शिक्षा-जगत में ही नहीं किसी भी कार्यक्षेत्र में वहाँ के सहकर्मियों का आपसी सम्बन्ध यदि परस्पर सहयोग, सामंजस्य, समर्थन और सौहार्दपूर्ण हों, तो उसके नतीजे अलग ही होते हैं | जबकि यही सम्बन्ध यदि आपसी प्रतिद्वंद्विता, ईर्ष्या, षड्यंत्रों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने एवं एक-दूसरे के काम को बाधित करने की प्रवृत्ति वाले हों, तो उसके नतीजे बेहद ही नकारात्मक होते हैं; सहकर्मियों के लिए भी, कार्यों की गुणवत्ता के संबंध में भी और कार्यस्थल के वातावरण के सन्दर्भ में भी |
पहले मामले में सहकर्मियों के परस्पर सद्भावपूर्ण व्यवहार से कार्यस्थल पर कुछ ही समय में ऐसा वातावरण निर्मित हो जाता है, जहाँ चारों ओर एक ख़ुशनुमा माहौल देखा और महसूस किया जा सकता है, लोगों में एक अनकही ऊर्जा अपने-आप हमेशा अठखेलियाँ करती देखी जा सकती है, परेशानियाँ वहाँ भी आती हैं, लेकिन एक समय के बाद प्रायः वे वहाँ पर घुटने टेकने को बाध्य भी हो जाती हैं | ऐसा इसलिए नहीं होता कि उन सहकर्मियों को प्रकृति ने कोई अलग से ऊर्जा-भण्डार से नवाज़े हैं, बल्कि इसलिए कि वे लोग अपनी ऊर्जा का क्षय एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने में, या एक-दूसरे को नीचा दिखाने में, अथवा एक-दूसरे के लिए परेशानियाँ खड़ी करने में नहीं करते हैं; बल्कि वे अपनी क्षमताओं को एक-दूसरे के साथ मिला देते हैं और सृजित करते हैं ‘एक-से-एक मिलकर ग्यारह’ का गणित | इसलिए यहाँ दो व्यक्तियों की ऊर्जा ग्यारह के बराबर हो जाती है |
लेकिन जब व्यक्ति अपनी कोशिशों में अकेला होता है, तो उसकी शक्तियाँ और क्षमताएँ सीमित हो जाती हैं | और यदि इसके साथ-साथ उसे अपने सहकर्मियों के षड्यंत्रों, उनके द्वारा पैदा की जा रही अड़चनों और बाधाओं से भी अपने-आप को बचाने की कोशिश करनी पड़े, तो उसकी अपनी ही क्षमताएँ दस-बीस फ़ीसदी से अधिक नहीं बच पाती हैं | इसलिए वहाँ का गणित एकदम उल्टा होता है |
प्रमोद कुमार एवं सुभाष चन्द्र ऐसे दो नाम हैं, जो पहले मामले को चरितार्थ करते हैं | इन दोनों अध्यापकों की सकारात्मक जुगलबंदी ने इनके काम को ही नहीं प्रभावित किया है, बल्कि उसका सर्वाधिक अनुकूल प्रभाव उनके विद्यार्थियों सहित आसपास के वातावरण पर हुआ और हो रहा है, विकसित हो रहे एवं निखर रहे उनके अपने व्यकित्व तो हैं ही |
