कला के मार्ग से शिक्षा के पथ की ओर
भाग-एक
सर्जक और सर्जना
क्या नाटक, थिएटर, पेंटिंग, आर्ट एवं क्राफ्ट के माध्यम से उन बच्चों में आत्म-विश्वास, आत्म-सम्मान, जैसी भावनाएँ विकसित की जा सकती हैं, जिनके इन स्वाभाविक मानवीय विशेषताओं (यानी आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान) को उनके जन्म से पूर्व ही कुचला जा चुका है, उनके अभिभावकों के दमन के माध्यम से, जिनका सम्बन्ध समाज के बेहद कमज़ोर एवं दबे-कुचले तबके से है…? इसी के समानांतर एक प्रश्न यह भी उठता है, कि क्या उन बच्चों में समस्त मानव-जीवन के प्रति सम्मान एवं दायित्व-बोध, अपने कर्तव्य के प्रति जवाबदेही, सबके प्रति समभाव आदि मानवीय सद्गुण का विकास किया जा सकता है, जो जन्मना उस सामाजिक समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं, जिन्होंने सदियों से कमज़ोरों के दमन में ही अपना सम्मान और अपनी सत्ता तलाशी है ? यदि इन प्रश्नों के उत्तर सहजतापूर्वक न मिल सकें, तो हमें आशीष नेगी जैसे अध्यापकों के पास जाना चाहिए, उनके कार्यों को, उनके बहु-विध प्रयासों की ओर देखना चाहिए, जहाँ इस प्रश्न के ठोस उत्तर मिल सकते हैं |
आशीष नेगी…! —कला का एक साधक… थियेटर और रंगमंच का एक कलाकार… एक सर्जक… कला जिसकी उँगलियों में वास करती है… रंगकर्म जिसकी धमनियों में दौड़ता है… सर्जना जिसकी नियति है… सर्जन जिसका अनंत कर्म-पथ…! जो उत्तराखंड के दूर-दराज़ के इलाक़ों के भोले-भाले, सीधे-सरल, ग्रामीण पिछड़े बालक-बालिकाओं को कला एवं सर्जनाओं की इसी दुनिया में अपने साथ लेकर जाने की क़वायदें पिछले एक दशक से भी अधिक समय से कर रहा है, ताकि दुनिया की बहुविध गतिविधियों से अनजान इन बच्चों को उस दुनिया से परिचित कराया जा सके, उनमें अपने अधिकारों की चेतना और भूख जगाई जा सके, उन अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया जा सके, इसी के बरक्स उन्हें अपने कर्तव्यों, ज़िम्मेदारियों एवं जवाबदेहियों का एहसास भी कराया जा सके… ताकि वे भी मानव-सभ्यता के विकास में ‘अपना योगदान’ दे सकें, ‘अपना कुछ’ जोड़ सकें… !
सर्जना की दुनिया का यह साधक एक दिन के परिश्रम का, या किसी दैवीय वरदान का प्रतिफल नहीं है, बल्कि समय ने उसे बड़ी मेहनत से गढ़ा है, परिस्थितियों ने उसके व्यक्तित्व को आकार दिया है, जीवन के कठिन संघर्षों ने उसे राह दिखाई है, परिश्रम ने उसके हाथों को सामर्थ्य दिया है, चुनौतियों ने उसके पैरों को काँटों भरे कठिन पथ पर चलने की शक्ति दी है, जीवन को खंडित करनेवाली घोर निराशा ने ह्रदय को हौसले दिए हैं… और अपनी जीवन-स्थितियों ने उसके मन को गहरी मानवीय अनुभूतियाँ और संवेदनाएँ भी तो प्रदान की हैं, जिनकी अभिव्यक्ति उत्तराखंड के गरीब, अशिक्षित, संसार से अनभिज्ञ, पिछड़े समाज के इन बच्चों को, और निवासियों को भी, जागृत करने के उद्देश्य से बहुविध रूप में होती रहती है…!
