1857 के विद्रोह को ज्योतिबा फुले ‘चपाती विद्रोह’ कहते हैं, सवाल है कि क्यों? दरअसल ब्राह्मणों ने अपने गुप्त संदेश गाँव-गाँव पहुँचाने के लिए कमल के फ़ूल के साथ-साथ चपाती/रोटी का प्रयोग किया था | उस ‘चपाती विद्रोह’ के प्रमुखतम सूत्रधार छुपे रूप में ब्राह्मण पेशवा नाना साहेब के नेतृत्व में समस्त ब्राह्मण ही थे1, जिन्होंने मुगलों के कंधों पर रखकर बंदूक चलाई थी—
मौक़ा पाते ही “मराठा सरदार (मराठा नहीं, बल्कि मराठों के प्रधानमंत्री, जिनके पद का नाम ‘पेशवा’ था) नाना साहेब ने स्वयं को मुग़ल सम्राट का पेशवा घोषित किया |” 2
अन्य ताकतवर-वर्गों (हिन्दू-मुस्लिम शासक, सामंत, जमींदार, व्यवसायी, सैनिक आदि) के लोग तो उनके सहायक थे, जो अपने-अपने स्वार्थ के लिए उनके साथ मिल गए थे | लेकिन इस विद्रोह में रोटी के प्रयोग को लेकर भी अब विवाद हो रहे हैं |
संदेशवाहक ‘रोटी’ और ‘कमल’
कुछ इतिहासकार सवाल उठाते रहे हैं क्या रोटी और कमल (अधिकतर लाल कमल) को वाकई में सवर्ण-विद्रोहियों ने अपना संदेश पहुँचाने का माध्यम बनाया था, या नहीं? इसपर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं | बिपिन चन्द्र इससे सहमत नहीं हैं, उनका कहना है कि जिस तरह,
“फ़ैजाबाद के नाना साहब और मौलवी अहमद शाह ने सिपाहियों को विद्रोह के लिए उकसाया था या नहीं, अभी तक इस बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल सके हैं | इन दोनों ने विभिन्न छावनियों से गुप्त संपर्क बना लिया था, इस बारे में भी कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं | इसी तरह चपाती और कमल के फूल के माध्यम से संदेश पहुँचाने की बात भी संदेहास्पद है | इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता |” 3
लेकिन कुछ इतिहासकार स्पष्ट रूप से मानते हैं कि इसमें रोटियों को सशक्त संदेशवाहक के रूप में प्रयोग किया गया था—
“1857 के प्रारंभ तक दिल्ली के आसपास के क्षेत्र और उत्तर-पश्चिमी प्रांत के विभिन्न जिलों से रिपोर्ट आने लगी थी कि गाँवों में एक चौकीदार रोटियाँ लेकर आता है और वैसी छह-आठ रोटियाँ बनाकर आसपास के गाँवों में भेजने की हिदायत देता है | इनके साथ कुछ संदेश भी दिया जाता है और इस प्रकार के संदेश प्राप्त करनेवाले गाँवों की संख्या तेजी से बढ़ रही थी | …विद्रोह के बाद ही रोटियों से संबंधित प्रश्न गंभीरता से उठाए गए | इस प्रकार रोटियाँ बाँटे जाने का उद्देश्य क्या था? इनके साथ क्या संदेश दिया जाता था? इत्यादि | इस समय अंग्रेज अफसर इसे विद्रोह के संचारण का माध्यम अथवा षड्यंत्र का प्रमाण मानने लगे | इसके दो कारण माने जा सकते हैं | पहला तो अंग्रेजों का अपना अनुभव था | ब्रिटेन में, विशेषकर स्कॉटलैंड में, इस तरह से विद्रोह की सूचना देने की परंपरा रही थी | दूसरा यह कि विद्रोह के द्रुतगति से फैलने से यही माना जाने लगा कि जरूर किसी प्रकार का षड्यंत्र किया गया होगा | इस संदर्भ में रोटियों को घुमाने की प्रक्रिया को इसका सबूत मान लिया गया |” 4
