बतकही

बातें कही-अनकही…

भाग दो : पढ़ना सबसे अधिक ज़रूरी है !

हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, अर्थात् पचासी फ़ीसदी से भी अधिक, समाज का वह भाग है, जो वास्तविक धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन के मौलिक अधिकारों से भी वंचित है | उसके लिए तथाकथित मुख्यधारा के समाज, अर्थात् समाज के क़रीब पंद्रह फ़ीसदी हिस्से द्वारा सदियों पहले उस बहुसंख्य आबादी के जीवन-यापन के लिए कार्यों के कुछ निश्चित दायरे भी बनाए गए, जिनसे बाहर जाकर कोई अन्य कार्य करने की मनाही के कारण उसके बारे में न तो वह सोच सकता था, न ही सोचता था | आज भी अधिकांशतः वस्तुस्थिति यही है, विशेष रूप से दूर-दराज के इलाक़ों में, भारत के भीतरी हिस्सों में और ग्रामीण हिस्सों में भी…| आज यह दायरा टूटता भी है, तो उन कमज़ोर वर्गों का व्यक्ति बहुत दूर जाने की नहीं सोच पाता है, बल्कि अपने दायरे के आस-पास ही बना रहता है; अशिक्षा, अज्ञानता, ग़रीबी, लाचारी, पारंपरिक भय के कारण |

क्या यही कारण नहीं है कि इन वंचित वर्गों, उनमें भी अस्पृश्य-अन्त्यज समझे जानेवाले वर्ग, के लोग या तो पीढ़ियों पहले ‘मुख्यधारा’ के द्वारा तय किए गए ‘पुश्तैनी’ काम करते हुए मिलेंगे, अथवा मजदूरी से ही संबंधित कोई अन्य कार्य- जैसे सड़क बनाना, मिलों और फैक्ट्रियों में मजदूरी करना, रिक्शा चलाना, शहरों में सड़कों, नालियों या गटर की साफ़-सफ़ाई करना …आदि |

हमारे नेताओं के लिए यह कहना तो काफ़ी सहज और सरल है कि इन वर्गों को अपने ऐसे कार्यों में ‘आध्यात्मिक आनंद’ की अनुभूति होती है, भले ही वे नेता स्वयं व्यावहारिक रूप से उन कार्यों को हेय और घृणा की दृष्टि से देखें और उनसे दूर रहें; और कभी ग़लती से स्पर्श हो जाने पर अपनी-अपनी कारों में बैठने के बाद अपने हाथों को सेनिटाइज करें एवं शरीर को गंगाजल या गोमूत्र से पवित्र भी करें !

लेकिन वाकई में हाशिए के इन लोगों के प्रति उस ‘मुख्यधारा’ के समाज के हर व्यक्ति के मन में संवेदनशील सहानुभूति भी होती होगी, यह आवश्यक नहीं; उनके बच्चों के भविष्य के प्रति सचेतनता और चिंता तो बहुत दूर की बात है | इसलिए उन वर्गों के जीवन-विकास में ‘मुख्यधारा’ की भूमिका और उनके कार्य वाकई में कोई मानवीय रूप और विचार लिए हुए हों, यह भी आवश्यक नहीं है | क्योंकि प्रायः तो यही देखने में आता है कि तरह-तरह के तरीक़ों को अपनाते हुए ये शक्तिशाली एवं साधन-संपन्न लोग यही कोशिश लगातार करते रहते हैं कि वे हाशिए के ‘घृणित’, ‘गंदे’, ‘जाहिल’ एवं ‘पशुवत’ लोग कभी भी अपनी उस पारंपरिक स्थिति से बाहर न निकल सकें | इसलिए उनकी सामने से दिखनेवाली कोशिश में उनका बनावटी क़िस्म का मानवीय, संवेदनशील एवं बेहद भावुक नकली चेहरा दिखाई देता है— ‘मुख में राम बगल में छुरी’ की तरह |

ऐसे में वह ‘हाशिए’ का तबका कैसे विश्वास करे ‘मुख्यधारा’ की नीयत, नज़र एवं नज़रिए पर? लेकिन जब कुछ लोग वाकई में सच्चे मन से कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं और उनकी कोशिश एक अलग कहानी लिखने लगती है, तब विश्वास की एक डोर अवश्य ही जीवित हो उठती है | ऐसा ही एक नाम है— अंजलि डुडेजा ! 

