कला के मार्ग से शिक्षा के पथ की ओर
भाग-दो
यात्रा : रंगमंच से जन सरोकारों तक
रंगकर्मी और साहित्यकार सफ़दर हाशमी की हत्या उनके नाटक ‘हल्ला बोल’ के मंचन के दौरान क्यों हुई थी ? क्या इसलिए कि वे एक नाटक कर रहे थे ? अथवा इसलिए कि उनके नाटकों में ‘कुछ ऐसा’ था, जिसने हत्या करनेवालों को हत्या करने के लिए ‘बाध्य’ किया ? तब सवाल यह भी उठता है, कि ‘वह कारण’ क्या था, जो सफ़दर हाशमी की हत्या को ‘आवश्यक’ बनाता था ? ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठेगा, कि वे लोग कौन थे, जिनको सफ़दर के नाटकों में सफ़दर की ‘हत्या करने के आवश्यक कारण’ नज़र आए ? …वैसे… इन सवालों को यहाँ क्यों उठाया जा रहा है, जबकि बात आशीष नेगी…एक अध्यापक… की हो रही है…?
…दरअसल इन्हीं चन्द प्रश्नों के बीच से आशीष के जीवन में झाँकने एवं उनके काम को, उन कार्यों के महत्त्व को समझना तनिक आसान होगा… मेरे लिए भी…! …कि इस शिक्षक ने अपने विद्यालय में ही टिककर पढ़ाने-मात्र के स्थान पर क्यों रंगमंच और नाटकों की दुनिया में क़दम रखा, क्यों वह कलाओं के पीछे लगातार भाग रहा है…? क्या उद्देश्य रहा होगा इस अध्यापक का, विद्यालय की ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए, उसकी व्यस्त दुनिया से आगे निकलकर एक अतिरिक्त कर्तव्य, एक अतिरिक्त कार्य का दायित्व अपने ऊपर लेने के पीछे… एक अतिरिक्त भार उठाने और उसका बोझ ढोते रहने के पीछे…? क्यों अन्य कुछ अध्यापकों की तरह मात्र मोटी ‘तनख्वाह पाने’ के लिए विभाग द्वारा शिक्षक के लिए तय किए गए कार्य ‘विद्यालय में पढ़ाने का नाटक करने’ तक सीमित न रहकर एक ऐसी ‘अनावश्यक’ एवं ‘ख़तरनाक’ ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ी, जिससे शक्तिशाली समाज को ऐतराज़ भी है, परेशानी भी, और नाराज़गी भी…
इसके उत्तर वैसे तो हम आशीष के जीवन में तलाश सकते हैं, लेकिन उन उत्तरों की तीव्रता और तिक्तता को महसूस करनी हो, तो एक बार हमें अवश्य उन लोगों की ओर देखने की हिम्मत करनी चाहिए, जो आशीष जैसे काँटों भरी राहों के पथिक युवकों से पूर्व, उनके नायक और अग्रदूत की तरह उन राहों पर आए और इनसे कुछ कहकर, कुछ सुनकर, और इन्हें कुछ समझाकर भी… इतिहास में सदा-सदा के लिए विलीन हो गए ! सफ़दर हाशमी, उमेश डोभाल, हबीब तनवीर, जैसे लोग उन्हीं अग्रदूतों में रहे, जिनके जीवन एवं सार्वजनिक गतिविधियों ने आशीष जैसे नौजवानों को उन राहों का पथिक बनाया… जिसमें पैरों के साथ-साथ मन को भी छलनी करनेवाले भरे-पूरे काँटे हैं, पैरों की गति को थामनेवाले पथरीले-नुकीले अवरोध भी, और उत्साह का दमन करने को उद्धत रोकनेवालों का हुजूम भी…
…सफ़दर हाशमी मजदूरों, छात्रों, महिलाओं, युवाओं, किसानों —यानी समाज की रीढ़ और उसके लिए सबसे आवश्यक, लेकिन सबसे अधिक पीड़ित हिस्से, से न सिर्फ़ जीवन भर जुड़े रहे, बल्कि उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए आन्दोलनों के माध्यम से सदैव उनके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलते भी रहे, अपने नाटकों के माध्यम से उनकी समस्याओं को उठाते भी रहे | इसके लिए उन्होंने साहित्य, कला और रंगमंच, रंगमंच में भी नुक्कड़-नाटक, को अपना माध्यम बनाया | वही नुक्कड़ नाटक, जिसे मानवता के ऐसे ही अग्रदूतों द्वारा निरंतर जनहित के पक्ष में जनता को जागरूक, सचेत, संघर्षशील बनाने के लिए एक साधन की तरह प्रयोग किया गया और अभी भी किया जा रहा है |
