जब अंग्रेजी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ भारत आई और उसने अपने पैर जमा लिए, तब अपने प्रभाव को व्यापक बनाने के ऊदेश्य से और कुछ न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के लिए भी, उसने कई महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली कानून बनाए | उसी के साथ उन कानूनों के पालन की महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यवस्थाएँ भी की गईं और न्यायपालिका के जरिए विविध अपराधों के संबंध में न्याय की व्यवस्था भी की गई |
वॉरेन हेस्टिंग्स के समय (1772-1785 ई.) भारत में जो न्याय-प्रणाली स्थापित हुई, उसने कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें कॉर्नवालिस (1786-1793 ई., पुनः 1805 ई.), विलियम बेंटिक (1828-1835 ई.) एवं लॉर्ड मेकाले (1834-1838 ई.) जैसे ब्रिटिश अधिकारियों ने कई महत्वपूर्ण सुधार किए | आगे चलकर 1857 के विद्रोह के बाद ‘समान दंड प्रणाली’ को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से 1861 में लागू किया गया |
ब्रिटिश न्याय-प्रणाली की विशेषताएँ
अंग्रेजों की इस कानून-व्यवस्था, न्याय-प्रणाली और दंड-प्रणाली की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी— कानून का शासन (रूल ऑफ़ लॉ) और सरकार के नियंत्रण से अलग एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था | इसमें दीवानी (सिविल) एवं फ़ौजदारी मामलों को अलग रखा दिया गया, इन दोनों के लिए अलग-अलग अदालतें बनाई गईं थीं | दूसरी विशेषता, जिसके कारण ब्रिटिश न्याय-प्रणाली ब्राह्मणों को ‘अन्यायपूर्ण’ और अपने ख़िलाफ़ लगी और उनको विवश किया कि वे अनपढ़-जनता को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाएँ, वह थी, एक समान दंड की व्यवस्था | दरअसल अंग्रेजों ने किसी भी अपराध के मामले में सभी भारतीयों के लिए एक समान दंड की व्यवस्था की थी; जिसमें अपराधियों का अपराध साबित होने पर बिना उनकी जाति या वर्ग देखे उनको सज़ा दी जाती थी |
सवर्ण-समाज को तकलीफ क्यों हुई?
सवाल है कि सभी भारतीयों के लिए एक समान ब्रिटिश कानूनों और दंडों की व्यवस्था के कारण सवर्णों को, उनमें से सबसे अधिक ब्राह्मणों को, इतनी तकलीफ और ऐतराज क्यों हुए, कि उनको वे कानून ‘अन्यायपूर्ण’ और अपने ख़िलाफ़ लगे और उन्होंने अंग्रेजों के विरोध में भोली-भाली जनता को बरगलाना शुरू किया और उनको उखाड़ फेंकने के लिए अनपढ़-जनता को उकसाया? इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब उन्हीं कानूनों के भीतर मौजूद है |
- समाज पर सवर्णों के वर्चस्व का टूटना
वास्तव में जब अंगेजों ने ‘समान दंड प्रणाली’ और कानून का शासन (रूल ऑफ़ लॉ) स्थापित किया, तो इससे सबसे अधिक ब्राह्मणों के अहम् पर चोट पड़ी; वह भी दो तरफ़ा |
पहला यह कि एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण और दलित को एक ही दंड दिए जाने से ब्राह्मण और दलित में कोई अन्तर नहीं रहा | इस स्थिति ने ब्राह्मण के अहम् को बहुत ही बुरी तरह घायल कर दिया | जबकि सवर्णों की, और उनमें भी सबसे अधिक ब्राह्मणों की स्थिति विभिन्न अपराधों के लिए दंड दिए जाने के मामले में अग्रेजों के (और कुछ अंश में मुसलमानों के भी) भारत में आने से पहले बहुत ही अलग और ख़ास थी | यदि उस ‘ख़ास स्थिति’ को देखने-समझने की कोशिश की जाए, तो पता चलता है कि आर्यों ने भारत में अपने शासन, सत्ता और वर्चस्व की स्थापना के बाद जब समाज के हर वर्ग के लिए न्याय-व्यवस्था और दंड-व्यवस्था बनाई, तो उसमें ब्राह्मणों को उनके क्रूर-से-क्रूरतम और भयानक अमानवीय अपराधों के लिए भी बेहद मामूली और नाममात्र के दंड की व्यवस्था की थी; जबकि दूसरी तरफ, आदिवासियों, दलितों, शूद्रों और महिलाओं के लिए बेहद मामूली अपराधों के मामले में भी कठोर-से-कठोरतम और अमानवीय दंडों की व्यवस्था की थी |
लेकिन आर्यों ने इस तरह के दंड-विधान क्यों और कैसे बना दिए, जिसमें ब्राह्मणों को लगभग दंड-मुक्त रखा गया था और महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और शूद्रों के लिए कठोरतम दंड की व्यवस्था थी?
