बतकही

बातें कही-अनकही…

कला के मार्ग से शिक्षा के पथ की ओर

भाग-तीन :—

रंगमंच, बच्चे और सपनों की दुनिया

क्या आपने कभी अपने आस-पास एक अध्यापक को अपने कन्धों पर एक भारी थैला लटकाए उत्तराखंड की काँटों एवं कीड़े-मकोड़ों से भरी पथरीली-सर्पीली राहों में पगडंडियों के सहारे पहाड़ों की ऊँचाइयों को नापते या घाटियों की गहराई में उतरते देखा है? आपका कभी ध्यान जाय, तो देखिएगा अवश्य, आपके आसपास ही कहीं एक आशीष नेगी नाम का अध्यापक आपको अवश्य, जर्जर लेकिन कर्मठ सरकारी विद्यालयों के बच्चों या गाँवों के उन बदनसीब बच्चों, जिनको शायद किसी कारण से स्कूल नसीब नहीं हुआ, के बीच किसी योगी की भाँति बैठा हुआ मिल जाएगा…

आपके मन में सवाल उठ सकता है, कि यह अध्यापक वहाँ क्या रहा होता है? यह जानने के लिए तो हमें कुछ नजदीक जाकर देखना होगा, कि वह क्या कर रहा है…! पास जाकर देखने पर पता चलता है, कि उस अध्यापक के इर्द-गिर्द दर्ज़नों सामान बिखरे पड़े हैं— रंग-बिरंगे कुछ आकर्षक तो कुछ डरावने मुखौटे, रद्दी अख़बार, कैंची, गोंद, लकड़ी के टुकड़े, लोगों द्वारा बेकार समझकर फेंके गए अनुपयोगी पुराने गत्ते, पुराने बेकार काग़ज़, रस्सी, रंग, कलर-ब्रश…और भी न जाने कितनी ही चीजें…! ये व्यक्ति इन बेकार चीजों का करता क्या है? ज़रा गौर से देखना होगा उसकी गतिविधियों को…

…और उसे घेरकर इतने सारे कोलाहल करते बच्चे क्यों बैठे हुए हैं? वे उस व्यक्ति की किन बातों को इतने ध्यान से सुनकर सोच में पड़ रहे हैं? और उन छोटे-छोटे बच्चों के माथे पर ये प्रौढ़ों वाली सलवटें क्यों उभर रही हैं? …और क़िताबों से दूर-दूर रहनेवाले बच्चे किताबों पर ऐसे क्यों टूट पड़ रहे हैं, जैसे वे क़िताबें न हों बल्कि स्वादिष्ट मिठाइयाँ हों? ऐसा इस अध्यापक ने क्या जादू किया है अपने उन कबाड़-सामानों के द्वारा?

इसे समझने के लिए शिक्षा के उद्देश्यों को समानान्तर रूप से समझने की ज़रूरत है | शिक्षा का उद्देश्य मात्र बच्चों को अक्षर-ज्ञान कराना और नौकरी के काबिल बनाना ही नहीं है, बल्कि उनके व्यक्तित्व का चहुँमुखी विकास करना भी है, ताकि वे आगे चलकर समाज के सर्वांगीण विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें | उनमें सत्साहस, नैतिकता, संवेदनशीलता, मानवीयता जैसे गुणों का विकास करना भी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है | और उसी शिक्षा के प्रति बच्चों में रूचि कैसे विकसित की जाय?  

…हम सब यह बात ख़ूब अच्छी तरह जानते हैं, कि कलाएँ मात्र मनोरंजन का साधन-भर नहीं होती हैं, बल्कि वे अपने-आप में सम्पूर्ण संसार होती हैं | यदि कला और बच्चों के संबंध की बात करें, तो बच्चों के पढ़ने-लिखने में रूचि विकसित करने के सन्दर्भ में जितनी इनकी भूमिका होती या हो सकती है, उतनी किसी और चीज की नहीं | दुनियाभर के न जाने कितने ही विद्वान अक्सर इस बात की वक़ालत करते हुए पाए जाएँगे कि विद्यालयों में बच्चों की पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया को कलाओं की विभिन्न विधाओं से जोड़ दिया जाना चाहिए | लेकिन क्यों…? ऐसा क्या है इन कलाओं में? और नाटक या रंगमंच? वह बच्चों को कैसे शिक्षा से जोड़ने में सहायक हो सकता है?