आशीष नेगी जी वर्तमान में पौड़ी जिले में स्थित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय (GIC), एकेश्वर (उत्तराखंड) में बतौर अध्यापक कार्यरत हैं | उनसे मेरी भेंट पौड़ी में उस समय हुई, जब मैं एक संस्था में बतौर सुगमकर्ता (शिक्षक-प्रशिक्षण से संबंधित) कार्यरत थी और अक्सर वहाँ आयोजित होनेवाले विभिन्न कार्यक्रमों में से कुछ में आशीष जी भी शामिल हुआ करते थे | हालाँकि संस्था में रहते हुए संस्था की आतंरिक विषम परिस्थितियों के कारण व्यक्तिगत रूप से इनसे कभी मेरी विस्तार से बातचीत नहीं हो सकी | लेकिन इसके साथ ही मैंने यह भी महसूस किया, कि आशीष जी का कुछ अंतर्मुखी-सा व्यक्तित्व भी संभवतः उन्हें किसी के भी सामने जल्दी खुलने नहीं देता है, ख़ासकर जिससे उनका ठीक से परिचय भी न हो…| वे बहुत कम बोलते हैं, हालाँकि जब बोलते हैं, तो उनकी बात बेहद ठोस, तार्किक और सुचिंतित-सुविचारित होती है, उन बातों को काटने या विरोध करने के लिए या तो उतने ही बौद्धिक-धनी मस्तिष्क की ज़रूरत होती हैं, या कुतर्क की | …और मैं, विडम्बनावश उनसे वहाँ रहने के दौरान कभी सामान्य रूप से भी परिचित नहीं हो सकी, ठीक से परिचय तो दूर की बात है… वहाँ आने वाले अन्य अध्यापकों की तरह…| इसी कारण मुझे वहाँ आने वाले अध्यापकों से कुछ ठीक से परिचित होने की संभावना तभी बन सकी, जब उनके साथ काम करने के कुछ छोटे-मोटे मौक़े मिले, अथवा मेरा उनके विद्यालय जाकर उनके काम को धरातल पर देखना हुआ…
लेकिन संयोग से आशीष जी के विद्यालय जाने का एक भी अवसर मुझे नहीं मिला, और न ही उनके साथ कहीं और किसी दूसरे स्थानों पर किसी तरह का कोई भी काम साझे रूप से करने का मौक़ा मिला | लेकिन तब भी उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं विस्तृत कार्यों के बारे में अनेक माध्यमों से जानकारी मिलती ही रहती थी | इसके अलावा उन्हें काम करते हुए दूर से देखना, बच्चों के साथ उनकी बातचीत, अपने साथियों के साथ उनके व्यवहार, विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान अभिव्यक्त होनेवाले उनके विचार… उन्हें समझने के लिए मेरे पास यही स्रोत मुख्य रूप से उपलब्ध रहे | बहुत कम ऐसा हुआ, जब उनसे किसी मुद्दे पर मेरी खुलकर बातचीत हुई हो…
…कहते हैं, कि किसी व्यक्ति के बारे में जानने एवं उसके व्यक्तित्व को समझने के सामान्यतः तीन स्रोत होते हैं— एक, उस व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने बारे में बताना, जिसे सबसे निम्न श्रेणी का स्रोत माना जाता है | दूसरा, उस व्यक्ति के इर्द-गिर्द या उसके संपर्क में आने वाले अन्य लोगों के द्वारा उसके बारे में अभिव्यक्त होने वाले विचार, राय, धारणाएँ आदि, इसे मध्यम कोटि का स्रोत माना जाता है | और तीसरा, जो सबसे बेहतर या उच्च कोटि का माना जाता है, वह है, विभिन्न सम-विषम परिस्थितियों के दौरान सामने आने वाला उस व्यक्ति का सहज व्यवहार, स्वाभाविक चरित्र एवं उसका व्यक्तित्व, उसके विचार, उसकी भावनाएँ… आदि |
बात ठीक भी है, कोई व्यक्ति विभिन्न कारणों से अपने बारे में या दूसरों के बारे झूठ भी बोल सकता है, इसलिए यहाँ विश्वसनीयता का कुछ अभाव-सा हो सकता है, या वह प्रभावित हो सकती है | क्योंकि वास्तविक वस्तुस्थिति के ठीक से उभरकर सामने आ पाने में व्यक्ति के अपने आग्रह-पूर्वाग्रह-दुराग्रह बाधक बन सकते हैं |
