बतकही

बातें कही-अनकही…

विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

भाग-एक

मौन अभिव्यंजना की प्रतिकृति

अज्ञेय ने अपनी एक बेहद प्रसिद्द एवं सुन्दर कविता में लिखा है——

“मौन भी अभिव्यंजना है: जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो |

…उसे जानो: उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो |

…दे सकते हैं वही जो चुप, झुककर ले लेते हैं |

आकांक्षा इतनी है, साधना भी लाए हो?

…यही कहा पर्वत ने, यही घन-वन ने

…तब कहता है फूल: अरे, तुम मेरे हो |

वन कहता है: वाह, तुम मेरे मित्र हो |

नदी का उलाहना है: मुझे भूल जाओगे?…”

एक ऐसी ही ‘मौन अभिव्यंजना’ का नाम है— अंजलि डुडेजा, राजकीय प्राथमिक विद्यालय नौगाँव, कल्जीखाल, पौड़ी (उत्तराखंड) की अध्यापिका (प्रभारी)…! स्वभाव से संवेदनशील, हँसमुख और कवि-ह्रदय, व्यवहार से उदार, मिलनसार और सहयोगी-प्रवृत्ति की …और सबसे बड़ी बात, सकारात्मक ऊर्जा की खान…! सकारात्मक ऊर्जा इतनी, कि उनके पास बैठा हुआ कोई व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकता | मैंने उनको जब भी देखा हल्की-हल्की हँसी के साथ ही देखा | हालाँकि उनका साधारण-सा, किन्तु मुस्कराहट से दमकता, चेहरा एवं ऑंखें उनके मन के उस कोने की झलक भी साथ-साथ देते रहे हैं, जहाँ किसी की व्यथाएँ एवं संघर्षों की दास्तानें छुपकर पनाह लिए हुए होती हैं… लेकिन मैं कोशिश करके भी जिसे कभी नहीं जान सकी…

उनकी उपस्थिति से प्रभावित होनेवालों में केवल उनके परिजन, मित्र और परिचित ही नहीं हैं, बल्कि उनके विद्यार्थी, उन विद्यार्थियों के अभिभावक, ग्रामीण, और भी न जाने कितने ही लोग उनके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते हैं…! शायद उनकी इसी ‘संक्रामकता’ का असर है, कि उनके विद्यार्थी उनके साथ भावनात्मक रूप से इस हद तक जुड़ जाते हैं, कि विद्यालय छोड़ने के बाद भी उनका लगाव कभी ख़त्म नहीं होता | उनके ममत्वपूर्ण व्यवहार एवं सबकी परेशानियों की चिंता करने एवं उनके साथ खड़े रहने की आदत के कारण ही शायद आसपास के गाँवों के लोग एवं विद्यालय के बच्चों के अभिभावक उनको अपने बच्चों की ‘नानी-दादी’ की संज्ञा दिए हुए हैं… जैसे इस कविता में फूल, नदी, वन, पहाड़, आसमान…सभी किसी ‘उसे’ को अपना कहते है और अपने को ‘उसका’….!

अंजलि डुडेजा चूँकि स्वभाव से काफ़ी अंतर्मुखी हैं, इसलिए अपने बारे में बहुत ज्यादा बात नहीं करती हैं, केवल उनका सामान्य-सा परिचय ही मिल पाता है…| वे अपने माता-पिता लाजवंती कटारिया एवं (स्वर्गीय) रामचंद्र कटारिया की पहली संतान हैं और अपने दो छोटे भाइयों, राजकमल कटारिया एवं ललित कटारिया की इकलौती बहन | उनका जन्म 25 मार्च 1965 को  नज़ीबाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ |

उनकी स्कूली-शिक्षा नज़ीबाबाद से ही ‘मूर्तिदेवी कन्या विद्यालय’ से हुई | यहाँ से उन्होंने पहली कक्षा से लेकर बारहवीं तक की पढ़ाई की और 1979 में 10वीं कक्षा उत्तीर्ण की एवं 1981 में 12वीं कक्षा | उनकी वर्तमान सौम्य-शांत छवि को देखकर शायद ही कोई अनुमान लगा पाए, कि यह अध्यापिका किसी समय में खेल की दुनिया में अपना एक मुकाम भी रखती थीं | इस विद्यालय में पढ़ने के दौरान वे राष्ट्रीय कैडेट कोर (National Cadet Corps-NCC) में शामिल रहीं | इसके अलावा विद्यालय में विभिन्न प्रकार के खेलों में भी उनकी अच्छी भागीदारी रही है |

