बतकही

बातें कही-अनकही…

लेखिका- डॉ. कनक लता

बात सरकारी विद्यालयों की है… बस ‘आँखों देखी’ तो कुछ विद्यालयों की | तो क्या हुआ साहब, सुनी तो कई विद्यालयों के बारे में हैं, ऐसी ही दर्ज़नों घटनाएँ…!?

‘ज़िन्दा कहानियाँ’ सैकड़ों विद्यालयों और उनके बेबस विद्यार्थियों की— अध्यापकों द्वारा, माँओं की बेबस कहानियों में, पड़ोसियों की बातचीत में, परिचितों की सहानुभूतियों में भी, शोधकर्ताओं के शोध में तो हैं ही…| ये ‘जीवित कहानियाँ’ कलेजा चीर देती हैं, मन को अस्थिर कर देती हैं…| यकीन ना हो, तो सरकारी विद्यालयों में जाकर स्वयं अपनी आँखों से देख लीजिए…! और उसका भी समय आपके पास न हो, तो उन विद्यालयों के अध्यापकों से बात करके सुन लीजिए…! ऐसी ही सैकड़ों-हज़ारों ‘जीवित-कहानियाँ’ चलती-फिरती आपको मिल जाएँगी, जिनके ‘मर्म’ को समझने के लिए या तो वह ‘दृष्टि’ चाहिए, जो दूर से भी किसी की पीड़ा को सूँघ लेने का माद्दा रखती हों, अथवा स्वयं जाकर उन ‘ज़िन्दा कहानियों’ की सत्यता की पड़ताल करने की इच्छाशक्ति आपमें हो…| क्या आपके पास वह इच्छाशक्ति है? क्या आपके पास वह ‘दृष्टि’ है? क्या आप उन ज़िन्दा कहानियों की पड़ताल करना चाहेंगे…? …

…तो बात एक विद्यालय की है, सरकारी विद्यालय की…| बात आँखों देखी…! विद्यालय जो उत्तराखंड के एक ख़ूबसूरत शहर पौड़ी में स्थित है | पौड़ी…! दिल्ली जैसे शहरों की तुलना में, …बहुत अधिक उदारता से कहा जाए, तो शायद एक क़स्बा; लेकिन निर्ममता से कहा जाए, तो एक बड़ा गाँव, या कई छोटे-बड़े गाँवों का समूह | लेकिन अपने आसपास के इलाक़े के अन्य स्थानों की तुलना में वह शहर ही है, एक कुछ विकसित-सा शहर !

पौड़ी शहर…! कुछ ठहरा हुआ… तो कुछ गतिशील भी…! कुछ पारंपरिक… तो कुछ आधुनिक भी…! लेकिन अपनी सुन्दरता और आकर्षण में निश्चित रूप से भव्य ! …कल्पित देवलोक को मात देता हुआ एक शहर…! दिल्ली जैसे ‘विकसित’ शहरों की तो उससे कोई तुलना ही नहीं !

…जब बादलों के झुण्ड नीचे घाटी में बहती अलकनंदा पर बिछने लगते हैं और वहाँ से फैलते हुए जब पूरी घाटी में छाने लगते हैं, तो एकदम जीवंत स्वर्ग प्रकट हो उठता है ! तब उसकी सुन्दरता वर्णनातीत होती है ! घाटी में बादलों का स्वर्ग-निर्माण और उनके ठीक ऊपर चमकती हिमालय की लम्बी सफ़ेद श्रृंखला… और उसमें स्थित त्रिशूल, नीलकंठ, नंदादेवी… और भी न जाने कितनी प्रसिद्द धवल चोटियाँ…! स्वर्ग और धरती को एक साथ देखने का सुख देते हुए…! विस्फारित आँखें स्तब्ध… और ह्रदय विभोर… शब्दहीन…!! लेकिन यह दिव्य और भव्य शहर अपने भीतर कितने घाव छिपाए हुए होते हैं, यह सैलानियों को क्या मालूम…?

