‘मध्याह्न भोजन’ ! प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों को एक समय का दिया जानेवाला भोजन ! जिसके कारण हमारे ये विद्यालय ‘दाल-भात वाला विद्यालय’ कहे जाते हैं ! जिसको लेकर हमारा समाज सालों से लगातार बहस कर रहा है, कोई इसके पक्ष में है तो कोई विरोध में | अनेक बुद्धिजीवियों सहित इन्हीं विद्यालयों के अनेक अध्यापक भी इसपर निरंतर बौद्धिक जुगाली करते हुए अक्सर मिल जाएँगे | इन तमाम बातों से इतर ‘मध्याह्न भोजन’ की कैसी-कैसी भूमिका हमारे समाज के विभिन्न हिस्सों में निभाई जा रही है, यदि इसे समझना हो तो हमें इन स्कूलों का रुख करना चाहिए |
…तो बात है एक ऐसे ही सरकारी विद्यालय में पढ़नेवाली एक लड़की और उसके छोटे भाई की, जिनको एक तरह से जीवन मिला इन विद्यालयों में मिलनेवाले मिड-डे-मील और अपने अध्यापकों की संवेदनशीलता से…
…इस बात को थोड़ा बेहतर ढंग से समझने के लिए एक प्रश्न पर गौर करना भी ज़रूरी है कि यदि किसी बच्चे के माता-पिता या अन्य कोई अभिभावक न हों तो उनका पालन-पोषण कौन करता होगा, ख़ासकर उनके भोजन की समस्या कैसे हल होती होगी? क्या कभी यह प्रश्न खाए-पिए-अघाए लोगों या साधन-संपन्न समाज के ज़ेहन में आता है, या आता होगा? शायद नहीं ! आता भी होगा, तो साथ में यह विचार भी ख़ुद-ब-ख़ुद चला आता होगा—‘कौन फ़ालतू के पचड़ों में पड़े? जिसकी बला है वो जाने, हम क्यों बेवजह की टेंशन लें और खामख्वाह अपना सिर फोड़ें…?!’
…तो यह ‘जीवित कथा’ है पौड़ी जिले में स्थित विकासखंड पाबौ (पौड़ी शहर से संभवतः 40-45 किलोमीटर दूर) की एक प्राथमिक पाठशाला के दो बच्चों की, जो उस समय पूरी तरह से अनाथ हो गए, जब उनकी उम्र संभवतः मात्र 7 और 3 साल थी | इस करुण-कथा की जानकारी एक परिचित से मुझे उस समय मिली थी, जब मैं बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में काम करनेवाली एक संस्था में कार्यरत थी और वहीँ एक दिन मध्याह्न-भोजन के अच्छे-बुरे पक्षों पर लोगों के बीच चर्चा हो रही थी | तब वहाँ अपने सहकर्मियों के षड्यंत्रों का सामना करने में ही मैं हमेशा इतने तनाव और मानसिक उथल-पुथल की स्थिति में रहती थी कि जब इस कथा पर बात हो रही थी, तब मेरा ध्यान ठीक से इस दास्ताँ पर नहीं जा सका था, केवल अवचेतन मन में यह दुःखद कथा कहीं जा बसी थी और एक दिन अवसर पाते ही वह अचानक मेरे मन-मस्तिष्क में कौंधी और अब मेरी कलम को थामकर बाहर आने को उद्धत है |
दरअसल ऐसी दर्ज़नों नहीं हज़ारों-लाखों कहानियाँ हर उस समाज में बिखरी मिल जाएँगी, जहाँ शासनिक-प्रशानिक व्यवस्था सहित सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर पर भी बच्चों के पालन-पोषण और विकास की ज़िम्मेदारी अकथित रूप से केवल माता-पिता की ही तय हो चुकी है और शेष संस्थाएँ या लोग अथवा समाज भी अक्सर ही ‘कल्याण करने’ अथवा ‘उपकार’ की भूमिका में और ‘एहसान’ की मनःस्थिति में रहते हैं |
यह ज़िन्दा कहानी है दो बच्चों की— एक लड़की, जिसकी उम्र जहाँ तक मुझे याद आता है, उस समय महज़ 7 साल थी और उसका एक भाई था, मात्र 3 साल का, जब मैंने यह घटना सुनी थी | साथियों की बातचीत से जहाँ तक मुझे ध्यान आता है, उनके पिता की मृत्यु तो लड़के के जन्म के कुछ महीने या कुछ सप्ताह पहले ही किसी हादसे में हो गई थी और माँ भी शायद बेटे को जन्म देते समय ही चल बसी |
