ ही शूद्र-दलित सैनिकों को रखा जाता था; कम-से-कम अगल-बगल के कमरों या बैरकों में…आदि | इसके अलावा छावनियों में शूद्र-दलित सैनिकों का भोजन भी एकदम सवर्णों जैसा था, उनकी सैनिक-पोशाक और अन्य पहनावे भी एक जैसे रखे जाते थे, एक जैसी सैनिक-जीवनशैली थी…आदि |

समस्या यही थी | लेकिन इससे क्या समस्या थी?

  1. ‘अस्पृश्यता’ के पालन पर संकट

जैसाकि यह अब सभी जानते हैं कि सवर्ण-समाज, उनमें भी सर्वाधिक ब्राह्मण, मनु और उसकी ‘मनुस्मृति’ से भी सदियों पहले से भारत की दलित-जनता और शूद्रवर्णीय-जनता के भी कुछ हिस्से से अस्पृश्यता का बर्ताव करता आया है; खासकर दलितों से | ब्राह्मण तो दलितों की परछाई से ही नहीं उसपर नज़र तक पड़ जाने से भी अपवित्र हो जाता था | ऐसे में जब वे एक सैनिक के रूप में किसी मैदान में दलितों-शूद्रों के साथ सैनिक-अभ्यास (परेड आदि) करते थे, तो यह कैसे संभव है कि उनके ऊपर किसी दलित या शूद्र की परछाई बिल्कुल भी पड़ती ही नहीं होगी? वैसे भी सैनिक-अभ्यास केवल रात के समय तो नहीं होते होंगे, बल्कि ज्यादातर तो दिन में ही होते होंगे | इस स्थिति में दलितों-शूद्रों के साथ सवर्ण-सैनिक छुआछुत का व्यवहार नहीं कर पाते थे, जिससे उनका जातीय-अहम् संतुष्ट नहीं हो पाता था |

इस तरह की स्थिति अन्य दूसरे मौक़ों पर भी आती ही थी; जैसे किसी दूर के स्थान पर सैनिक-अभियान के लिए एक ही रेल या अन्य वाहन में ब्राह्मण-सैनिकों और दलित-शूद्र-सैनिकों को साथ-साथ बिठाना आदि—

“कंपनी की सैनिक छावनियों में कई ऐसी सेवा-शर्तें थीं, जिनसे मुख्यतः उत्तर-दक्षिण प्रांतों और अवध (वर्त्तमान उत्तर प्रदेश) से आने वाले ऊँची जाति के हिंदू सिपाहियों के धार्मिक विश्वासों और पूर्वाग्रहों को ठेस पहुँचती थीं | शुरू में तो अंग्रेज प्रशासन ने सिपाहियों की बात पर ध्यान दिया और उनकी आपत्तियों को स्वीकार किया | ऐसी व्यवस्था की गई थी कि सिपाही अपने धर्म और जाति की मान्यताओं और रिवाजों के तहत रह सकें |… फिर एक रेजिमेंट के भीतर कई अलग-अलग जातियों की मौजूदगी और जाति-भेद की भावना निश्चित ही सैनिक दृष्टि से कोई फायदे की स्थिति नहीं थी |” 2

  1. जातीय-ताने-बाने का टूटना

सवर्ण-समाज को ब्रिटिश-सरकार के सेना-संबंधी नियमों से यह भी शिकायत थी कि उसने खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, शिक्षा, जैसे मामलों में सवर्णों और दलितों-शूद्रों में कोई अंतर नहीं रखा | जबकि ब्राह्मण-निर्मित नियमों के अनुसार उपरोक्त मामलों में सवर्णों और दलितों-शूद्रों की स्थिति एकदम विपरीत थी | ब्राह्मण-व्यवस्था के अनुसार शूद्रों-दलितों को कभी भी भरपेट भोजन नसीब होने नहीं दिया जाता था, बल्कि उनके सामने ऐसे हालात पैदा किए जाते थे कि वे केवल अपमानजनक चीजें ही खाएँ; जैसे, सवर्णों की जूठन, मरे हुए जानवरों का सड़ा-गला मांस, चूहे, कुत्ते, बिल्लियाँ, कीड़े-मकोड़े, घासफूस आदि | इसी तरह उनको कभी भी अच्छे और बिना फटे कपड़े नहीं पहनने दिया जाता था, बल्कि उनको हमेशा सवर्णों की छोड़े हुए कपड़े और चीथड़े ही पहनने को बाध्य किया जाता था, नए और साफ़-सुथरे कपड़े पहनने पर उनको कठोर दंड दिया जाता था |

इसकी झलक सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले की दलित-छात्रा मुक्ताबाई साल्वे के लेख (‘मंग महाराच्या दुखविसाई’; अर्थात् ‘मांग-महारों की व्यथा’) से भी मिलती है, जो 1857 के ‘सैनिक-विद्रोह’ से भी पहले 1855 में उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका ज्ञानोदय में छपा था—