‘जन नाट्य मंच’ के संस्थापक इस कम्युनिस्ट विचारधारा के नाटककार, गीतकार, निर्देशक, कलाकार, रंगकर्मी सफ़दर ने अपने अनेक नाटकों —मशीन, गाँव से शहर तक, हत्यारे और अपहरण भाईचारे का, तीन करोड़, औरत, डीटीसी की धाँधली, मोटेराम के सत्याग्रह, दुश्मन, हल्ला बोल, समरथ को नहीं दोष गुसाईं आदि— से अपनी जन पक्षधरता को बख़ूबी साबित और स्थापित किया |
ये वही नाटक थे, जिन्होंने सत्ता और समाज के वर्चस्ववादी समुदायों को नाराज़ कर दिया था, सफ़दर का शत्रु बना था | इन नाटकों में एक तरफ़ तो राजनीतिक सत्ता की क्रूरता, निरंकुशता एवं तानाशाही को उजागर किया गया था, तो वहीँ दूसरी तरफ़ समाज के वर्चस्वशाली तबकों द्वारा, समाज के कमज़ोर एवं सदियों से दमित-वंचित समुदायों के उत्पीड़न और अत्याचारों की अमानुषिक प्रवृत्तियों को एवं उनके अमानवीय षड्यंत्रकारी वैचारिक-बुनावटों-बनावटों को उभारा गया था | इससे जहाँ सत्ता उनकी दुश्मन बन बैठी, तो समाज के वे शक्तिशाली ‘प्रभु-नायक’ भी ख़ूब चिढ गए, जिसके बाद सफ़दर की निर्मम हत्या कर दी गई…
…आशीष नेगी ने भी जब मात्र 13 साल की उम्र में साल 2000 में रंगकर्मी जमुनाराम के संपर्क में आने के बाद थिएटर और रंगकर्म को अपने जीवन में एक स्थान दिया, तब शायद ही उन्होंने उस समय सोचा होगा, कि वे इस कला की ऊँगली थाम भविष्य में किस दिशा की ओर जाएँगें | हालाँकि यमुनाराम ने शुरूआती स्तर पर ही कैशोर्य की तरफ़ बढ़ रहे आशीष के मन में नाटकों एवं रंगमंच के माध्यम से जनहित के लक्ष्य को बीज-रूप में स्थापित कर दिया था, लेकिन उस बीज को अंकुरित होने, उसके पल्लवित-पुष्पित होते हुए एक विशाल वृक्ष बनने और उसपर फ़ल लगने अभी बाक़ी थे, जनता तक उस फ़ल को पहुँचने में तो अभी थोड़ा समय था…
…समय बीतने के साथ-साथ आशीष के जीवन में आनेवाले अनेक लोगों (माँ से लेकर राजेन्द्र रावत ‘राजू’, शमशेर बिष्ट, असग़र वज़ाहत, बी.मोहन नेगी, आदि) ने, अपने ही जीवन के संघर्षों और चुनौतियों ने, आशीष की दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं संकल्प ने धीरे-धीरे उस बीज को एक विशाल वृक्ष में रूपांतरित करने में अपनी-अपनी भूमिका निभाई |
समय के साथ-साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए आशीष के विचारों ने आकार ग्रहण करना प्रारम्भ किया, उन विचारों को निश्चित दिशा मिलने लगी, और वे समाज के साथ गहनता से जुड़ने लगे | इसमें मददगार हुआ, उनका अपनी टीम के साथ अलग-अलग स्थानों पर जाकर अपने नाटकों का प्रदर्शन करना, जिसके लिए दूर-दूर तक के स्थानों की की गई यात्राओं ने भी इस कलाकार-अध्यापक के व्यक्तित्व निर्माण में कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई…
… दरअसल यदि अपने समाज को, उसकी बनावट, बुनावट और बसावट को, उसकी प्रवृत्तियों और मनोवृत्तियों को, उसके नित्य-प्रतिदिन के व्यवहारों को, उन ‘व्यवहारों’ के पीछे छिपकर काम करनेवाले मनोविज्ञान को, उसके वैचारिक पक्षों को, उसके बौद्धिक एवं संवेदनात्मक परिदृश्य को समझना हो, तो हमें दूर-दूर की यात्राएँ करनी चाहिए, दूसरे समाजों एवं उनकी संस्कृतियों को उनके बीच जाकर देखना-समझना चाहिए | इससे हमें एक व्यापक ‘दृष्टि’ मिलती है, हमारे विचारों को दिशा के साथ-साथ धार भी मिलती है, हम अनेक दृष्टिकोणों से