…तो बात है एक विद्यालय की…! विद्यालय, जो सरकारी है…! विद्यालय, जो भोजन के मामले में समाज के ग़रीब बच्चों के लिए बहुत बड़ा आश्रय है…! विद्यालय, जिसके छुट्टियों के दिन बंद होने पर गाँवों की ग़रीब माँएँ परेशान हो उठती हैं अपने भूखे बच्चों के लिए; और नहीं चाहतीं कि वह एक दिन भी बंद हो…! विद्यालय, जिसे कहते हैं ‘दाल-भात वाला विद्यालय’ | विद्यालय, जो ‘दाल-भात वाला विद्यालय’ होने के कारण तिरस्कार और कुछ घृणा का भी पात्र है, पेट भरे लोगों और समाजों के लिए…! विद्यालय, जो शिकार है सरकारी उपेक्षा और उदासीनता के भी और चलते हैं उनकी कृपा के सहारे, आहिस्ता-आहिस्ता.. कछुए की तरह…! विद्यालय, जो एकमात्र आश्रय हैं बेहद ग़रीब तबकों के बच्चों की शिक्षा के…! विद्यालय, जिनके लिए सरकारी ख़जाने से हर साल निकलते है अरबों रुपए, लेकिन उसकी तुलना में बच्चों तक पहुँचती है धेले भर की शिक्षा…! विद्यालय, जो हमारे समाज की दूषित मनोवृत्ति के भी परिचायक हैं…! विद्यालय, जो हमारी मानसिक कलुषता को नग्न रूप में सबको दिखाते हैं, किन्तु किसी को भी रत्ती-भर भी असर नहीं होता…! विद्यालय, जो सरकारों की नाकामी के ठोस प्रमाण हैं…! विद्यालय, जो समाज की विफ़लता को अपने आइने में दिखाते हैं…! विद्यालय, जो अब अपने उन ग़रीब बच्चों से लगातार छिनते चले जा रहे हैं…! …हाँ, हमारे वही सरकारी विद्यालय…!!!

…तो बात है एक ऐसे ही सरकारी विद्यालय की…| बच्चों की शिक्षा को ध्येय बनाकर चलनेवाली एक संस्था में काम करने के दौरान पौड़ी के इन सरकारी स्कूलों में जाने के अवसर मुझे अक्सर ही मिला करते थे | ऐसे ही एक अवसर पर पौड़ी के एक सरकारी विद्यालय (नगरपालिका के) जाना हुआ | क्या पूछा आपने, विद्यालय का नाम क्या था…? नाम जानने की आवश्यकता शेष है क्या…? हमारे सरकारी विद्यालयों में से किसी में भी चले जाइए, आपको ऐसी दर्ज़नों कहानियाँ मिल जाएँगी | एक नाम जानकर क्या करेंगे? हमारा देश, हमारे बच्चे इतने ख़ुशनसीब कहाँ हुए हैं अब तक कि हम कह सकें कि “हाँ, हमारे अधिकांश विद्यालयों के बच्चों की स्थिति तो ठीक है, केवल फलाँ विद्यालय में स्थिति ख़राब है, जिसे हम जल्द सुधार लेंगे…”? क्या हम दावा कर पाएँगे, क्या हम दावा करना चाहेंगे…?

…तो उस स्कूल में मैं उस समय पहुँची, जब बच्चे अपना मध्याह्न भोजन, अर्थात् ‘मिड डे मील’ खा रहे थे— वही मध्याह्न भोजन, जो सरकारी व्यवस्था के तहत स्कूलों द्वारा बच्चों को दिया जाता है और जिसके कारण हमारे ये स्कूल ‘दाल-भात वाला स्कूल’ कहलाते हैं ! …और प्रधानाध्यापिका अपने विद्यार्थियों को, …नहीं, नहीं, …उन बच्चों के प्रति प्रधानाध्यापिका का ममत्व और चिंता को देखते हुए उन्हें उनके ‘विद्यार्थी’ कहने की बजाय उनके ‘बच्चे’ कहना अधिक ठीक होगा, वे भी कहती हैं—‘मेरे बच्चे…’! …तो प्रधानाध्यापिका ‘अपने बच्चों’ को कभी आग्रह से तो कभी उनके सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए मनुहार करके थोड़ा और भात खा लेने का आग्रह करती हुई मिलीं | बच्चे शायद घर से थोड़ा-बहुत खाना खाकर आए थे, इसलिए खाने में आनाकानी कर रहे थे |

मैंने जिज्ञासावश प्रधानाध्यापिका से पूछा— “मैडम, बच्चे खाना क्यों नहीं खा रहे हैं? …और जब वे नहीं खाना चाहते, तो आप क्यों इन्हें अधिक खाना खाने को कह रही हैं?” जवाब अप्रत्याशित ही नहीं, बल्कि ह्रदय-विदारक भी मिला | मेरे इस सवाल के जवाब में ऐसी कहानी निकलकर मेरे सामने आईं, कि समझ में नहीं आया कि मैं क्या प्रतिक्रिया दूँ, क्या कहूँ और क्या करूँ?

