बतकही

बातें कही-अनकही…

भाग-दो : हमें खेलते हुए पढ़ना पसंद है…!

पढ़ने-पढ़ाने के कई तरीक़े हो सकते हैं— एक तरीक़ा तो यह हो सकता है, जिसे अक्सर विद्यालयों में अपनाया भी जाता है कि कक्षा में आकर बच्चों की पुस्तकों के माध्यम से उनको पढ़ाने की कोशिश की जाए और बच्चे अपने अध्यापकों द्वारा बोर्ड पर लिखे गए शब्दों को अपनी कॉपियों में लिखते जाएँ, पुस्तकों में लिखे हुए को पढ़ने एवं अपनी कॉपी में छाप देने, अर्थात् लिखने, और प्रश्नों के उत्तरों को रटने की कोशिशें करें | दूसरा तरीक़ा यह हो सकता है कि इतना भी करने के स्थान पर ‘पढ़ाने’ की खानापूर्ति कर दी जाए और उसके बाद बच्चों के माता पिता जाने या वे बच्चे; शिक्षक क्यों बेवजह सिरदर्दी मोल ले, वह तो केवल अपनी तनख्वाह से मतलब रखे; और यह भी सरकारी विद्यालयों की एक बहुत ही आम प्रवृत्ति है |

लेकिन एक तीसरा तरीक़ा भी है, जिसमें यदि बच्चों को खेल-खेल में, या यूँ कहा जाए कि हँसते-खेलते माहौल में पढ़ने-लिखने की ओर उन्मुख किया जाए, जिसके लिए कुछ मज़ेदार तरीकों से बच्चों में क़िताबों के प्रति रूचि विकसित की जाए, तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलते हैं | एक तो यह, कि मज़ेदार और रोचक तरीक़े अपनाने से बच्चों में पढ़ने-लिखने के प्रति कमाल का उत्साह दिखता है | दूसरा यह, कि इससे उनमें नई चीजों को जानने-समझने के प्रति गजब की जिज्ञासा, ललक, रूचि नज़र आती है | तीसरा, कि स्वयं पहल करने एवं स्वयं कुछ करके देखने की छूट से बच्चों का अपने कार्यों एवं तौर-तरीक़ों के प्रति अपना आत्म-विश्वास, अपने काम के संबंध में उनकी आत्म-निर्भरता, नई चीज़ों, बातों, घटनाओं, तथ्यों आदि के संबंध में अपने ढंग से सोचने, खोजने, तर्क करने की क्षमता में कमाल की वृद्धि देखी जा सकती है | चौथी बात यह, कि ऐसे नित्य-नवीन तौर-तरीक़ों को अपनाने से पढ़ना-लिखना उनके लिए खेलने जितना आसान, मनोरंजक और मज़ेदार बन जाता है | पाँचवाँ फ़ायदा यह होता है, कि बच्चे अपने वातावरण को अपनी पढ़ाई एवं विद्यालय की शिक्षा से सीधे-सीधे जोड़कर देखने और समझने की कोशिश करते है और इससे दोनों के बीच सामंजस्य बिठाना उनके लिए बहुत ही सरल और लाभदायक होता है; और विद्यालय की दुनिया एवं समाज में जो एक अलगाव की स्थिति हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी रहती है, वह कम हो जाती है | छठी बात यह, कि नए-नए प्रयोगात्मक तरीक़े एवं बच्चों को उनसे जोड़ते हुए उनको ‘स्वयं करके देखने’ की छूट देने से बच्चे विद्यालय की दुनिया और घर-समाज के सामाजिक वातावरण के बीच की दूरी भूल जाते हैं और घटनाओं, परिस्थितियों आदि को अपनी पुस्तकों एवं शिक्षा से जोड़कर देख पाते हैं तथा अपनी पुस्तकों एवं अपने अध्यापकों द्वारा दी जा रही शिक्षा के माध्यम से समाज की उन घटनाओं एवं समस्याओं आदि को समझने, उनपर चिंतन-मनन करने एवं उनके समाधान पर विचार करने की कोशिशें स्वतंत्र ढंग से करने की दिशा में बढ़ते हैं | सातवीं बात, कि ऐसी शिक्षा पाने वाले बच्चे काफ़ी आत्म-निर्भर एवं स्वतंत्र चिंतन वाले नागरिक के रूप में विकसित होते हैं, जो अपनी इस प्रकार की शिक्षा के प्रभावों के कारण भविष्य में अपने व्यवहारिक जीवन की समस्याओं को तुलनात्मक रूप से आसानी से हल कर पाते हैं |