“इससे पूर्व (अंग्रेजी-शासन स्थापित होने से पूर्व) यदि कोई महार या मंग अच्छे वस्त्र पहनता था, तो कहते थे कि केवल ब्राह्मणों को ऐसे वस्त्र पहनने चाहिए | यदि हम अच्छे कपड़े पहने हुए दिख जाते थे, तो हमारे ऊपर वस्त्रों की चोरी का आरोप लगता था | जब अछूत लोग अपने शरीर पर वस्त्र डालते, तो उनको पेड़ों से बाँधकर दंड दिया जाता | …किन्तु, ब्रिटिश राज्य में जिसके पास पैसा है; अच्छे कपड़े मोल लेकर पहन सकता है |” 3

यही स्थिति दलितों-शूद्रों के रहन-सहन के तौर-तरीक़ों और उनकी अनिवार्य प्राथमिक-शिक्षा के मामले में भी थी | लेकिन ब्रिटिश-सरकार द्वारा संचालित बैरकों में रहनेवाले दलित-शूद्र-सैनिकों और सवर्ण-सैनिकों की जीवन-शैली, रहन-सहन, भोजन, वेशभूषा आदि में कोई अंतर नहीं रखा जाता था | इससे सवर्णों ने महसूस किया कि इस कारण सवर्णों और दलितों-शूद्रों में कोई अंतर ही नहीं बचा |

जब आज 21वीं सदी का सवर्ण-समाज अपनी जीवन-शैली, वेशभूषा, भोजन आदि को दलितों-शूद्रों से एकदम अलग, अद्वितीय (यूनिक) और बेहतरीन रखना पसंद करता है, तो पौने दो सौ साल पहले के बारे में अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि इस बारे में सवर्णों की जातीय-मानसिकता कितनी निर्मम होती होगी |

यह स्थिति केवल सैनिकों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उनको मिलनेवाले नकद वेतन का असर बहुत दूर गाँवों में बैठे वंचित-सैनिकों के परिवारों के जीवन और रहन-सहन पर भी पड़ रहा था, जिससे गाँवों में सवर्ण-सैनिकों के परिवारों के अहम् को चोट पहुँच रही थी | इस तरह सैनिक-छावनियों में दलित-शूद्र सैनिक और गाँवों में उनके दलित-शूद्र परिवार अंग्रेजों के कारण मिल रही सुविधाओं से अपने जीवन में होनेवाले परिवर्तनों से सवर्ण-समाज की आँखों की किरकिरी बनते जा रहे थे | स्वाभाविक है कि इसके लिए ज़िम्मेदार अंग्रेज, सवर्णों को अपने लिए प्रतिकूल लगे |

  1. वंचितों के सैनिक-साहस से सवर्णों को ऐतराज

ब्राह्मणों ने जो सामाजिक-जातीय-संरचना हजारों साल पहले बनाई थी, उसमें उन्होंने हर जाति के लिए अलग-अलग कार्य निर्धारित किए और ईश्वर, धर्म और राजा के दंड का डर दिखाकर बहुत कठोरता से यह भी सुनिश्चित किया कि कोई भी जाति किसी दूसरी जाति के कार्य नहीं कर सकती | केवल ब्राह्मणों को अपने जातीय-कर्म ‘पुरोहिताई’ और ‘गुरुकुल-संचालन’ से बाहर निकलकर राजसत्ता हासिल करके राज करने और कुछ चीजों का व्यापार करने की छूट थी | इस व्यवस्था का सबसे अधिक नकारात्मक असर दलितों पर हुआ | उनसे जमीन और संपत्ति के साथ-साथ छोटे-से-छोटे मामूली-से-मामूली हथियार तक छीनकर उनको निहत्था, कमजोर, लाचार, बेचारा, असुरक्षित बना दिया गया था | इस कारण धीरे-धीरे उनके भीतर का साहस, हौसला, आत्मविश्वास आदि मरते चले गए |

लेकिन जब शूद्रों के साथ-साथ दलितों को भी सवर्णों की ही तरह अंग्रेजी-सेना में भर्ती होकर शौर्य-प्रदर्शन का मौक़ा मिला, तो इसके बहुत दूरगामी असर हुए, वह भी दोतरफ़ा | सबसे अधिक तो उन्हीं वंचितों में इसका असर दिखाई दिया | अपने ही शौर्य-प्रदर्शन के कारण सैकड़ों-हजारों सालों पहले मर चुका उनका साहस, हौसला, आशा, आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान एक बार फिर से जाग उठे | ब्रिटिश-सेना के द्वारा आयोजित विविध सैनिक-अभियानों में उन्होंने अपना बहुत अधिक बढ़-चढ़कर शौर्य दिखाया | ठीक इसके विपरीत, शूद्रों-दलितों के इस वीरतापूर्ण-प्रदर्शन से सवर्ण-समाज का जातीय-अहम् आहत हुआ | दलितों-शूद्रों का साहसपूर्ण कार्य, उनकी बहादुरी और हिम्मत सवर्ण-समाज बर्दाश्त नहीं कर सका |