कहते हैं कि ताली एक हाथ से नहीं बजती; हालाँकि यह कहावत हमेशा सही नहीं होती है, क्योंकि हमारे मानव-समाज में ऐसे भी ‘धुरंधर’ हैं, जो एक हाथ से ताली बजाने की कला में माहिर होते हैं, और क्या ख़ूब होते हैं, उनके सामने बड़े-बड़े योद्धा चारों खाने चित्त नज़र आते हैं | लेकिन प्रमोद कुमार और सुभाष चन्द्र के मामले में उपरोक्त कहावत काफ़ी सही प्रतीत होती है | राजकीय प्राथमिक विद्यालय, किमोली में सुभाष चन्द्र मुख्य अध्यापक हैं और प्रमोद कुमार सहायक अध्यापक | दोनों ही कुछ-कुछ अंतर्मुखी स्वभाव के… और अपनी जिम्मेदरियों के प्रति बेहद संजीदा और समर्पित भी; ख़ासकर विद्यालय में अपने अध्यापकीय-कर्तव्यों के प्रति…
बकौल प्रमोद कुमार “जब मैं 10 अगस्त 2013 को किमोली में अपनी नियुक्ति के लिए गया, तो सुभाष सर छुट्टी पर थे, क्योंकि 10 दिन पहले उनके बेटे का निधन हो गया था | यह बात मुझे नहीं मालूम थी | मैंने स्कूल से ही उनको फ़ोन किया और वहाँ आने का कारण बताया | सुभाष सर थोड़ी ही देर में आए और उन्होंने मुझे ड्यूटी ज्वाइन कराई | बातचीत के दौरान ही उन्होंने अपने बेटे के निधन के बारे में बताया | मैंने उनसे कहा कि ‘सर ऐसे में आपको आने की ज़रूरत नहीं थी, आप यदि पहले ही बता देते, तो मैं सीआरसी में ज्वाइन कर लेता |’ तब सर ने कहा कि ‘जीवन में दुःख-सुख आते ही रहते हैं, लेकिन इससे हमारा काम और हमारी ज़िम्मेदारियों पर असर नहीं पड़ना चाहिए’ | उस दिन से सुभाष सर के प्रति मेरे मन में जो सम्मानभाव पैदा हुआ, वह कभी कम नहीं हुआ, बल्कि समय के साथ वह बढ़ता ही गया | क्योंकि जो व्यक्ति अपने बेटे के निधन के पहाड़ जैसे दुःख को दरकिनार कर अपनी ज़िम्मेदारियों को इतना अधिक महत्त्व दे रहा हो, उसके व्यक्तित्व की गहराई और अपने कर्तव्य के प्रति उसके समर्पण से कौन इंकार कर सकता है…!” …बात तो ठीक है, किसी भी माता-पिता के लिए उसकी संतान की असामयिक म्रत्यु से बड़ा कोई दुःख नहीं होता ! लेकिन ऐसे में भी जो व्यक्ति स्थिर रहे, वह वाकई अलग क़िस्म का होगा…
इस मुलाकात के बाद दोनों सहकर्मियों की परस्पर मित्रता ही आरंभ नहीं हुई, बल्कि उस मित्रता में एक-दूसरे पर विश्वास, परस्पर सम्मान, संवेदनशीलता, सहयोग, एक-दूसरे के साथ मिलकर काम को आगे ले जाने की कोशिश की भी शुरुआत हुई | इसके साथ ही एक-दूसरे के व्यक्तित्व, चरित्र और जीवन को भी निखारने में इन्होंने एक-दूसरे की सहायता की और एक-दूसरे से सहायता ली |…
प्रमोद कुमार, एक अंतर्मुखी व्यक्ति, जो राजकीय प्राथमिक विद्यालय किमोली के सहायक अध्यापक हैं, जिनकी नियुक्ति यहाँ 10 अगस्त 2013 को हुई थी और उसके बाद से इस लेख के लिखे जाने तक वे यहीं पर कार्यरत हैं |
प्रमोद का जन्म 1 नवम्बर 1981 को ग्राम संकिंडा, (एकेश्वर, उत्तराखंड) में हुआ | उनके माता-पिता गणेशी देवी एवं मदन लाल के तीन बेटों एवं चार बेटियों में प्रमोद सबसे बड़े हैं; इसलिए स्वाभाविक है कि अपने भाई-बहनों के अग्रज होने के नाते उनकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है | प्रमोद का विवाह वंदना से 12 मई 2013 को हुआ | और यह युगल दो बेटियों (इस लेख के लिखे जाने के समय 8 साल और 3 साल की) से संपन्न और प्रसन्न है |