इसका उत्तर स्वयं आशीष का जीवन है | जब वे मात्र तेरह साल की उम्र में नाटकों से जुड़े, तो वहीं इस बात को भली-भाँति सीखा, कि किस प्रकार शिक्षा को कला के माध्यम से सरल और सुगम बनाया जा सकता है | अर्थात अपने बचपन और कैशोर्य से ही उन्हें यह बात समझ में आने लगी थी कि कलाएँ शिक्षा के लिए बहुत अच्छी सहायक का काम कर सकती हैं |

इसीलिए अपने पिछले अनुभवों के आधार पर जब वे 2010 में पढ़ाई पूरी करने के बाद 2011 में शिक्षण-क्षेत्र में आए, तब अपने निश्चय को साकार रूप देने की कवायदें शुरू की | उन्होंने अपने विद्यालय में बच्चों को कला के रचना-संसार से परिचित कराने का निश्चय किया, जिससे उनकी पढ़ाई में रूचि को और अधिक परिमार्जित किया जा सके |

इसी दौरान उन्हें सीसीआरटी की ट्रेनिंग में हैदराबाद (2014) और दिल्ली (2016) जाने का मौका मिला | यहाँ भी उन्होंने यह देखा कि सरकारी प्रशिक्षण-संस्थान भी शिक्षा को कला से जोड़ने की ज़रूरत की ख़ूब वकालत करते हैं | वहाँ उन तरीकों पर भी चर्चा हुई, कि कला को किस प्रकार से शिक्षा से जोड़ा जा सकता है | उक्त ट्रेनिंग में चूँकि शिक्षा की दुनिया के बड़े-बड़े नामचीन लोगों ने इस सन्दर्भ में अपने अनुभवों को सुनाया, जिससे आशीष जैसे युवकों को अनेक नई दिशाएँ मिलीं | तब आशीष ने यहीं से शिक्षा के भीतर गंभीरतापूर्वक काम करने की पहल की; शिक्षा को ध्यान में रखकर बच्चों में पढ़ने के प्रति रूचि, लगन एवं चेतना जागृत करने के उद्देश्य से आर्ट, क्राफ्ट और थिएटर को एक साथ लेकर वर्कशॉप लगाने शुरू किए | हालाँकि स्कूलों में अपनी एवं बच्चों की व्यस्तता के कारण वर्कशॉप का काम लम्बी छुट्टियों में ही हो सकता था, इसलिए उन्होंने गर्मी (जून) एवं सर्दी (जनवरी) की छुट्टियों को इसके लिए चुना है | वे हर छुट्टी में बच्चों के लिए अलग-अलग स्थानों पर वर्कशॉप लगाते हैं |

…इसके अलावा किसी समाज को ‘रंगमंच’ या ‘नाटकों’ की ज़रूरत क्यों होती है…? समाज ने सदियों पूर्व इस कला-विधा का विकास क्या सोचकर किया होगा…? —क्या केवल मनोरंजन के लिए ? अथवा केवल कालिदास जैसे नाटककारों के प्रेम-काव्यों के प्रेमाभिनय के लिए…? या केवल राजा और उसके चाटुकार दरबारियों को हँसाने-गुदगुदाने भर के लिए…?

यदि यही ‘सत्य’ है, तो पराधीन भारत में भारतेन्दु ने ‘अंधेर नगरी’, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘विषस्य विषमौषधम्’, ‘भारत दुर्दशा’  जैसे नाटकों के लेखन और मंचन से तत्कालीन औपनिवेशिक सरकार एवं हमारे समाज की दोगली मानसिकता की धज्जियाँ क्यों उड़ाई…? उनके जैसे अन्य बहुत से कलाकारों ने देश की शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्था और सामाजिक-समस्याओं को आइना दिखाने के लिए क्यों इन नाटकों का प्रयोग किया…? ऐसे दर्ज़नों प्रश्न रोज़ सुनने को मिलते हैं और हमारे दिमाग में भी घूमते ही रहते हैं…|

दरअसल रंगमंच एक ऐसी दुनिया है, जो न केवल अपने दर्शकों को ही वैचारिक एवं भावनात्मक रूप से समृद्ध करती है, बल्कि उसके कलाकारों का जीवन भी वह बख़ूबी समृद्ध करती चलती है | यह वह संसार है, जहाँ अभिनय के माध्यम से ‘बहुत कुछ कहने’ की कोशिशें की जाती हैं —कभी व्यंग्य द्वारा समाज, धर्म या राजनीति की विद्रूपतापूर्ण व्यवस्थाओं पर चोट तो कभी हल्के-फुल्के मनोरंजन के उद्देश्य से हास्य का सृजन, कभी किसी वर्ग का वर्ग-चरित्र उजागर करने की कोशिश तो कभी उसके बरक्स खड़े किन्हीं कमज़ोर वर्गों की दयनीयता और उसके कारणों के उद्घाटन का प्रयास, कभी विभिन्न प्रकार के मठाधीशों के छद्म-आवरण का खण्डन-भंजन तो कभी अपने आस-पास किसी के द्वारा चुपचाप किए जा रहे बेहतरीन सराहनीय प्रयासों का महिमा-मंडन भी…!