…गाँवों में अस्पताल या मेडिकल सुविधा की स्थिति किसी से छुपी नहीं है | फ़िर ये तो दूरस्थ पहाड़ी इलाक़ों के गाँव हैं ! यहाँ अच्छे अस्पताल की बात करना कुछ वैसा ही है, जैसे रेगिस्तान में ठंढे मीठे पानी के झरने की बात करना | इसलिए छोटी-मोटी बीमारियों को लोग प्रायः भगवान् भरोसे छोड़ देते हैं— ठीक हो गई तो भी ठीक, और नहीं हुई तो भी कोई बात नहीं | गंभीर बीमारी की हालत में भी क्या कर पाते होंगे लोग? अधिक से अधिक अपनी क्षमता के अनुसार आसपास के इलाक़ों में मौजूद सरकारी अस्पताल तक पहुँच जाएँ, तो भी गनीमत है | और पहाड़ी इलाक़ों में ये ‘आसपास’ के अस्पताल भी पहाड़ों की चढ़ाई-उतराई के कारण इतने फ़ासले पर होते हैं कि वहाँ आना-जाना भी कम चुनौतीपूर्ण और मुश्किल भरा नहीं हैं | और वहाँ पाँव पसारे ग़रीबी को देखते हुए तो यह छोटी-मोटी दूरी भी बड़ी लगती है | और गर्भवती स्त्रियों की मुश्किल का क्या कहना !? एक तो वैसे भी स्त्रियाँ ‘मनुष्य’ की श्रेणी में नहीं होती हैं, अच्छे-ख़ासे पढ़े-लिखे विकसित शहरी समाजों में भी | फ़िर यह तो हमारे ‘विश्वगुरु’ भारत का ग्रामीण समाज है, शिक्षा से दूर, विकास की पहुँच से दूर…| इसलिए स्त्रियों का अपनी अन्य बीमारियों के अलावा अपनी गर्भावस्था में भी जोख़िम उठाना और लगातार मृत्यु से संघर्ष करना आम बात है | यदि कोई परिवार अपनी गर्भवती स्त्रियों को अस्पताल ले जाने की सोचे भी, तो वह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है | यदि वे सड़क से कहीं दूर नीचे घाटी में रहते हों या ऊपर चढ़ाई पर, तो अपनी तमाम तकलीफ़ों के बावजूद मुख्य सड़क तक आने के लिए उस महिला को स्वयं कई बार कई सौ मीटर की चढ़ाई या उतराई स्वयं ही चढ़नी या उतरनी पड़ती है | इसका कोई विकल्प मैंने वहाँ रहते हुए नहीं देखा | और पाबौ, …पौड़ी शहर, जहाँ एक कामचलाऊँ-सा सरकारी अस्पताल है, से कम से कम 40-45 किलोमीटर की दूरी पर तो है ही, और रास्ता सर्पिल…| और अब तो पौड़ी का वह अस्पताल भी सरकारी नहीं रहा, निजी हाथों में दे दिया गया है | इसलिए वर्त्तमान स्थिति में कितनी ग़रीब स्त्रियाँ वहाँ आ पाती होंगी प्रसव के लिए, बताना मुश्किल है |
…तो बेटे को जन्म देते समय माँ की म्रत्यु से वे दोनों बच्चे अब अकेले हो गए, माता-पिता विहीन ! परिवार में दादी अभी जीवित थी, जो जैसे तैसे उस समय नवजात पोते और 4 साला पोती की देखभाल करने लगीं, कभी इधर-उधर से माँगकर, तो कभी कहीं छोटी-मोटी मजदूरी करके, तो कभी-कभार आसपास के जंगलों में यूँ ही उगनेवाली कुछ सब्जियाँ और जंगली फ़ल-फूल इकट्ठे करके…| इन तीन प्राणियों के जीवन की गाड़ी जैसे-तैसे चल ही रही थी |
वैसे… ऐसा नहीं है कि उनके परिवार में कोई और नहीं था, चाचा-चाची तो थे ही, अर्थात् बुढ़िया दादी का दूसरा बेटा और बहू | लेकिन कहते हैं ना, कि जब किसी व्यक्ति का समय ख़राब चलता है तो उसकी परछाई भी साथ छोड़ देत्ती है | इस ग़रीब माँ से भला बेटे को विरासत में कौन-सी दौलत मिलनेवाली थी कि वह माँ की सेवा उस दौलत की लालच में करता? और बहू…? उसे भी सास कोई गहनों की पोटली तो देनेवाली थी नहीं, कि वह सास की सेवा करती? लोग अक्सर कहते हुए मिल जाएँगे कि माता-पिता के लिए बेटे से अधिक बेटियाँ चिंतित रहती हैं और उनकी सेवा निःस्वार्थ भाव से करती हैं? लेकिन सवाल तो तब उठता है, जब माता-पिता की सच्ची शुभचिंतक वे ही बेटियाँ अपने सास-ससुर के साथ भिखारियों और अनाथों जैसा व्यवहार करती हैं ! …क्या नहीं…???