देख, समझ और सोच पाते हैं | क्या यही कारण नहीं है, कि अनेक स्थापित साहित्यकारों ने अपने जीवन में यायावरी-प्रवृत्ति अपनाई…? —-चाहे वे महापंडित राहुल सांकृत्यायन हों, या भगवतशरण उपाध्याय, अथवा नागार्जुन, या दूसरे ऐसे ही दर्ज़नों साहित्यकार-कलाकार…!? ऐसे लोगों के साहित्य एवं कलाओं का अनुशीलन हमें उस यथार्थ की ओर ले जाता है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है —यानी यायावरी से, अपने एवं दूसरों के समाज को व्यापक रूप से देखने, समझने, गुनने, बुनने की क्षमता की प्राप्ति |
…तो आशीष भी अपनी नाटक-मंडली के साथ अपने नाटकों के प्रदर्शन के उद्देश्य से उत्तराखंड के सभी तेरह जिलों में, उसके भीतर अनेक दूरस्थ स्थानों पर गए और अभी भी यह सिलसिला जारी है | उत्तराखंड की परिधि से बाहर निकलकर उन्होंने भारत के दूसरे अनेक क्षेत्रों को भी बख़ूबी देखा | जहाँ अपनी टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान उनका हैदराबाद जाना हुआ, तो अपने कार्यों के दौरान अनेक दूसरे अवसरों पर कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) के मुक्त समाज को भी देखा, उत्तर प्रदेश के बहु-सांस्कृतिक स्थानों (इलाहाबाद, लखनऊ, कानपूर, फ़ैजाबाद आदि) को भी समझा, तो उड़ीसा जैसी भुखमरी और ग़रीबी से जूझते आदिवासियों की नगरी को भी देखा और देश की राजधानी दिल्ली के वैचारिक संगम वाले स्थान को भी जाना |
जाहिर है, कि इस क्रम में उन्हें उन स्थानों के समाज को बहुत नज़दीक से देखने-परखने-समझने के अच्छे अवसर मिले होंगे | इस देखने-समझने के क्रम में उन्होंने कलकत्ता के मुक्त समाज को भी देखा, जो औपनिवेशिक-भारत में हमारे देश के बौद्धिक-जगत का दशकों तक प्रतिनिधित्व करता रहा है, तो उन्होंने इलाहाबाद की सांस्कृतिक नगरी भी देखी, जो दशकों तक साहित्य-जगत को ही प्रेरित-प्रोत्साहित नहीं करती रही, बल्कि उसका समाज भी अपनी इस विशेषता से अछूता न रहा | उन्होंने हैदराबाद जैसी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक नगरी के लोगों को भी ख़ूब देखा, तो उड़ीसा के आदिवासियों की बेबसी, ग़रीबी, भुखमरी और लाचारी भी अवश्य महसूसी होगी |
क्या इन स्थानों ने उनके विचारों को प्रभावित न किया होगा…? उन्हें, उनके व्यक्तित्व को, विचारों को, संवेदनाओं को किसी भी अंश में काटा-छाँटा-तराशा न होगा…? क्या उड़ीसा की भोली-भाली निर्दोष आदिवासी जनता की बेबसी ने उनके मन में सवाल नहीं उत्पन्न किए होंगे, कि किस अपराध में वे इस हाल में अब तक रखे गए हैं…? क्या दिल्ली और कलकत्ता के खुले विचारों, और विचारों के बाहुल्य ने उनको झकझोरा न होगा, कि किन कारणों से इन ‘विद्वानों’,’विदुषियों’ का मन अपने ही देश में मौजूद उड़ीसा जैसे इलाक़ों के आदिवासियों की दयनीयता पर विद्रोह नहीं करता, सरकारों और समाज पर भरपूर दबाव के माध्यम से उसे अपनी नीतियाँ बदलने को बाध्य नहीं करता, उन आदिवासियों के मानवीय अधिकार उन्हें दिलाने को पुरज़ोर आवाज़ नहीं उठाने देता…? क्या इलाहाबाद, लखनऊ, कानपूर, फैज़ाबाद के समाज और संस्कृति ने उनके मन में यह प्रश्न खड़ा नहीं किया होगा, कि समाज कोई भी हो, कुछ वर्गों को क्यों बिना हाथ-पैर हिलाए मलाई खाना पसंद है, जिसके लिए वे दूसरों के जीवन तक को अपमानित-तिरस्कृत करते हैं, उनके बच्चों के मुँह से निवाले तक छीन लेते हैं…? क्या अलग-अलग स्थानों की राजनीतिक प्रणाली के क्रिया-कलापों ने, वहाँ के समाजों के दोगले चरित्र ने आशीष और उनके साथियों के मन को मथा न होगा ? उनको विद्रोही न बनाया होगा…?…
