यूरोप के स्वच्छन्दतावादी (रोमांटिक) कवियों में शामिल एक बड़े प्रसिद्द कवि विलियम वर्ड्सवर्थ ने लिखा है, ‘Child is the Father of Man’ | यह अतिशयोक्ति नहीं होगी, यदि इसी पंक्ति को ध्यान में रखते हुए यह कहा जाए कि हम अपने मन और मस्तिष्क को थोड़ा ‘बड़ेपन’ से मुक्त या उन्मुक्त रखकर देख-समझ पाएँ, तो बच्चों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं | या इसी बात को यदि यूँ कहा जाए कि बच्चे भी हमें बहुत कुछ सिखा सकते हैं, यदि हम अपने ‘बड़े’ होने के अहं में उनको तुच्छ न मानें | हमारे स्कूल-कॉलेजों के किशोर-किशोरियाँ और नवयुवा छात्र-छात्राएँ हमें बहुत कुछ सिखा और रास्ता दिखा सकते हैं… ठीक आवाँगार्द और ध्रुवतारे की तरह…
पिछले लेख ‘आशीष के ‘दगड़्या’ : बच्चों का, बच्चों के लिए, बच्चों द्वारा’में ‘दगड़्या’ के बारे में यह देखा जा चुका है कि यह एक ऐसी अनौपचारिक संस्था है, जो केवल बच्चों की है और उन्हीं के लिए काम करती है, जिसका संचालन भी बच्चे ही करते हैं, उसके लिए नियम क़ायदे भी मुख्यतः वे ही तय करते हैं | बच्चों की ये संस्था समय-समय पर अपनी मीटिंग भी करती है, जिसमें उसके पिछले कार्यों का मूल्यांकन बच्चों के द्वारा ही किया जाता है और आगे की रणनीतियाँ भी उन्हीं के द्वारा तय की जाती हैं |
‘दगड़्या’ की स्थापना 2018 में जीआईसी एकेश्वर के अध्यापक आशीष नेगी के द्वारा की गई | इस समूह के निर्माण का उद्देश्य था— विद्यालय में पढ़नेवाले बच्चों के साथ-साथ विद्यालय छोड़कर जा चुके विद्यार्थी और गाँव में आसपास के इलाक़ों के बच्चों को एक साझा मंच प्रदान करते हुए उन्हें एक स्थान पर लाना, उन्हें एक-दूसरे से जोड़ना, उनको शिक्षा एवं व्यक्तित्व-निर्माण के विविध आयामों से जोड़ते हुए विविध अवसर देना, उनमें सामाजिक दायित्वबोध का विकास करते हुए उनको इसके प्रति प्रेरित एवं जागरूक बनाना…
इसी का परिणाम है कि ‘दगड़्या’ से जुड़े बच्चे, किशोर और युवा न केवल एक-दूसरे के लिए सहयोगी बन रहे हैं, बल्कि अपने कार्यों का दायरा बढ़ाते हुए उन्होंने विद्यालय, गाँव, समाज, प्रकृति आदि को भी अपनी ज़िम्मेदारियों की परिधि में शामिल किया है | इससे सामाजिक वातावरण में चाहे जो भी परिवर्तन हो रहे हों, लेकिन उससे भी अधिक परिवर्तन इन विद्यार्थियों के अपने व्यक्तित्व के परिष्कार के रूप में हो रहे हैं, जिसे उनके माता-पिता ही नहीं, बल्कि समाज भी बख़ूबी महसूस करता है | यही कारण है कि उनके कार्यों के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व में आए आकर्षक परिवर्तनों ने समाज और बच्चों के अभिभावकों को भी ख़ूब प्रभावित किया है |
दरअसल ‘दगड़्या’ का गढ़वाली में अर्थ होता है— भाई, दोस्त, साथी, साथ चलने वाला/वाली, हमराही | यहाँ ‘दगड़्या’ नामक जिस संस्था की बात की जा रही है, वह ‘दगड़्या’ क्या है? यह कैसी संस्था है, जिसका संचालन बच्चे कर रहे हैं? यह ऐसा क्या काम करती है ? आदि प्रश्नों पर कुछ बातचीत इसी स्थान पर एक अन्य लेख ‘आशीष के ‘दगड़्या’ : बच्चों का, बच्चों के लिए, बच्चों द्वारा’शीर्षक में की जा चुकी है | उसी लेख में इस बात का भी ज़िक्र है कि ‘दगड़्या’ नाम की बच्चों की यह संस्था अपने ही जैसे बच्चों के लिए क्या और किस तरह के कार्य करती है | उससे आगे यहाँ यह समझने की कोशिश है कि ‘दगड़्या’ के सदस्य ये किशोर-किशोरियाँ एवं नव-युवा ऐसे क्या कार्य करते हैं कि उनके बारे में समाज को जानने की ज़रूरत है? उनके ऐसे कौन से कार्य हैं, जिनसे हमारे समाज के अन्य लोग भी उनसे प्रेरणा लेकर सीख सकते हैं?