वास्तव में ऐसा इसलिए हो पाया, क्योंकि कानून और दंड की व्यवस्था बनानेवाले स्वयं वे ब्राह्मण ही थे, इसलिए स्वाभाविक है कि उन्होंने अपनी जाति को किसी भी बड़े-से-बड़े, जघन्य-से-जघन्य अपराध के लिए भी लगभग दंडमुक्त रखा, केवल नाममात्र के दंड की व्यवस्था देकर; जबकि सभी वंचित-वर्गों को मामूली अपराध के लिए कठोरतम दंड की व्यवस्था की | कई बार तो इन वंचित-समाजों को बिना किसी अपराध के भी कठोरतम दंड दिया जाता था, केवल उस तथाकथित ‘अपराध’ के लिए जिनके कारण किसी भी रूप में किसी भी अंश में ब्राह्मणों सहित किसी भी सवर्ण की नस्लीय और जातीय-श्रेष्ठता के अहंकार को तनिक-सी भी ठेस लगती थी | केवल सवर्णों की ओर आँख उठाकर देखने-भर के लिए या तनिक-सी भी ऊँची आवाज में उनसे बात करने के लिए भी उनको भयानक दंड दिए जाते थे | लेकिन यदि कोई ब्राह्मण किसी वंचित की हत्या भी कर देता था, तो उसके लिए शायद ही ब्राह्मण को कोई दंड दिया जाता था |
इसलिए यह समझना जरूरी है कि सनातनी-आर्य-परंपरा में जिन अपराधों के लिए ब्राह्मणों को कोई ख़ास या बड़ा दंड नहीं दिया जाता था, अब उन्हीं अपराधों के लिए अंग्रेजों के शासन में उनको दंडित किया जाने लगा; वह भी एकदम दलितों की तरह | ब्राह्मण समझ रहा था कि इस तरह की चीजों से उसमें और समाज के सबसे ‘निम्न’ और घृणित’ समझने जाने वाले दलितों में कोई अंतर नहीं रहा | हालाँकि इतिहासकार इसके बारे में स्पष्ट बात नहीं करते, फिर भी उनकी किताबों से कुछ संकेत तो मिल ही जाते हैं—
“अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति के फलस्वरूप पश्चिमी विद्या प्रणाली के प्रसार के कारण, एक समान दंड संहिता (1861) तथा दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal, Prosedure Code) (1872) के लागू होने से, रेलों के विस्तार से (जिनमें प्रत्येक व्यक्ति टिकट मोल लेकर किसी भी उपलब्ध स्थान पर बैठ सकता था), राष्ट्रीय जागरण के विकसित होने से, समानता तथा सामाजिक समतावाद पर आधारित आधुनिक राजनैतिक विचारों के प्रसार, सभी ने एक ऐसा सामाजिक तथा राजनैतिक वातावरण बना दिया, जिसमें जाति-प्रथा को न्यायसंगत कहना असम्भव हो गया |” 1
हम देख सकते हैं कि कई कारणों में एक कारण ‘एक समान दंड संहिता (1861)’ और दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal, Prosedure Code) (1872) को भी बताया जा रहा है | हालाँकि यहाँ यह भी पता चलता है कि इनको 1861 और 1872 में मुकम्मल रूप दिया गया, लेकिन इन कानूनों की नींव तो इससे बहुत पहले से पड़नी शुरू हो गई थी | इतिहासकार यह भी बता रहा है कि उसने जितनी भी चीजों के नाम गिनाए हैं, उनमें से ‘सभी ने एक ऐसा सामाजिक तथा राजनैतिक वातावरण बना दिया, जिसमें जाति-प्रथा को न्यायसंगत कहना असम्भव हो गया |’