लेकिन जब किसी व्यक्ति के कार्यों से, विभिन्न अवसरों पर स्वाभाविक रूप से प्रकट होने वाले उसके विचारों से, तर्कों से, समस्याओं के विश्लेषण और उसके प्रति उसके दृष्टिकोणों से, विभिन्न मुद्दों, व्यक्तियों, समुदायों, समाज, देश, आदि से जुड़े विभिन्न मसलों पर सामने आने वाले विचारों एवं विचारधाराओं से उस व्यक्ति के वैचारिक आयामों एवं मनःस्थितियों का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है, उसके अंतर्मन में चुपके से झाँकते हुए उसके विचारों की दिशा-दशा एवं भावनाओं की गहराई को स्वतः ही नापा जा सकता है | यहाँ अवलोकनकर्ता के अलावा किसी अन्य के आग्रह-दुराग्रह-पूर्वाग्रह बाधक नहीं बनते, सिर्फ़ अवलोकनकर्ता की अपनी ‘दृष्टि’ (विज़न) की सीमा या विस्तार ही उसके साथ होते हैं, जिसके अलोक में वह कुछ ‘देख’ और ‘समझ’ पाता है …
पौड़ी में उक्त सामाजिक-संस्था में काम करने के दौरान मुझे विभिन्न प्रकार के लोग मिले, उसमें भी विशेष रूप से शिक्षक-वर्ग के लोग | उन्हीं के वैचारिक आयामों का अध्ययन मैंने उन डेढ़ सालों के दौरान किए, ताकि मैं, एक नागरिक के रूप में, यह अनुमान लगा सकूँ, कि आनेवाले दशकों में उत्तराखंड का अध्यापक-वर्ग अपने इस सुन्दर मनमोहक राज्य ‘उत्तराखंड’ को, और व्यापक रूप से भारत को तथा उससे भी आगे बढ़कर सम्पूर्ण मानव-समाज को किस प्रकार की युवा-पीढ़ी निर्मित करके देने वाला है…
…क्योंकि मेरा यह स्पष्ट और दृढ़ विश्वास है, कि किसी भी समाज का शिक्षक-वर्ग ही यह तय करता है, कि उसके समाज और देश का भविष्य कैसा होगा | वह समाज को अपने प्रयासों एवं कार्यों से जिस प्रकार का युवा-वर्ग देगा, उसका समाज एवं देश प्रायः उसी के अनुरूप व्यवहार एवं आचरण करते हुए मिलेंगे | उस शिक्षक-वर्ग का जिस प्रकार का व्यवहार होगा— सबलों एवं निर्बलों के प्रति, जैसे विचार होंगे— उदार या कठोर, अथवा आक्रामक या संतुलनकारी, जिस प्रकार का आचरण होगा— हिंसक या अहिंसक, जिस तरह का चरित्र होगा— उदात्त या संकुचित; उसका युवा-वर्ग, और प्रकारांतर से समाज एवं देश भी, वैसा ही आचरण एवं व्यवहार भविष्य में करेंगे, वह भी अनेक पीढ़ियों तक…! यह असंभव है, कि युवा-वर्ग और समाज अपने अध्यापक के कार्यो, व्यवहारों, विचारों से पूरी तरह से अप्रभावी या अछूते रह जायँ !
कहते हैं, कि जब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने अपने पिता को बंदी बनाया, तो उसने पिता से कहा, कि वह उनकी एक इच्छा पूरी कर सकता है | तब बंदी शाहजहाँ ने अपने बेटे से कहा कि वह कुछ छोटे बच्चों को पढ़ाने की अनुमति चाहता है, जो उसके बंदीगृह में ही पढ़ने आएँगे | अपने पिता की इस इच्छा को सुनकर इतने विशाल भारत का बादशाह सिर से पैर तक काँप गया | उसके काँपने का कारण क्या था ? जबकि उसके पास हर तरह की ताक़त थी— विशाल सेना, चुस्त गुप्तचर प्रणाली, हथियारों का भरपूर ज़खीरा, अनुगत दरबारी, उसके लिए मरने-मारने वाले अंगरक्षक, आज्ञाकारी दास-दासी— यानी सबकुछ तो था उसके पास…!? इन सबके रहते बादशाह को किस बात का डर व्याप गया, कि वह अपने बंदी बेबस पिता की यह एक नामालूम-सी इच्छा भी पूरी न कर सका ?
इसका उत्तर है— द्रोणाचार्य-अर्जुन, चाणक्य-चन्द्रगुप्त… और आधुनिक-युग में कृष्णा महादेव अम्बेडकर-भीमराव अम्बेडकर… और ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण, जहाँ अध्यापकों ने बहुविध रूप में अपने परिश्रम से ऐसे युवाओं एवं युवा-वर्ग को सृजित किया, जिन्होंने इतिहास की धारा बदल दी, वक़्त का रुख मोड़ दिया, समाज को सिर के बल खड़ा कर दिया…! बादशाह औरंगज़ेब जानता था, इस सच को …वह समझता था उस इतिहास को, वक़्त की कुटिल चाल को…!