अंजलि डुडेजा, राजकीय प्राथमिक विद्यालय नौगाँव, कल्जीखाल (पौड़ी, उत्तराखंड) की अध्यापिका (प्रभारी) …! स्वभाव से संवेदनशील, हँसमुख और कवि-ह्रदय, व्यवहार से उदार, मिलनसार और सहयोगी-प्रवृत्ति की…! कुछ अंतर्मुखी तो कुछ बहिर्मुखी…! और सबसे बड़ी बात, सकारात्मक ऊर्जा की खान…! मैंने उनको जब भी देखा हल्की-हल्की हँसी के साथ ही देखा |

अंजलि अपने विद्यालय में विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को जितने आयामों में देखती-समझती और निभाती हैं, उन्हीं में से एक है, ‘हाशिए’ के समाज के उन तीन बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की पहल, जो विद्यालय में ‘लाए जाने’ के दौरान पढ़ने से लगभग भागते ही रहते थे | बात शुरू होती है जनवरी 2013-14 से, जब उनमें से सबसे बड़ा बच्चा विद्यालय में नामांकन कराकर यहाँ आने लगता है | उस समय उस बच्चे की उम्र तकरीबन पाँच-छः साल रही होगी, जो पहली कक्षा में नामांकन लेकर आया था | उसके बाद 2015 में उससे छोटा भाई भी आने लगा और 2017 से सबसे छोटा भाई भी विद्यालय आ रहा है |

ये बच्चे मूलतः ऐसे परिवार से आते हैं, जिनके जातिगत कार्य के रूप में ढोल-दमाऊ बजाना ही समाज द्वारा सदियों पहले तय किया गया था | पारंपरिक रूप से उत्तराखंड में इनके ढोल की थाप पर देवी-देवता नाचने को ‘विवश’ हो जाते हैं, किन्तु वही देवी-देवता एवं उनके मंदिर की सीढियाँ तक इन्हीं ढोल-दमाऊ बजाने वालों के स्पर्श से अपवित्र हो जाया करती है, इसलिए उनको मंदिर की दहलीज के उस पार जाने की अनुमति नहीं है |

पारंपरिक रूप से इस पेशे वाले लोगों को पढ़ने-लिखने का अधिकार भी नहीं है, और ग़रीबी भी उनको इसका मौक़ा कहाँ देती है कि वे अपने बच्चों को बचपन से दो-चार पैसे कमाने के लिए उनको काम में लगाने की बजाय उनको पहले स्कूली-शिक्षा हासिल करने और पढ़ने-लिखने के लिए विद्यालय भेजें? इसलिए ये बच्चे भी पारंपरिक रूप से बचपन से ही ढोल-दमाऊ बजाने का अभ्यास करने लगे और स्वाभाविक रूप से रोज़-रोज़ उसके बीच रहने से उसके आदी होकर उसमें रमने भी लगे | जिस उम्र में दूसरे बच्चे अपने खिलौने भी ठीक से पकड़ना नहीं सीख पाते हैं, उस उम्र में इन बच्चों एवं इनके समाज के अन्य अभागे बच्चों को ढोल पकड़ना और उसपर ठीक तरीक़े से थाप देना भी सीख लेना होता है, अन्यथा उनके परिवार की रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी…?!