…वस्तुतः रंगमंच और नाटक, विचारों एवं भावनाओं का वह समृद्ध संसार है, जिसमें गहन चिंतन-मनन, समाज की गहरी समझ, व्यवस्थाओं के प्रति पर्याप्त आलोचनात्मक दृष्टि, समाज एवं व्यक्तियों के प्रति मानवीय एवं संवेदनशील नज़रिया, और अलग-अलग वय, वर्ग, समुदायों के मनोविज्ञान की गहरी समझ की अति आवश्यकता होती है | …और यह अवश्यकता अभिनेता/अभिनेत्री और रंगमंच से जुड़े अन्य लोगों को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं, कि वे रंगमंच की इस दुनिया में प्रवेश करने के साथ अनिवार्यतः समाज, राजनीति, व्यवस्थाओं, वर्गों, व्यक्तियों आदि के प्रति समालोचनात्मक दृष्टि रखते हुए उनका गहनता एवं गंभीरतापूर्वक अवलोकन-अध्ययन करें… इन सबके निजी एवं सामूहिक मनोविज्ञान को समझें, उनके चरित्र की पड़ताल करें…

…और जैसाकि ऊपर कहा गया है, कि इससे रंगमंच से जुड़े अभिनेता, अभिनेत्रियों तथा अन्य कलाकारों को भी बहुत कुछ ‘हासिल’ होता है, …तो इसे उन लोगों के जीवन में, विचारों और व्यवहारों में देखा जा सकता है, जो इस विधा से जुड़े हैं…! अवश्य ही हम सबके आसपास ऐसे कुछ लोग होंगे ही…| हालाँकि जैसे प्रत्येक चीज के अपवाद होते हैं, तो यहाँ भी अपवाद मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं, …फ़िर भी…

तब सवाल किया जा सकता है, कि क्या रंगमंच और नाटक की ‘कठोर’ दुनिया बच्चों के लिए होनी चाहिए…? बच्चे कोमल मन के होते हैं, यदि उनके कोमल मन को बचपन में ही आघात पहुँचाया जाएगा, तो क्या यह बच्चों के मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए उचित होगा…? रंगमंच की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को देखते हुए तो इसे केवल वयस्कों के लिए होना चाहिए, फ़िर यहाँ बच्चों का क्या काम…? बच्चों को अनिवार्यतः रंगमंच से दूर रखा जाना चाहिए, अभिनय से तो खैर बहुत दूर रखने की ज़रूरत है…! बच्चों को तो पढ़ने-लिखने के लिए ही रहने दिया जाय, तो अच्छा होगा…! बच्चे नाटक में ही ध्यान लगाएंगें, तो पढेंगें कब…? बच्चे भटक सकते हैं, यदि कच्ची उम्र में ही उन्हें बड़ों की दुनिया की चीज —नाटक— में धकेल दिया जायेगा, या घसीट लिया जायेगा…! नाटकों में कई समस्याएँ ऐसी उठाई जाती हैं, जो बच्चों के कोमल मन को आहत कर सकती हैं, उसे ग़लत दिशा की ओर ले जा सकती हैं…! नाटकों में सम्मिलित होने से बच्चों का जीवन और भविष्य ख़राब हो सकता है…! ….

ऐसे दर्ज़नों सवाल और आशंकाएँ अक्सर उठाई जाती हैं या उठाई जा सकती हैं, जो परोक्ष रूप से यह कहना चाहती हैं, या इस बात की वक़ालत करती हैं, कि बच्चों को नाटकों की दुनिया से दूर रखना चाहिए ! लेकिन हमें यहीं पर ठहर कर तनिक उन तमाम आरोपों, संदेहों और सवालों की ओर ज़रा ध्यान से देखने की ज़रूरत है | साथ ही, यह भी समझने की ज़रूरत है, कि आरोप लगाने वाले या संदेह व्यक्त करनेवाले लोग कौन हैं | इससे हमें शंका खड़ी करनेवाले लोगों की नीयत का पता चलता है, जिसे वे सदियों से ढो रहे हैं और अभी भी जिसे वे उतारना नहीं चाहते | क्योंकि इससे समाज एवं शासन-प्रशासन पर उनकी निरंकुश-सत्ता को चुनौती जो मिल सकती है|

यह एक तरह से स्थापित सत्य है, कि नाटकों की दुनिया प्रायः ‘विचारों की दुनिया’ है, जहाँ लोग समस्याओं पर ही नहीं उनकी जड़ों पर भी विचार करते हैं, उनके कारणों पर मंथन करते है, और इस प्रक्रिया में उस ‘सत्य’ तक पहुँचने की कोशिशें करते हैं, जिसे सदियों से सामान्य-जन से छिपाया जाता रहा है | …और यही है, ‘उन लोगों’ के भय का कारण…