अपनी विद्यालयी-शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने साहू डिग्री कॉलेज, नज़ीबाबाद से आगे की पढ़ाई शुरू की | यहाँ से इन्होंने 1983 में बी.एससी. किया और 1986 में एम.एससी. (फिजिकल केमिस्ट्री) भी किया | इसके साथ-साथ खेल की दुनिया में भी अपना परचम लहराती रहीं | एथलेटिक्स के अंतर्गत वे डिस्कस थ्रो में भाग लेती थीं, और तो और वे टेबल टेनिस की चैम्पियन के रूप में अपने कॉलेज का गौरव भी रही हैं | पढ़ाई के साथ-साथ खेल के प्रति भी उनके इस समर्पण एवं लगन के कारण कॉलेज में उनको स्पोर्ट्स कैप्टन (गर्ल्स टीम) बनाया गया |

यहाँ गौर करनेवाली बात यह है, कि जिस ज़माने में भारत के अधिकांश राज्यों में लोग अपनी बेटियों को 8वीं-10वीं तक ही पढ़ाना पसंद करते थे, ताकि बेटी की शादी के लिए अच्छा घर-वर मिल सके; और अपनी होनहार बेटियों को वे इससे आगे इस डर से नहीं पढ़ाते थे, कि बेटी की शादी में दिक्क़त न हो, बेटी को ससुराल में अधिक पढ़ाई के कारण ताने न सुनने पड़ें | उस ज़माने में उनके माता-पिता ने कैसे इतना जोखिम उठाया होगा? क्या समाज ने उनको ताने नहीं दिए होंगे? क्या बेटी को लोगों की अपमानजनक बातें नहीं सुननी पड़ती होंगी? कौन बता सकता है, कि ऐसा नहीं हुआ होगा…? क्या उनके चेहरे एवं आँखों में अस्पष्ट-सी दिखनेवाली उस अव्यक्त अनकही ख़ामोश पीड़ा में इन तानों और अपमान का भी हिस्सा नहीं रहा होगा? सत्य किसे मालूम है, कहा नहीं जा सकता | इस बारे में अंजलि  अक्सर मौन ही रहती हैं |

आज के ज़माने में भी लोग सबके सामने तो यह कहते हुए मिलेंगे, कि “…जी, हमारे लिए तो बेटा-बेटी बराबर हैं, हम उनमें भेद नहीं करते”, लेकिन उनके घरों में जाकर देखने से उनकी वास्तविक मनःस्थिति का पता चलता है | तब तीन-चार दशक पहले के समाज की मनोदशा की कल्पना की जा सकती है | लेकिन अंजलि के माता-पिता का अपनी इस होनहार बेटी के प्रति प्रेम और विश्वास अपनी कहानी आप ही कहता है; साथ ही यह उनकी मानसिकता को भी भली-भाँति जाहिर करता है | बेटियों पर बंदिशों के उस ज़माने में अंजलि के माता-पिता ने बेटी को न केवल उच्च शिक्षा दिलाई, बल्कि खेल की दुनिया में भी स्वच्छंद विचरण करने की इज़ाज़त दी |

…इसी दौरान उन्होंने वर्द्धमान कॉलेज, बिजनौर से 1986 में बी.एड. भी पूरा कर लिया | खेल की दुनिया में नाम कमाने के बावजूद कुछ अंतर्मुखी-सी रहनेवाली उस लड़की ने कब कविताएँ लिखनी शुरू की, इसका पता माता-पिता तो क्या, किसी को नहीं लग सका, यहाँ तक कि अंजलि के बेहद करीब और एक तरह से उनकी सखी की तरह रहनेवाली बुआ को भी नहीं | इसकी जानकारी तब मिली, वह भी कुछ लोगों को, जब नज़ीबाबाद आकाशवाणी से उनकी कविताओं का प्रसारण शुरू हुआ, जिसमें उनको अपनी कविताएँ स्वयं पढ़ने के लिए आमंत्रित किया जाता था | कविताएँ लिखने की प्रेरणा उन्हें कहाँ से मिली, इस सवाल के जवाब में वे बताती हैं, कि क़िताबों से प्रेम और कविताएँ लिखने की प्रेरणा उन्हें अपने मामा प्रेम कुमार सडाना से मिली थी, जो अपने समय के जाने-माने कवि और  नज़ीबाबाद आकाशवाणी में ही उद्घोषक रहे थे |