…और समाज भी शिक्षक-समुदाय की इस शक्ति एवं क्षमता से ख़ूब अच्छी तरह वाकिफ़ है, इसीलिए उसके सत्ताधारी वर्ग या समुदाय अनेक उपायों से सदैव अपने अध्यापक-वर्ग को नियंत्रित, निर्देशित और संचालित करने की कोशिशें करता रहता है, ताकि वह समाज को अपनी इच्छानुसार आकार दे सके | इसलिए मेरा भी यह दृढ़ विश्वास है, कि शिक्षक-वर्ग की किसी समाज एवं देश के निर्माण या विध्वंस में जैसी और जितनी भूमिका होती है, वैसी किसी और की नहीं…
…अपने पौड़ी-प्रवास के दौरान मुझे जो अनेक प्रकार के अध्यापक मिले, उन्होंने मेरी इस धारणा को दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ ही किया | वहाँ मुझे ऐसे भी अध्यापक मिले, जिन्हें इस बात से बहुत पीड़ा होती थी, कि सभी वर्गों के, यानी कमज़ोर वर्गों के, बच्चों को किसलिए पढ़ाया जा रहा है, उनका काम तो केवल तथाकथित उच्च वर्गों की सेवा करना एवं उनकी गालियाँ खाना ही है, जबकि उन बच्चों को पढ़ाने के एवज़ में ही उन अध्यापकों को मोटी तनख्वाह मिलती है | कुछ निरपेक्ष या निष्क्रिय-से रहनेवाले अध्यापक ऐसे भी थे, जिन्हें किसी भी बात से कोई विशेष मतलब नहीं रहता था, वे केवल मोटी सैलरी के लिए यह कार्य करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं, जिसे वे सहजता से स्वीकार भी करते थे | और इन दोनों से अलग अध्यापकों का एक तीसरे प्रकार का समुदाय भी मुझे मिला, जो समाज के प्रत्येक बच्चे की शिक्षा को उनके अधिकार के रूप में देखता है और उसके लिए कोशिश करना अपना कर्तव्य समझता है, जो उन बच्चों के लिए अपने निर्धारित ‘विभागीय कर्तव्यों’ से इतर जाकर अपनी क्षमता से अधिक प्रयास करता है, एकदम व्यक्तिगत रूप से, जिसके लिए उसे कोई वेतन, कोई सुविधा, किसी तरह की सहायता, या किसी भी प्रकार का कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता…
आशीष नेगी जी इसी तीसरे समुदाय के अध्यापक हैं, जिनके काम ने, गहन दायित्व-बोध ने, उसके लिए लगातार चलती उनकी कोशिशों ने, समाज की विषमता के प्रति गहन चिन्तनशीलता ने मुझे उनके व्यक्तित्व एवं कार्यों के बारे में जिज्ञासु बना दिया, उनसे कोई विशेष परिचय न होने के बावजूद…
संस्था छोड़ने के बाद दूसरे अध्यापकों (विशेष रूप से संगीता फ़रासी जी एवं सम्पूर्णानन्द जुयाल जी) के माध्यम से आशीष जी से मेरी बातचीत और परिचय का एक नया अध्याय शुरू हुआ | इन्हीं वार्तालापों के दौरान उनके सम्बन्ध में कुछ अन्य जानकारियाँ मिलीं, तो कुछ उन्हीं की तरह अपने लिए नई राह निर्मित करने वाले अध्यापकों एवं दूसरे अन्य लोगों के माध्यम से भी उनके काम के बारे में जानने को मिले | तब उनके काम को पुनः एक बार नए सिरे से समझने की कोशिशें शुरू हुईं | इन्हीं कुछ जानकारियों के आलोक में और अपनी आँखिन देखी को उसमें मिलाकर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को पुनः उलट-पलट कर देखने-समझने के प्रयास किए, हालाँकि यह ‘देखना-समझना’ भी इतना व्यापक एवं विस्तृत नहीं हो पाया है अब तक, कि मैं दावा कर सकूँ कि इस अध्यापक के व्यक्तित्व के सभी या अधिकांश पक्ष मेरे सामने उजागर हो चुके हैं, या उनके कार्यों या सामाजिक भूमिकाओं के बारे में सब कुछ या बहुत कुछ जाना जा चुका है | यह कोशिश शायद ऊँट के मुँह में जीरे से अधिक कुछ भी नहीं है…
आशीष जी का जन्म 6 फ़रवरी 1987 ई. को पौड़ी (उत्तराखंड) में हुआ था | वे श्री रमेशचंद्र एवं श्रीमती कमलेश देवी की तीन संतानों में सबसे छोटे हैं, जिनमें उनके अलावा उनके एक बड़े भाई और एक बड़ी बहन हैं | इनका विवाह साल 2013 में सुश्री रैमासी रावत जी के साथ हुआ, जो रंगमंच की दुनिया में उनकी सहकर्मी रहीं हैं | यह वैवाहिक-सम्बन्ध भी इस अध्यापक के वैचारिक एवं भावनात्मक आयामों में से एक का स्पष्टीकरण है… साथ ही सहधर्मिणी रैमासी जी के बौद्धिक-भावनात्मक वस्तुस्थिति का परिचायक भी…!