इस सन्दर्भ में इस संस्था के बच्चों और नवयुवाओं द्वारा बड़ों के जीवन एवं अन्य मामलों में जो भूमिकाएँ निभाई जाती हैं, वे काफ़ी दिलचस्प है | वर्तमान में जो किशोर-किशोरियाँ एवं नव-युवा इस रूप में सक्रिय हैं, उनमें वर्षा, अमृता, पंकज, पवन, राजदीप, शिवम्, प्रियांशु, नीरज बडोला, इशिका, दिव्या, दक्ष बर्थवाल, अभय, पल्लवी, सूरज रावत, भूमिका बडोला, सुरभि, नीरज आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं, जो महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभा रहे हैं |
जब साल 2020 में पूरी दुनिया कोरोना के वैश्विक महामारी से जूझ रही थी, तब दुनिया भर के समाजों में ग़रीब तबकों के सामने भोजन का संकट खड़ा हो गया; ख़ासकर ग़रीब और विकासशील देशों में | भारत भी उससे अछूता नहीं था | सबकुछ ठप्प पड़ गया, राशन की दूकानें बंद हो गईं, नौकरियों एवं रोजगार आदि आय के साधन छिन गए; इस कारण लोगों के सामने भूखों मरने की नौबत आ गई | अपने बच्चों एवं परिवार के भरण-पोषण के लिए भोजन की चिंता में लाखों-लाख लोग शहरों और कस्बों से अपने गाँवों की ओर पलायन करने को विवश हुए | निश्चित रूप से वह दृश्य किसी को भूला न होगा, जब ऐसी ही कोशिश में सैकड़ों लोग रास्ते में अलग-अलग तरीक़ों से अकाल मृत्यु के शिकार हो गए | तब उत्तराखंड कैसे बच पाता ! इसके पौड़ी जिले, जहाँ सक्रिय उन बच्चों की बात यहाँ हो रही है, में भी ग़रीब परिवारों के सामने भोजन की समस्या मुँह खोले खड़ी हो गई | तब कुछ प्रतिबद्ध लोगों ने कुछ ऐसी मुहिमें शुरू कीं, ताकि लोगों की इस सर्वप्रमुख समस्या का कुछ अंश में निदान हो सके | उन्हीं में एक हैं आशीष नेगी (गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, एकेश्वर के शिक्षक) और उनके द्वारा स्थापित बच्चों की यह संस्था, ‘दगड़्या’ |
‘दगड़्या’ के बच्चे अपने आसपास के उन ग़रीब परिवारों के बारे में जानकारी जुटाते, अपने अध्यापक आशीष नेगी को उनके बारे में सूचना देते, आशीष उनके लिए राशन की व्यवस्था करते और बच्चे उन परिवारों तक राशन पहुँचाते | जो लोग स्वयं उन दूकानों तक जाकर राशन ले आने में सक्षम थे, वे स्वयं ले आते थे, जिसका भुगतान आशीष द्वारा किया जाता था; हालाँकि बच्चों के माध्यम से सूचना पाकर ही उनके लिए राशन की दूकानों पर उनके लिए व्यवस्था की जाती थी | धन भुगतान एवं अन्य रूप में सहायता के स्तर पर बाद में आशीष के साथ उनके कुछ साथी भी जुड़े, जिनमें जुबली सैंजवान, राहुल शर्मा, राजेश राय, सरिता जोशी आदि जैसे शिक्षक भी थे; और ग्रामीणों में सुनील रावत, तेजपाल पंवार जैसे अन्य लोग भी उनके साथ शामिल हुए | इस क्रम में ‘दगड़्या’ के बच्चों ने पचासों परिवारों तक राशन पहुँचाया और उनको भूखों मरने से बचाया है |