आशीष (अध्यापक, जीआईसी, एकेश्वर) के मामले में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा, कि उन्होंने किन बच्चों को नाटकों और कलाओं से जोड़ा? और उन्हें ही क्यों लिया? नाटकों को लेकर और उनके साथ मिलकर क्या-क्या काम किए? बच्चों के बीच काम करते हुए किन-किन मुद्दों को उठाया…? क्योंकि यहीं पर ऊपर व्यक्त की गई आशंकाओं, सवालों एवं आपत्तियों के उत्तर मिलते हैं…

आशीष बताते हैं, कि पहाड़ों में दूरस्थ एवं ग्रामीण ही नहीं, बल्कि जो अपेक्षाकृत थोड़े बेहतर सुविधा वाले इलाके हैं, वहाँ भी बच्चों को देश-दुनिया की कोई विशेष ख़बर या जानकारी नहीं होती है, तकनीकी एवं सूचना-क्रांति के युग में भी | वे उतना ही जानते हैं, जो टीवी में बताया जाता है, या जो उनके बड़े अपनी आपस की बातचीत में कहते-सुनते हैं…| लेकिन समाज की वास्तविक स्थिति क्या और क्यों है, दुनिया में क्या और किस कारण से घटित हो रहा है, इसकी कोई ख़ोज-ख़बर बच्चों को नहीं होती | इसी कारण उन्हें यह भी समझ में नहीं आता, कि जो व्यवहार वे दूसरों के साथ करते हैं, या जो व्यवहार उनके साथ दूसरों द्वारा किया जाता है, वह सही है या गलत ? इसका नतीजा यह होता है, कि बच्चों में न तो पर्याप्त तार्किक शक्ति विकसित हो पाती है, न उनमें समाज को देखने-समझने की आलोचनात्मक-दृष्टि का विकास हो पाता है | वे ‘बड़ों’ द्वारा दी गई ‘सीख’ और परम्पराओं को बिना सोचे-समझे ढोते चले जाते हैं | इसके दूरगामी परिणाम यह होते हैं, कि गलत परम्पराएँ इसी तरीके से अपनी जड़ें सदियों तक जमाये रहती हैं..

…शायद इसीलिए कुछ लोगों ने किसी भी चीज पर, किसी भी बात पर, या किसी भी घटना पर सवाल खड़े करने, संदेह करने, चिंतन-मनन करने से सबको रोक रखा है, ‘शिक्षा’ की दुनिया में भी ! शायद इसीलिए वहाँ ‘रटंत विद्या’ को इतना बढ़ावा दिया गया, क्योंकि उसमें बच्चे को अधिक ध्यान लगाकर पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती है | इसीलिए उन्होंने बच्चों को तार्किक ज्ञान से सायास दूर रखा है |

…इसलिए आशीष भी बच्चों को ‘रटंत-व्यवस्था’ से बाहर लाकर तार्किक ज्ञान की खोज में बच्चों को ले चलने को ओर प्रयासरत हैं | साथ ही, इसके माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने; समानता, भाईचारा, सद्भावना जैसे मानवीय एवं संवैधानिक मूल्य विकसित करने के लिए वे उसी प्रस्थान-बिंदु से काम की शुरुआत करने की वक़ालत करते हैं, जहाँ पर बचपन और कैशोर्य एवं उनकी शिक्षा को रोक दिया गया था ! क्योंकि बच्चों की शिक्षा पर ही अंकुश लगाकर शक्तिशाली वर्गों ने ‘बचपन’ को ज्ञान की दुनिया में उन्मुक्त विचरण करने से रोक रखा है, और यदि उसी ‘बचपन’ को पुनः मुक्त करके ज्ञान की दुनिया में स्वच्छंद विचरण की आजादी, प्रेरणा और प्रशिक्षण दे दिया जाय, तो बहुत कुछ बदला जा सकता है | बच्चों को बचपन से ही सोचने-समझने, तर्क करने, तार्किक ढंग से विचार करने, अतार्किक बातें पर सवाल करने की कला सिखाई जाय, तो बड़े होने के बाद यही बच्चे एक नई दुनिया का निर्माण कर सकते हैं | आशीष मानते हैं, कि बचपन ही वह उम्र है, जहाँ हम जैसे बीज बोते हैं, भविष्य में हमें वैसा ही समाज मिलता है | यदि बच्चों को इस उम्र में सही तरीक़े से सोचना एवं व्यवहार करना सिखा दिया गया, तो समाज में परिवर्तन लाने से कोई नहीं रोक सकता…

…तो नाटक और रंगमंच की दुनिया न केवल अपने दर्शकों को ही ‘कुछ’ देती है, बल्कि यह अपने कलाकारों के व्यक्तित्व में भी बहुत कुछ जोड़ती है और उसके व्यक्तित्व में से ‘बहुत कुछ’ घटाती है…| प्रश्न है, कि यह कैसे होता है?