रोटियों के प्रश्न पर विचार करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहासकारों द्वारा जो तथ्य बताए जा रहे हैं, वे अन्य स्रोतों के आधार पर ही बताए जा रहे हैं; लेकिन उस समय उस विद्रोह की स्थितियों को बनते, विद्रोहियों की मानसिकताओं और विद्रोह होते जिन लोगों ने अपनी आँखों से देखा, उनकी आँखों-देखी बात को कैसे आसानी से झुठलाया जा सकता है? ज्योतिबा फुले उन्हीं लोगों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी युवावस्था में हुए उस विद्रोह को अपनी आँखों से देखा, समझा और उसका उल्लेख किया | उसके संबंध में निश्चित रूप से अन्य स्थानों से विविध सूचनाएँ भी प्रथम स्रोतों से (अपनी आँखों से घटनाओं आदि को देखनेवाले अन्य लोगों द्वारा) उनके पास पहुँच रही होंगी | उन्हीं सूचनाओं में उन्होंने रोटियों के संदेशवाहक के रूप में प्रयोग को भी देखा-जाना; अन्यथा क्यों वे उस विद्रोह को ‘चपाती विद्रोह’ कहते?
अब यहाँ सबसे पहले यही समझने की जरूरत है कि ब्राह्मणों ने एक स्थान से दूसरे स्थान तक विद्रोह का संदेश पहुँचाने के लिए रोटी और कमल का ही प्रयोग क्यों किया होगा, किसी अन्य चीज का क्यों नहीं?
रोटी और कमल : धर्म-प्राण गरीब-जनता की भावना का दोहन
सामान्य रूप से रोटी, अमीर से लेकर गरीब तक, हर व्यक्ति की सबसे पहली जरूरत होती है; जबकि कमल का संबंध हिन्दुओं की धार्मिकता से है, सवर्णों के बहुत-से देवी-देवता चित्रों आदि में कमल के फूल पर ही बैठे या खड़े दिखाई देते हैं | इसलिए इसपर छानबीन जरूरी है |
सदियों से ‘रोटी’ समाज के सबसे गरीब व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन के केंद्र में रही है, जिसके लिए वह पूरी जिंदगी जद्दोजहद ही करता रह जाता है | इसलिए यदि बेहद ग़रीब व्यक्ति को भी अपने पक्ष में करना हो, तो रोटी के माध्यम से उसकी भावना को झकझोरना और उसे अपने पक्ष में ले आना बहुत आसान होता है; वह उसकी और उसके बच्चों की भूख का इलाज़ जो ठहरी | इसलिए संदेह होता है कि क्या भारतीय-आबादी में मुट्ठीभर ब्राह्मणों ने अपने वर्चस्व की पुनर्स्थापना के लिए किए जा रहे ब्राह्मणीय-षड्यंत्रों में बहुसंख्यक गरीब-जनता को शामिल करने के लिए उसकी भूख से जुड़ी रोटी के प्रति उसकी भावना का दोहन करने के लिए ही ‘रोटी’ को अपना संदेशवाहक बनाया?
इसी तरह ‘कमल’ को यदि ब्राह्मणों द्वारा एक धार्मिक प्रतीक बनाया गया हो तो इसमें क्यों आश्चर्य होना चाहिए? सदियों से ब्राह्मणों की अनेक पूजा-विधियों में अलग-अलग प्रकार के कमल के फ़ूलों का प्रयोग होता ही रहा है | ऊपर भी कहा गया है कि हिन्दुओं के कई देवी-देवता कमल के फ़ूल पर ही विराजमान होते दिखाए जाते हैं | इसलिए जनमानस में यह धारणा बिठा-सी दी गई है कि कमल-पुष्प हिन्दू देवी-देवताओं का प्रिय फ़ूल है | इस तरह एक दैवीयता का आवरण कमल के चारों ओर लपेटकर उसे हिन्दू-धर्म के एक प्रतीक की तरह देखा और दिखाया जाता है | इसलिए इसमें क्यों आश्चर्य होना चाहिए, यदि सवर्ण-जनता की धार्मिक-भावना को झकझोरकर उसका दोहन करने के लिए ‘कमल-पुष्प’ का प्रयोग किया गया हो?