आशीष जी एवं उनके भाई-बहन का बचपन और कैशोर्य बेहद ही संघर्षपूर्ण रहा है, जहाँ न सिर्फ़ उन्हें अपनी पढ़ाई-लिखी के लिए संघर्ष करने पड़े, बल्कि जीवन जीने के लिए भी इन्हें एवं इनके पूरे परिवार को कठिन परिस्थितियों से जूझना पड़ा | पिता एक अख़बार में छोटा-मोटा काम करते थे, जिससे हालाँकि परिवार की गाड़ी ठीक से चल नहीं पाती थी, तब भी परिवार का गुजर-बसर हो ही रहा था | इस परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ तब टूट पड़ा, जब पिता को साल 1984-1985 में फेफड़े की बीमारी हुई और उससे संबंधित दिल्ली में सफदरजंग अस्पताल में ऑपरेशन के विपुल ख़र्च ने परिवार की आर्थिक रीढ़ ही तोड़ दी |
तब आशीष जी के दोनों भाई-बहन बहुत छोटे थे, शायद भाई चार-पाँच साल का बालक रहा होगा और बहन शैशवावस्था में होगी, आशीष जी का अभी जन्म नहीं हुआ था | माँ के ऊपर अकेले ही गृहस्थी का भार, बच्चों की देखभाल और पति के ईलाज के लिए पैसों के इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी आ गई | तब वे परिवार के साथ पौड़ी आ गईं, जहाँ उनके भाई रहते थे, ताकि आड़े वक़्त में उनसे मदद ले सकें | वे वहीं किराए के घर में परिवार सहित रहने लगी | जीवन यापन के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में बर्तन माँजने, खाना पकाने आदि का काम करना शुरू किया | समय धीरे-धीरे आगे बढ़ा, तब तक आशीष जी का भी जन्म हो चुका था और तीनों बच्चे बड़े होने लगे | माँ जब काम पर जातीं, तब घर में बच्चे अकेले रहते थे, क्योंकि पिता भी, अपने कमज़ोर एवं बीमार शरीर के साथ जितना संभव हो सके, उतनी सहायता के लिए एक खोखा (छोटी-सी बॉक्सनुमा दूकान, जिसे पौड़ी में ‘खोखा’ और पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार सहित कई जगहों पर पर ‘गुमटी’ कहते हैं) चलाने लगे | लेकिन बच्चे घर में रहते हुए, ऐसा नहीं है कि माता-पिता की कोई सहायता नहीं करते थे |
माता-पिता के सामानांतर ही, इन तीन भाई-बहनों के इस जीवन-संघर्ष ने पढ़ने-लिखने एवं खेलने-खाने की इस छोटी-सी उम्र में ही इन्हें बहुत कुछ सिखाया— एक-दूसरे के लिए एक-दूसरे के साथ खड़े होना, एक-दूसरे की मदद करना, परस्पर प्रेम और सम्मान-भाव, समाज के दूसरे लोगों एवं जीव-जंतुओं के प्रति संवेदनशीलता एवं सहाय्य-भाव, प्रत्येक काम का सम्मान करना, ज़िम्मेदारियों को समझना एवं उनका वहन… और भी बहुत कुछ…! बड़ा भाई घर के बाहरी हिस्से की साफ़-सफ़ाई करता, तो बड़ी बहन घर में झाड़ू लगाती, और बालक आशीष घर में पोछा लगाता | बहन गुड्डे-गुड़िया थामने के लिए बने अपने नन्हें हाथों से खाना पकाती, तो बड़ा भाई बाज़ार से सामान लाता, तब बालक आशीष अपनी दीदी की मदद के लिए रसोई के छोटे-मोटे कामों में, खिलोने थामने वाले अपने छोटे-छोटे हाथों से मदद करने की कोशिश करता | इसके अलावा भी कई काम थे, जो बच्चे स्वयं किया करते थे, अपने कपड़े धोने से लेकर अनेक ऐसे काम, जिन्हें सभ्य-संपन्न परिवारों के लोग, एवं उनके अनुकरण में उनके बच्चे हेय दृष्टि से देखते हैं और शायद ही कभी उन्हें हाथ लगाते हों | लेकिन इन तीन बच्चों को सामाजिक दायित्वों के साथ-साथ समानता की शिक्षा, प्रत्येक काम का महत्त्व एवं उसका सम्मान करना, ‘स्त्रियों के काम’ (यानी घर के काम) का महत्त्व जैसे प्रगतिशील संस्कार परिस्थितियों ने सिखाए | इस प्रकार घर इनकी पहली वास्तविक एवं व्यावहारिक पाठशाला बना |
और…माँ के पास समय कहाँ था…? वह तो अपने पति के बेहतर ईलाज की खातिर और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए, अपने इन छोटे-छोटे बच्चों के नन्हें कन्धों पर घर की ज़िम्मेदारी डाल, दूसरों के घरों में बर्तन माँजने एवं खाना पकाने के लिए चली जाती थीं | इन परिस्थितियों ने इन छोटे-छोटे बच्चों को बचपन में ही ज़िम्मेदार बना दिया, बच्चों ने माता-पिता की तकलीफ़ को क़रीब से देखा था, पिता की बेबस छटपटाहट देखी थी, जो अपने छोटे बच्चों की इस छोटी-सी उम्र में ही जीवन-यापन के लिए संघर्ष करते देखते थे, बच्चों ने माँ के तनाव और बेबसी देखी थी, भूख को क़रीब से देखा, समझा और उसकी ताक़त को महसूस किया था… | लेकिन माता-पिता एवं बच्चों की जिजीविषा और स्वाभिमानी प्रवृत्ति तथा कुछ अपराजेय-सी मानसिकता ने उन्हें संघर्ष करना सिखाया, हालात से लड़ना सिखाया, …सिर्फ़ अपने आगे घुटने टेकना वह नहीं सिखा सका… !