दूसरी बात यह कि ब्राह्मणों द्वारा अक्सर ही वंचितों पर अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए, उनके जीवन पर अपने एकान्तिक नियंत्रण की घोषणा के लिए बिना किसी अपराध के लिए भी उनके साथ भयानक-से-भयानक व्यवहार किया जाता था | अंग्रेजों के भारत आने के बाद भी, जब उनका शासन अभी भारतीय-समाज पर ठीक से स्थापित नहीं हुआ था, ब्राह्मणों की यह मनःस्थिति तब तक नहीं बदली दी, जब तक अंग्रेजों ने इनके ख़िलाफ़ कठोर कानून नहीं बनाए | इसका बहुत ठोस प्रमाण है, उस समय की जानी-मानी पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ में प्रकाशित सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले की 11 साल की एक विद्यार्थी मुक्ताबाई साल्वे का एक लेख; जिसमें उस बालिका ने ब्राह्मण-पेशवाओं की क्रूरताओं के बारे में लिखा है | यह लेख (‘मंग महाराच्या दुखविसाई’; अर्थात् ‘मंग/मांग-महारों की व्यथा’) उस पत्रिका में एक विद्रोही निबंध के रूप में 1855 में प्रकाशित हुआ था, 1857 के प्रसिद्ध तथाकथित ‘जनविद्रोह’ से भी पहले | उस लेख से भी पता चलता है कि किस-किस तरह के तथाकथित “अपराधों” के लिए वंचित-समाजों, खासकर दलितों, को ब्राह्मण-पेशवाओं द्वारा दंड दिया जाता था—
“बाजीराव (बाजीराव द्वितीय, जिसकी वीरता और अन्य सनातनी-गुणों का गुणगान करते सवर्ण-समाज आज भी थकता नहीं है) के राज्य में यदि कोई मंग और महार संयोग से किसी व्यायामशाला के सामने से गुजर जाता था, तो वह उसके सिर को काटकर वहीं बल्ला और गेंद खेलते थे | उसका सिर गेंद और पेशवाओं की तलवार उनका बल्ला होता था | जब केवल उनके दरवाज़े से गुजरने के लिए हमें दंड मिलता था, तो शिक्षा पाने का या सीखने की स्वतंत्रता का प्रश्न कहाँ था? जब कोई मंग या महार किसी प्रकार से पढ़ना या लिखना सीख जाता था और बाजीराव को इसका पता चलता तो वह कहता था कि एक मंग और महार को शिक्षित करना किसी ब्राह्मण की नौकरी को छीन लेना है | वह हमेशा कहता था, “उन्होंने शिक्षित होने का साहस कैसे किया? क्या ये अछूत इस बात की आशा रखते है कि हम अपने शासकीय कार्यों को उन्हें सौंपकर स्वयं उनके दाढ़ी बनाने का सामान लेकर, उनकी विधवाओं के सिर मूंड़ें?” और इस टिपण्णी के साथ वह उन्हें दंड देते थे |…” 2
इसलिए यह समझने की जरूरत है कि अंग्रेजों द्वारा सभी भारतीयों के लिए ‘एक समान दंड’ और ‘एक समान कानून’ बनाए जाने से इसी विशिष्ट ब्राह्मणीय-स्थिति पर चोट पड़ी | अंग्रेजी कानून के बन जाने से ब्रिटिश-सरकार ब्राह्मणों को भी दलितों या अन्य वंचित-समाजों के ऊपर उनके उन अपराधों के लिए दंडित करने लगी | इससे सवर्ण-ब्राह्मणों और ब्राह्मणेत्तर-सवर्णों की ऐसी पाशविक-मनमानी पर भी काफ़ी हद तक प्रतिबंध-सा लग गया | जाहिर है कि इससे वह तिलमिला उठा था | इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि अपनी इसी विशिष्ट जातीय-स्थिति को वापस पाने के लिए सबसे अधिक ब्राह्मण ही छटपटा रहा था—