कुछ इतिहासकार कुछेक बड़ी ही दिलचस्प बातें बताते हैं, जिनपर बहुत धैर्य से गौर करने की ज़रूरत है—
“किसानों के रोष का शिकार जमींदार नहीं बल्कि सरकार थी | यह संघर्ष संपत्तिशाली वर्ग के विरुद्ध बिल्कुल नहीं था | इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि इससे जमींदार-विरोधी भावना अथवा नए उभरते हुए समृद्ध किसानों के विरुद्ध संघर्ष के प्रमाण नहीं मिलते | अधिकतर उन्हीं जमींदारों पर प्रहार किया गया जिन्होंने ब्रिटिश लगान व्यवस्था व कानूनों का लाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी |…कई स्थानों पर किसानों ने स्वतः ही वह भूमि जमींदार को लौटा दी, जिन्हें बेदखल करके सरकार ने उन्हें वह भूमि दे दी थी |” 5
यहाँ कई बेहद चौंकानेवाले सवाल एक साथ खड़े होते हैं? बिना किसानों को गुमराह (ब्रेनवाश) किए यह सामान्य हालातों में कैसे संभव है कि जिन किसानों पर जमींदार जुल्मो-ज्यादतियों की सारी हदें पार करते रहे थे, उन्हीं जमींदारों के प्रति गरीब किसानों का ऐसा अनुकूल व्यवहार हो? यह कैसे हो सकता है कि भोले-भाले किसानों ने यह जानते हुए कि अंग्रेज़ों द्वारा उनको दी गई वे ज़मीनें उनकी ग़रीबी का इलाज़ हो सकती थीं और उनके बच्चों का पेट भर सकती थीं, वे जमीनें अपनी मर्जी से ही अत्याचारी-ज़मींदारों को सौंप दी हों? और यह कैसे संभव है कि उनको गलत जानकारी देकर गुमराह किए बिना ही उनको इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं किया गया था, कि भोले-भाले किसान अपनी मर्जी से जमींदारों को वे जमीनें लौटा दें? तब यह विश्वास के साथ कैसे मान लिया जाए कि किसानों को गुमराह करने (ब्रेनवाश) में उन ‘रोटियों’ को जरिया नहीं बनाया गया होगा, जिसके लिए वे पूरा जीवन संघर्ष करते रहते हैं? दूसरी बात कि जमीन पर पारंपरिक मालिकाना हक़ रखनेवाले किसान तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों के ही हो सकते थे; इसलिए यदि सवर्ण-किसानों ने जमींदारों के प्रति नरमी बरती, तो वह तो स्वाभाविक ही होगा |
ऐसे ही सवाल ‘संपत्तिशाली वर्गों’ के विरुद्ध जनता के द्वारा कोई भी नकारात्मक व्यवहार नहीं किए जाने के बारे में भी उठते हैं | इसलिए रोटियों के प्रयोग के मामले में बिपिन चन्द्र जैसे इतिहासकारों के तर्क को संदेह की दृष्टि से देखे जाने की ज़रूरत है | तथ्य तो यही कहते हैं कि ‘रोटियों’ का एक ‘संचार-माध्यम’ और संदेशवाहक की तरह प्रयोग किया गया था; उक्त विद्रोह के समय मौजूद ज्योतिबा फुले द्वारा इसका बार-बार जिक्र किया जाना इसका एक ठोस प्रमाण है, इतिहासकार रणजीत गुहा आदि भी इसके प्रयोग को स्वीकारते हैं |
अंग्रेजों ने विद्रोह को षड्यंत्र क्यों कहा?