प्रमोद की स्कूली-शिक्षा निजी स्कूलों से हुई, जो उनके माता-पिता की अपनी संतानों के प्रति चिंता को ज़ाहिर करती है | स्वाभाविक है, जब हमारे देश की शिक्षा-प्रणाली सरकारी स्तर पर काफ़ी चिंताजनक हो, तो अभिभावकों के पास निजी-संस्थानों की ओर रुख करने के अतिरिक्त उपाय ही क्या है; अन्यथा ऐसा क्यों होता कि जिन सरकारी-विद्यालयों में अध्यापक काम करते हुए उससे मिलनेवाले वेतन से अपना और अपने परिवार का भविष्य बनाते हैं, उन्हीं विद्यालयों में वे अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं…?! हालाँकि इसका एक कारण तो निश्चित रूप से हमारे इन्हीं विद्यालयों के ‘दबंग-वर्गों’ के अध्यापकों की वर्चस्ववादी मानसिकता के कारण वषों के प्रयासों से बर्बाद हुई शिक्षा की स्थिति है, और दूसरा बड़ा कारण सरकारों द्वारा शिक्षा-नीतियों को लेकर दोहरे मापदंड और आधे-अधूरे कार्य हैं |
प्रमोद की शुरूआती पढ़ाई, अर्थात् कक्षा 1 से 4 तक, पौड़ी स्थित सेंट थॉमस स्कूल से हुई और कक्षा 5 की पढ़ाई सेंट जेम्स स्कूल (पौड़ी) से | इसके बाद कक्षा 6 से 12 तक की पढ़ाई श्री गुरु रामराय पब्लिक स्कूल (पौड़ी) से हुई, जहाँ से प्रमोद ने 1998 में 10 वीं का इम्तहान उत्तीर्ण किया और 2000 में 12 वीं का इम्तहान | प्रमोद को पढ़ना-लिखना अच्छा लगता है और उनकी रूचि भी विज्ञान विषय में है, इसलिए उन्होंने स्नातक स्तर पर अपनी पढ़ाई इसी क्षेत्र में की, अर्थात् बी.एससी. (B.Sc.), हेमवतीनन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय (पौड़ी) से; और विषय थे—भौतिकी, रसायनशास्त्र और गणित | यहाँ से स्नातक स्तर की यह परीक्षा प्रमोद ने 2003 में उत्तीर्ण की |
इसके बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई ज़ारी रखते हुए एम.एससी (M.Sc.) की पढ़ाई शुरू की, लेकिन परिवार की कुछ कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण इसे पूरी नहीं कर पाए | परिवार की मदद के लिए वे पौड़ी में ही ट्यूशन पढ़ाने का काम करने लगे | इसी दौरान उन्होंने 2006 में बी.एड. कर लिया | आगे चलकर यह उनके लिए काफ़ी सहायक हुआ |
इसी दौरान 2007 में सेंट जेम्स में पढ़ाने का मौका मिला, जहाँ एक साल तक पढ़ाया | एक साल बाद 2008-09 के दौरान ‘जिला समाज कल्याण कार्यालय (पौड़ी) में एक साल के लिए बतौर कंप्यूटर ऑपरेटर भी इन्होने काम किया | और तत्पश्चात 2009-2012 के दौरान विकासखंड (ब्लॉक) खिर्सू में समूह ‘ग’ के अंतर्गत खंड-विकास अधिकारी कार्यालय में कनिष्ठ सहायक (जूनियर असिस्टेंट) के पद पर काम करने का मौक़ा मिला, जहाँ उन्हें ब्लॉक डेवलपमेंट के अंतर्गत दायित्व दिया गया |