“इन विद्रोहों का नेतृत्व करने वाले अर्ध-सामंती लोग, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े हुए थे और उनका नजरिया परंपरागत था | उस समय भी वे अपनी पुरानी दुनिया में जीते थे…| इसका स्वरूप, आदर्श, और सांस्कृतिक धरातल सदियों पुराना था | इसका बुनियादी लक्ष्य शासन और सामाजिक संबंधों के पूर्ववर्ती रूपों को ही फिर से स्थापित करना था |” 3
यहीं पर यह बात स्पष्ट हो जाता है कि सवर्णों के ‘बुनियादी लक्ष्यों’ में ‘सामाजिक संबंधों के पूर्ववर्ती रूपों’ को ‘फिर से स्थापित’ करने का क्या अर्थ हो सकता है? जाहिर है कि यहाँ उसी संबंध की बात की जा रही है, जिसमें सवर्ण-समाज अपनी इच्छानुसार वंचितों के साथ अस्पृश्यता और अत्याचारों की हर सीमा को कभी भी तोड़ने को ‘स्वतंत्र’ हो; स्त्रियों पर हर तरह के अत्याचारों के लिए ‘स्वतंत्र’ हो |
- अंग्रेज बनाम ब्राह्मण : नस्लीय-श्रेष्ठता के अहम् पर चोट
ब्राह्मणीय-अहंकार पर दूसरी जबर्दस्त चोट तब पड़ी, जब अंग्रेजों ने अपने नियम-कानूनों में अंग्रेजों और सभी भारतीयों में भेदभाव किए, जिसमें ब्राह्मण भी शामिल थे | इससे ब्राह्मणों को यह दुःख हुआ कि अंग्रेजों ने उनको भी अपने साथ ‘विशिष्ट-वर्ग’ में शामिल करके उनको अपने बराबर का दर्जा नहीं दिया, उनको विशिष्ट सम्मान नहीं दिया, उन्हें विशेषाधिकार नहीं दिया—
“यूरोपीय अधिकारी वर्ग भारतीयों के प्रति बहुत कठोर तथा असहनीय थे | वे भारतीयों को काले (nigger) अथवा सूअर की संज्ञा देते थे | उनमें उत्तम से उत्तम लोग भी बर्ड तथा टामसन (Bird and Thomason) की भांति प्रत्येक अवसर पर भारतीयों का अपमान करने से नहीं चूकते हैं |” 4
जो दुर्भावनापूर्ण दुर्व्यवहार ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों ने भारत की वंचित-जातियों के साथ किया, अब वही दुर्व्यवहार जब उनके साथ अंग्रेज कर रहे थे, तो उन्हें बुरा लग रहा था | वे न तो समझ पाए और न ही स्वीकार कर पाए कि जिस तरह हजारों सालों से दलितों, शूद्रों, आदिवासियों, स्त्रियों को अपमानित करना, दुःख पहुँचाना, नीचा दिखाना ब्राह्मणों का उद्देश्य रहा था; ठीक उसी तरह अंग्रेजों का भी था भारतीयों को अपमानित करना, दुःख पहुँचाना, नीचा दिखाना | अंग्रेज अपने कंधों पर ‘ह्वाइट बर्डेन’ लेकर दुनिया-भर में अपना राज्य-प्रसार कर रहे थे |
इस तरह अंग्रेज और ब्राह्मण, दोनों ही अपनी-अपनी श्रेष्ठता और महानता के अहंकार में चूर थे, तो भला क्यों अंग्रेजों का ब्राह्मणों के साथ समानतापूर्ण व्यवहार होता? क्या ब्राह्मणों ने भारत के मूल-निवासियों के साथ समानतापूर्ण व्यवहार किया था, कि उनको अपने लिए अंग्रेजों से समानतापूर्ण व्यवहार की उम्मीद करनी चाहिए थी? क्यों सवर्णों को उन्हीं व्यवहारों से तकलीफ हुई, जो वे भारत के मूल-निवासियों से उससे भी अधिक बुरे ढंग से करते थे?