विषम परिस्थितियों के बावजूद, बच्चों की पढ़ाई को माता-पिता ने रुकने नहीं दिया और उनको सरकारी विद्यालय में दाख़िल करा दिया गया, बच्चे धीरे-धीरे पढ़ने लगे | इस परिवार का यह संघर्ष एक दिन या कुछ दिनों का नहीं था, बल्कि यह आगे तब तक ज़ारी रहा, जब तक बच्चे बड़े नहीं हो गए और अपने पैरों पर खड़े नहीं हो गए | माँ ने दूसरों के घरों में बर्तन माँजने, अपनी गृहस्थी सँभालने आदि के काम के साथ-साथ स्थाई सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएँ देनी भी ज़ारी रखी और साल 1992 में उन्हें एक स्कूल में परिचारिका की स्थाई सरकारी नौकरी मिल गई | इससे परिवार को कुछ सहारा हो गया |
इसी दौरान साल 1996 या 1997 में किशोरवय बड़े भाई ने अपनी इंटर तक की पढ़ाई पूरी कर ली और पोस्ट-ऑफिस में चिट्ठियों के ‘पैकर्स’, यानी वाहन में चिट्ठियाँ लादने-उतारने आदि का काम शुरू किया, जिसके बदले में उन्हें अठारह सौ रुपए के आसपास पारिश्रमिक मिलता था | परिवार को कुछ और राहत मिली | …और बालक आशीष ने पढ़ने-लिखने और खेलने की उम्र में माता-पिता की मदद करने के लिए अपने छोटे-से मासूम हृदय में स्वयं भी कुछ काम करने का निश्चय किया, तब इस बालक की उम्र थी, मात्र दस-ग्यारह साल और उस समय वह कक्षा छः का छात्र था |
बालक आशीष के सरकारी विद्यालय के ही आस-पास अंग्रेज़ी-माध्यम का एक प्राइवेट स्कूल था, जहाँ के बच्चों को विभिन्न विषयों से संबंधित चार्ट बनाने का काम होमवर्क के रूप में मिलता था | तब बालक आशीष ने उन बच्चों के लिए चार्ट बनाने का काम शुरू किया, जिसके बदले में उसे कुछ पैसे (25-30 पैसे) मिल जाते थे | आगे चलकर कैशोर्य की ओर बढ़ते इस बालक ने दूसरे स्कूलों के कमरों का रंग रोगन करने एवं वहाँ परदे लगाने का काम भी किया, 11 वीं कक्षा में आते-आते अपने सहपाठियों और दूसरे बच्चों के लिए विभिन्न विषयों की प्रैक्टिकल फाइलें बनाई, ताकि कुछ पैसे मिल सकें | धीरे-धीरे यह सिलसिला अख़बार बेचने से लेकर और भी न जाने कितने तरह के कार्यों तक पहुँचा | इन सबका उद्देश्य था, पिता के बेहतर ईलाज एवं गृहस्थी की गाड़ी को आगे ले जाने में माँ की मदद करना और इसके साथ ही अपनी पढ़ाई का ख़र्च निकालना भी |
कई बार इस परिवार के संघर्ष के बारे में सोचती हूँ, तो उनकी आत्म-शक्ति और स्वाभिमान-युक्त जिजीविषा हैरान करती है, और यही लगता है, जैसे कहीं अतीत से झाँकते वे तीन छोटे बच्चे जैसे वक़्त को चुनौती देते हुए, उन लोगों को, जो परिस्थितियों के आगे अपने-आप को लाचार और असहाय महसूस कर रहे हैं, सांत्वना-सी देते हुए उनसे कह रहे हों—
“खुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िंदगी,
रेंग कर मर-मर के जीना ही नहीं है ज़िंदगी,
कुछ करो कि ज़िंदगी की डोर न कमज़ोर हो |
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो |” (बल्ली सिंह चीमा)
…परिवार ने निरंतर संघर्ष करते हुए धीरे-धीरे पुनः अपने आप को स्थापित करना और साहस के नए अध्याय लिखना ज़ारी रखा |
माँ की स्थाई सरकारी नौकरी से से ज़िंदगी कुछ आसान तो हुई ही, साथ ही, पोस्ट-ऑफिस में ‘पैकर्स’ का काम करने वाले 12 वीं कक्षा पास बड़े भाई को भी, वहीँ काम करते हुए वहाँ के नियम के अनुसार तीन साल निरंतर काम करने के बाद एक परीक्षा पास करके संभवतः साल 2000 में थोड़े अच्छे पद पर स्थाई सरकारी नौकरी मिल गई |