दरअसल दलितों-शूद्रों के सेना में शामिल होने और शौर्य-प्रदर्शन से ब्राह्मणों द्वारा बनाया गया यह मिथक टूटने लगा कि दलितों-शूद्रों में सवर्णों के जैसा साहस और वीरता नहीं होती और वे केवल सवर्णों की लात खाते हुए उनकी सेवा करने मात्र के लिए ही पैदा हुए हैं | कई बार तो इस शौर्य-प्रदर्शन में दलित-वर्ग साहस-प्रदर्शन के मामले में ब्राह्मणों सहित समस्त सवर्णों और राजपूतों को भी बहुत पीछे छोड़ देते थे | इसका सबसे ज्वलंत और प्रसिद्ध प्रमाण है, भीमाकोरेगाँव की घटना |

यह घटना 1 जनवरी 1818 को भीमाकोरेगाँव नामक गाँव में घटी थी, जिसमें पूना पर हमला करने की घात लगाए बैठे ब्राह्मण-पेशवा बाजीराव द्वितीय की अनुमानतः 25000 से 28000 ब्राह्मण-सैनिकों को केवल 400 से 500 दलित-महार-सैनिकों ने धूल चटा दी और इस मिथक तो तोड़ दिया कि ‘पृथ्वी के देवता ब्राह्मण अपराजेय हैं और उनमें अद्भुत दैवीय-शक्तियाँ होती हैं, जिनसे वे बड़े-से-बड़े साम्राज्य को भी चुटकियों में ध्वस्त कर देते हैं’ | ब्राह्मणों की वह विशाल सेना को दलित-महार-सैनिकों की उस छोटी-सी टुकड़ी ने बुरी तरह पराजित करके उन्हें ख़त्म कर दिया | यह घटना सवर्णों के ही नहीं, बल्कि उनसे भी अधिक ब्राह्मणों के कलेजे पर इतनी बड़ी कील है, जिसका कोई काट ब्राह्मणों के पास अब तक नहीं है |

इस तरह की घटनाएँ और भी घटित हुईं, जिन्होंने सवर्णों के घमंड को तोड़ दिया | इतना ही नहीं, दलित-सैनिकों के वेतन की ही तरह उनके साहसपूर्ण-कार्यों के भी दूरगामी प्रभाव उनके अपने गाँवों और परिवारों पर भी पड़ रहे थे, जिससे दलितों में साहस आने लगा और इससे जातीय ताने-बाने के टूटने की नौबत भी आने लगी | जाहिर है कि इससे सवर्णों को तो उस व्यवस्था और सरकार से दिक्कत होनी ही थी, जिसने दबे-कुचले दलितों को, शूद्रों को भी, साहस और हिम्मत के मामले में सवर्णों के बराबर ला खड़ा किया |

  1. सवर्णी-श्रेष्ठता के अहंकार पर चोट

ब्रिटिश-सरकार 1857 के उक्त विद्रोह के पहले पूरी निश्चिन्त होकर सभी भारतीय-सैनिकों के साथ एक जैसा व्यवहार करती थी; चाहे वे दलित-शूद्र सैनिक हों, या ब्राह्मण अथवा कोई अन्य सवर्ण-सैनिक | लेकिन हज़ारों सालों से सवर्णों को राजसत्ता द्वारा अपने प्रति विशेष व्यवहार किया जाना पसंद रहा है, क्योंकि हजारों सालों से सवर्णी-राजसत्ता सवर्णों के साथ विशेष सम्मानपूर्ण व्यवहार करती आई थी और शूद्रों के साथ गुलामों जैसा एवं दलितों के साथ जानवरों और गंदे कीड़े-मकोड़ों जैसा व्यवहार |

लेकिन इसके विपरीत, ब्रिटिश-सरकार यदि अंग्रेज-सैनिकों की तुलना में भारतीय-सैनिकों के साथ कुछ बुरा बर्ताव करती थी, तो यह बुरा बर्ताव लगभग हर भारतीय-सैनिक के साथ किया जाता था, चाहे वह दलित हो या ब्राह्मण | यदि वह विशेष अवसर देती थी, तो उस विशेष अवसर में शूद्रों और दलितों को भी मौक़े मिलते थे; बल्कि कई बार तो विशेष रूप से दलित-सैनिकों को, अंग्रेजों के प्रति एहसानमंद होकर उनके प्रति अपनी ईमानदारी के फलस्वरूप सवर्णों की तुलना में कहीं अधिक विशेष मौक़े मिल जाते थे |

अंग्रेज-अधिकारियों द्वारा सवर्ण-सैनिकों और दलित-शूद्र-सैनिकों के साथ एक जैसा यही व्यवहार सवर्ण-समाज को बिल्कुल पसंद नहीं आया; क्योंकि इससे उनका अपने ‘विशिष्ट’ होने के अहम् को ठेस लगती थी |