लेकिन उनकी इच्छा शिक्षण-क्षेत्र में जाने की थी, इसलिए उन्होंने इसके लिए कोशिश ज़ारी रखी और 2012 में उनकी कोशिश रंग लाई | उनको शिक्षण-क्षेत्र में नौकरी मिल गई और उन्होंने अक्टूबर 2012 से जुलाई 2013 तक शिक्षण-कार्य से संबंधित ट्रेनिंग राजकीय प्राथमिक विद्यालय कफोल में पूरी की | उसके बाद उनकी नियुक्ति हुई वर्तमान विद्यालय में हुई, जहाँ प्रधानाध्यापक थे सुभाष चन्द्र |
इसके आगे विद्यालय में प्रमोद की बतौर शिक्षक की यात्रा सुभाष चन्द्र के साथ-साथ चली, जहाँ सुभाष चन्द्र प्रधानाध्यापक हैं और प्रमोद कुमार सहायक अध्यापक | जहाँ ये दोनों सहकर्मी साथ मिलकर शिक्षा के पटल पर नई-नई कहानियाँ लिख रहे हैं |
सुभाष चन्द्र से संबंधित लेख में बताया गया था कि बतौर प्रधानाध्यापक सुभाष के इस विद्यालय में आने के समय विद्यालय की स्थिति काफ़ी ख़राब थी और वहाँ केवल रुटीन तरीक़े से काम चल रहा था | सुभाष इस बात को लेकर तब तक काफ़ी चिंतित और परेशान रहे, जब तक कि यहाँ प्रमोद कुमार नहीं आए | दरअसल प्रमोद कुमार के रूप में सुभाष चन्द्र को केवल एक सहकर्मी ही नहीं, बल्कि दाहिना हाथ मिला, इसीलिए सुभाष चन्द्र का अपने इस सहकर्मी के प्रति भाई का लगाव है…
उनके आने के बाद दोनों ने मिलकर विद्यालय के विकास के लिए अपने निज़ी प्रयास आरम्भ किए, जिसके लिए उन्होंने मिलकर विद्यालय एवं बच्चों के बेहतर विकास और अच्छे भविष्य के लिए कई ठोस योजनाएँ बनाएँ | उन योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने शिक्षा-विभाग से पर्याप्त धनराशि मिलने का इंतज़ार नहीं किया, बल्कि विद्यालय में विभिन्न कार्यों के लिए अपने निज़ी आर्थिक योगदान से बैंक में व्यक्तिगत रूप से 2013 में संयुक्त खाता खोला | इस कोष का उद्देश्य था— बच्चों एवं स्कूल के कार्यों को धन के अभाव में रुकने न देना | इस कोष से उन्होंने क्या-क्या कार्य किए, इसका कुछ ज़िक्र ‘सुभाष चन्द्र : जिसके लिए उसके विद्यार्थी अपनी संतान से भी अधिक प्रिय हैं ’ शीर्षक लेख में हुआ है |
इस कोष का क्या और कैसा उपयोग विद्यालय में बच्चों की अच्छी एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए किया गया, इसका लेखा-जोखा भले ही समाज न रखे, देश की शिक्षा-प्रणाली और यहाँ का शिक्षा-विभाग भी न रखे; लेकिन वे विद्यार्थी और उनके अभिभावक अवश्य रखेंगे; और सबसे बढ़कर, सबके कार्यों का हिसाब रखने वाला ‘समय’ भी अवश्य इन कार्यों का भी हिसाब रखेगा और उचित समय पर समाज को उसकी क़ीमत भी समझाएगा…!