…इन विविध स्थानों से मिले विपुल अनुभवों ने, वहाँ के लोगों के विचारों एवं कमज़ोर तबकों के साथ उनके व्यवहारों ने आशीष को एक नई दुनिया दिखाई, जिसमें उन्होंने एवं उनके साथियों ने इन अलग-अलग स्थानों में समानता और असमानता के अनेक रूप देखे, अन्याय और अत्याचार के विविध रूपों को समझा, उन समानता-असमानताओं, अत्याचार-अन्यायों के विरुद्ध लोगों के संघर्षों के विविध रूपों को भी देखा, तो कमज़ोरो-पीड़ितों के उन संघर्षों के विरुद्ध शक्तिशाली तबकों की बहुशः कठोर-क्रूर प्रतिक्रियाएँ भी देखीं और समझीं | …और इन तमाम चीजों ने आशीष एवं उनके साथियों की अपने राज्य, उसके भीतरी हिस्सों, गाँवों, नगरों, समाजों और संस्कृतियों को ठीक से समझने में सहायता की, उन्हें एक नई ‘दृष्टि’ से ‘देखने’ की शक्ति और क्षमता प्रदान की, उनके आलोक में उन्होंने अपने समाज की कमियों को समझा, तो उसकी ख़ूबियों को भी पहचाना, उन्होंने अपने समाज की ताक़त को आँका, तो उसकी कमज़ोरियों का भी आकलन किया…
…और निरंतर विकसित होती समझ ने, निर्मित होती नई संवेदनाओं ने, आकार लेती बौद्धिक-समझ ने उन युवाओं को नई राह दिखाई, उनके कर्तव्यों का निर्धारण किया | इसके बाद इन युवाओं ने धीरे-धीरे अपने नाटकों में समाज के भीतर देखे-समझे-महसूसे गए विविध मुद्दों को उठाना शुरू किया | आशीष बताते हैं, कि उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर समाज की समस्याओं एवं जन-सरोकारों से जुड़े लगभग सभी मुद्दे अपने नाटकों में उठाए | उनमें समाज के प्रत्येक वर्ग से जुड़े मुद्दे भी शामिल थे, जैसे भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, महंगाई आदि; तो उन्होंने ऐसी समस्याओं को भी उठाए, जिनका सम्बन्ध समाज के कुछ तबकों से था, उदाहरण के लिए कमजोर और वंचित वर्गों से जुड़े मुद्दे, जैसे जाति-प्रथा, छुआछुत, जातीय-भेदभाव एवं जातीय-दुराग्रह… आदि | इतना ही नहीं, उन्होंने महिलाओं से संबंधित मुद्दे भी बहुतायत में उठाए, क्योंकि आशीष और उनके साथी यह मानते हैं, कि किसी भी समाज की महिला का यदि विकास नहीं होता है, तो वह समाज चाहे कितना भी विकसित हो, चाहे उसके विचार कितने भी प्रगतिशील हों, वह सब अधूरा है, बेमानी है |
अपने इन उद्देश्यों को सामने रखकर आशीष ने अपने साथियों के साथ मिलकर लगभग 700 से अधिक नुक्कड़ नाटक किए, तो 80 से अधिक थिएटर के भीतर स्टेज शो किए | सद्गति, मुक्ति का मार्ग, त्रिशंकु, औरत, लड़ाई, पोल खुला पोर पोर…आदि कुछ नाटकों के शीर्षक ही अपने-आप में बहुत कुछ कहते हैं | इसके अलावा सफ़दर हाशमी के नाटक ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ को उन्होंने इसी शीर्षक से लगभग 250-300 बार अलग-अलग स्थानों पर मंचित किए | लेकिन ये सिर्फ़ आँकड़े नहीं हैं, बल्कि ये आँकड़े अपने-आप में बहुत कुछ कहते हैं —इन युवाओं के बौद्धिक-वैचारिक आयामों को, समाज में बराबरी और सौहार्द-स्थापना के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और समर्पण को, सामाजिक-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध उनकी पक्षधरता को, उनकी मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों को…!