  • धार्मिक-संकीर्णता

अपने जातीय-दुराग्रहों के साथ-साथ कई संकीर्ण पुरातनपंथी धार्मिक-विश्वास भी ब्रिटिश-नियमों के प्रति सवर्णों के असंतोष का कारण बने | सवर्ण-समाज, जो शिक्षा हासिल करने का पारंपरिक अधिकार रखता था, भी अनपढ़ दलितों-शूद्रों की तरह ब्राह्मणों की कही गई हर बात को बिना सोचे-समझे मान लेता था | ब्राह्मण ने कोई नियम क्यों बनाए हैं, उसका औचित्य क्या है, इसपर कोई विचार करना ज़रूरी नहीं समझता था | इसी कारण जब अंग्रेजी-सरकार में बहुत बड़ी संख्या में सवर्ण-युवा भर्ती हुए और ब्रिटिश-सरकार उन्हें विभिन्न अभियानों पर भेजने लगी, तो इसमें ब्राह्मणों द्वारा बताए गए ऊटपटांग नियम-क़ायदे आड़े आने लगे; जैसे समुद्र-पार जाने से धर्म भ्रष्ट होता है—

लेकिन जैसे-जैसे सेना की जिम्मेदारी बढ़ती गई, न सिर्फ देश के कई हिस्सों में बल्कि विदेशों में भी भारतीय सिपाहियों को भेजा जाने लगा, तो धार्मिक मान्यताओं के तहत उन्हें सुविधाएँ दे पाना संभव नहीं रह गया |… धार्मिक विरोध सबसे पहले 1824 में उभरा, जब बैरकपुर की 47 वीं रेजिमेंट को बर्मा जाने का आदेश दिया गया |” 4

सवर्णों के इस तरह के व्यवहारों के पीछे उनकी जातीय-चेतना भी काम कर रही थी | सदियों से ब्राह्मणों ने भारतीय-समाज के सभी वर्गों, जातियों, समुदायों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए उनको कुछ निश्चित चिह्न धारण करने को प्रेरित और बाध्य किया है (सवर्णों को प्रेरित किया और दलितों-शूद्रों को बाध्य किया); जैसे ब्राह्मणों को सिर पर शिखा और गले में जनेऊ, सवर्णों के लिए ललाट पर बड़ा-सा तिलक, सवर्णों और सिखों के लिए सिर पर पगड़ी आदि | वास्तव में इस तरह के चिह्नों से सवर्ण-समाज के लोग बहुत दूर से ही एक-दूसरे की पहचान करते थे | ब्राह्मणों ने दलितों और शूद्रों के लिए भी कुछ निश्चित पहचान बनाए थे, ताकि उनको भी दूर से पहचाना जा सके; जैसे— दलितों के लिए अनिवार्यतः गले, कलाई या पैरों में काला धागा, कमर में झाड़ू (पुरवा), गले में छोटी-सी मटकी/हांडी पहनना आदि | लेकिन अंग्रेजी-काल में दलितों ने अपनी ये अपमानजनक पहचान छोड़नी शुरू कर दी, सैनिक तो बिल्कुल भी ये चिह्न धारण नहीं करते थे | लेकिन अपने विशेषाधिकार और समाज में विशिष्ट हैसियत को बतानेवाली पहचानों को सवर्ण-सैनिक भला क्यों छोड़ते? दलितों द्वारा भी उनकी पहचान छोड़ना सवर्णों को पसंद नहीं आया |

इसीलिए जब ब्रिटिश-अधिकारियों ने सेना की एकरूपता के लिए (अर्थात् सेना को एक जैसी दिखने के लिए) सभी सैनिकों को अनिवार्य रूप से एक जैसा वेशभूषा और स्वरूप बनाए रखने (टीका, पगड़ी, शिखा आदि हटाने) का आदेश दिया, तो अपनी सवर्णी-पहचान मिटती देख सवर्ण-समाज और धार्मिक-पहचान मिटते सेख सिख आदि भड़क उठे—

“1857 से पूर्व भी सैनिकों ने अपने धर्म तथा मान्यताओं पर प्रहार होने की दशा में विद्रोह किए थे | 1806 में मद्रास के निकट वेल्लोर में जब एकरूपता के लिए सिपाहियों को टीका लगाने तथा पगड़ी पहनने की मनाही की गई तब वहाँ विद्रोह हुआ था |” 5