- वंचितों में सवर्णों का डर कम होना
ब्राह्मणों सहित सभी सवर्ण-वर्गों की ब्रिटिश-कानूनों से एक और शिकायत थी कि सवर्णों ने सैकड़ों-हजारों सालों की कोशिशों से अपने प्रति दलितों, शूद्रों और स्त्रियों में जो डर पैदा किया था और उसे विविध तरीकों से कायम रखा था, वही डर अब धीरे-धीरे कम होना शुरू हो गया था, जिसका कारण थे वे ब्रिटिश कानून; वे ही ब्रिटिश कानून, जो एक ओर तो सवर्णों के हाथ बाँधते थे, तो दूसरी ओर दलितों, शूद्रों और स्त्रियों को निडर बना रहे थे |
हालाँकि ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ द्वारा बनाए जा रहे दंड एवं न्याय-प्रणाली से संबंधित नियम-कानून मुख्य रूप से अंग्रेजों की अपनी सुविधा को ही ध्यान में रखकर बनाए जाते थे, लेकिन फ़िर भी उन व्यवस्थाओं ने समाज में डर के मामले में भी दोतरफ़ा वार किया | एक तरफ़ तो वंचित-समाजों में सवर्णों के डर को धीरे-धीरे ख़त्म किया; और दूसरी तरफ़ सवर्णों में ब्रिटिश-कानूनों और दंड का डर धीरे-धीरे पैदा किया |
जबकि पिछले साढ़े तीन हजार सालों के भारतीय-परिवेश में सवर्णों के नियंत्रण में स्थिति एकदम इसके उल्टा रही थी— महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और शूद्रों जैसे कमज़ोर और दयनीय समाजों पर सवर्ण बेख़ौफ़ होकर कोई भी अत्याचार करते थे, जबकि ये पीड़ित-शोषित समाज उन अकारण अत्याचारों के कारण हमेशा उन सवर्णों से डरे-सहमे रहते थे, यह सोचकर कि पता नहीं कब किस बात पर सवर्णों का कौन-सा कहर उनपर टूटने लगे |
ब्रिटिश-कानूनों और समान दंड-प्रणाली ने इसी स्थिति को उल्टा लटका दिया | अब यदि कोई सवर्ण किसी भी वजह से, स-कारण या अकारण, किसी स्त्री, दलित, शूद्र या आदिवासी के प्रति कोई अत्याचार या क्रूर व्यवहार करता था, तो ब्रिटिश-सरकार एक अपराधी मानकर न केवल ऐसे सवर्णों पर मुक़दमा चलाती थी, बल्कि दोषी साबित होने पर ब्रिटिश न्यायालय उसे सजा भी देता था— बंदी बनाकर जेल में डालने से लेकर फांसी की सजा तक | इतने व्यापक स्तर पर ऐसी घटना पहली बार घटित हुई थी | पहली बार उन कमज़ोर बेबस समाजों ने देखा कि उनके ऊपर अत्याचार किए जाने के लिए भी सजा मिल सकती है | ठीक इसी तरह सवर्णों ने देखा कि अब वे निःसंकोच होकर बेबस समाजों और वर्गों पर अपना मनमाना अत्याचार करके अपने अहंकार को संतुष्ट नहीं कर सकते | भारतीय-समाज में यह इतने बड़े पैमाने पर पहली बार हो रहा था कि बाकायदा कानून बनाकर सवर्णों की ताकत को कमजोर किया गया था और वंचितों को सुरक्षा की थोड़ी-सी गारंटी और अभय-दान मिल रहा था |