जैसाकि अनेक लोग मानते हैं, कि कला मनोरंजन का साधन होती है, कला का सर्वप्रथम उद्देश्य और कार्य ‘मनोरंजन’ ही होता है; तब एक सवाल यह उठता है, कि तब इन युवाओं ने कला को उसके ‘प्रथम कर्तव्य मनोरंजन’ से आगे ले जाकर उसे जन-अधिकारों की लड़ाई से क्यों जोड़ा ? क्यों कला का ‘प्रथम उद्देश्य मनोरंजन’ को ही नहीं रहने दिया ?
…माना कि अनेक साहित्यकार, कलाकार एवं आलोचक कला का सबसे बड़ा उद्देश्य ‘मनोरंजन’ को ही मानते हैं, लेकिन कला का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन करना ही नहीं होता है | वस्तुतः आनंद का स्थान जीवन के बाद ही होता है, और यही होना भी चाहिए | जब जीवन के लाले पड़े हों, तब कौन दुस्साहसी, आनंद की ओर देख सकेगा ? जब अपनी आँखों के सामने कोई माता-पिता अपनी संतानों को भूख से बिलबिलाते देखते हों, तब उन्हें कहीं भी ‘आनंद’ जैसी चीज नज़र कैसे आ सकती है ? जब पिता के स्वाभिमान को किसी अहंकारी के पैरों तले कुचला जा रहा हो, माँ का आँचल खींचा जा रहा हो, तो किस पत्थर-ह्रदय के मन में आनंद की अनुभूति के लिए इच्छा जाग सकती है ? अपनी आँखों के सामने भाई को निर्दयी की लाठियाँ और गोलियाँ खाते देख किस निर्मम के मन में ‘कला का आनंद लेने की इच्छा शेष बचती होगी ? दंगों के बहाने चारों ओर बिछी लाशों के ढेर को देखकर किस हृदयहीन के ‘ह्रदय’ में कला का आनंद भोगने की चाह बचती होगी…?…
यदि ऐसा होता, तो अनेक साहित्यकार, रंगकर्मी या दूसरे अन्य कलाकार इस ‘कला’ नामक वस्तु को ‘आनंद’ के स्वर्ग से निकाल कर नरक-तुल्य जीवन जी रही जनता के बीच लेकर नहीं जाते— वह जनता, जिसके पास ‘कला का आनन्द’ लेने का समय, इच्छा और सुविधा उसी तरीके से नहीं होती है, जैसी साधन-संपन्न लोगों और वर्गों के पास होती है | …वह तो भूख से लड़ने में ही इतनी उलझी हुई होती है, कि ‘आनन्द’ उसके जीवन का हिस्सा बन ही नहीं पाता है | उसकी समस्या तो भूख से लड़ने की होती है, ग़रीबी से कुछ निज़ात पाने की होती है, आत्मसम्मान पूर्वक जीवन जीने की होती है, …जिनसे वह वंचित रखा गया है | यदि ऐसा नहीं होता, तो जनता की पीड़ा, और उस पीड़ा के पीछे के षड्यंत्र को उजागर करने के लिए लेखक और दूसरे कलाकार अपनी कलम और कूचियाँ नहीं थामते, रघुवीर सहाय प्रेम और प्रकृति का चित्रण छोड़कर ‘ताक़तवरों’ के षड्यंत्रों को उजागर करने के पीछे अपनी कलम नहीं घिस रहे होते—
“मनुष्य के कल्याण के लिए
पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह और कुछ
सोच न पाए
फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली ज़रूरत रोटी है
जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंज़ूर करेगा
फिर तो उसे यह बताना रह जाएगा कि अपनों की
गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
तुम्हें रोटी तो मिल रही है एक जून” (रघुवीर सहाय)
शायद अपनी इसी प्रतिबद्धता के चलते ऐसे ‘विद्रोहियों’ ने कला को ‘विद्रोह और विरोध’ के लिए अपना ‘साधन’ बनाया | यहीं पर इस सवाल के भी जवाब मिलने लगते हैं, कि सुन्दर सजीले थिएटर को छोड़कर इन लोगों ने, आशीष और उनके साथियों ने भी, नुक्कड़-नाटक ही बहुलांश में क्यों अपनाए ?