  • सैनिकों के आर्थिक-स्वार्थ पर आघात

सवर्ण-सैनिकों को केवल इतने से ही ऐतराज़ नहीं था, बल्कि वैध-अवैध रूप से पहले से मिलनेवाले आर्थिक-लाभ के बंद होने से भी गुस्सा आया | सवर्ण-समाज को हजारों सालों से मुफ़्त का, दूसरों की मेहनत का फल, नाजायज़ तरीक़े से हासिल लाभ आदि खाने की आदत पड़ी हुई है | ब्रिटिश-अधिकारी अपने स्वार्थ के लिए सवर्ण-सैनिकों की इस आदत को भुनाते थे | जब सैनिकों को किसी विशेष सैनिक-अभियान के लिए कहीं दूर भेजना होता था, तो अधिकारी उनको विशेष भत्ता देते थे, ताकि अधिक पैसों के लालच में भारतीय-सैनिक कहीं भी जाने को तैयार हो जाएँ | लेकिन बाद में जब अंग्रेजों ने अपने पैर मज़बूती से जमा लिए, तो उन्होंने इस तरह का भत्ता देना बंद कर दिया | सवर्णों को इसी का बुरा लग गया; वेतन के अलावा मुफ़्त की आती हुई वह दौलत छिन जाने से वे नाराज हो गए | इतिहासकार सवर्णों के इस लालच पर भी थोड़ी-सी अस्पष्ट-सी रौशनी डालते हैं—  

“दूसरी ओर भारतीय-सैनिकों को साम्राज्य-विस्तार से भी हानि हो रही थी | क्योंकि अब उन्हें बिना अतिरिक्त भत्ते के दूर प्रदेशों में भेजा जाने लगा था | पंजाब में युद्ध के दौरान सतलज नदी के परे सेवा के लिए अतिरिक्त भत्ता दिए जाने की अपेक्षा कर रहे थे, जो उन्हें नहीं दिया गया | इसी प्रकार पहले उन्हें अवध में कार्य करने पर, जो बहुतों का अपना ही देश था, अतिरिक्त भत्ता मिलता था जो अब बंद हो गया था |” 6

इसी तरह के उनके कई और लाभों पर भी चोट पड़ी थी | कमाल की बात है कि इससे पहले सवर्णों की ‘देशभक्ति’ नहीं जागी थी, उनकी देशभक्ति तब जागने लगी, जब उनके लाभ कम होने लगे |

  • ब्रिटिश-अधिकारियों का भेदभावपूर्ण नस्लीय-व्यवहार

ब्रिटिश-सरकार अब चूँकि ‘शासक’ की स्थिति में थी और भारतीय ‘शासित’ या ‘अधिस्थ-प्रजा’ के रूप में, इसलिए ब्रिटिश-अधिकारी सभी भारतीयों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करते थे | ब्रिटिश-सेना के ब्रिटिश-सैनिकों और भारतीय-सैनिकों के वेतन, भत्ते, अन्य सुविधाओं में बहुत अधिक अंतर था, उनके साथ अधिकारियों के व्यवहारों में भी बहुत अंतर था | और-तो-और, शासक होने के चलते अंग्रेजों में अपनी ‘नस्लीय-श्रेष्ठता’ का भाव भी ख़ूब भरा हुआ था | ब्रिटिश-सेना के दलित-सैनिकों को तो इससे क्या ही अंतर पड़नेवाला था, क्योंकि हज़ारों सालों से उन्होंने सवर्णों का इससे सैकड़ों गुना बुरा और अमानवीय बर्ताव झेला था | लेकिन हमेशा शूद्रों और दलितों की खोपड़ी पर तांडव करनेवाले सवर्णों को जब मामूली अंग्रेज-सैनिक से भी नीचा समझा गया, तो उनकी सवर्णी-जातीय-उच्चता को बड़ी गहरी ठेस लगी; जबकि इन्हीं आर्य-सवर्णों और राजपूतों ने यहाँ की वंचित-जातियों के साथ अंग्रेजों से भी बुरा व्यवहार किया था |

विदेश से आने वाले मुसलमान-शासकों और सामंतों ने भी अपने समाज के निम्न-वर्गीय मुसलमानों (जो सदियों पहले भारत के मूलनिवासी शूद्र और दलित ही थे और मुसलमानों के भाईचारे और बराबरी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर सम्मानजनक अच्छे जीवन की चाह में अपना धर्मान्तरण करके मुसलमान बन गए थे) के साथ बहुत-कुछ सवर्णों जैसा ही बुरा बर्ताव किया था | लेकिन जब वैसा ही दुर्व्यवहार खुद उनके साथ हो रहा था, तो उन्हें बुरा लगा | हालाँकि इनमें से कोई भी तब भी अपना व्यवहार वंचितों और कमज़ोरों के प्रति सुधारने को तैयार नहीं हुआ, बल्कि उस हालात की पुनर्स्थापना के लिए ही विद्रोह कर रहे थे, जिसमें वे दलितों-शूद्रों और कमज़ोर-मुसलमानों को अपने पैरों तले कुचल सकें, उनपर मनमाना अत्याचार कर सकें–-

“अंग्रेज व भारतीयों के मध्य सीधा संबंध रहता था | इसलिए अंग्रेजों की जातीय उच्चता की भावना के प्रदर्शन से सैनिकों में तुच्छता का एहसास बढ़ जाता था |” 7

अहंकारी सवर्णों के लिए इतने कारण क्या कम थे अंग्रेजों को ‘अत्याचारी-अंग्रेज’ कहकर उनके ख़िलाफ़ हिंसक-विद्रोह करने के लिए?