हम ऊपर देख चुके हैं कि अंग्रेजों ने अपनी अनेक रिपोर्टों में गाँव-गाँव रोटियों के प्रसार को षड्यंत्र का हिस्सा माना; ऐसी रिपोर्टों का सरकारी-फ़ाइलों से निकलकर अभी सामने आना बाक़ी है, जिन्हें शायद बड़ी चालाकी से दबाकर रखा गया है | रिपोर्ट में ब्रिटिश-अधिकारी इसका प्रमाण भी देते हैं, जिसमें वे आशंका जताते हैं कि जितनी तेज़ी से विद्रोह फ़ैला, वह बिना किसी षड्यंत्र के संभव ही नहीं | इसे इतिहासकारों द्वारा दी गई अन्य जानकारियों के माध्यम से भी समझा जा सकता हैं |
जब नई एनफ़ील्ड राइफलों में प्रयोग होनेवाले कारतूसों के बारे में कई साधु-सन्यासियों ने (अर्थात् ब्राह्मणों ने) गाय और सूअर की चर्बी होने की अफ़वाहें उड़ाई, तो ब्रिटिश-अधिकारियों से न केवल इसका खंडन किया, बल्कि उस राइफल और कारतूसों का प्रयोग भी बंद कर दिया और उसकी सूचना भी जनता को देने की कोशिश की | लेकिन ये दोनों सूचनाएँ जनता तक नहीं पहुँच सकीं—
“परन्तु इस असंतोष को देखते हुए सरकार ने इन कारतूसों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी | परन्तु उस समय के संचार के साधनों को देखते हुए इतने बड़े क्षेत्र में शीघ्र ही किसी अफवाह का खंडन कर पाना संभव नहीं था |” 6
तब प्रश्न उठता है कि बिना किसी ख़ास संचार-माध्यम के विद्रोहियों द्वारा फैलाई जा रही सूचनाएँ कैसे इतनी तेज़ी से फ़ैल गईं? क्या यह संदेह की बात नहीं कि क्यों और कैसे एक के द्वारा दी जा रही सूचना जनता तक जल्दी नहीं पहुँच पाई, जबकि दूसरे द्वारा दी जा रही सूचना आग की तरह फ़ैली?
भारत में जब किसी राजसत्ता को उखाड़ फेंकना होता था, या किसी अत्याचारी-शासक के प्रति अनुकूल माहौल बनाना होता था, तो इसके लिए ब्राह्मण एक चलते-फिरते सशक्त और प्रभावशाली ‘संचार-माध्यम’ की भूमिका निभाते थे | इस काम में निरंतर घूमनेवाले साधु-सन्यासियों की बहुत ही कारगर भूमिका देखी जा सकती थी | देवऋषि-नारद, क्रोधी-दुर्वाशा, परशुराम, वशिष्ठ आदि मिथकीय चरित्र मिथक-कथाओं में यही काम करते देखे जा सकते हैं | इतिहास में शूद्र-शासक धनानंद के ख़िलाफ़ इसी तरीक़े से जनता को गुमराह (ब्रेनवाश) करके मानसिक रूप से सत्ता-पलट के लिए तैयार किया गया था | मगध-सम्राट बिम्बिसार और उसके महामंत्री वर्षकार ने वैशाली, चंपा (वर्तमान भागलपुर) आदि राज्यों को ध्वस्त करके हड़पने के लिए इसी युक्ति का सहारा लिया था | ऐसे सैकड़ों उदाहरण भारतीय-इतिहास में देखने को मिलेंगे | इसलिए यदि अंग्रेजों के समय भी ब्राह्मणों द्वारा ऐसा किया गया, तो इसमें क्या आश्चर्य?