…तो जब उनमें से बड़ा बच्चा विद्यालय आया, तो उसे ढोल बजाना तो आता था, लेकिन अपनी कॉपी-क़िताब या पेंसिल पकड़ना नहीं; उसे ढोल बजाना तो बहुत ही अधिक पसंद था, लेकिन अपनी पेंसिल, कॉपी, क़िताबों को हाथ लगाना नहीं; वह अपने ढोल के साथ घंटों बिता सकता था, बिताता भी था, लेकिन अपनी कॉपी-क़िताबों के साथ एक क्षण का समय भी वह नहीं बिता पाता था; उसे ‘बड़े लोगों’ के घरों के सामने या मंदिरों के बाहर याचक-भाव से खड़े रहना तो पसंद था, इस आदेश के इंतज़ार में कि ‘बड़े लोग’ या ‘प्रतिष्ठित लोग’ अथवा पुजारी जी उसे आदेश दें ढोल-दमाऊ बजाने का और वह अपनी इस ‘कला’ में डूब जाए, लेकिन उसे उस विद्यालय में जाना और वहाँ रहना पसंद नहीं था, जो उसे स्वाभिमानी होना, आत्म-सम्मान से जीना सिखाता है, उसे उसके मानवीय मूलभूत अधिकारों का एहसास दिलाता है…!!!

स्वाभाविक है, जिसने अपने जीवन में ही नहीं बल्कि अपने चारों तरफ़ केवल वही माहौल देखा हो जिसमें उसके चारों ओर बजते हुए अनेक ढोल-दमाऊ हों, और उससे जुड़ी रिरियाहटें हों, गिड़गिड़ाहटें हों, मिन्नतें और जी-हुजूरी हों, भर्त्स्नाएँ हों, अपमान और तिरस्कार हों, मजबूरियाँ और बेबसियाँ हों, ग़रीबी और लाचारी हो… वहाँ ऐसा बच्चा और क्या सीखेगा, क्या समझेगा और उसका मन किस काम में लगेगा-रमेगा…?

हम सामाजिक चतुराई दिखाते हुए भले ही कह लें कि यह भी तो एक ‘कला’ है, लेकिन हमारा दिल तो जानता है कि हम क्या कर रहे हैं !? सत्य है, दुनिया का प्रत्येक उत्पादक एवं मनोरंजक कार्य स्वयं में एक ‘कला’ ही हैं | किन्तु वह कब ‘कला’ है और कब ‘नीच कार्य’ यह इससे तय होता है कि उसे कौन कर रहा है | जूते बनाने का काम सड़क किनारे बैठा एक मोची भी करता है और ‘बाटा’ जैसी बड़ी-बड़ी औद्योगिक कम्पनियाँ भी जूते बनाती हैं | लेकिन इससे न तो सड़क किनारे का वह ग़रीब मोची ‘बाटा’ की श्रेणी में शामिल होकर ‘बिजनेसमैन’ कहलाता है, और न ही ‘बाटा’ का मालिक ‘मोची’ कहलाता है | लोग सड़क किनारे के उस मोची से अपना काम भी करवाते हैं और उसके बदले में चार गालियाँ उसके पूरे ख़ानदान को देते हुए उसकी मजदूरी का आधा या उससे भी कम उसके आगे भिखारी की तरह फेंककर आगे बढ़ जाते हैं | जबकि ये ही ‘संभ्रांत’ लोग ‘बाटा’ जैसी किसी कंपनी के किसी शोरूम में जाते हैं, तो सबसे पहले अपनी ओर देखकर यह तसल्ली करते हैं कि वे उस शोरूम में घुसने के भी लायक हैं या नहीं | उसके बाद वे अपने जूतों को शोरूम के बाहर रखे पायदान पर रगड़-रगड़कर बढ़िया से साफ़ करते हैं और उसके बाद अन्दर क़दम रखते हैं | वहाँ भी ‘सेल्सबॉय’ द्वारा बताए गए दाम को ही ख़ुशी-ख़ुशी बिना किसी हील-हुज्जत के देते हैं और बदले में दर्जनों बार ‘धन्यवाद’ कहकर ही वहाँ से बाहर निकलते हैं | यह है संभ्रांतों की ‘कला’ और कमज़ोरों-ग़रीबों की ‘कला’ का फ़र्क…!