ऐसे कानूनों की ताकत बढ़ाने का काम किया उन कानूनों ने, जिन्होंने उन प्रथाओं, परंपराओं आदि पर अंकुश लगाए, जो समाज के इन पीड़ित-शोषित वर्गों का जीना हराम किए हुए थे | उदाहरण के लिए सती-प्रथा पर रोक, बालिका-हत्या पर रोक, भ्रूण हत्या पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति, छुआछूत पर रोक, नरमेध (किसी धार्मिक उद्देश्य से मानव-बलि चढ़ाना) पर रोक, दलितों को भी कपड़े पहनने और बाजार आ-जा सकने की अनुमति …आदि |
इस बारे में अंग्रेज़ी-शासन की प्रशंसा करते हुए सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले की विद्यार्थी मुक्ताबाई साल्वे 1855 में प्रकाशित अपने उक्त लेख में लिखती हैं—
“ऐसे अत्याचारों के कारण कृपालु ईश्वर ने हमें यह उदार ब्रिटिश सरकार दान में दी | …इससे पूर्व, गोखले, आप्टे, त्रिम्काजी, अंधाला, पंसारा, काले, बेहरे आदि (ब्राह्मणों के जातीय उपनाम) जो अपनी वीरता अपने घरों के चूहों को मारकर दिखाते थे; हमारे ऊपर बिना किसी कारण के अत्याचार करते थे | उन्होंने हमारी गर्भवती स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा | अब यहाँ सब बंद हो गया है | अब किलों और हवेलियों की नींव के लिए मानव बलिदान भी रुक गया है | अब हमें कोई जीवित नहीं गाड़ता है | अब हमारी जनसँख्या बढ़ रही है | इससे पूर्व यदि कोई महार या मंग अच्छे वस्त्र पहनता था, तो कहते थे कि केवल ब्राह्मणों को ऐसे वस्त्र पहनने चाहिए | यदि हम अच्छे कपड़े पहने हुए दिख जाते थे, तो हमारे ऊपर वस्त्रों की चोरी का आरोप लगता था | जब अछूत लोग अपने शरीर पर वस्त्र डालते, तो उनको पेड़ों से बाँधकर दंड दिया जाता | …किन्तु, ब्रिटिश राज्य में जिसके पास पैसा है; अच्छे कपड़े मोल लेकर पहन सकता है | इसके पूर्व, उच्च जाति के प्रति किसी भी प्रकार के दुराचार का दंड था, दोषी अछूत का सिर काटना— अब यह बंद हो गया है | छुआछूत की प्रथा बहुत स्थानों में समाप्त हो गई है | अब हम बाज़ार भी आ-जा सकते हैं |” 5
स्पष्ट है कि ब्रिटिश-कानूनों और दंड-प्रणाली ने दबंग सवर्ण-जातियों तथा लोगों में कानून एवं दंड का खौफ़ भरना शुरू कर दिया और वे कुछ मामलों में वंचितों पर क्रूर अत्याचार करने से कुछ-कुछ घबराने लगे थे | इसलिए यह आसानी से समझा जा सकता है कि 1857 के ‘ब्राह्मण-विद्रोह’ (इसे ‘ब्राह्मण-विद्रोह’ कहना अधिक उचित प्रतीत होता है) के अनेक कारणों में से ‘समान दंड व्यवस्था’ और ‘समान कानून-व्यवस्था’ भी एक कारण था, जिसको हटाकर सवर्ण-समाज वंचितों एवं महिलाओं पर अपनी वही सदियों पुरानी दबंगई और वर्चस्व हासिल करना चाहता था |