उस हिंसक-विद्रोह को सवर्ण-आर्य भले ही ‘जनता का विद्रोह’ और ‘सैनिकों का विद्रोह’ कहते रहें, लेकिन वास्तव में वह विशाल षड्यंत्र ही अधिक प्रतीत होता है; अपनी सवर्णी-व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए किया गया षड्यंत्र |

‘सैनिक-विद्रोह’ सवर्णों का षड्यंत्र

सवर्णों के उस विशाल षड्यंत्र को ‘जनता का विद्रोह’ और ‘सैनिकों का विद्रोह’ कहे जाने पर कई इतिहासकार संदेह करते हैं, हालाँकि बहुत ही सधे शब्दों में—

“इस विद्रोह के विभिन्न पहलुओं पर इतिहासकारों ने काफी शोध-कार्य किया है | किन्तु इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं किए गए हैं कि भारत के शेष भागों में यह विद्रोह क्यों नहीं हुआ | सारे भारत पर ब्रिटिश आर्थिक व प्रशासनिक नीतियों का प्रभाव लगभग एक-सा ही पड़ा था | इसी प्रकार सैनिकों की शिकायतें सेना के प्रत्येक भाग में समान थीं | फिर यह विद्रोह सारे भारत में क्यों नहीं फैला? केवल बंगाल सेना के सैनिकों ने ही विद्रोह क्यों किया? बम्बई तथा मद्रास की सेना के सैनिकों ने विद्रोह क्यों नहीं किया? इसी प्रकार पंजाब के सैनिकों ने लगभग एक दशक पूर्व ही अंग्रेजी फौजों के दाँत खट्टे किए थे | उनकी लगन तथा वीरता देखकर स्वयं अंग्रेज अफसर दंग रह गए थे | फिर पंजाब में अधिक विस्तृत स्तर पर विद्रोह क्यों नहीं हुआ? बंगाल में बैरकपुर, नई जलपाईगुड़ी, ढाका तथा चटगाँव में सैनिक विद्रोह हुए थे | परन्तु इन क्षेत्रों में असैनिक जनता ने उनका साथ क्यों नहीं दिया ? इस प्रश्नों पर विशेष शोध-कार्य नहीं हुआ है | परन्तु ये सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं जिनसे इस विद्रोह के स्वरूप व मूल्यांकन पर ही नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य के स्वरूप पर भी नई रौशनी पड़ेगी |” 8

यहाँ समझना होगा कि इतिहासकार क्यों कह रहा है कि ‘असैनिक जनता ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया’? वह क्यों ‘विद्रोह के स्वरूप और इतिहासकारों द्वारा अब तक किए गए मूल्यांकन’ पर सवाल उठा रहा है? क्या वह यह कहना चाहता कि इतिहासकारों ने केवल ‘सवर्णों’ और ‘पुरुषों’ के नज़रिए से ही शोध किए हैं और भारत की वंचित-जनता (आदिवासी, दलित, शूद्र, महिलाएं) के नज़रिए से कुछ भी स्पष्ट रूप से सामने आने नहीं दिया? वह क्यों इन पहलुओं पर और अधिक शोध किए जाने की जरूरत बता रहा है? क्या इस वजह से कि पता चल सके कि अंग्रेजों के कारण स्त्रियों, दलितों, शूद्रों के जीवन में बहुत सारे सकारात्मक परिवर्तन आए, इसलिए उन्होंने अपने उद्धारकर्ता अंग्रेजों का एहसानमंद होकर उनके ख़िलाफ़ विद्रोह नहीं किया; और यह विद्रोह केवल सवर्ण-पुरुषों तथा शासक-सामंत मुसलमानों का था, वह भी केवल-और-केवल अपनी वर्चस्व-स्थापना के लिए? इतिहासकार क्यों कह रहा है कि और अधिक शोध होने से ‘ब्रिटिश साम्राज्य के स्वरूप पर नई रौशनी पड़ेगी’? इतिहासकार ब्रिटिश-साम्राज्य के किस ‘नए स्वरूप’ को उजागर किए जाने की जरूरत बता रहा है, जिसको सवर्णी-मानसिकता वाले इतिहासकारों ने छिपाकर रखा है? कहीं उस नए स्वरूप का संबंध अंग्रेजों के कारण भारत के दलितों, शूद्रों, स्त्रियों के नारकीय और अपमानजनक जीवन में आए सकारात्मक परिवर्तनों और सुधारों से तो नहीं है?