…तो इन बच्चों को भी अपना ‘पुश्तैनी कार्य’ करना ‘ख़ुशी-ख़ुशी’ पसंद था, लेकिन पढ़ना-लिखना कत्तई नहीं; पढ़ना-लिखने तो जैसे उनके लिए एक सज़ा ही थी | इन बच्चों को दरअसल अंजलि की एक सखी अध्यापिका ने पढ़ने की ख़ातिर ही अंजलि के पास उनके विद्यालय में भेजा था |

जब बड़ा लड़का विद्यालय आया, तो वह पढ़ने-लिखने की बजाय केवल रोता ही रहता था, क्योंकि उसे पढ़ना नहीं, ढोल बजाना रुचता था | रोते-रोते उसकी नज़र विद्यालय में रखे पी.टी. के दौरान प्रयोग होनेवाले ड्रम पर पड़ी; और तब उसका ध्यान स्वाभाविक रूप से बार-बार उसी ओर चला जाता, कभी-कभी वह उसपर अपनी ऊँगलियों से चुपके-चुपके थाप-सी भी दे देता | अंजलि ने यह बात नोटिस की और इससे उन्हें एक उपाय सूझा | उन्होंने उस ड्रम को अपना माध्यम बनाने की तरक़ीब सोची और बच्चे को प्रेरित किया उसे बजाने के लिए | बच्चा पहले तो झिझका और डरा, लेकिन अंजलि की एक-डेढ़ घंटे की मशक्कत के बाद धीरे-धीरे उसे विश्वास-सा हो गया कि यह अध्यापिका उसके प्रति सहृदय हैं | स्वाभाविक है, बच्चे सबसे अच्छे मनोवैज्ञानिक होते हैं और बड़ों की तुलना में कहीं अधिक बेहतरीन तरीक़े से दूसरों के मनोभावों को पकड़ लेते हैं |

तब बच्चे ने प्रोत्साहन पाकर ड्रम पर थाप देनी शुरू की और कुछ ही देर बाद वह उसमें डूब गया, उसके बाद उसने ‘जागर’ गाकर भी अपनी इस पहली अध्यापिका को सुनाया | अंजलि को रास्ता मिल गया कि कैसे उसे पढ़ाई से जोड़ना है | जिस तरह घरवालों द्वारा बच्चों को पढ़ने-लिखने या कोई बात सिखाने आदि के लिए टॉफ़ी, चॉकलेट, खिलौने आदि देकर बहलाया-फुसलाया जाता है, कुछ उसी तरह का काम अंजलि भी करनेवाली थीं; बच्चे के ‘अपने परिवेश’ से जोड़कर उसे पढ़ाई की ओर ले जाना |

हालाँकि इससे कई लोगों की सहमति नहीं होगी और होनी भी नहीं चाहिए, मैं भी एक सीमा के बाद इससे सहमत नहीं हो पाती हूँ | लेकिन तब भी, शुरूआती चरम में बच्चों को विद्यालय के वातावरण से जोड़ने एवं पढ़ाई की ओर उन्मुख करने के लिए इस तरह के प्रयोग कभी-कभी आवश्यक हो ही जाते हैं |