…तो अपने बेटे-बहू की उपस्थिति में भी अनाथों और भिखारियों जैसा जीवन जीती यह बूढ़ी दादी किसी तरह अपने असहाय दुधमुँहे पोते और बालिकावस्था की पोती को पाल रही थी | कई बार सोचती हूँ, कि जंगल से लाए फ़ल-फूलों से दादी-पोती का कुछ काम तो चल ही जाता होगा, लेकिन उस नवजात की भूख कैसे मिटाई जाती होगी, जो दूध के अतिरिक्त कुछ और नहीं खा/पी सकता? और दूध जंगलों में किसी पेड़ या झाड़ियों में भी नहीं मिलता…!? शरीर से अशक्त बूढ़ी दादी को उसके लिए कितने परिश्रम करने पड़ते होंगे? एक कटोरी दूध के लिए उसे लोगों की कितनी मिन्नतें करनी पड़ती होंगी, कितनी गालियाँ सुननी पड़ती होंगी…? यह कोई कैसे जान सकता है, सिवाय उस दादी के, या अँजुरी भर दूध के लिए दादी को रोज़-रोज़ भटकती या मिन्नतें करती हुई अपनी आँखों से देख रही उसकी 4 साला पोती के…? यह तो केवल अनुमान ही किया जा सकता है |
…जैसे तैसे बच्चे बड़े होने लगे और एक साल बीतते-बीतते पोती स्कूल जाने की उम्र में आ गई | …और सदैव की तरह इस बार भी एक बच्चे का विद्यालय में इसलिए नामांकन कराया गया, कि कम से कम एक समय का भोजन एक बच्चे को तो मिल सके और परिवार पर बच्चों की ख़ातिर भोजन के लिए जद्दोजहद का दबाव कुछ कम हो सके; न कि इसलिए कि पढ़-लिखकर बच्चा कुछ सीख सके, उसका भविष्य और जीवन बेहतर हो सके, वह सोचने-समझने वाला ज़िम्मेदार नागरिक बन सके | पोती स्कूल जाने लगी और विद्यालय द्वारा दिए जा रहे ‘दाल-भात’ के रूप में वह एक समय का भोजन भरपेट पाने लगी |
संभवतः तीन साल बीतते-बीतते एक दिन दादी भी चल बसी ! पर्याप्त भोजन और आराम के अभाव में जर्जर हो चला बूढ़ा शरीर श्रम करता हुआ, कुछ खाने की ख़ोज में पहाड़ों की ऊँची ढलानों पर और नीचे फ़िसलती घाटियों में बसे जंगलों में भटकता हुआ कब तक चलाया जा सकता था…?! बच्चे तो जैसे एकदम यतीम हो गए…! चाचा-चाची ने दया न दिखाई और उनका व्यवहार सौतेले माता-पिता से भी बुरा हो गया | पड़ोसियों ने कुछ दिनों तक बच्चों को सहारा दिया, लेकिन वे भी कब तक उन्हें सँभालते | जिस दुनिया में, यदि आपके पास उपहार या विरासत में देने के लिए मोटी-मोटी संपत्ति ना हो या आपसे उन्हें कोई विशेष लाभ की उम्मीद न हो, अपने सगे भी अजनबियों जैसा व्यवहार करते हैं, उस दुनिया में पड़ोसियों का इतना भी आत्मीय व्यवहार कम नहीं है | वैसे हम भी अपने उन्हीं रिश्तेदारों की श्रेणी में आते हैं यदा-कदा…! क्या नहीं…?!