देखने में तो यह बहुत छोटी लगती है, क्योंकि देश में उस समय बड़ी संख्या में लोगों ने इस तरह के कार्यों का बीड़ा उठाया था | तब इसमें क्या ख़ास बात है? दरअसल ख़ास बात है, इसमें स्कूल एवं कॉलेज जानेवाले बच्चों की भागीदारी | जिस बचपन और कैशोर्य को तमाम ज़िम्मेदारियों से मुक्त और मस्ती में डूबा रहनेवाला माना जाता है, यह उसी बचपन एवं कैशोर्य की कहानी है; जिस नव-यौवन को रंगीन सपनों का दास माना जाता है, यह उसी नव-यौवन की कथा है…! उसी ‘अल्हड़’ कौशोर्य एवं ‘सपनों के दास’ नव-यौवन ने दूसरों को जीवित रखने के लिए उनकी भूख से स्वयं लड़ाई की, वह भी बिना अपनी कोई ख़ास परवाह किए | जबकि परम्पराओं एवं संस्कारों की बात करनेवाले, अपनी संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान परम्पराओं की माला जपनेवाले लोग अपने-अपने घरों में आराम से बैठे हुए टीवी पर रामायण-महाभारत देखा करते थे |
इन बच्चों एवं नव-युवाओं द्वारा जो दूसरा उल्लेखनीय कार्य किया जाता है, वह है विभिन्न मुद्दों से संबंधित जागरूकता अभियानों में अपनी ज़िम्मेदारीपूर्ण भागीदारी, जिसमें इन्होंने रंग और कूची के माध्यम से आने वाले समय की नई इबारत लिखी | जब लॉकडाउन में सभी बाज़ार और दूकानें आदि बंद पड़े थे, तब इन लोगों द्वारा अपने-अपने इलाक़ों में बाज़ारों में जाकर बंद दूकानों एवं घरों की ख़ाली दीवारों पर विभिन्न मुद्दों से संबंधित चित्रकारी की गई; धूम्रपान-निषेध, जल के संरक्षण, कोरोना-संबंधी आवश्यक बातें, महिलाओं के सशक्तीकरण एवं उनसे संबंधित विभिन्न मुद्दों से लेकर अपनी संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों एवं परम्पराओं की जानकारी तक दर्ज़नों मुद्दे…
दरअसल भारत में अशिक्षा, कूपमंडुकता, जहालत, अज्ञानता, पिछड़ेपन की मात्रा इतनी अधिक है कि समाज के अधिकांश लोगों को अपने आसपास के लोगों, समाजों, हालातों, व्यवस्थाओं, समाज एवं देश के वर्तमान और भविष्य आदि को लेकर न तो कोई विशेष जानकारी होती है, न समझ, न जानने की इच्छा; तब उनसे जागरूकता एवं सचेतनता की उम्मीद करना तो दूर की बात है | कोविड महामरी को लेकर भी ऐसा ही हुआ था, एक तरफ़ तो बहुत सारे भ्रम फ़ैल गए, तो दूसरी तरफ़ बहुत भय | ऐसे में इन नव-युवाओं के ये प्रयास काफ़ी ज़रूरी एवं महत्वपूर्ण हो गए थे, जिनके अच्छे नतीजे भी हुए |