एक अध्यापक अपने विद्यालय में व्यावहारिक धरातल पर कितनी तरह की चुनौतियों का सामना करता है, यह केवल वही अध्यापक समझ सकता है, जो वाकई में अपने प्रत्येक विद्यार्थी को ज़िम्मेदारीपूर्वक पढ़ाना और उसके बेहतर भविष्य को ध्यान में रखकर काम करना अपना अध्यापकीय-कर्तव्य समझता है और उसे ईमानदारीपूर्वक निभाना भी ज़रूरी समझता है; और इस कारण ऐसी मुश्किलों से दो-चार होता है | उसमें सबसे मुश्किल काम है अपने प्रत्येक विद्यार्थी के भीतर पढ़ने-लिखने की ललक पैदा करना और क़िताबों एवं उनमें लिखे अक्षरों, शब्दों, कथा-कहानियों, दुनियाभर की तमाम बातों आदि में छिपे भावों एवं विचारों को जानने के प्रति तीव्र जिज्ञासा पैदा करना | और यह काम छोटे बच्चों के स्तर पर जिन कारणों से बेहद चुनौतीपूर्ण हैं, उन कारणों में एक है, एक-एक बच्चे के प्रति अलग-अलग ढंग से कोशिश करने की आवश्यकता | क्योंकि हर बच्चा भिन्न-भिन्न सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं वैचारिक पृष्ठभूमि से आता है; इसलिए हर बच्चे की अपनी बनी-बनाई सोच होती है, अलग-अलग व्यवहार, जीवन जीने का ढंग, किसी चीज को देखने का नज़रिया, उसके प्रति प्रतिक्रिया का तरीक़ा, बातों को समझने-समझाने का ढंग—यानी सबकुछ एकदम अलग-अलग होता है | इसलिए प्रयास करनेवाले अध्यापकों के सामने यह चुनौती बहुत बड़ी हो जाती है | ऐसे में उसके सामने उन तरीक़ों की ओर भी कभी-कभी देखना होता है, जिनसे उसकी अपनी भी वैचारिक सहमति एक सीमा तक नहीं होती…

इस बारे में अंजलि क्या सोचती हैं, इसपर चर्चा फ़िर कभी किसी अन्य लेख में…! बहरहाल उन्होंने इन तीनों बच्चों को पढ़ाई-लिखाई एवं अन्य शैक्षणिक गतिविधियों से जोड़ने के लिए उनकी इस ‘पुश्तैनी कला’ को माध्यम बनाया और उनकी तरक़ीब काम कर गई | बच्चा पढ़ाई को पसंद करने लगा, उसकी रूचि अपने पढ़ने-लिखने से जुड़ी अन्य गतिविधियों में भी विकसित होने लगी | जिसका एक नतीज़ा यह निकला कि बड़ा लड़का जब कक्षा दो में था, तब उसका बनाया एक चित्र जनपद-स्तर पर प्रकाशित होनेवाली बाल-पत्रिका ‘बाल-धमाल’ में प्रकाशित हुआ था | धीरे-धीरे उसके अन्य दोनों भाई भी विद्यालय क दुनिया में आए और इसी विधि से वहाँ रमे |

हालाँकि यहाँ तक लाने के लिए अंजलि ने बच्चों के ‘पुश्तैनी कार्यों’ का सहारा तो लिया है और इससे बच्चों को अपने इस ‘पुश्तैनी कार्य’ में बेहद सम्मान एवं पहचान भी मिल रही है, लेकिन सवाल एवं उससे जुडी चिंता भी अब तक वहीँ है |

यह सत्य है कि ढोल-दमाऊ बजाना या कोई भी कार्य छोटा-बड़ा नहीं होता है, बल्कि उसे छोटा या बड़ा बनाती है हमारी सोच | लेकिन यह भी सत्य है कि जब किसी सामाजिक समूह को पशुवत जीवन देकर उसे रसातल में पहुँचाना हो, उसकी प्रगति को रोकना हो, उसके आत्म-विश्वास की हत्या करनी हो, उसके आत्म-सम्मान को अपने जूतों तले रौंदना हो, और अंततः उसे अपने आगे बेबस हालत में लाना हो, तो अनेक उपायों में से एक उसकी आजीविका को चुना जाता है | जिसमें सबसे पहले उनके लिए कुछ ख़ास काम निर्धारित करने चाहिए | उसके बाद उनके उन ‘ख़ास कार्यों’ को घटिया, घृणित, तुच्छ, साबित करना चाहिए | और अंततः उन सामाजिक-समूहों को वही काम करने को बाध्य करना चाहिए | फिर कैसे और कब तक बचेगा उनका आत्म-सम्मान, उनका आत्म-विश्वास, हीनताबोध की तुलना में अपने कार्यों की महत्ता, आवश्यकता एवं उपयोगिता के प्रति उनकी सहजता…?