…पड़ोसियों ने कुछ दिनों तक बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था की, लेकिन एक समय के बाद उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए और चाचा-चाची को उलाहना देने लगे | चाचा-चाची इस अतिरिक्त ‘बोझ’ को किसी भी हाल में अपने कन्धों पर लेने को तैयार नहीं हुए, ख़ासकर तब जब बच्चों से उनको कोई लाभ नहीं मिलनेवाला था |
तब बालिका के विद्यालय और उसके अध्यापकों ने हाथ बढ़ाया | ध्यान रहे, ये वे ही सरकारी विद्यालय हैं, जिनके विषय में आम धारणा है कि उनके अध्यापक केवल मोटी-मोटी तनख्वाहों के लोभ में ही स्कूलों में नौकरी करते हैं और बच्चों को पढ़ाने का दिखावा करते हैं, और यह आरोप काफ़ी हद तक सही भी है | यह भी याद रहे कि ये वे ही सरकारी विद्यालय हैं, जिन्हें हम ‘दाल-भातवाला विद्यालय’ कहकर अपने दिलो-दिमाग़ की खुजली मिटाते हैं, क्योंकि हम बर्दाश्त नहीं कर पाते कि जिन लोगों की गर्दनें हमने उनकी भूख के माध्यम से ही सदियों से अपने पैरों तले दबा रखी थी, वे लोग ही विद्यालयों के माध्यम से अपने बच्चों को भोजन मिलने के कारण हमारी हनक के प्रति कुछ ‘निडर-से’ हो गए हैं और लगातार और अधिक निडर होते जा रहे हैं | यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ग़रीबों और असहायों के लाचार बच्चे इन्हीं सरकारी विद्यालयों से शिक्षा और एक वक़्त का भोजन, दोनों प्राप्त करते हैं, जिसके कारण ये सरकारी विद्यालय ‘सभ्य’, ‘सुसंस्कृत’ समाज के आँखों की किरकिरी बने हुए हैं और जो इसी अहंकार के कारण उनके बच्चों के पढ़ने के लिए उपयुक्त नहीं माने जाते हैं; इसीलिए इन सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के बच्चे भी यहाँ न पढ़कर निजी महँगे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजे जाते हैं |
…उन्हीं सरकारी विद्यालयों में शामिल इस विद्यालय और उसके अध्यापकों ने बच्चों की ओर मदद का हाथ बढ़ाया | लेकिन सोचने वाली बात तो यह है कि विद्यालय क्या करे…? अध्यापक क्या करें…? विद्यालय अपने विद्यार्थियों के लिए केवल पुस्तकें, कॉपियाँ, पेन-पेंसिल, स्कूल-यूनिफार्म आदि के साथ एक समय के भोजन की व्यवस्था ही कर सकता है ! अध्यापक केवल बच्चों को पढ़ा सकते हैं और दिन में एक समय ‘मध्याह्न भोजन’ के दौरान उन्हें भरपेट भोजन उपलब्ध करा सकते हैं ! वे उनकी ज़िम्मेदारी लें भी, तो कैसे ? उनका अपना परिवार है, अपनी ज़िम्मेदारियाँ हैं | और फ़िर दूसरों के बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने में दस तरह के झमेले भी तो हैं ! उन्हें कौन झेले…?
तब अध्यापकों ने एक निर्णय लिया— सामूहिक निर्णय, अपनी सामूहिक ज़िम्मेदारी पर | बच्चे अपने माता-पिता की झोपड़ी में ही रहें और घर से नहा-धोकर हर रोज़ विद्यालय आएँ, तीन साल का भाई भी अपनी दीदी के साथ आए | विद्यालय में उनको लंचब्रेक में भरपेट खाना खिलाया जाए और रात के खाने के लिए अध्यापकों द्वारा ही व्यवस्था करके दे दिया जाए | इसके लिए अध्यापकों ने अपने सामूहिक योगदान से बच्चों के लिए टिफ़िन-बॉक्स और कुछ ज़रूरी सामान भी ख़रीदा, जैसे नहाने और कपड़े धोने के साबुन, तेल, बिस्कुट आदि |
बच्चों का जीवन चल पड़ा, लेकिन यह इतना सरल भी नहीं है, जितना हमें दिखता है | यकीन न हो, तो उनके अध्यापकों से पूछिए, जिनके चेहरे हर शनिवार को या तीज-त्योहारों के आने पर और विद्यालय में अवकाश की बात से उतर जाया करते थे, उस बच्चों के लिए कुछ न कर पाने की मनःस्थिति के कारण | और वे दो नन्हे अभागे बच्चे…? कोई उस 7 साल की बालिका बहन से पूछे, कि शनिवार या पर्व-त्योहारों के आने पर उसका नन्हा ह्रदय क्या सोचता होगा पूरे समय, स्कूल में पहुँचने के बाद भी? अपने 3 साल के भाई के लिए वह कैसे तड़प जाती होगी यह सोचकर कि जब उसका वह अबोध नन्हा भाई भूख से बेहाल होकर कहेगा—‘दिद्दी, बहुत भूख लगी है !’ तब वह क्या करेगी?