ऐसा ही एक अति-महत्वपूर्ण मुद्दा है- पर्यावरण | आज पर्यावरण-संरक्षण कितना बड़ा मुद्दा और कितनी बड़ी समस्या और चुनौती है, इससे आज तो शायद ही कोई भी इंकार कर सके | विकसित और विकासशील देशों के बीच अपने-अपने देश एवं समाज के विकास के लिए पर्यावरण से समझौते करने का संघर्ष और दबंगता अपनी जगह है; लेकिन पर्यावरण को पहुँच रही हानि और उसके लिए पर्यावरणविदों की चिंता भी अपनी जगह सत्य है | इसीलिए विद्यालयों में बच्चों के पाठ्यक्रम में पर्यावरण को एक विषय के रूप में स्थान दिया गया है, लेकिन यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत के सन्दर्भ में व्यावहारिक जीवन और विद्यालयी जीवन के बीच में बहुत गहरी खाई है | इसलिए विद्यालय में बच्चे पर्यावरण के संबंध में अपनी समझ, संवेदनशीलता, जागरूकता, भागीदारी और चिंता को व्यावहारिक धरातल पर न जीकर केवल अपने पाठ्यक्रम में पढ़ लेने भर तक सीमित रहते हैं |
कई लोग, इस बात को समझते हैं | इसी ब्लॉग में कई ऐसे अध्यापकों के जिक्र आए हैं, जिन्होंने पर्यावरण के संबंध में अपनी प्रतिबद्धता को अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाते हुए अपने परिवार, आसपास एवं विद्यालयों में विद्यार्थियों को अपने संग लेकर काफ़ी बेहतरीन कार्य कर रहे हैं |
‘दगड़्या’, इसके संस्थापक अध्यापक आशीष नेगी और इसके नवयुवा सदस्य भी उनमें शामिल हैं | बच्चों के साथ मिलकर पेड़ों को बचाने एवं नए पेड़ लगाने के लिए आशीष ने 2020 में एक ऐसी नई तरकीब निकाली है, जो बच्चों में उनके प्रति अपनत्व की भावना विकसित करती है | वह तरीका कुछ अनोखा-सा है, लेकिन है दिलचस्प !
दरअसल रक्षाबंधन के दिन ‘दगड़्या’ के बच्चों को अपने-अपने घरों पर एक-एक पेड़ लगाने और उसको राखी बाँधने और हमेशा उसकी सेवा एवं रक्षा करने को कहा | इसमें इस समूह के 60-70 लड़के-लड़कियाँ और बाहर के भी दर्जनों लड़के-लड़कियाँ शामिल हुए और आशीष ने उन सभी को एक-एक पौधा उपलब्ध कराया | इस प्रक्रिया में बच्चे अपने-आप उन नन्हें पौधों से ऐसे जुड़ गए, जैसे वे उनके नन्हें-मुन्ने दोस्त या भाई-बहन हों | बच्चे उन पौधों की सेवा करते हैं, उनकी देखभाल करते हैं, जानवरों एवं क्रूर मनुष्यों से उनकी रक्षा करते हैं | उनमें से कई बच्चों के लगाए गए पेड़ अब बड़े और स्वस्थ भी हो गए तथा अपने संरक्षक बच्चों की तरह ही लगातार बढ़ रहे हैं | दरअसल ऐसे काम, क़ायदे से तो समाज के ‘बड़े-बुजुर्गो’ को करना चाहिए, लेकिन उनके पास दुर्भाग्य से कई कारणों से ‘समय ही नहीं होता है’…