यह छोटा-सा कोष क्या कर सकता है, इसके सन्दर्भ में यहाँ मैं वही बात दुहाराहुँगी, जो सुभाष चन्द्र के बारे में बात करते हुए कही थी कि ‘जिन लोगों को समाज ‘छोटा-मोटा’ और ‘मामूली’ कहकर प्रायः उपेक्षित करता है, वे ही ‘छोटे-मोटे’ और ‘मामूली’ लोग समाज में परिवर्तन लाते हैं | वे लोग कोई बड़ा तीर मारें या न मारें, लेकिन उनके द्वारा बोया गया परिवर्तन का एक छोटा-सा ‘बीज’ कोई मामूली बात नहीं होती है, बल्कि उस ‘बीज’ की ताक़त उस बरगद के पेड़ के समान होती है, जिसपर सैकड़ों पक्षी आश्रय लेते हैं, जिसकी छाँव में राहगीर तपती धूप में कुछ पल ठहरकर सुस्ताते हैं, गाँवों की बेटियों जिसकी शाखों पर झूले डाल अठखेलियाँ करती हैं, जिसके तले गाँवों के बच्चों की धमाचौकड़ियाँ मचती हैं, जिसकी जड़ों के आसपास गाँवों की नन्हीं गुड़ियाओं के खेल-खिलौने सजते हैं, जिसके तले युवाओं के कहकहे गूँजते है, प्रेम-कहानियाँ बनती हैं, बूढों की जमघट लगती है, गाँवों की पंचायतें बैठती हैं…और हाँ कभी-कभी ‘भगवान्’ के घर भी बनाए जाते हैं…!
उस ‘कोष’ से प्रमोद कुमार और सुभाष चन्द्र द्वारा उस विद्यालय में क्या-क्या कार्य किए गए, उसमें से कुछ का उल्लेख सुभाष चन्द्र से संबंधित उक्त लेख में हुआ है | मसलन विद्यालय-भवन में आवश्यक निर्माण-कार्य हुए, बच्चों के पढ़ने के उद्देश्य से ‘स्टडी-टेबल’ बनवाए गए, जो भोजन के समय बच्चों को सम्मानजनक ढंग से भोजन कराने के लिए ‘डाइनिंग टेबल’ में तब्दील हो जाते थे | अपने उसी फण्ड से 2016-17 में दो कंप्यूटरों के माध्यम से ‘ई-लर्निंग सेंटर’ का विकास और संचालन बच्चों को बदलती दुनिया के अनुरूप ढालने के लिए किया गया है; जिसका प्रयोग आसपास के गाँवों के 10वीं-12वीं के बच्चे भी कंप्यूटर सीखने के लिए करते हैं |
‘स्वानुभूति’ से संपृक्त इन दोनों अध्यापकों के इस विद्यालय में तमाम कार्यों एवं गतिविधियों का सबसे बड़ा उद्देश्य और लक्ष्य है— बच्चों की गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई एवं उनका ठोस-व्यक्तित्व निर्माण; न कि ‘पढ़ाई’ के नाम पर बच्चों को केवल रंगीन काग़ज़ों आदि और कविताओं-कहानियों मात्र में हमेशा उलझाए रखना और ‘व्यक्तित्व-विकास’ के नाम पर उनके सामने केवल मनोरंजन और नवाचार का ढेर लगाना | वस्तुतः पढ़ाई एवं व्यक्तित्व-विकास के लक्ष्य को सामने रखकर ये दोनों सहकर्मी लगातार ऐसे प्रयास करते हैं, जिनसे बच्चों की पढ़ाई की गुणवत्ता निरंतर बेहतर होती जाए और बच्चों का व्यक्तित्व एक ठोस रूप में विकसित हो सके |
इसके लिए एक बेहतरीन लाइब्रेरी के वास्तविक उपयोग के साथ-साथ बच्चों को भयमुक्त वातावरण देना, उन्हें पुस्तकें पढ़ने को लगातार प्रोत्साहित करना, पुस्तकों के प्रति जिज्ञासा पैदा करना, बच्चों को विविध प्रकार के मंच प्रदान….जैसे दर्ज़नों कोशिशें होती यहाँ अक्सर देखी जा सकती हैं |
इन सब बातों में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है इन दोनों अध्यापकों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान-भाव, सहयोग, आत्मीयता, एक-दूसरे की कोशिशों को लगातार सपोर्ट करना, जोकि इस लेख की शुरुआत में कहा गया है | यही कारण है कि यहाँ अध्यापकों के कार्यों का फ़ल ‘एक और एक के ग्यारह’ के गणित में दिखाई देते हैं…
–डॉ. कनक लता
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