इस विद्रोह के सवर्णी-षड्यंत्र होने के विषय में बहुत सारे महत्वपूर्ण संकेत हमें कई साहित्यकारों की रचनाओं में मिलते हैं | गुरुदत्त (फ़िल्मकार नहीं एक गुमनाम साहित्यकार, जो कट्टर सनातनी और हिन्दू-व्यवस्था का प्रबल समर्थक था) के एक उपन्यास ‘स्वराज्य दान’ में फैंटसी में आये ‘महाभारत’ के रचयिता वेद व्यास अंग्रेजों को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए उपन्यास के एक ब्राह्मण-नायक शंकर पंडित की मदद इसी शर्त पर करने को तैयार होते हैं, जब अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में फिर से विदेशी आर्यों का शासन स्थापित किया जाए, जिसमें स्त्रियों, दलितों और शूद्रों की कोई हैसियत नहीं—

फैंटेसी में आये वेद व्यास ब्राह्मण-नायक शंकर पंडित “…की मदद इसी शर्त पर करने को तैयार थे कि पंडित का संगठन आर्य शासन के लिए प्रयास करे |” 9

इसी उपन्यास में वेद व्यास यह भी कहते हैं—

“…सिर्फ ज्ञानियों और सुशिक्षितों (अर्थात् ब्राह्मण) को ही शासन करने देना चाहिए…यह बहुत बड़ी त्रासदी है कि ब्राह्मणों को साधारण श्रेणी के लोगों में शामिल कर लिया गया है |” 10

इस षड्यंत्र को सफ़ल बनाने के लिए 1857 के दौरान जो भी उचित-अनुचित उपाय किए जा सकते थे, सवर्णों ने वे सारे उपाय किए | इसमें असामाजिक-तत्वों को भी अपने साथ ले आना शामिल था—

“…गत 40 वर्षों से अनुसरण की हुई अंग्रेजी राज्य द्वारा स्थापित शांति (Pax Britannica) की नीति के कारण पिण्डारी, ठग तथा अन्य अनियमित सैनिक जो भारतीय रियासतों की सेनाओं के अंग थे, वे अब सब समाप्त हो चुके थे और उन दलों से निवृत्त सैनिक अब उस विद्रोह में सम्मिलित हो गए, विशेषकर समाज विरोधी तत्वों को विद्रोह के दिनों में स्वर्ण अवसर मिला और उन्होंने विद्रोहियों की संख्या में वृद्धि कर दी |” 11

सवर्णों को ऐसे लोगों से कोई आपत्ति भी नहीं थी | आरएसएस से बेहद प्रभावित गुरुदत्त के उपन्यास ‘पथिक’ का प्रमुख नायक ‘पथिक’ आगे चलकर स्वाधीनता-संग्राम के नाम पर ब्राह्मण-वर्चस्व के लिए ऐसे ही लोगों की सेना बनाता है, जिससे पता चलता है कि ऐसी कोशिशें लगातार चल रही थीं—

“पथिक को दो लाख लोग चाहिए जिनको यह लगे कि पूरा देश उनकी मुट्ठी में हो सकता है |” 12

ब्रिटिश-सरकार द्वारा संकट से सबक

जैसाकि ऊपर भी देखा गया कि शुरू में अंग्रेजों ने भारतीय-सैनिकों को अपनी-अपनी जातियों और धार्मिक-परंपराओं, मान्यताओं और विश्वासों के अनुसार व्यवहार करने की छूट दी थी, जिसके बारे में इतिहासकार बिपिन चन्द्र भी बताते हैं—

“शुरू में तो अंग्रेज प्रशासन ने सिपाहियों की बात पर ध्यान दिया और उनकी आपत्तियों को स्वीकार किया | ऐसी व्यवस्था की गई थी कि सिपाही अपने धर्म और जाति की मान्यताओं और रिवाजों के तहत रह सकें |” 13

लेकिन जैसे-जैसे सेना का कार्य बढ़ा, यह छूट देना मुश्किल हो गया | लेकिन विद्रोह में सवर्णों, और उनमें भी सबसे अधिक ब्राह्मणों, की भागीदारी देखकर ब्रिटिश-सरकार ने विद्रोह के बाद कई बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाए | उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण था सेना में ब्राह्मणों की संख्या को बहुत कम करना, जो बिपिन चन्द्र भी कहते हैं—

“इसलिए प्रशासन ने सबसे आसान रास्ता सोचा—ब्राह्मणों की भरती में कमी लाई जाए…|” 14

इस विषय में अन्य इतिहासकार भी लिखते हैं—

“…उच्च-जाति के हिन्दुओं में से सैनिकों की भर्ती करना बंद कर दिया गया | उनके स्थान पर बीच की जातियों के हिन्दू, सिख, पठान तथा गोरखों की भर्ती की जाने लगी |” 15

 दूसरा महत्वपूर्ण सुधार था ब्रिटिश-सैनिकों की संख्या बढ़ाना—

“इस विद्रोह के अनुभव के बाद सेना में भी सुधार किए गए | यूरोपीय तथा भारतीयों में 1:2 का अनुपात निश्चित किया गया |” 16