दरअसल नाटकों एवं रंगमंच के भीतर, जनता की बात को जनता तक पहुँचाने का सबसे सुगम तरीका है —नुक्कड़ नाटक | नुक्कड़ नाटक सीधे जनता से जुड़ जाता है, इसे कहीं से भी शुरू किया जा सकता है, उसमें बहुत अधिक सोचने-विचारने की ज़रूरत नहीं होती है, कि नाटक को कैसे शुरू करें, कहाँ से शुरू करें, या किस बात से शुरू किया जाय | इसी कारण जनता के मुद्दे को उठाना इसमें बहुत आसान हो जाता है | केवल थोड़ी-सी तैयारी के साथ भी बहुत ही सीधे-सरल ढंग से इसे शुरू किया जा सकता है | दूसरी महत्वपूर्ण बात कि इसके लिए न तो बहुत अधिक चीजों की ज़रूरत होती है, न बहुत अधिक भौतिक तैयारियों या साजों-सामान की, अर्थात् न्यूनतम ख़र्च में इसे खेला जा सकता है | तीसरी बात कि इसके लिए किसी भी स्टेज या रंगमंच की भी ज़रूरत नहीं होती है, न किसी विशेष स्थान की | बल्कि जनता के बीच में ही किसी भी स्थान पर —नुक्कड़ पर, सड़क पर, गली में, मैदान में— इसे सरलता से किया जा सकता है | यह इतना सरल और सुगम होता है, कि बहुत ही कम खर्च, न्यूनतम संसाधन एवं थोड़ी-सी तैयारी के साथ इसे किया जा सकता है | इसी कारण कलाकारों के लिए भी यह काफ़ी आकर्षक होता है, अधिक-से-अधिक लोग इसमें भागीदारी करने को प्रस्तुत हो जाते हैं |
मुझे याद है, जब मैं 2005-2014 के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा थी, तब वहाँ अनेक महाविद्यालयों के छात्र-छात्राएँ आर्ट्स फैकल्टी के परिसर में विवेकानंद की मूर्ति के सामने कहीं भी अपने नाटकों को लेकर पहुँच जाते थे | वहीँ गार्गी कॉलेज औए लक्ष्मीबाई कॉलेज में भी अपने अध्यापन-काल के दौरान विद्यार्थियों को नुक्कड़-नाटक खेलते देखे | कई बार तो विद्यार्थी सड़क के किनारे ही नाटक खेलते मिल जाया करते थे | अनेक आंदोलनों में भी नाटकों के अजब-ग़जब मंचन देखे | लेकिन उन सब में एक बात बहुत ख़ास हुआ करती थी… उनके पास न कोई ताम-झाम होता था, न कोई विशेष साजों-सामान, केवल रोज़मर्रा की चीजें, जैसे काग़ज़ का गत्ता, दुपट्टा, गमछा, डंडा और ऐसी ही चीजें जिनके लिए पैसे ख़र्च करने की जरुरत नहीं… | यानी हमारे आसपास मौजूद चीजें ही उनके संसाधन हुआ करती थीं, जिनके लिए किसी माथापच्ची की ज़रूरत नहीं, किसी तनाव की ज़रूरत नहीं, कोई झंझट नहीं, कोई परेशानी नहीं… बस मन में दृढ़-इच्छा-शक्ति और अदम्य साहस…