और आशीष…! उन्होंने अख़बार बेचने, दूसरों की प्रक्टिकल फाइलें बनाने, चार्ट बनाने से आगे बढ़कर सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के लिए टी.एल.एम. (टीचिंग लर्निंग मटेरियल या शिक्षण सहायक सामग्री) बनाने का काम शुरू किया | यह उनके लिए बहुत कारगर साबित हुआ | इस कार्य ने अनेक स्तरों पर उनको नए रास्ते दिखाए…
जहाँ तक इन तीन बच्चों की शिक्षा का सवाल है, तो परिवार की विषम परिस्थितियों के कारण बड़े भाई को केवल इंटर तक ही पढ़ाई करने का मौक़ा मिल सका | हाँ बहन की ज़रूर बी.ए. तक की पढ़ाई हुई, जो परिवार के मनोबल और मनःस्थिति का परिचायक है | बालक आशीष को पढ़ाई के मामले में कुछ अधिक लाभ मिल सका, जो इस युवक की कड़ी मेहनत और पढ़ाई के प्रति लगन एवं समर्पण का परिचायक है |
इनकी शुरूआती शिक्षा-दीक्षा, यानी कक्षा 1-5 तक की, अपने निवास पौड़ी में सरकारी विद्यालय नगरपालिका संख्या 16 से हुई, तो कक्षा 6-8 तक की पढ़ाई इन्होंने अंतर-माध्यमिक विद्यालय (GIC) रीठाखाल (जिला पौड़ी) से पूरी की | इसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय, बिड़ला कैंपस, श्रीनगर से साल 2008 में इन्होंने बीए किया और वहीँ से साल 2010 में एम. की पढ़ाई पूरी की | इसके बाद साल 2011 में शिक्षक की नौकरी के लिए इन्होंने एल.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की और इसी वर्ष इनकी नियुक्ति अध्यापक के पद पर गवर्नमेंट इंटर कॉलेज एकेश्वर में हो गई | यहाँ उन्हें कक्षा 6 से 9 के बच्चों को सामाजिक-विज्ञान और हिंदी के साथ-साथ कला-विषय पढ़ाने का दायित्व सौंपा गया है, जो उनकी पसंद एवं रूचि के विषय हैं |
सवाल है, कि बेहद संघर्षमय जीवन जीता एक युवक कला की दुनिया में कैसे पहुँच गया…? क्योंकि आम धारणा तो यही है, कि कला की साधना सामान्य रूप से वही कर सकता है, जिसके पास संसाधन और समय, दोनों ही पर्याप्त मात्रा में हो | …और आशीष जी के पास न तो पर्याप्त संसाधन था, न समय | तब ऐसा कैसे संभव हुआ ? और वह भी इतनी तल्लीन साधना…!
जब एक बार यह सवाल मैंने आशीष जी से किया, तो काफ़ी संकोच के साथ वे इसका उत्तर देते हैं | वे बताते हैं, कि वस्तुतः उनकी रूचि तो मूल रूप से विज्ञान पढ़ने की ओर थी, लेकिन उसके लिए लाखों रुपए की ज़रूरत थी, और पैसे के अभाव में वे अपना पसंदीदा विषय नहीं पढ़ पाए | लेकिन तब भी वे निराश नहीं हुए और उन्होंने अपनी रूचि के दूसरे विषय, यानी कला, की ओर रुख किया और कला से ही उन्होंने साल 2010 में श्रीनगर के हेमवती नन्दन बहुगुणा विश्वविद्यालय से एम.ए. पूरा किया, जहाँ उन्होंने ड्राइंग और पेंटिंग की, साथ ही क्राफ्ट की भी, विधिवत शिक्षा ली |
कला की ओर रुझान की उनकी यात्रा कम रोचक नहीं है | मात्र 13 साल की उम्र में साल 2000 में वे एक रंगकर्मी जमुनाराम जी के संपर्क में आए, जिनसे संभवतः एक वर्कशॉप के दौरान वे मिले थे | यहाँ से उनका पदार्पण थिएटर और रंगमंच की दुनिया में हुआ, जिसने उनकी दुनिया बदल दी, इस किशोर को आगे का रास्ता दिखाया | इस प्रकार आशीष जी का सम्बन्ध, कुछ बचपन कुछ कैशोर्य अवस्था के बीच कला एवं रंगमंच से जुड़ना शुरू हुआ और समय के साथ यह निरंतर प्रगाढ़ होता चला गया |
आगे चलकर साल 2002 में जब इनकी भेट रंगमंच एवं थियेटर के माध्यम से राजेन्द्र रावत ‘राजू’ जी से हुई, तो इन्हें इस दिशा में और तेज़ी से आगे बढ़ने के अवसर मिले | एक प्रसिद्द कहावत है, कि “संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात, /बाँस, काँस और मिशरी, एक ही भाव बिकात |” तो आशीष जी के जीवन में इन दो विभूतियों ने इसी दोहे को चरितार्थ करते हुए उनके जीवन को एक विशिष्ट दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | और आगे चलकर एम.ए. में इन्होंने कला के विविध पक्षों की विधिवत शिक्षा लेकर अपने व्यक्तित्व एवं रूचि के इस पक्ष को ख़ूब माँजा, सँवारा-सजाया, जो अभी तक उनके जीवन में संगिनी की भाँति उनके उद्देश्यों को अपने कंधों पर उठाए चल रही है |