कुछ गाँवों की महिलाओं ने ‘महिला मंगल दल’ नाम से अनौपचारिक संस्थाएँ बनाईं हैं, जो अपने-अपने गाँवों में कई काम करती हैं; जैसे गाँव की साफ़-सफाई, बच्चों से संबंधित छोटी-मोटी समस्याओं या बीमारियों के बारे में बातचीत, भजन-कीर्तन, तीज-त्योहारों से संबंधित छोटे-मोटे घरेलू-से कार्यक्रम, गाँव के पारंपरिक गीतों को कभी-कभी एक साथ मिलकर गाना आदि | आशीष ने इन महिलाओं से बच्चों को जोड़ने की पहल की, तो बच्चे पहले कुछ संकोच के साथ और उसके बाद निःसंकोच उनके कामों में भागीदारी करने लगे | आशीष की योजना बच्चों की इस भागीदारी को और विस्तार देने की है, ताकि बच्चे यह समझ पाएँ कि गाँवों में किस-किस तरह की गतिविधियाँ होती हैं, उनमें क्या-क्या काम किस तरीक़े से किया जाता है, उनके उद्देश्य क्या हैं, महिलाओं द्वारा किए जा रहे काम कितने ज़रूरी और महत्वपूर्ण हैं, महिलाओं की क्षमताएं और योग्यताएं पुरुषों से किसी भी अंश में कम नहीं हैं, उनकी शक्ति एवं क्षमताओं के बारे में सामाजिक धारणाएं कितनी गलत है…
इसकी शुरुआत भी हो चुकी है | इन ‘महिला मंगल दलों’ की भूमिका को गाँवों में व्यापक बनाने और बच्चों को भी उनकी गतिविधियों से जोड़ने की कोशिश में आशीष नेगी द्वारा जब कोई ऐसा कार्यक्रम गाँवों में आयोजित किया जाता है, तो उनकी पहल पर ‘दगड़्या’ के बच्चे इन महिलाओं एवं आशीष के बीच महत्वपूर्ण कड़ी बनते हैं, जोकि आशीष की योजना का हिस्सा होता है | इससे बच्चे स्वयं आगे बढ़कर पहल करना, अपनी ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करना सीखते हैं | और अब तो ‘दगड़्या’ के ये बच्चे स्व-विवेक से भी इन महिलाओं से जुड़कर उनके कई कामों में उनकी मदद करते हैं |
इसके अलावा अपने गांवों में होनेवाली कई गतिविधियों से संबंधित बैठक की व्यवस्था में भी इन नवयुवाओं एवं किशोर-किशोरियों की महत्वपूर्ण भागीदारी होती है | गाँव में यदि किसी सामाजिक मुद्दे पर जन-चेतना के उद्देश्य से ‘नुक्कड़ नाटक’ खेला जाना हो, तो उसके आयोजन के दौरान उसकी व्यवस्था करना, लोगों को सूचना देना और उसे देखने को प्रेरित करना, उक्त नाटक के बारे उन्हें समझाना भी उनके द्वारा बख़ूबी किया जाता है | कई गांवों में सफ़ाई अभियान कभी बच्चे अपनी मर्जी से चलाते हैं, तो कभी आशीष के मार्गदर्शन में |
इन आयोजनों के दौरान विचार-विमर्श के स्तर पर ये बच्चे और नवयुवा अपने मन में कोई विचार, पक्ष या तर्क आने पर और उचित समझने या आवश्यकता पड़ने पर रखते भी हैं; जिनकी गंभीरता एवं तार्किकता से ‘बड़े’ प्रभावित हुए बिना नहीं रहते |
अब भविष्य में देखना काफ़ी दिलचस्प होगा कि ये ध्रुवतारे समाज को किस दिशा की ओर अग्रसर करते हैं…
–डॉ. कनक लता
कनक मैम नमस्कार। खेद है इस बार आप की पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाई।आशीष सर के बारे मेंकुछ कहना सूर्य को दिया दिखाने के समान है।