चौथी, और सबसे महत्वपूर्ण बात, चूँकि आधुनिक समय में नुक्कड़ नाटकों में मुख्यतः जनता की समस्याओं को उठाया जाता है, उसकी परेशानियों को प्रमुखता दी जाती है, इसलिए यह अति-आवश्यक शर्त और ज़रूरत होती है, कि वह जनता के अधिक-से-अधिक हिस्से तक पहुँचे भी | …और नुक्कड़ नाटक की अपनी प्रवृत्ति, अपनी विशेषता इस कार्य को बहुत अच्छी तरह पूरा करती है | चूँकि इनका मंचन किसी बंद जगह या चारदीवारी के दायरे में नहीं होता है, बल्कि एकदम खुले स्थान पर होता है, जहाँ अधिक-से-अधिक लोगों की पहुँच हो, जैसे गलियाँ, सड़कें, चौराहे, खेल के मैदान आदि, इसलिए स्वाभाविक रूप से आम जनता में से अधिक से अधिक लोगों तक एक समय में पहुँचना आसान हो जाता है | …और यही इसका उद्देश्य भी है |
जिज्ञासा हो सकती है, कि आशीष यह काम कैसे करते हैं ? इस सवाल के जवाब में आशीष ने बताया था, कि अपने किशोर उम्र में वे ‘परम’ नामक संस्था से जुड़े थे, जिसमें उनके सभी साथी शामिल थे | यह संस्था हालाँकि बहुत समय तक अच्छा काम करती रही, लेकिन एक समय के बाद जब इसका जुड़ाव अनेक एनजीओ से कुछ अधिक हो गया, तब संस्था उन एनजीओ की एक तरह से अधीनस्थ-सी होकर रह गई, उनकी एक तरह से भोंपू-सी बनकर रह गई | वह उन एनजीओ के लिए ही नाटक करने में इतनी व्यस्त हो गई, कि अपने निर्धारित उद्देश्यों के लिए स्वतंत्र रूप से नाटक करने का समय उसके पास नहीं बच पाता था | इससे उस संस्था का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व, अपना स्वतन्त्र वजूद ख़त्म-सा होने लगा | जबकि उस समय किशोर वय के आशीष एवं उनके अग्रज कलाकार अशिक्षा, ग़रीबी, भ्रष्टाचार, जाति-व्यवस्था, छुआछूत, जैसे मुद्दों को लेकर काम करना चाहते थे, जो समाज के सबसे ज्वलंत प्रश्न थे | लेकिन अनेक एनजीओ के साथ प्रमुखता से ‘परम’ के जुड़ जाने से यह अब उतना आसान नहीं रह गया |
तब आशीष के अग्रज कलाकारों ने ‘परम’ से अलग होकर संभवतः साल 2004 या 2005 में एक नई संस्था बनाई— ‘नवांकुर’ | तब आशीष इंटर के छात्र, एक किशोर हुआ करते थे | इस संस्था के निर्माण का उद्देश्य था, समाज के उन सर्वाधिक आवश्यक एवं ज्वलंत मुद्दों को उठाना, जो समाज को सबसे अधिक प्रभावित कर रहे हैं, जिनको ‘परम’ में रहते हुए उठाना मुश्किल होता जा रहा था | अब वे स्वतन्त्र होकर वंचित एवं शोषित तबकों की समस्याएँ उठाते हैं, समाज में गरीबों, बच्चों, मजदूरों, वंचित-वर्गों, छात्रों, युवाओं आदि की समस्याएँ उठाते हैं, अशिक्षा, रोज़गार, भ्रष्टाचार, सामाजिक बुराइयाँ आदि पर बात करते हैं…!