अंजलि कहती हैं, कि उनके जीवन पर, व्यक्तित्व और विचारों पर उनके मामा और उनकी बुआ का बहुत प्रभाव रहा है | उनकी बुआ भी अपने समय में इतिहास की लेक्चरर हुआ करती थीं और अपने सामाजिक-कर्तव्यों को लेकर समाज से बहुत गहराई से जुड़ी हुई थीं | उनकी बुआ और उनकी माँ एक-दूसरे की अच्छी सहेलियाँ तो थी ही और आज भी दोनों ननद-भाभी सहेलियों की तरह साथ ही रहती हैं, लेकिन बुआ अपनी इस भतीजी की भी अच्छी सहेली हुआ करती थीं और यह दोस्ताना रिश्ता आज भी कायम हैं | स्वाभाविक है, कि उनका असर तो उस नवयुवती पर, एक सखी का असर दूसरी सखी पर होना ही था…संवेदनाओं से लेकर सामाजिक-दायित्वों के निर्वहन तक में…  

…समय के साथ समाज एवं जीवन की परंपरा का निर्वहन करते हुए अंजलि  का विवाह 1987 में वीरेंद्र कुमार डुडेजा से हो गया और वर्तमान में वे दो बेटों, 33 वर्षीय ध्रुव एवं 26 वर्षीय मधुर की माँ हैं | इसी बीच इन्होंने 2004 में बीटीसी (विशिष्ट) ज्वाइन किया और 2005 में इन्हें बतौर अध्यापिका पहली नियुक्ति मिली—राजकीय प्राथमिक विद्यालय नौगाँव, कल्जीखाल ब्लॉक, जिला पौड़ी (उत्तराखंड) में, जहाँ वे आज भी सेवारत हैं |

इस संबंध में पूछने पर वे कहती हैं, कि “मैं अपने परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभा तो रही थी, मुझे उससे कोई शिकायत भी नहीं थी, बल्कि वह मुझे अच्छा लगता था | लेकिन कुछ तो कमी थी, जिसके कारण मैं हमेशा तनाव में रहती थी…कुछ ख़ाली-ख़ाली-सा लगता रहता था, कुछ अधूरा-सा…! लगता था, जैसे मेरे कुछ और भी काम हैं, जिनको मुझे करना है और जो मुझसे छूट रहे हैं…! जब मैं एक शिक्षिका के रूप में इस विद्यालय में आई और उन बच्चों को देखा, जिनसे मेरा कोई पारिवारिक-सम्बन्ध नहीं था, लेकिन तब भी उनकी ज़िम्मेदारी मुझे उठानी था, तो मुझे ऐसा लगा, कि जैसे मुझे रास्ता मिल गया…| मुझे समझ में आने लगा, कि क्यों मेरा मन अक्सर बेचैन रहता था…| धीरे-धीरे मैं समझ पाई कि मेरा सामाजिक-कर्तव्य ही मुझे अकेले में आवाज़ दिया करता था…”  

जाहिर है, यहीं से उनके जीवन को एक मकसद मिलता है, जो उन्हें समाज के प्रति दायित्वों से जोड़ता है | लेकिन यह केवल सरकारी नौकरी ही नहीं थी, बल्कि अंजलि  का एक अंतहीन संघर्ष भी रहा है, इसलिए अभी उन्हें अपनी एक और योग्यता साबित करनी थी, जो शिक्षिका के रूप में सरकार द्वारा चयनित किए जाने की योग्यता से इतर थी |

हमारे देश में ‘शिक्षक’ होने का अर्थ, मात्र एक परीक्षा पास करके ‘अध्यापक’ पद प्राप्त करना एवं किसी विद्यालय में अपनी ड्यूटी बजाना भर ही नहीं होता है, बल्कि जो वास्तव में अपने-आप को शिक्षक/शिक्षिका के रूप में देखते हैं, उनकी परीक्षा हर दिन होती है, सबके द्वारा होती है— क्या शासन-प्रशासन, क्या समाज, क्या बच्चों के अभिभावक, या क्या बच्चे; यहाँ तक कि उनकी परीक्षा लेते रहने से ‘समय’ भी नहीं चूकता…