…यदि हम गौर करें, तो पाएँगे, कि इस कला-संसार में प्रवेश करने के बाद व्यक्ति वही नहीं रह जाता है, जो वह उसके आने के पहले होता है | नाटक की ज़रूरत के अनुसार उसको समाज, देश, राजनीति, व्यवस्था, देश के शासन-प्रशासन, नीतियों, समाज के वर्ग-चरित्र, आदि का अध्ययन करना ही होता है, चाहे वह ‘आँखिन देखी’ के आधार पर हो अथवा साहित्य के माध्यम से, चाहे साथियों के साथ विचार-विनिमय की प्रक्रिया में हो अथवा इन सभी के सम्मिलित संयोग द्वारा | अन्यथा उसका नाटक स्पष्ट विचारों के अभाव में छिछला और दिग्भ्रमित हो सकता है | 

…इस प्रक्रिया में यह कला-विधा व्यक्ति के व्यक्तित्व में जहाँ मानवीयता, सह-अस्तित्व, समानता, सामंजस्य, सहिष्णुता, समरसता, लोकतान्त्रिक एवं संवैधानिक मूल्य जैसे अनेक सकारात्मक तत्वों को समावेशित करती है; वहीँ व्यक्ति के भीतर बहुत सारी नकारात्मक प्रवृत्तियों एवं व्यक्ति और समाज को हानि पहुँचाने वाले तत्वों —जैसे ऊँच-नीच की भावना, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, रंग, नस्ल के आधार पर घृणा, हिंसक-वृत्ति, अस्पृश्यता आदि को निकाल बाहर भी करती है | इसके साथ ही व्यक्ति और समाज के व्यक्तित्व को तराशने में भी इसका कोई जोड़ नहीं | व्यक्ति का संकोच यहाँ पिघलता है, उसकी झिझक, उसकी शर्म यहाँ विगलित होती है, व्यक्ति की अभिव्यक्ति की क्षमता यहाँ विकसित होकर निखरती है, उसमें अपनी बात कहने का आत्म-विश्वास और साहस उत्पन्न होता है | साथ ही, समय के साथ उसके विचार भी परिपक्व होते चले जाते हैं, विचारों में स्पष्टता आती चली जाती है, उसमें धार आती है, उसका विज़न स्पष्ट होता है |

…और समाज…? …अपने ही बच्चों के माध्यम से समाज वैचारिक रूप से चिन्तनशील बन सकता है, उसमें सहिष्णुता आती है, सह-अस्तित्व, मानवीयता, संवेदनशीलता आती है | क्या यही कारण नहीं है, कि साहित्य एवं दूसरी अन्य कई कलाओं के कलाकार भी रंगमंच या नाटकों से जुड़ने की कोशिश करते हैं…? यह भी हम देखें, कि क्यों प्लेटो ने उन कलाकारों को नगर के बाहर फेंकने को कहा है, जिनके नाटक और कविताएँ देख-सुनकर जनता अपने ही शासकों के विरुद्ध विद्रोही हो जाया करती थी…?

…तो आशीष अपने विद्यार्थियों एवं दूर-दराज के देखे-अनदेखे बच्चों को इसी नाटक और रंगमंच की दुनिया में ले जाने की कवायदें करते रहते हैं… जहाँ उनके व्यक्तित्व को माँजा जा सके, उसमें ‘बहुत कुछ’ वांछनीय जोड़ा जा सके और उसमें से ‘बहुत कुछ’ अवांछनीय घटाया जा सके…और इसके लिए उन्हें शिक्षा के मंदिर, यानी विद्यालय, तक लाया जा सके |

प्रश्न उठता है, कि आशीष का क्या वाकई कोई उद्देश्य है, बच्चों को रंगमंच और नाटकों से जोड़ने के पीछे…? और वह कौन-सी ‘नई दुनिया’ है, जिसकी रचना इन बच्चों के माध्यम से वे करना चाहते हैं…? वह दुनिया आशीष की कल्पनाओं में कैसी है, उसका स्वरूप कैसा है…?