“धार्मिक नेताओं और परंपरागत रूप से बौद्धिक तबके ने भी विदेशी शासन के प्रति नफ़रत भड़काने और विद्रोह को उपजाने में सक्रिय भूमिका निभाई |” 7
‘धार्मिक नेता’; अर्थात् हिन्दुओं में ‘साधु-सन्यासी’, मंदिरों के पंडे-पुजारी, पुरोहित आदि एवं ‘मुसलमानों में ‘मौलवी’ आदि | और ‘परंपरागत रूप से बौद्धिक-तबका’; अर्थात् आर्यों में समस्त ‘ब्राह्मण-वर्ग’ (राजा, नवाब, सामंत, जमींदार, कथावाचक, ज्योतिषी, दरबारी, कवि, शिक्षक आदि के रूप में) और मुसलमानों में उच्च-वर्गीय शिक्षित मुसलमान (जैसे कवि, शायर, हाकिम, शिक्षक-मौलवी आदि) |
हिन्दू-मुसलमानों के ये दोनों वर्ग (धार्मिक-नेता और परंपरागत बौद्धिक-वर्ग) जनता से हमेशा किसी-न-किसी रूप में जुड़े ही रहते थे और जनता इनके तथाकथित ज्ञान को देखते हुए हमेशा इनसे अभिभूत भी रहती थी और इनपर विश्वास भी करती थी | इसी विश्वास का फ़ायदा उठाकर ये दोनों वर्ग अपने-अपने संपर्क में आनेवाली हिन्दू-मुस्लिम जनता को अनेक प्रकार से गुमराह करते हुए पुरोहित-वर्गों और सामंत-वर्गों के स्वार्थ-सिद्धि के लिए तैयार करते थे | 1857 के विद्रोह के समय भी यह काम किया गया हो, तो क्या आश्चर्य? इतिहास के कुछ दबे-ढँके पन्ने भी इसके साक्षी हैं—
“मेरठ के उत्तर में बड़ौत तहसील में शाहमल विद्रोहियों के नेता के रूप में उभर कर आया | वह इस तहसील के बिजनौर गाँव का जमींदार था और यहाँ की आधी जमीन का मलिका था |…शाहमल के समर्थक रात को गाँव-गाँव जाकर लोगों को अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए उकसाते थे | जिन गाँवों के लोगों ने अंग्रेजी सरकार को लगान की किस्त दे दी थी और उनकी सहायता कर रहे थे उन्हें सबक सिखाने के प्रयास किए गए |” 8
जनता ने ‘रोटी’ और ‘कमल’ के संदेश को किस रूप में लिया?
हम ऊपर देख चुके हैं कि किस तरह चौकीदारों के माध्यम से रोटियाँ, कमल के फ़ूल और मौखिक संदेश एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचाए जा रहे थे और ग्रामीणों को भी इसे कई गाँवों तक पहुँचाने का मौखिक-संदेश/आदेश दिया जा रहा था | लेकिन ऐसे संदेशों को पाकर बेहद साधारण-जनता की मनःस्थिति क्या होती थी, यह समझना भी बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इससे उस विद्रोह के बहुत-सारे छिपे हुए पक्ष खुलकर सामने आते हैं—
“जहाँ तक रोटियों के साथ दिए जाने वाले संदेश का सवाल है, ऐसा लगता है कि लोगों ने इसका अलग-अलग मतलब लगाया | इस संदर्भ में रणजीत गुहा इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि यह संदेश मौखिक था इसलिए संचारण के दौरान लोगों की अपनी पूर्व-धारणाओं, घबराहट व भयबोध के अनुरूप यह बदलता रहता होगा | वे यह भी कहते हैं कि रोटियों के इस तरह बँटने से धुँआ अधिक हुआ और रौशनी कम हुई | ऐसा तो लगा कि कुछ होने वाला है परंतु क्या होगा या लोगों को क्या करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है, इस पर प्रकाश नहीं पड़ सका |