आशीष जी बताते हैं, कि उन्होंने अपने परिवार के हालात को देखते हुए कभी उनसे अपनी पढ़ाई के लिए कोई आर्थिक सहयोग नहीं माँगा, बल्कि इसके लिए कला को अपना हमसफ़र बनाया और कला ने भी उन्हें निराश नहीं किया, वह उनकी सदैव सहायक बनी | कला के माध्यम से ही, यानी दूसरे विद्यालयों के लिए टी.एल.एम. बनाकर, दूसरे बच्चों के लिए प्रैक्टिकल फाइलें आदि बनाकर, अख़बार बेचकर, दशहरे में रावण आदि के पुतले बनाकर अपनी पढ़ाई का पूरा ख़र्च जुटाया | स्कूल की पढ़ाई से लेकर विश्वविद्यालय में बी.ए और उसके बाद एम.ए. की पढ़ाई, और उसके साथ ही कंप्यूटर की पढ़ाई के लिए भी साठ हज़ार की मोटी धनराशि का प्रबंध उन्होंने अपनी कलाओं के माध्यम से ही किया |
इसी के समानान्तर कलाओं ने उनके सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन में भी उनकी बहुत मदद की | इस प्रकार कलाओं की उनके जीवन में बहुविध भूमिका है —निजी ज़रूरतें पूरी करने से लेकर सामाजिक-कर्तव्यों के निर्वहन तक ! …जिसकी यात्रा की कहानी आगे फ़िर कभी …
अपने संघर्षों के बारे में बात करते हुए, अंतर्मुखी एवं संकोची प्रवृत्ति के आशीष जी काफ़ी झिझकते हुए कहते हैं, कि “यदि हमने संघर्ष के वे दिन नहीं देखे होते, तो मैं आज शायद वह नहीं होता, जो मैं उन संघर्षों के कारण बन पाया…! मेरे लिए वे अभाव के दिन नहीं थे, बल्कि सीखने के दिन थे…! यदि मैं उन अभावों से नहीं गुजरा होता, तो शायद मैं वह सब कुछ सीखने से वंचित रह जाता, जो अभावों के कारण सीख पाया …!”
…अपने परिवार के साथ जीवन-यापन के लिए संघर्ष करता हुआ यह युवक अब सर्जना की दुनिया में पहुँचकर उसे अपना औज़ार बनाकर, अपना अस्त्र-शस्त्र बनाकर, अपने भीतर, समाज के भीतर सर्जना की नई-नई खिड़कियाँ तो खोल ही रहा है, इसके साथ ही वह समाज से बहुत कुछ कहने, मनवाने को आतुर भी है…
…बात अभी जारी है…
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
आप एक प्रेरणा स्रोत है इसी प्रकार आप सदैव उन्नति की ओर अग्रसर रहे।
Once again
Truly inspirational.It proves where is a will there is a way.If you set your mind to do something,you can easily do it.Nobody can stop you.
Shaandaar zabrdast zindabaad
Ashish negi sir prernashrot h hum sabke liye ..
Unse bahut kuch seekhne ko aur samjhne ko mila hai, samajik kary ho ya sanskritik pretek karya m unhone mhtvpoorn bhumika ka nirvaah kiya hai. Aur sir hamesha helpful rahe hai bccho k liye samaj k liye. Baki unke liye mere paas shbdo ka abhaaw hai. Baki asha krti hu sir aage bhi aise hi apni shbhagita dete rahe..
एक आशीष से दस बीस आशीष जरूर बने। जो सर्वगुणसम्पन्नता के आभूषणों से सुसज्जित हों। जो कला रंगमंच व धैर्य के गुणों मे उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहें।
ऐसी मैं कामना करता हूं।
आशीष एक प्रेरणास्रोत हैं उन लोगों के लिए जो परिस्थितियों का रोना रोते हैं। विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए स्वयं को स्थापित करना अनुकरण योग्य है।
अंजलि डुडेजा
वाह! अथक मेहनत की है आपने। आशीष जी के काम को प्रणाम।