इसके बाद ‘नवांकुर’ की छत्रच्छाया में अपने अग्रजों के साथ मिलकर किशोर आशीष ने नाटकों की श्रृंखला शुरू की, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है, हालाँकि किशोर-वय एवं अपनी पढ़ाई में व्यस्तता के कारण उस समय उनकी भूमिका थोड़ी-सीमित थी, जो बाद में जाकर बढ़ी | ‘नवांकुर’ में दो तरह के लोग काम करते हैं, एक तो उसके स्थाई सदस्य, जिनकी संख्या, इस आलेख के लिखे जाने के समय तक, संभवतः दस-बारह है | दूसरे प्रकार के वे सदस्य हैं, जो इस मंडली में स्थाई सदस्य तो नहीं हैं, लेकिन अक्सर अपनी भागीदारी करते रहते हैं |
हालाँकि नाटक मंडली के सदस्यों के लिए तथा दूसरे स्थानों पर बच्चों के साथ काम करने के लिए आर्थिक उपार्जन के उद्देश्य से ‘नवांकुर’ भी दूसरे एनजीओ के लिए नाटक खेलता है, लेकिन इस टीम ने अपनी स्वतंत्रता, अस्तित्व और विशेषता को बड़ी ख़ूबसूरती से बचाकर रखा है | इसलिए अपने तय किए गए उद्देश्यों के लिए यदि अपनी टीम के साथ आशीष स्वतन्त्र रूप से नाटकों का मंचन करते हैं, तो उनकी टीम आर्थिक उपार्जन के उद्देश्य से दूसरी संस्थाओं के निमंत्रण पर भी काम करती है | कई बार ऐसा भी होता है, कि किसी दिन उनकी मंडली किसी एनजीओ के लिए नाटक खेलती है, तो उसी दिन दूसरी पाली में अपने बैनर तले भी नाटक खेलती है | आशीष बताते हैं, कि “किसी एनजीओ के लिए उसके उद्देश्यों के अनुसार नाटक तैयार करना होता है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं होता, कि वह एनजीओ पूरी बात कहना चाहे, ऐसे में हमारा फ़र्ज होता है, कि हम समाज-हित में पूरी बात कहें, इसी कारण हम उस संस्था के लिए नाटक खेलने के बाद कई बार उसी दिन पूरी बात कहने के लिए अपने बैनर तले भी किसी अन्य स्थान पर उसी नाटक को दोबारा खेलते हैं |”
क्या इस नाटक मंडली ‘नवांकुर’ से बच्चे भी जुड़े हैं ? इस सवाल पर वे बताते है, कि उनकी नाटक मंडली में बच्चे भी शामिल हैं, लेकिन अस्थाई रूप से | दूसरे शब्दों में, नाटक में बच्चों की भागीदारी तो होती है, लेकिन वे मंडली में हमेशा नहीं शामिल होते हैं, बच्चों को अपनी पढ़ाई भी पूरी करनी होती है, उनके जीवन के दूसरे पक्ष भी ज़रूरी होते हैं, इसलिए उसको हानि न पहुँचाते हुए अपनी पसंद के नाटकों में ही उनकी भागीदारी होती है | मुझे याद है, साल 2018-20 के दौरान पौड़ी में रहने के दौरान वहाँ के सामुदायिक भवन में मैंने ‘नवांकुर’ के बैनर तले बच्चों के दो नाटक —अख़बार में नाम और एक और कोई नाटक (जिसका शीर्षक फ़िलहाल याद नहीं है)— दो बार देखे | बच्चों की प्रस्तुति लाज़वाब थी, उनका आत्मविश्वास तो प्रशंसनीय था ही, कला के प्रति, नाटक के प्रति उनका लगाव, उनका समर्पण, उनकी लगन भी कम श्लाघ्य नहीं थी |
आशीष और उनके साथियों की यह यात्रा अभी शुरू ही हुई है और अभी बहुत दूर तक जाना है, उनकी मंडली में, उनके हमराह बनकर अभी बहुत से आशीष को आना बाक़ी है…!
…चलता रहे ये कारवाँ यूँ ही रवाँ-दवाँ…
…सफ़र अभी जारी है…
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
एक शिक्षक के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में आशीषजी का कार्य बेहद सराहनीय है। इस संसार में बहुत से लोग जन्म लेते हैं, अधिकांश लोगों का जीवन केवल अपने लिए जीने में गुजर जाता है। बहुत कम व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपना सुख त्याग कर दूसरों के लिए जीते हैं।
आशीष जी वास्तव में आपके कार्य सराहनीय व प्रशंसनीय हैं । ये केवल कठिन परिश्रम व समर्पण की भावना से ही संभव है।
कनक लता जी के बेहतरीन लेखन कौशल से बहुत कुछ सीखने के लिए मिलता है।
We know Ashish sir as a dedicated teacher, as an amazing artist, as a fabulous performer, as a cooperative colleague and as a humble human being, but mam u portrait him so elaborately. Salute to him and thanks to you. Ur writing style and narration is too good…
You are a exquisite personality.I am proud of you.Keep going and motivating us
वाह! मन से और मेहनत से लिखा है। काम बोलता है। ये बधाई तो आशीष जी को दी जानी ही चाहिए। और आपको भी। आप आइना की तरह बातों को रख रही हैं।