ऐसे में जब अन्य कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों व सेना के बैरकों में प्रबल सरकार-विरोधी भावना व्याप्त हो रही थी, महामारी का वह प्रतीकात्मक एजेंट (रोटी) एक अपरिभाषित डर का संचारक बन गया | इसने आनेवाले संकट की घंटी बजाई, जो सुनी तो सबने, परन्तु किसी को भी यह समझ में नहीं आया कि क्या होनेवाला है | इस प्रकार रोटियों का बाँटा जाना सामूहिक चिंता व घबराहट का सूचक बन गया |” 9
अब यही से कई प्रश्न जन्म लेते हैं | रणजीत गुहा क्यों कह रहे हैं कि जनता ने रोटियों और कमल के माध्यम से दिए जाने वाले संदेश का अलग-अलग मतलब लगाया? यदि यह जनता का आन्दोलन था, तो वही जनता इससे भयभीत क्यों हुई? जनता को रोटियों और कमल-पुष्पों द्वारा दिया जाने वाला संदेश उसमें घबराहट और चिंता क्यों भर रहा था? भयभीत और चिंतित होनेवाली जनता समाज के किस हिस्से से थी? यहाँ एक और सवाल, रणजीत गुहा क्यों कह रहे हैं कि जनता को “ऐसा तो लगा कि कुछ होने वाला है परंतु क्या होगा या लोगों को क्या करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है, इस पर प्रकाश नहीं पड़ सका”…? क्या संदेश भेजनेवाले ब्राह्मणों और मौलवियों-मुल्लाओं तथा हिन्दू-मुस्लिम राजाओं, सामंतों, जमींदारों आदि ने जनता को जानबूझकर उस समय यह नहीं बताया कि वे एक विशाल और देशव्यापी विद्रोह की योजना बना रहे हैं? यदि हाँ, तो क्यों? क्या जनता में जानबूझकर बहु-तरफ़ा डर, आशंका, चिंता आदि भरने के लिए ऐसा किया गया; ताकि हर हाल में वह उन्हीं तथाकथित ‘विद्रोहियों’ का साथ देने को विवश हो जाए? भयभीत और आशंकित करने के मामले में कहीं ‘विद्रोहियों’ का एक लक्ष्य कहीं हिन्दू-मुसलमानों की वह दलित-शूद्र-जनता (महिलाओं सहित) भी तो नहीं थी, जो अंग्रेजों के शासन में वर्चस्ववादी हिन्दू-मुसलमानों, ख़ासकर हिन्दू, की व्यवस्थाओं को तोड़कर शिक्षा हासिल करने, साफ़ और नए कपड़े पहनने, जातीय-बंधनों को तोड़कर ब्रिटिश-सरकार में नौकरी करने का दुस्साहस करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी और ‘विद्रोही’ उसी दलित-शूद्र जनता को सवर्ण-ग्रामीणों द्वारा घेरकर भयभीत करना चाहते थे?
‘विद्रोहियों’ ने ग्रामीणों के लिए रोटी और कमल के साथ-साथ क्या मौखिक-संदेश भेजा था, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है | यदि सरकारी फाइलों में से वे तथ्य बाहर आ गए, तो कौन जाने कि पिछली पौने दो सदियों से जिन वर्चस्ववादी शासक-वर्गीय स्त्री-पुरुष ‘विद्रोहियों’ की देशभक्ति, महान-त्याग, साहस और वीरता की गाथाएँ गाई जा रही हैं, उनके ऐसे ‘गुणों’ की पोल खुल जाए और उनका वास्तविक क्रूर और भयानक चेहरा सामने आ जाए? कौन जाने सवर्णों के उस विशाल षड्यंत्र का भेद खुल जाए और उस तथाकथित ‘महान जन-विद्रोह’ की अभी तक बनी हुई सम्मानजनक छवि मिट्टी में मिल जाए और जनता सवर्णों (वर्चस्ववादी-मुस्लिम-समुदायों की भी) की मानसिकता की लानत-मलानत करने लगे?