वंचित-वर्गों को कुछ निडर और साहसी बनानेवाले उन्हीं ब्रिटिश कानूनों और व्यवस्थाओं के कारण तथा साथ ही उनको दिए गए अधिकारों और शिक्षा एवं नौकरियों में अवसरों के सुखद परिणाम थे कि 1857 के बहुत पहले से ही उन्हीं शोषित-पीड़ित वंचित-समाजों के भीतर से अनेक ऐसे योद्धा निकले, जिन्होंने वंचित-समाजों की नई तक़दीर लिखनी शुरू की और नया इतिहास गढ़ना शुरू किया, इन्हीं क़ानूनों का सहारा लेकर सामाजिक-परिवर्तनों की शुरुआत की और उन परिवर्तनों को बाधित करनेवाले सवर्णों को काबू में करने के लिए उन्हीं कानूनों का इस्तेमाल किया | जैसे फुले-दंपत्ति (सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले), नांगेली, रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’…आदि |
तब क्यों नहीं सवर्ण-समाज को कष्ट होता, उनमें भी सबसे अधिक ब्राह्मण-वर्ग को…?!
अन्यायपूर्ण सवर्ण-संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए विद्रोह
इसीलिए 1857 के तथाकथित ‘जन-विद्रोह’ का एकमात्र बड़ा लक्ष्य था— पुरानी संस्कृति और व्यवस्थाओं की फिर से स्थापना करना, हिन्दू और मुसलमान, दोनों के ही वर्चस्ववादी-वर्गों द्वारा | वही पुरानी संस्कृति और व्यवस्था; जिसमें हिन्दू-मुसलमानों के वंचित-पीड़ित समुदायों पर वर्चस्ववादी-वर्गों का आधिपत्य रहता आया था और जो उन वंचितों-कमज़ोरों पर कभी भी कोई भी अत्याचार कर सकता था | वही व्यवस्था, जिसमें प्रत्येक साधन-संसाधन, धन-दौलत, अधिकार, सत्ता आदि पर हिन्दू-मुसलमानों के केवल-और-केवल वर्चस्ववादी-वर्गों का ही कब्ज़ा था; जिसमें उनकी मनमानी, भोग-विलास आदि पर कोई भी प्रतिबंध या अंकुश नहीं था, उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था | उसी की फिर से प्राप्ति के लिए उन षड्यंत्रकारी वर्चस्ववादियों ने भोली-भाली हिन्दू-मुस्लिम जनता को भी विश्वास दिला दिया कि ‘अपनी संस्कृति’ की रक्षा ही वे अंग्रेजों से लड़ रहे हैं—
“मेरठ, लखनऊ, कानपूर व झाँसी में जिन लोगों ने अपनी जान की बाजी लगा दी उनके मन में यह प्रबल प्रेरणा अवश्य रही होगी कि वे अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए एक न्यायपूर्ण संघर्ष कर रहे हैं |” 6
इसलिए इतिहास को बार-बार पलट कर उसके पन्ने-पन्ने को उधेड़कर देखा-समझा जाना चाहिए, जहाँ यह तथ्य छिपा बैठा है कि हिन्दुओं का सवर्ण-समाज और मुसलमानों का भी वर्चस्ववादी हिस्सा केवल-और-केवल अपने वर्चस्व को पुनः पाने के लिए लड़ रहा था, न कि आम जनता के लिए—
“लेकिन उनके पास न तो कोई राजनीतिक दृष्टि थी और न भविष्य का कोई साफ़ नक्शा | सब अपने अतीत के कैदी थे और मूलतः अपने विशेषाधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ रहे थे | …” 7