अंग्रेजों ने एक और काम किया, वह था सैनिकों के बीच फूट डालना |

ब्राह्मणों की नीति ‘फूट डालो, राज करो’ का अनुसरण

भारतीय-सैनिकों के सवर्ण-हिस्से के इस विद्रोह में शामिल होने के बाद अंग्रेजी-सरकार ने भारतीयों के अलग-अलग जातियों, वर्गों, समुदायों, आदि से संबंधित युवाओं की अलग-अलग बटालियनें बनाईं, जिनमें से अधिकतर आज भी भारतीय-सेना का हिस्सा हैं | इसमें किसी बटालियन-विशेष में एक ही जाति-विशेष के युवाओं की भर्ती की जाती थी; जैसे जाट रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, सिख रेजिमेंट, महार रेजिमेंट, चमार रेजिमेंट आदि | इसके दो उद्देश्य थे | एक तो, एक ही बैरक में सवर्ण-अवर्ण सैनिकों को एक साथ रखने से सवर्णों को होनेवाली आपत्ति का निवारण; दूसरा, सैनिकों में आपसी फूट डालकर संकट के दौरान उनका एक-दूसरे के ख़िलाफ़ प्रयोग करने के लिए |

हालाँकि सवर्णों ने पिछले दो सौ सालों से भारत की जनता को यह कहकर मूर्ख बनाए रखा है कि अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति भारत में लागू की | लेकिन सच्चाई यह है कि ब्राह्मण मनु ने इसकी नींव ईसा से दो सदी पहले, अर्थात् आज से लगभग 2200 साल पहले, ही रख दी थी, जब उसने ‘मनुस्मृति’ में 600 जातियों-उपजातियों में भारतीय-समाज को बाँट दिया | सवर्णों ने अपनी उसी जातीय-मानसिकता के कारण अंग्रेजों को यह नीति अपनाने को बाध्य किया | यदि सवर्ण-समाज ने दलित-समाज और दलित-सैनिकों के साथ जातीय-दुराग्रहपूर्ण अस्पृश्यता का व्यवहार करके उनको अपने साथ रखने से इंकार नहीं किया होता, तो शायद अंग्रेज जाति के आधार पर अलग-अलग रेजिमेंट नहीं बनाते | अंग्रेजों ने सवर्णों के व्यवहार और मानसिकताओं के आधार पर भारतीय-समाज को बँटे हुए देखा और यह समझ गए कि किस तरह मुट्ठी-भर विदेशी-सवर्ण समस्त वंचित-वर्गों में सैकड़ों जातियों के माध्यम से फूट पैदा करके कभी भी उनकोएक नहीं होने देते और सदियों से केवल इस कारण वे मुट्ठी-भर सवर्ण बहुसंख्य-वंचितों पर शासन कर पाते हैं, क्योंकि वंचित-वर्ग आपस में बँटे हुए हैं | अंग्रेजों ने सवर्ण-आर्यों से उनकी यही नीति सीखी; क्योंकि उन्होंने इसके दर्जनों लाभ देखे | इसलिए ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए अंग्रेजों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, इस नीति के लिए केवल-और-केवल सवर्ण, उनमें भी सबसे अधिक ब्राह्मण, ज़िम्मेदार है |

1857 के ‘महा-विद्रोह’ के ‘सैनिक-विद्रोह’ का रूप धारण करने के लिए सवर्णों की ऐसी ही जातीय दुराग्रहपूर्ण मानसिकताएँ जिम्मेदार हैं |

सन्दर्भ-सूची

  1. पृष्ठ-4, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1998
  2. पृष्ठ-3, वही
  3. पृष्ठ-115, मुक्ताबाई साल्वे, ‘मंग महाराच्या दुखविसाई’, सामाजिक क्रांति की योद्धा : सावित्रीबाई फुले, डॉ. सिद्धार्थ, दास पब्लिकेशन, दिल्ली, जनवरी 2020
  4. पृष्ठ-3-4, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,
  5. पृष्ठ-260, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली, सितम्बर 2003
  6. पृष्ठ-260, वही
  7. पृष्ठ-260, वही
  8. पृष्ठ-261, वही
  9. पृष्ठ-325, हितेन्द्र पटेल, आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2022
  10. पृष्ठ-326, वही
  11. पृष्ठ-188, बी एल.ग्रोवर और यशपाल, आधुनिक भारत का इतिहास : एक नवीन मूल्यांकन, एस.चंद एंड कम्पनी लि., दिल्ली, 2000 
  12. पृष्ठ-309, हितेन्द्र पटेल, आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ
  13. पृष्ठ-3, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष
  14. पृष्ठ-3, वही
  15. पृष्ठ-263, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास,
  16. पृष्ठ-263, वही

–डॉ. कनक लता

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