अंजलि डुडेजा ने निश्चित रूप से इन बच्चों को अपनी पढ़ाई-लिखाई से जोड़ने के लिए उनके उसी ‘पुश्तैनी कार्य’ ढोल-दमाऊ’ बजाने का सहारा लिया है, लेकिन इन बच्चों के व्यक्तित्व-विकास के संबंध में उनकी भूमिकाओं को लगातार परिष्कृत होते देखकर विश्वास किया जा सकता है कि एक दिन या तो ये बच्चे अपने विद्यार्थी-जीवन में अपनी पढ़ाई-लिखाई को ही अपना मुख्य कार्य बना पाएँगे एवं अपने व्यक्तित्व को नए समय के अनुसार नया आयाम दे पाएँगे —मानवीय एवं गरिमापूर्ण आयाम | अथवा सचमुच में एक दिन हमारा समाज इतना संवेदनशील और मानवीय हो सकेगा कि वह व्यावहारिक रूप से प्रत्येक कार्य को वास्तव में समान रूप से आदर एवं महत्त्व दे सकेगा | …तब तक इन दोनों स्थितियों के परस्पर संघर्षों पर अपनी नज़र रखना ठीक होगा और अपने भी विचारों को समय के साथ-साथ परिस्कृत करने की कोशिश करनी होगी…

…इस समय ये तीनों भाई अपनी पढ़ाई में एक संतोषजनक मुक़ाम हासिल करने की ओर अग्रसर हैं एवं निरंतर उसके लिए प्रयासरत भी | सबसे बड़ा भाई अपनी पढ़ाई की निरंतरता बनाए हुए कक्षा 8 में पहुँच चुका है | उससे छोटा भी अपने भैया के पीछे-पीछे चलते हुए कक्षा 5 में आ चुका है | और ‘संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात’ को चरितार्थ करते हुए सबसे छोटा भाई भी अपने दोनों अग्रजों के पीछे-पीछे चलता हुआ शिक्षा के आशामय एवं सम्मानजनक पथ की ओर बढ़ चुका है | इसके साथ ही तीनों भाई गायन, वादन एवं पारंपरिक नृत्यकला में भी एक साथ नए अध्याय लिखने की कोशिश में हैं; विशेष रूप से बड़ा भाई वादन में निपुण है, तो मँझला भाई, सुनते हैं, कि गीत बहुत मधुर गाता है, जबकि सबसे छोटे की रूचि नृत्य करने में अधिक है |

अंजलि अपनी सहयोगी अध्यापिका के साथ मिलकर बेहतरीन जुगलबंदी करते हुए विद्यालय के सभी बच्चों के साथ-साथ इन बच्चों को भी सुन्दर भविष्य का सपना दिखा सकने में एक सीमा तक कामयाब हो चुकी हैं, बच्चों को पढ़ना-लिखना, चित्र बनाना, अन्य शैक्षणिक गतिविधियों आदि में भागीदारी करना रास आने लगा है, जहाँ बच्चे स्वतन्त्र चिंतन करना, अपने अच्छे-बुरे का निर्णय स्वयं करना, अपना भाग्य स्वयं लिखना सीखते हैं | बड़ा भाई अंजलि के विद्यालय से पास होकर जाने के बाद भी अपनी इस पहली अध्यापिका के संरक्षण में आगे का रास्ता तलाश रहा है और उसकी अध्यापिका भी निरंतर उसके लिए कोशिश कर रही हैं |

अब आगे क्या स्थिति बनती है, इन बच्चों का भविष्य कौन-सी करवट लेता है, यह देखना भी दिलचस्प होगा… और उसकी अध्यापिका के लिए भी परीक्षा जैसी स्थिति होगी शायद…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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One thought on “अंजली डुडेजा : विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

  1. एक शानदार कार्य के लिए एक शानदार लेखन के रूप में आपका यह प्रयास उत्तम है।

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