और यह भी पूछा जाना चाहिए कि वर्चस्ववादी-वर्ग ‘अपने किस विशेषाधिकार को पाने के लिए’ लड़ रहे थे? क्या सामाजिक और जातीय-विशेषाधिकार, राजनीतिक-सत्ता और वंचित-समाजों और महिलाओं पर अपना कठोर नियंत्रण और वर्चस्व की हैसियत पाने, सारी संपत्ति और राजनीतिक-सत्ता पर कब्जे के लिए? इसलिए यह समझने की बहुत ज़रूरत है, कि 1857 के तथाकथित ‘जन-विद्रोह’ में
“…अगर वे (विद्रोही) सफल हो जाते, तो इतिहास की दिशा क्या होती | क्या होता यदि उन्होंने इतिहास की धारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया होता और पुरानी सामंती व्यवस्था को एक नई ताकत के साथ पुनः स्थापित किया होता?” 8
ऐसे सवालों से लड़ने-भिड़ने की जरूरत इसीलिए है, क्योंकि यदि वह विद्रोह सफल हो जाता, तो क्या वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, सती-प्रथा, विधवाओं की स्थिति जैसी समस्याओं के मामले में वंचित-समाजों और महिलाओं की स्थिति आज की 21वीं सदी में इतनी ही बेहतर होती, जो आज है; या उनकी दुर्गति पहले से भी अधिक हो रही होती, बदला लेने की भावना से? क्योंकि इन वर्गों ने ब्राह्मणों, सवर्णों और सवर्ण-पुरुषों के वर्चस्व को अंग्रेजों की सहायता और आधुनिक-शिक्षा से चुनौती दी थी | इसलिए 1857 के तथाकथित ‘जन-विद्रोह’ सहित तमाम ‘स्वाधीनता-संग्रामों’ पर बार-बार संदेह और सवाल खड़े किए जाने की ज़रूरत है कि
“क्या इस व्यापक कार्रवाई के पीछे कोई षड्यंत्र था? विद्रोह के फैलने की गति देखकर सरकारी अफसर चकरा गए |” 9
यदि इसके पीछे कोई भी षड्यंत्र नहीं था, तो ब्रिटिश-अधिकारी इसकी गति देखकर क्यों चकराए थे?
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संदर्भ-सूची:-
- पृष्ठ-285, बी.एल.ग्रोवर और यशपाल, ‘आधुनिक भारत का इतिहास : एक नवीन मूल्यांकन’, एस.चंद एंड कम्पनी लि, दिल्ली, 2000
- पृष्ठ-114, मुक्ताबाई साल्वे, ‘मंग महाराच्या दुखविसाई’; अर्थात् ‘मंग/मांग-महारों की व्यथा’, ‘सामाजिक क्रांति की योद्धा : सावित्रीबाई फुले’, डॉ. सिद्धार्थ, दास पब्लिकेशन, दिल्ली, जनवरी 2020
- पृष्ठ-13, बिपिन चंद्र, ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1998
- पृष्ठ-189, बी.एल.ग्रोवर और यशपाल, ‘आधुनिक भारत का इतिहास : एक नवीन मूल्यांकन’
- पृष्ठ-115-116, मुक्ताबाई साल्वे, ‘मंग महाराच्या दुखविसाई’; अर्थात् ‘मांग-महारों की व्यथा’, सामाजिक क्रांति की योद्धा : सावित्रीबाई फुले, डॉ. सिद्धार्थ
- पृष्ठ-253, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, ‘आधुनिक भारत का इतिहास’, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, सितम्बर 2003
- पृष्ठ-8, बिपिन चंद्र, ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’
- पृष्ठ-8, वही
- पृष्ठ-250, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, ‘आधुनिक भारत का इतिहास’
–डॉ. कनक लता