…उस ‘नई दुनिया’ की कुछ अस्पष्ट-सी झलक हमें इस लेख की शुरुआत में मिल रही है, जिसका सपना अपनी आँखों में संजोए इस अध्यापक, आशीष नेगी, ने उत्तराखंड के दूर-दूर के इलाकों में जाकर काम करने की शुरुआत की है और इसे बहुत दूर तक ले जाने की क़वायद में लगातार संलग्न हैं | वे उन इलाकों को चुनते हैं, जो अक्सर देश-दुनिया से, समाज के बड़े हिस्से या मुख्यधारा से एक तरह से कटे रहते हैं | उनमें भी मुख्यतः गरीब, अशिक्षित ग्रामीण बच्चों से ‘आबाद’ दुनिया |

इस प्रक्रिया में अभी तक वे जिन इलाकों में जा चुके हैं, उनमें उत्तरकाशी का दूरस्थ गाँव जखोल, धारचूला-पिथौरागढ़ में दलाती गाँव, हल्द्वानी, लोहाघाट में डिग्री कॉलेज के बच्चों के साथ, बागेश्वर, सारथीहोम का अनाथाश्रम, पुलियाडांग (कल्जीखाल), बागेश्वर, हल्द्वानी, संगीता फ़रासी के घुमंतू समुदाय के बच्चों के साथ श्रीनगर में, सम्पूर्णानन्द जुयाल के बंजारे समाज के बच्चों के साथ ल्वाली में… आदि इलाके शामिल हैं | इन इलाकों में कई ऐसे भी होते हैं, जहाँ न वाहन जाने की सुविधा होती है, न कोई सीधा रास्ता… बल्कि वे कठिन एवं चुनौती भरे पहाड़ी रास्ते होते हैं, जो पथरीले ही नहीं उबड़-खाबड़, खाइयों से भरे, कभी-कभी हिंसक जानवरों, साँप, कीड़े-मकोड़ों आदि से भी अरक्षित, कँटीले पेड़-पौधों और झाड़ियों से भरे होते हैं | इन्हीं रास्तों पर चलते हुए कभी ऊपर से नीचे घाटियों में कई सौ मीटर नीचे की ओर स्थित गाँवों में तीन-चार किलोमीटर का रास्ता पैदल पार करते हैं, तो कभी सैकड़ों मीटर ऊपर चढ़ना होता है | 

बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती, बल्कि आशीष को अपने साथ बच्चों के संग काम करने के लिए अच्छे-ख़ासे साज़ो-सामान का एक भारी-भरकम बोझ भी लेकर ऐसे दुर्गम रास्ते कई किलोमीटर पैदल चलकर पार करने होते हैं | लेकिन आशीष इससे तनिक भी हतोत्साहित नहीं होते हैं | …कई बार सोचती हूँ, कि जो व्यक्ति इस हद तक समर्पित भाव से काम करता हो, जो अपने उद्देश्यों को लेकर इतना स्पष्ट हो, जो समाज को सकारात्मक और सबके लिए जीने के लायक बनाने की खातिर अनेक ऐसे दुर्गम रास्ते पार करने के बाद फिर से नए दुर्गम रास्तों पर जाने को हर बार प्रस्तुत हो जाता हो… उसकी संवेदना कितनी गहरी, निश्छल और प्रगाढ़ होगी…?

…नाटक और कलाओं का कोई भी वर्कशॉप कहीं भी हो, बच्चों के साथ काम करने के लिए आशीष हर स्थान के लिए 4-5 दिनों की ठोस योजना बनाते हैं | और 4-5 दिनों की यह वर्कशॉप प्रत्येक बार अपने आप में बहुत ख़ास होती है | आशीष कहते हैं, “चार दिन में हालाँकि किसी को भी बहुत अधिक नहीं सिखाया जा सकता, लेकिन मेरा पहला उद्देश्य होता है, बच्चों में पढ़ने-लिखने के प्रति रूचि और जिज्ञासा उत्पन्न करना और कुछ अंशों में कला के प्रति उनमें रुझान विकसित करना |” वे हर बार यह आशा लेकर काम शुरू करते हैं, कि क्या जाने उनकी पहल किसी बच्चे में क्या परिवर्तन कर दे ? 