…तो अंजलि  के सामने समाज के समक्ष अपनी ‘योग्यता’ साबित करने की चुनौती अभी बाक़ी थी | सरकार द्वारा ‘अध्यापिका-पद’ के लिए चुनी गई हैं तो क्या हुआ; उस समाज के सामने अपनी ‘अध्यापकीय-योग्यता’ को साबित करें, जिनके बच्चों को उन्हें पढ़ाना है | स्वाभाविक है, कोई भी समाज इतनी आसानी से कैसे अपने मासूम नौनिहालों का पूरा जीवन किसी के हवाले कर देगा? वह तो पहले देखेगा, परखेगा, उसे सही लगेगा तब वह अपने बच्चों का भविष्य उनके हाथों में सौंपेगा…विश्वास के साथ; अन्यथा वह पढ़ाने का ‘कर्तव्य-निर्वहन’ करनेवाले अध्यापकों के प्रति सदैव शंकालु ही रहता है |

अंजलि  जब इस विद्यालय में आईं तब उनके सामने अनेक चुनौतियाँ मुँह खोले खड़ी थीं, जिसमें सबसे बड़ी चुनौती थी बच्चों की कम संख्या, जो उस समय शायद 5-6 ही थी | एक समय ऐसा भी आया, कि विद्यालय में बच्चों की संख्या घटकर केवल 2 ही रह गई | इसके अनेक कारणों में से एक कारण तो उत्तराखंड के इस भीतरी पिछड़े इलाक़े में शिक्षा के प्रति उदासीनता एवं जागरूकता का अभाव रहा और ग़रीबी के कारण बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय काम पर लगाने की प्रवृत्ति रही है |

अंजलि  ने तब उन कारणों को समझने एवं लोगों को अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए गाँवों में जाकर अभिभावकों से बातचीत शुरू की | इस दौरान अनेक परिवार ऐसे मिले, जो अपने व्यक्तिगत संघर्षों में टूटते-बिखरते इस हद तक उलझे हुए थे, कि उन्हें इसपर विचार करने का अवसर ही नहीं मिल पाता था, कि उनके बच्चों का जीवन और भविष्य शिक्षा द्वारा और भी बेहतर बनाया जा सकता है | तब धीरे-धीरे अंजलि  उनके पारिवारिक दुःखों-तकलीफ़ों में उनके साथ खड़ी होने लगीं, उनकी मदद करने की कोशिश करतीं, उन्हें हौसला देतीं |

…ऐसा ही एक परिवार था, जिसमें अंजलि  के कुछ भावी विद्यार्थियों की माँ अस्पताल में मृत्युशय्या पर पड़ी अपनी मौत से लड़ रही थी, लेकिन वह अपने बच्चों के भविष्य को लेकर इस हद तक चिंतित थी, कि चिंता के कारण उसकी मौत बहुत तेज़ी से क़रीब आती चली गई | अंजलि  उस महिला से रोज़ अस्पताल में मिलने जाती, उसे हौसला देती | यह सिलसिला चल ही रहा था, कि एक दिन उस माँ ने इस अध्यापिका का हाथ अपने हाथों में लेकर बहुत भाव-विभोर होकर अपने बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने का आग्रह किया | अंजलि  ने उनको आश्वासन दिया और माँ के चेहरे पर संतोष की चमक आई | अगले दिन जब वे उस मरणासन्न महिला से मिलने गईं, तो वह माँ अपने बच्चों के भविष्य की चिंता से मुक्त होकर शांतिपूर्वक संसार छोड़ चुकी थी, परिवारजनों एवं डॉक्टरों ने अंजलि  को यही बताया | तब से यह अध्यापिका उन बच्चों का दायित्व संभाले हुए हैं, उनकी पढ़ाई से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक की समस्याओं में उनके साथ खड़ी होकर… एक तरह से उन बच्चों की ‘अध्यापिका-माँ’ की भूमिका में |

ऐसी न जाने कितनी ही कहानियाँ इस अध्यापिका के विद्यालय एवं उनके विद्यार्थियों के गाँवों में बिखरी पड़ी हैं ! दरअसल इन पिछले 15-16 सालों में जितने भी बच्चे उनके विद्यालय में आए और पढ़कर चले गए, वे सब एक कहानी इस अध्यापिका के हिस्से में जोड़ते गए | दरअसल विद्यालय में आनेवाले हर बच्चे का अपना संघर्ष था, जिससे जूझने एवं एक सीमा तक उनसे जीतने में इस अध्यापिका की भी भागीदारी रही, इसलिए हर बच्चा/बच्ची उनके जीवन में अपनी कहानी जोड़ता चला गया, जो आज भी ज़ारी है…|