आप सोचते होंगे कि यदि शिक्षक इतने ही दयालु हैं, तो क्या यह नहीं हो सकता कि उन्होंने बच्चों के लिए बिस्कुट या डबल रोटी जैसे कुछ सूखे खाद्य-पदार्थों की व्यवस्था भी की ही होगी…! यह सोचना अपनी जगह पर ठीक है | लेकिन यह भी तो समझने की ज़रूरत है, कि जब दशहरा, दीवाली जैसे उल्लासमय पर्व-त्योहारों की कई दिनों की छुट्टियाँ पड़ती होंगी, या गर्मियों एवं सर्दियों की लम्बी-लम्बी छुट्टियाँ पड़ती होगी, तब भी क्या उन तमाम दिनों के लिए बच्चों की खातिर डबलरोटी या बिस्कुट की व्यवस्था पर्याप्त होती होगी…? संभव है कि अध्यापकों ने इस सम्बन्ध में भी कुछ न कुछ व्यवस्थाएँ की होंगी, जिसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है |
…लेकिन छोटे बच्चों की समस्याएँ यहीं तो ख़त्म नहीं हो जातीं हैं? शिशु और बाल्यावस्था की आयु के बच्चे अकेले अँधेरे घर में कैसे जीते होंगे? क्या घर और जीवन का अँधेरा उन्हें डराता नहीं होगा, तब भयभीत बच्चे किसकी गोद में शरण पाते होंगे? अपने 3 साल के भाई के बीमार पड़ने या कहीं चोट ही लग जाने से रोने पर वह 7 साल की लड़की क्या करती होगी? कभी वह ख़ुद ही बीमार पड़ जाती होगी और स्कूल न जा पाती होगी, तब उनके खाने का इंतजाम कैसे होता होगा? और तब बच्चों की देखभाल कैसे होती होगी? ऐसे में डबल रोटी या बिस्कुट से क्या उनका काम चल पाता होगा…? क्या ये चीजें भूख और भय से लड़ने के लिए पर्याप्त होती होंगी?…
लेकिन यहाँ बात तो मध्याह्न भोजन की भूमिका पर हो रही है, इसलिए यदि हम उससे जुड़े सवालों, आपत्तियों और उलाहनों पर भी केवल टिके रहें तो समझने की ज़रूरत है कि क्यों बच्चों का पालन-पोषण सम्पूर्ण समाज की ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? अतीत में घटित और ऋग्वेद (I 24.12–15) में वर्णित ब्राह्मण बालक शुनःशेप की कहानी सबको याद तो होगी ही, जिसमें सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र द्वारा आयोजित ‘नरमेध यज्ञ’ (जिसमें यज्ञ के पुरोहितों द्वारा ब्राह्मण-बालक की बलि चढ़ाई जाने की व्यवस्था मन्त्रों के रचयिताओं द्वारा की गई थी) के लिए बालक शुनःशेप का पिता वेदर्षि अजिगर्त अपनी गरीबी से तंग आकर हज़ार गायों के बदले में अपने उस बच्चे को मानव-बलि के लिए पुरोहितों को बेंच देता है | और जब किसी भी दूसरे ब्राह्मण पुरोहित द्वारा बलिस्थल पर बलिवेदी के यूप से बँधे बालक की बलि समाज में विद्रोह एवं विरोध के भय से अपने हाथों से नहीं दी जा सकी, तो बालक के पिता अजिगर्त ने ही प्रस्ताव रखा कि यदि उसे अतिरिक्त सौ गायें दी जाएँ तो वह अपने हाथों से यज्ञ-स्थल पर बेटे का सिर काट देगा |
वर्तमान समय में क्या अपने क्रूरतापूर्ण व्यवहारों से हमारा समाज भी कुछ ऐसा ही कार्य नहीं कर रहा है? क्या वह अपनी क्रूरताओं और दुर्भावनापूर्ण व्यवहारों से अपने हाथों से अपने ही बच्चों की बलि नहीं चढ़ाए चला जा रहा है? क्योंकि बच्चे, चाहे वे जन्मतः किसी भी समाज के हों, पूरे समाज की धरोहर होते हैं, पूरे देश की सम्पदा होते है और उन्हें देश एवं समाज की धरोहर होना ही चाहिए…! तब ज़िम्मेदारी केवल एक की ही क्यों? क्यों केवल माता-पिता ही अपने बच्चों के बारे में सोचें और करें? क्यों केवल अध्यापक और विद्यालय ही उनकी शिक्षा और भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाएँ? क्यों समाज स्वयं इसे अपने सामूहिक दायित्व और अनिवार्य कर्तव्य के रूप में नहीं सुनिश्चित करता है या नहीं करना चाहता है अथवा उसे नहीं करना चाहिए…? शुनःशेप के प्राणों की रक्षा तो उसके मामा ऋषि विश्वामित्र द्वारा हो गई, लेकिन क्यों समाज अपने इन बेबस बच्चों की रक्षा नहीं कर पाता है या नहीं करना चाहता है? क्या इसलिए कि वे ग़रीब के बच्चे हैं, या कमज़ोर तबकों के बच्चे हैं?