वे अपने वर्कशॉप में दूरस्थ भीतरी ग्रामीण इलाकों में सभी वर्गों के बच्चों को जोड़ने की कोशिशें करते हैं | इस वर्कशॉप का दायरा बहुत विस्तृत होता है, जिसमें वे थिएटर के साथ-साथ चित्रकला और क्राफ्ट के बारे में भी विस्तार से बताने की कोशिश करते हैं, उसका अभ्यास भी कराते हैं, बच्चों के साथ मिलकर उन्हें बनाने की कोशिशें भी करते हैं | इस प्रकार ऐसी कार्यशालाएँ नाटक से लेकर पेंटिंग, मुखौटा बनाना, कबाड़, रद्दी, अख़बार आदि से कलात्मक वस्तुएं बनाने तक विस्तृत होती हैं और लक्ष्य होता है—अधिक से अधिक बच्चों को स्कूल की दहलीज तक ले आना और क़िताबों की दुनिया से उन्हें जोड़ना |

और इन सभी कार्यशालाओं के दौरान एक और महत्वपूर्ण काम होता है, बच्चों के साथ सामाजिक-समस्याओं पर गंभीर विचार-विमर्श, जिसमें आशीष न केवल स्वयं बच्चों की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक समस्याएँ ही समझने की कोशिश करते हैं, बल्कि इस प्रक्रिया में वे बच्चों को भी शामिल करते हैं, इस प्रक्रिया में शामिल होकर बच्चे न केवल एक-दूसरे की समस्याओं को समझने की कोशिश करते हैं, बल्कि इसके परिणाम में वे एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील भी होने लगते हैं, समस्याओं पर तार्किक ढंग से सोचने भी लगते हैं और उसे धीरे-धीरे अपने व्यवहारों में भी शामिल करने लगते हैं…!

सवाल यह है कि आशीष यह काम कैसे करते हैं ? क्योंकि बातचीत के माध्यम से तो बड़ों में भी परिवर्तन लाना इतना सरल नहीं होता है | …आशीष बताते हैं, कि वे इसके लिए बच्चों के पूर्वानुभवों का सहारा लेकर उनके चिंतन को झकझोरते हैं, जिसे बच्चों ने अपनी आँखों-कानों से देखा-सुना हो और वे उनके अनुभवों में शामिल हो चुके हों | वे बच्चों को सवालों-जवाबों के द्वारा ही उस बिंदु तक ले जाते हैं, जहाँ से बच्चे अपने-आप उस ‘सत्य’ को पकड़ सकें, उसके वास्तविक रूप को देख सकें, और अपने मन-मस्तिष्क में स्वतः ही विचार कर सकें, कि क्या उचित है और क्या अनुचित | आशीष उन धार्मिक-गाथाओं एवं कथाओं के माध्यम से बच्चों के चिंतन और विचारों को झकझोरते हैं, जो विभिन्न धार्मिक अवसरों पर बड़ों से या पुजारी से बच्चे सुनते हैं…| आशीष बच्चों के मन में प्रश्न को बीज-रूप में रख देते हैं |

इस प्रकार की विचार-विमर्श की प्रक्रिया से आशीष, बच्चों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना, उसके लिए संघर्ष करना, अपने मित्रों-सहपाठियों के प्रति समानतापूर्ण तरीक़े से व्यवहार करना सिखाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं | इसके अलावा, बच्चों के साथ बातचीत जब एक स्तर तक पहुँच जाती है, तब वे उनके माता-पिता को भी धीरे-धीरे अपने साथ सोचने-समझने-तर्क करने की इस प्रक्रिया में जोड़ना शुरू करते हैं |

अब सवाल है, कि जिन बच्चों के परिवारों के सामने ग़रीबी हमेशा मुँह खोले खड़ी रहती है, उनके जीवन में पढ़ाई-लिखाई और कला का क्या काम…? कला को लेकर इन कवायदों का उन ग़रीब बच्चों के जीवन में क्या उपयोग हो सकता है भला…? इस सवाल के जवाब में आशीष से उत्तर मिलता है— “पढ़ाई-लिखी किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इससे व्यक्ति के विचारों को दिशा मिलती है …और कलाएँ सिर्फ़ मनोरंजन का साधन-भर नहीं होती हैं, बल्कि यदि हम कुछ अधिक व्यवस्थित एवं सुनियोजित ढंग से इसको अपने जीवन में अपनाएँ, तो यह हमें आर्थिक-संबल और सहारा भी देती हैं, हम इन्हें अपनी आजीविका का साधन भी बना सकते हैं |… इस उद्देश्य को भी हम ध्यान में रखते हैं, जब हम बच्चों के बीच इसे लेकर जाते हैं | हम इस बात के प्रति सचेत रहते हैं, कि यदि इन कार्यशालाओं के दौरान किसी भी बच्चे के भीतर पेंटिंग, क्राफ्ट या थिएटर में से किसी में भी विशेष रूचि जगे, तो इस दिशा में उसके बेहतर प्रशिक्षण में हम उसकी मदद कर सकें, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह कला आगे चलकर उन बच्चों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करा सके…”

बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती है | जहाँ इन कार्यशालाओं का उद्देश्य बच्चों में कला की जानकारी विकसित करना और उसकी समझ एवं उसके प्रति रुझान पैदा करना है, तो वहीँ दुनिया से जोड़ना, दुनिया की समझ विकसित करना भी है, ताकि बच्चे यह जान-समझ पाएँ, की दुनिया में किसी समस्या को कैसे देखा जाता है, उसके समाधान किस प्रकार किए जाते हैं | इससे बच्चों की ‘दृष्टि’ व्यापक बनाई जा सकती है |

बच्चों को अपनी मुहीम से जोड़ने के लिए वे कला को इस कारण भी माध्यम के रूप में चुनते हैं, क्योंकि “पहाड़ी इलाकों के बच्चों को नहीं मालूम कि कला क्या होती है, दरअसल उन्हें कभी इसका सही माहौल नहीं मिला, कोई सहायक नहीं, कोई मार्गदर्शक नहीं | ऐसे में यह बेहद आवश्यक है, कि बच्चों को कला की दुनिया से परिचित काराया जाय, क्योंकि कला का आनंद लेने का अधिकार उनका भी है |”

जब उनसे पूछा गया, कि बच्चों को कला से जोड़ने का उनको ख्याल क्यों और कैसे आया? तब उन्होंने बताया, कि उनके व्यक्तित्व के निर्माण में कलाओं का बहुत अधिक महत्वपूर्ण योगदान है | कलाओं ने न केवल उनके भीतर रचनात्मकता को बढ़ावा दिया, बल्कि अनेक प्रकार से उनको सहारा भी दिया, जो व्यक्तित्व-निर्माण से होते हुए उनके भीतर रचनात्मकता के सृजन से लेकर अपने पढाई-लिखाई और जीवन-यापन के लिए संसाधन जुटाने तक में उनकी मददगार बनी, विचारों को तराशने और सही दिशा की ओर ले जाने में भी सहायक बनी, समाज को बेहतर ढंग से समझने का माध्यम बनी | तब क्या दूसरे बच्चों को वह यही लाभ नहीं दे सकती? अपने अनुभव से सीख लेकर उन्होंने बच्चों के जीवन में भी इन्हीं उद्देश्यों के लिए कला को लेकर काम किया |

इस प्रकार वे अब तक लगभग 50-52 वर्कशॉप लगा चुके हैं, जिसमें अभी तक इस माध्यम से लगभग 3500-4000 बच्चों के सीधे संपर्क में वे आ चुके हैं | इस प्रक्रिया में वे उन बच्चों से सिर्फ़ मिलते ही नहीं हैं, बल्कि उनके बारे में जितना हो सके जानने की कोशिश करते हैं, जैसे बच्चे किस चीज के बारे में क्या सोचते हैं, अपने जीवन से जुड़ी समस्याओं को वे कैसे देखते हैं, उन समस्याओं के निराकरण के सम्बन्ध में उनका नज़रिया क्या होता है, बच्चों की सामाजिक एवं आर्थिक के अतिरिक्त पारिवारिक एवं शैक्षणिक समस्याएँ किस प्रकार की हैं…आदि | उनका कहना है, कि इससे यह समझना आसान हो जाता है, कि उन बच्चों के साथ कला, क्राफ्ट एवं थिएटर के माध्यम से कैसे और क्या काम किया जा सकता है, जिससे उन बच्चों को अधिक से अधिक लाभ मिले |

…अपने मज़बूत कन्धों पर बच्चों के लिए रंग-बिरंगी सामग्रियों का बड़ा-सा थैला लटकाए यह युवा-अध्यापक आपको उत्तराखंड के किसी भी पहाड़ी दुर्गम रास्ते में विद्यालयों या बस्तियों की पथरीली राहों में आता-जाता, या बच्चों के बीच किसी योगी की भाँति रमा हुआ दिखाई दे जाएगा… ज़रा आँखें उठाकर देखिए तो सही…

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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4 thoughts on “आशीष नेगी

  1. *आशीष सर आप जैस शिक्षक ही आप जैसे इन्सान ही हमारे समाज और युवाओ को प्रेरित कर सकते हो उनकी सोच को बदल कर मजबूत भारत की नीव रख सकते हो।*
    🙏🙏🙏🙏

  2. श्रीमान आशीष नेगी जी, एक नाम जो पूरे उत्तराखंड में ही नहीं अपितु भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में एक ख्याति पा चुका है । एक उमदा कलाकार, नाटककार, मेकअप मैन, एक गुरु, और साथ ही साथ एक सक्षम,सरल व्यक्तित्व जो अपने छात्रों ,अनुजो ल साथ भी एक मित्र की भांति व्यवहार रखते है मै कपिल रावत आपका एक छात्र ।

  3. बतकही अपने नाम को सार्थक कर रही है और आपअपने ब्लॉग के साथ पूरा न्याय कर रही है। धन्यवाद कनक मैडम

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