अध्यापिका की इस सहयोगी-प्रवृत्ति एवं संवेदनशील व्यवहार का नतीजा यह रहा, कि उनके विद्यालय में पहाड़ के ऊपर के गाँवों के बच्चे भी इनके विद्यालय में आने लगे और कई अन्य दूर-दूर के गांवों के भी | इस विद्यालय के सभी बच्चों के बेहतर पोषण से लेकर पढ़ने-लिखने, विद्यालय तक आने-जाने और उनके व्यक्तिगत जीवन की भी अनेक समस्याओं के समाधान में अंजलि अपनी भूमिका निभाती ही रहती हैं, जिसके लिए वे हर साल अपने वेतन की एक अच्छी-ख़ासी धनराशि ख़र्च करती हैं, अंदाजन कम से कम 7-8 हजार मासिक के हिसाब से लगभग 80-90 हजार रुपए…| और कमाल तो यह है, कि इसका ज़िक्र तक वे किसी से नहीं करतीं, मुझे भी इस लेख के लिए बलपूर्वक उनसे इस सम्बन्ध में जानकारी निकलवानी पड़ी…

इसी दौरान 7 दिसम्बर 2018 को उनके पति का देहांत हो गया, जिसने अंजलि  को भीतर तक झकझोर दिया | स्वाभाविक रूप से इसका बहुत अधिक असर उनपर होना ही था, वह भी तब जब वे पौड़ी में अकेली रह गईं | उनके बच्चे अपने-अपने काम के सिलसिले में पौड़ी से दूर रहते हैं, किसी और स्थान पर | तब परिवार और बच्चों से दूर अकेली अंजलि  का अकेलापन और अधिक बढ़ गया, लेकिन उसी अनुपात में उनकी हँसी की मात्रा भी बढ़ गई, ताकि कोई उनकी एकांत-पीड़ा को देख न ले, उनके विद्यार्थी कमज़ोर न पड़ जायँ और उनका मनोबल न टूट जाय अपनी ‘अध्यापिका-माँ’ या ‘दादी/नानी’ को तकलीफ़ में देखकर…! एक बात और, जिसे हालाँकि वे नहीं शायद जानतीं, और मैंने भी उनसे बातचीत के दौरान उनकी बातों में आने वाले भावों और प्रतिक्रियाओं से ही थोड़ा-बहुत महसूस किया और अनुमान लगाया, कि जीवनसाथी को खोने के बाद व्यक्ति में जो एक किस्म की भावुकता और प्रेम-जनित संवेदना पैदा होती है, उसने उनके भीतर अपने विद्यार्थियों के प्रति उनके लगाव एवं दायित्वबोध को और भी अधिक बढ़ा दिया |

इसलिए अब विद्यालय और बच्चों के लिए उनका समय अधिक व्यतीत होता है, घर में भी रहते हुए लगातार इसी पर चिंतन-मनन होता है, कि आज के माहौल (कोरोनाकाल और लॉकडाउन के दौर में) बच्चों की पढ़ाई कैसे ज़ारी रखी जाए, सभी बच्चों को भोजन मिला होगा या नहीं, बच्चे पिछला पढ़ा हुआ भूल न जाए, इसके लिए क्या किया जाए, स्कूल से उनको जोड़े रखने के लिए क्या किया…आदि…  

अस्तु…

…इन पिछले 15-16 सालों में अपने विद्यार्थियों को अपना जीवन-संघर्ष जीतने में इस अध्यापिका ने कैसी और कितनी भूमिका निभाई, लॉकडाउन में बच्चों को शिक्षा एवं विद्यालय से जोड़े रखने के लिए किस प्रकार की कवायदें की, इनपर बातचीत अंजलि  से संबंधित अगले भागों, अर्थात् अगले आलेखों में… तब तक पाठकों को भी इंतज़ार करना होगा…

सादर

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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2 thoughts on “अंजलि डुडेजा

  1. भारत के भविष्य को सवारने,बेहतर समाज के लिए प्रयत्नशील एवं शिक्षा के क्षेत्र में शानदार हेतु प्रयाश हेतु अंजली मेम को हार्दिक साधुवाद एवं सलाम।

  2. नमन मैडम अंजलि डुडेजा जी को 🙏🙏
    वर्तमान समय में जब हर कोई केवल अपने, अपनी नौकरी व अपने परिवार तक ही सीमित है तो ऐसे में वास्तव में अपने संघर्ष एवं पीड़ा को भुलाकर एक शिक्षिका होने के साथ -साथ उन बच्चों की माँ की भूमिका का भी निर्वहन करना, कुछ अलग करना बहुत बड़ी बात है, प्रेरणादायी है।
    मैडम अंजलि डुडेजा जी के बारे में सारगर्भित रूप में लिखने हेतु आपको भी साधुवाद आदरणीय मैडम जी 🙏

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