निष्कर्ष
उस तथाकथित महान ‘जन-विद्रोह’ और ‘सैनिक-विद्रोह’ के बारे में यह सत्य पूरी तरह से उजागर हो चुका है कि उस विद्रोह का लक्ष्य ऐसे ब्रिटिश-शासन को उखाड़ फ़ेंकना था, जिसके कारण भारत के दलितों, शूद्रों, महिलाओं के ऊपर से सवर्णों, उनमें भी सर्वाधिक ब्राह्मणों का वर्चस्व टूटने लगा था; इसी तरह मौलवियों-मुल्लाओं का वर्चस्व और नियंत्रण भी उनके समाज के वंचितों और स्त्रियों पर से टूटना शुरू हो गया था; राजाओं, सामंतों, जमींदारों की सत्ता भी छिनने लगी थी; व्यापारियों के भी लाभांश में कमी आई थी | लेकिन इनमें से किसी के भी चिंतन में जनता कहीं भी नहीं थी | ये सभी उसी पुरानी व्यवस्था को फिर से स्थापित करना चाहते थे, जिसमें इनकी दबंगई और वर्चस्व कमज़ोर समाज पर फिर से स्थापित हो सके |
“लेकिन उनके पास न तो कोई राजनीतिक दृष्टि थी और न भविष्य का कोई साफ़ नक्शा | सब अपने अतीत के कैदी थे और मूलतः अपने विशेषाधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ रहे थे |” 10
और वे विशेषाधिकार कौन-से थे, जिनको पाने के लिए वे लड़ रहे थे, यह बताने की ज़रूरत नहीं, आज वह स्पष्ट है; अर्थात् जातीय-सामाजिक-विशेषाधिकार, राजनीतिक-सत्ता और भारत के मूल-निवासियों और महिलाओं पर अपना दबदबा और वर्चस्व |
लेकिन अपनी चतुराई और काबिलियत से अंग्रेजों ने इस विशाल षड्यंत्र को असफ़ल कर दिया और अपनी आगे की रणनीति ऐसी बनाई, जिसमें उन्होंने महिलाओं, दलितों, शूद्रों आदि के हालातों को बेहतर बनाने की गति बहुत ही धीमी कर दी; ताकि अहंकारी-सवर्णों और वर्चस्ववादी-मुसलमान मौलवियों एवं शासकों के अहंकार और वर्चस्व को अधिक ठेस न लगे, लेकिन अंग्रेज़ों की इस सावधानी से बेबस जनता मारी गई—
“1858 के बाद अंग्रेज अफसरों ने यह महसूस किया कि समाज में स्थिरता बनाए रखने के लिए परंपरागत रुढ़िवादी ढाँचा ही बनाए रखना श्रेयस्कर है |” 11
इसलिए वर्त्तमान आरएसएस ने यदि अपनी राजनीतिक-पार्टी भाजपा का चिह्न ‘कमल’ बनाया है, तो इसके तार किसी-न-किसी रूप में उसी ख़ूनी-विद्रोह से जुड़े दिखाई देते हैं | भाजपा-आरएसएस का सबसे बड़ा उद्देश्य या लक्ष्य भी बिल्कुल वही है, जो तत्कालीन ब्राह्मण-विद्रोहियों का था— ब्राह्मण-वर्चस्व और सवर्णी-सत्ता की पुनर्स्थापना तथा स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, शूद्रों को उनकी सदियों पुरानी औकात में पहुँचाना |
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सन्दर्भ-सूची
- “…चपाती विद्रोह का सूत्रधार ब्राह्मण पेशवा है…” पृष्ठ-194, ज्योतिबा फुले, फुले रचनावली-2, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2009
- पृष्ठ-244, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, सितम्बर 2003
- पृष्ठ-6, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1998
- पृष्ठ-250, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’ आधुनिक भारत का इतिहास
- पृष्ठ-251, वही
- पृष्ठ-243, वही
- पृष्ठ-12, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष
- पृष्ठ- 245-246, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास
- पृष्ठ-250-251, वही
- पृष्ठ-8, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष
- पृष्ठ-264, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास
–डॉ. कनक लता