…जब स्कूल खुले थे, तब तो बच्चों को खाना मिल रहा था, जैसे तैसे ही सही, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में भी क्या यह सिलसिला जारी रहा होगा? पिछले साल जब पूरे देश में कोरोना-संकट के कारण अचानक ही लॉकडाउन लागू कर दिया गया, किसी को कुछ भी सोचने-समझने या कुछ करने का अवसर दिए बिना ही; तब कई महीनों के लिए पूरी तरह से अपने-अपने घरों में क़ैद हो गए अध्यापकों ने बच्चों का ध्यान कैसे रखा होगा, उनके भोजन और दूसरी चीजों की व्यवस्था कैसे की होगी, यह कैसे बताया जा सकता है? क्या उन बच्चों को एक वक़्त का भोजन भी मिला होगा…? क्या वे समय पर खाना पाकर अभी तक जीवित होंगे…?…या…!?…!?…
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
समाज में ऐसे कई घटनाएं हमारे सामने आती है जो मन को अंदर तक झकझोर देती है और अक्सर इन घटनाओं में हम चंद शब्दों से दुख प्रकट कर अपनी जिमेदारी पूरी समझते हैं।धन्य है वो शिक्षक जो इतना शानदार काम कर रहे हैं।उनकी सोच को साधुवाद एवं सलाम ,वो असली शिक्षक है जो समज के निर्माण एवं उत्थान मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है। कनक मेम आपकी कलम को भी सलाम जिसने इन असली समाज निर्माताओं से हमारा परिचय कराया।
एक सांस में पढ़ गया। 3 और 7 वर्ष के दो अबोध बच्चों के बहाने बहुत सारे जलते सवाल इस स्वयं अनुभूत कथा में उठाया गया है… लगातार असंवेदनशील होते समाज, देश और दुनिया भर की सरकारें जिनका असली कनसर्न बच्चे होने चाहिए थे असल में आज कर क्या रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं है…
उद्वेलित करते महत्वपूर्ण सवालों को यहाँ रखने के लिए कनक जी को साधुवाद।
आप की आज की इस पोस्ट को पढ़कर कितनी बार मैं रो ही पड़ी । वास्तव में समाज सरकारी स्कूलो में संचालित मध्याह्न भोजन योजना की तह तक नहीं पहुंच सका।इस योजना के अंतर्गत कितने ही ऐसे बच्चे पल रहे हैं मैं स्वयं गवाह हूं इस कथ्य की।कई सनाथ बच्चे भी इस योजना के तहत पलते हैं।
समाज बहुत निष्ठुर है। प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपने परिजनों की चिंता है। कुछ ग़लत नहीं है परन्तु अगर समाज अपनी कमाई का एक अंश अगर ऐसे किसी बच्चे पर खर्च कर दे तो शायद कुछ हद तक यह समस्या दूर हो सकेगी
बहुत ही मर्मस्पर्शी
अत्यंत मार्मिक और सोचने को मजबूर करने वाला लेख है ये. इसमें कोई संदेह नहीं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं और भविष्य किसी एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे समाज और संसार का होता है जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी (समाज की) ही है. और इस तरह से किसी भी बच्चे की जिम्मेदारी केवल उसके माँ-बाप की ही न हो कर पूरे समाज की होनी चाहिए और होती भी है, ये और बात है कि हम (समाज) अपनी ज़िम्मेदारियाँ ठीक से नहीं निभाते.
हकीकत बयान करता लेख