तब निश्चय ही कोई भी प्रगतिशील समाज अपने अध्यापकों की शैक्षणिक-भूमिकाओं एवं गतिविधियों के माध्यम से उनके कार्यों का आकलन एवं मूल्यांकन करने की कोशिशें करता रहता है और यह समझने की कोशिश करता है कि उसके प्रत्येक अध्यापक-विशेष ने समाज की प्रगति में कैसा और कितना योगदान दिया, उस अध्यापक का काम समाज के भविष्य-निर्माण में कितनी मात्रा में सहायक हो रहा है, अथवा प्रकारांतर से उसके विध्वंस में सहयोग कर रहा है |

अर्थात् यह तय है कि किसी भी समाज का प्रत्येक अध्यापक उस समाज के एवं उसके विविध वर्गों एवं समुदायों के विकास या विध्वंस, दोनों में अपनी भूमिका निभा सकता है, निभाता है; |भारत की शिक्षा-प्रणाली इन दोनों का उदाहरण है…

प्रदीप रावत…! राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय, गिंठाली (पाबौ, पौड़ी, उत्तराखंड) के अध्यापक और अपने विद्यार्थियों के ‘गाइड’ अध्यापक…! विद्यालय में अपने विद्यार्थियों के साथ, उनकी शिक्षा के साथ, उनके व्यक्तित्व-विकास के साथ, उनके भविष्य-निर्माण के साथ… प्रदीप की प्रयोगधर्मिता अपने समाज को आश्वस्त करती चलती है कि उन्होंने समाज के विकास को अपना लक्ष्य बनाया है, उसके विध्वंस को नहीं | और ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने यह माना है कि अपने विद्यार्थियों का सुनहरा भविष्य-निर्माण, सकारात्मक दिशा में उनका व्यक्तित्व-विकास एवं सम्पूर्ण समाज को आगे ले जाना ही एक अध्यापक का अध्यापकीय-उत्तरदायित्व है | जब उनसे जानना चाहा कि ‘जब वर्चस्ववादी समाज के बहुत से लोग यह मानते हैं कि वंचित वर्गों की शिक्षा एवं उसके बाद उनकी नौकरी के कारण उनके लिए अवसर एवं संसाधन आधे हो गए हैं, तब क्या आपको लगता है कि ऐसी परिस्थिति में भी प्रत्येक समाज या वर्ग के बच्चों को समान रूप से शिक्षा मिलनी चाहिए?’ उनका उत्तर था—“शिक्षा प्रत्येक बच्चे का अधिकार है और उन्हें उनका अधिकार मिलना ही चाहिए | …आधुनिक युग में जब हमारे देश में लोकतंत्र का शासन है और समाज ने भी मानवतावादी मूल्यों के भीतर समानता, भ्रातृत्व जैसे तत्वों  को अपनाया है; और तब भी ऐसे में यदि कोई इस तरह के विचार रखता है या बच्चों के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार करता है, तो मेरी समझ से उसे अपने उन दकियानूसी विचारों एवं व्यवहारों पर फ़िर से सोचना चाहिए | क्योंकि वैसे भी कमज़ोर वर्गों के बच्चों को उनका अधिकार ठीक से और समय पर मिल भी कहाँ पाता है, वे तो वैसे ही वंचित रह जाते हैं ! ऐसे में उनके अच्छी शिक्षा के अधिकार को भी छीन लेना उनके साथ दोहरा अन्याय है |”

बात ठीक भी है…| किसी भी समाज के सोचने की दिशा उसके प्रत्येक घटक की स्थिति-परिस्थितियों से निर्धारित होती है | भारत का समाज भी अपने बहुलांश में वंचित-कमज़ोर वर्गों से ही बना है, किसी भी अन्य समाज की तरह | यदि किसी समाज की दिशा-दशा का निर्धारण केवल दस-बीस प्रतिशत लोग ही करेंगें, तो वह समाज अपने चरित्र में लोकतांत्रिक एवं मानवीय हो ही नहीं सकता, बल्कि इससे केवल मुट्ठीभर लोगों द्वारा सम्पूर्ण समाज का वर्त्तमान एवं भविष्य तय किया जाएगा | तब निश्चित रूप से समाज का भविष्य तय करनेवाला यह मुट्ठीभर हिस्सा केवल और केवल अपने हितों एवं स्वार्थों को ही वरीयता देगा | ऐसे में अधिकांश समाज पुनः पीछे चला जाएगा और समाज के विकास में उसकी हिस्सेदारी भी पीछे छूट जाएगी और वह स्वयं भी |

ऐसे में यह अति-अवश्यक है कि समाज के सभी वर्गों को अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के योग्य बनने का अवसर मिले, और यह काम करती है गुणवत्तापूर्ण समान शिक्षा के समान अवसर | प्रदीप उसी शिक्षा और उसके प्रति अध्यापकों के कर्तव्यों की बात करते हैं और कुछ अंशों में उस दिशा में प्रयास करते हैं |

वे इसके लिए क्या करते हैं? जवाब मिला—“बच्चों को बेहतरीन ढंग से पढ़ाना और उनके अच्छे भविष्य को ध्यान में रखकर योजनाबद्ध ढंग से काम करना अध्यापक का काम है, और मैं वही करने की कोशिश करता हूँ | आगे चलकर बच्चे अपने अच्छे भविष्य के लिए कितनी और कैसी मेहनत कर पाते हैं और अपने लक्ष्यों के प्रति कितने समर्पित रह पाते हैं, यह बच्चों की एवं उनके परिवार की अपनी पसंद-नापंसद एवं कोशिश पर निर्भर है | मेरा काम है विद्यालय में बच्चों के रहने के दौरान अधिकतम प्रयास करना और मैं वही करने की कोशिश करता हूँ |”

सवाल है कि प्रदीप अपने विद्यालय में अपने विद्र्यर्थियों की बेहतर शिक्षा एवं व्यक्तित्व-विकास के सन्दर्भ में ऐसे क्या विशेष-प्रयास करते हैं कि यह माना जाए कि उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति दायित्वपूर्ण संजीदगी दिखाई है? …कि वह अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदारीपूर्वक समर्पित हैं? …कि उनके तौर-तरीक़ों में वह विशेषता है, जिसे हम सकारात्मक अर्थों में ‘प्रयोगधर्मिता’ एवं बच्चों की पढ़ाई को रोचक बनाने की पहल के रूप में देख सकें? …कि उनके प्रयास, उनके कार्य, उनकी वह सकारात्मक प्रयोगधर्मिता वाकई बच्चों के सुनहरे भविष्य की ओर एक ठोस और व्यवहारिक कदम हो सकती है?

“विद्यालय में हर तरह से बच्चों को ज्ञान मिलना चाहिए, इसके लिए बच्चों को विद्यालय में उन्मुक्त वातावरण मिलना चाहिए, उनको विद्यालय की घंटी और विषयों की सीमा में बाँधकर रखने की बजाय उससे बाहर जाकर स्वतंत्र रूप से स्वयं पढ़ने की छूट देना भी बहुत ज़रूरी है | इससे बच्चे स्वतंत्र-चिंतन करना सीखते हैं, ख़ुद कोशिश करके उसके परिणामों को समझने की कोशिश करते हैं…|” प्रदीप जब यह बात कहते हैं तो कहने के पहले इसका अमल वे स्वयं अपने विद्यालय में अनेक स्तरों पर कर चुके होते हैं और उससे प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपनी बात कहते हैं | उनके विद्यालय में अध्यापकों द्वारा बच्चों को कक्षाओं एवं विद्यालय की परिधि से बाहर ले जाकर प्रकृति, वातावरण और अपने आसपास बिखरे सैकड़ों अनुभवों से भरे क्षणों के बीच बच्चों को सीखने-समझने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है |

इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण काफ़ी होगा…| प्रदीप को स्वयं बागवानी का शौक है, बल्कि कहना चाहिए कि न केवल इसका शौक है, बल्कि इसे वे ज़रूरी भी मानते हैं | क्योंकि उनका मानना है कि हर बच्चे में किसी न किसी कला का विकास होना ही चाहिए, केवल आनंद के लिए ही नहीं, बल्कि इसलिए भी, कि कलाएँ व्यक्ति को जीवन की गुणवत्ता बेहतर करने से लेकर रुचियों के विकास एवं परिष्कार तथा आगे चलकर करियर में भी किसी न किसी रूप में मदद करती ही है; और पेड़-पौधों की देखभाल और बागवानी भी एक ऐसी ही कला है |

इसी आवश्यकता और शौक के मिले-जुले परिणाम में उन्होंने स्कूल के प्रांगण में पिछले साल यानी 2020 में कोरोना-महामारी के दौरान हुए लॉकडाउन से पहले ग्लैडियोलस (बोलचाल की स्थानीय भाषा में ग्लेडुला) के कुछ पौधे बच्चों के साथ मिलकर लगाए थे | लेकिन लॉकडाउन के चलते पानी और देखभाल के अभाव में पौधे मर गए, लेकिन उनके कंद (जड़ें) मिटटी में ही रह गए थे | और जब इसी दौरान कुछ समय के लिए विद्यालय खुला, तो बच्चों ने अपनी उम्मीद के विपरीत वहाँ ‘ग्लेडुला’ के नए लहलहाते पौधे देखे, जो उन पौधों के सूख जाने के बाद बरसात शुरू होने पर बारिश का पानी पाकर उग आए थे | अध्यापक की मदद से तब बच्चों ने प्रयोगात्मक रूप से समझा कि बीज से पौधे का क्या संबंध है, बारिश से बीज का क्या संबंध है; और साथ ही बारिश, पौधे, बीज से प्रकृति का क्या संबंध है | तब विद्यालय में ही एक कदम आगे बढ़कर बच्चों ने स्वयं पौधे से बीज प्राप्त करना और पुनः उस बीज से पौधा बनाना सीखा और अपने विद्यालय के प्रांगण में इस सबक या समझ का प्रयोग कर कई तरह के पौधे लगाते हैं, उनसे बीज तैयार करते हैं और पुनः उनसे पौधे उगाते हैं | इससे बच्चों ने दर्ज़नों पेड़-पौधों के व्यवहार, जीवन-चक्र, मौसम की विभिन्न ऋतुओं से उनके संबंध, उनके लाभ, उनकी बीमारियों आदि के बारे में सीखा है और सीख रहे हैं |

निश्चित रूप से विशेषतः प्रकृति से जुड़े इस प्रकार के प्रयोग भविष्य में प्रकृति-संरक्षण एवं वनरोपण से किसी-न-किसी बच्चे को प्रोत्साहित करते हुए उस दिशा में कोई सकारात्मक प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करने की पूरी संभावना अपने भीतर समेटे हुए हैं | और क्या जाने कुछ बच्चे ऐसे ही प्रकृति से जुड़े प्रयोगों की डोर पकड़कर अपने करियर एवं बेहतर भविष्य की ओर बढ़ जाएँ ! इसके अतिरिक्त बच्चों में मानवीय-सद्गुणों —जैसे एक-दूसरे की देखभाल, करुणा, प्रेम, सहयोग आदि— का विकास तो होता ही है |

ऐसा ही एक चौंकाने वाला प्रयोग बच्चों की हस्तलिपि (हैण्डराइटिंग) को बेहतर बनाने से जुड़ा है | बच्चों की हैण्डराइटिंग सुधारने के लिए प्रदीप ने एक बड़ा ही अनोखा तरीक़ा ढूँढ निकाला, बाँस की कलम से बच्चों को लिखने का अभ्यास करवाने का तरीक़ा | हालाँकि यह तरीक़ा कुछ दशक पहले तक काफ़ी प्रचलन में था, ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में | तब बच्चे सरकंडे की पतली-पतली लकड़ियों से कलम बनाते थे और चॉक से बनी सफ़ेद स्याही से लकड़ी की पटरियों/स्लेटों पर लिखते थे | उस समय भी बच्चों की हस्तलिपि या हैण्डराइटिंग को बेहतर बनाने में यह तकनीक काफ़ी कारगर हुआ करती थी |

वर्तमान में लेखन सामग्रियों की अच्छी-ख़ासी भरमार से यह तकनीक अब प्रायः लुप्त हो चुकी है, अर्थात् प्रचलन में नहीं है | लेकिन प्रदीप जैसे कुछ अध्यापक बच्चों के लिए अनेक उद्देश्यों को सामने रखकर ऐसी पुरानी तकनीकों को किसी न किसी अंश में ज़िन्दा रखे हुए हैं और उनका किसी न किसी रूप में प्रयोग भी करते हैं |

प्रदीप स्वयं सरकंडों के अभाव में बॉस की पतली-पतली शाखाओं से बच्चों के लिए कलम बनाते हैं और बच्चों को वितरित करते हैं तथा उन्हें उससे लिखना सिखाते हैं | सामान्य तौर पर पेन-पेंसिल से लिखनेवाले बच्चे एक नए तरीक़े से लिखने का अवसर पाकर नयेपन के लोभ में लिखने के लिए उत्साहित हो जाते हैं | तब प्रदीप इसी प्रयोग में अपना एक प्रयास और जोड़ते हुए बच्चों को कैलीग्राफ़ी सिखाने की क़वायद करते थे | लेकिन इससे बच्चों का क्या लाभ होगा?

दरअसल भविष्य में बच्चों को अपने जीवन-यापन की दिशा में आगे बढ़ने और एक सम्मानजनक विकल्प चुनने में कैलीग्राफ़ी का यह परोक्ष प्रशिक्षण उनकी मदद कर सकता है, वर्तमान में उनकी हस्तलिपि तो बेहतर होगी ही, साथ ही बच्चों में लिखने के प्रति रूचि का विकास उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता को भी निखारता तो है ही |

इसी प्रकार के दर्ज़नों प्रयोग प्रदीप अपने सहकर्मियों की मदद से अपने विद्यालय में करते रहते हैं, चाहे खेल-कूद से संबंधित हो या चित्रकारी से, अथवा कलाओं की दुनिया से संबंधित विविध विधाओं को लेकर की जा रही पहलें हों, या सांस्कृतिक-कार्यक्रम, ज्ञान-विज्ञान आदि अनेक बातों से जुड़ी नित्य-नई पहलें एवं उनसे जुड़े विविध अनुभव | प्रदीप के ये नए तौर तरीक़े बच्चों को न केवल पसंद आते हैं, बल्कि बच्चे उनका भरपूर आनंद एवं लाभ उठाते हुए अपनी पढ़ाई को और बेहतर ढंग से कर पाते हैं | उनकी पुस्तकें उनके लिए तब बोझ और मजबूरी नहीं होती हैं, बल्कि मस्ती का ख़जाना होती हैं |

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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3 thoughts on “‘गाइड’ प्रदीप रावत : एक अध्यापक जो अपने विद्यार्थियों के लिए ‘गाइड’ है

  1. श्री रावत सर जी को नमन 🙏
    आपने जिस तरह से श्री रावत सर के सम्बन्ध में लिखा है, उसके लिए आपको साधुवाद mdmji 🙏

  2. बहुत शानदार लेखन और महत्वपूर्ण जानकारी।
    रावत सर बहुत उत्साहपूर्वक बच्चो को सिखाने के नये आयाम स्थापित करते रहते है।सच्चे गाइड हैं वह बच्चों के।

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