…बात कुछ साल पुरानी थी…जब मध्याह्न भोजन की व्यवस्था सरकारी विधान और इन सरकारी विद्यालयों में नहीं हुआ करती थी | एक दिन उस प्रधानाध्यापिका के विद्यालय में एक स्वयंसेवी सामाजिक संस्था के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता आए | अपनी नीतियों या कार्य-प्रणाली के अनुसार उन्होंने बहुत सारे मुद्दों पर बच्चों से बातें की | बातों-बातों में उन्होंने बच्चों से सवाल किया— “आपमें से किसको क्या-क्या खाना पसंद है?” विद्यालय के सभी बच्चों का एक ही जवाब था— “दाल-भात” | उक्त संस्था के ‘समाजसेवकों’ को यह लगा कि बच्चे उनके प्रश्न को नहीं समझ पाए हैं और इसीलिए शायद वे भोजन के संबंध में अपनी पसंद के बारे में बता रहे हैं | और दाल-भात शायद उधर का प्रिय भोजन होने के कारण ही उनकी पसंद में शामिल है | तब उन्होंने अपना प्रश्न और स्पष्ट किया— “भोजन के अलावा आपकी फ़ेवरेट चीज क्या है? जैसे कोई बिस्किट, चॉकलेट या कोई मिठाई या कुछ और…?” बच्चों ने कहा— “दाल-भात” ! तब उन्होंने अपना सवाल बदला— “क्या आप लोगों को मिठाइयाँ, चॉकलेट या बिस्किट खाना पसंद नहीं हैं?” किसी भी बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया | बार-बार प्रश्न पूछने पर बच्चों से उनको एक ही उत्तर मिलता—“दाल-भात” !

तब उन्होंने प्रधानाध्यापिका से पूछा— “मैडम, अक्सर सभी बच्चों को तो मिठाइयाँ और चॉकलेट वगैरह ही खाना अधिक पसंद होता है | तो ये बच्चे क्यों ये चीजें पसंद नहीं करते हैं? क्या इनको चॉकलेट, मिठाइयाँ या बिस्किट वगैरह पसंद नहीं हैं?” प्रधानाध्यापिका का उत्तर उनको भी वैसे ही स्तब्ध कर गया, जैसे मुझे किया था | उन्होंने कहा—“ये भूखे बच्चे हैं, सर | और भूखे बच्चों को दाल-भात पसंद नहीं होगा, तो और क्या पसंद होगा? ये बच्चे ग़रीब माँ-बाप के बच्चे हैं, जिनको अपने घरों में शायद ही कभी पेटभर भोजन मिलता हो | इनको नहीं मालूम चॉकलेट ! ये नहीं जानते मिठाइयों या बिस्किट का स्वाद ! भूखे बच्चों को दाल-भात ही अच्छे लगते हैं, न कि मिठाई या चॉकलेट !”

…जब यह घटना उक्त प्रधानाध्यापिका मुझे बता रही थीं, तो आदतन उनकी बातें ध्यान से सुनने के दौरान मैं उनके चेहरे को गौर से देख और पढ़ रही थी | उनके चेहरे पर घनीभूत पीड़ा, बेचैनी और छटपटाहट साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी | मेरे सवाल के जवाब में वे आगे कहती हैं— “मैडम, जब ये बच्चे खाना खाते हैं, तो आपको यकीन नहीं होगा, कि मेरे कलेजे को कितनी ठंढक पहुँचती है | इनको खाते देखकर मेरी आत्मा तृप्त हो जाती है | …आप किसी दिन सोमवार को आकर देखना, मैडम | दो दिनों के भूखे बच्चे उस दिन नहीं संभाले जाते हमसे | …इसलिए मैं कोशिश करती हूँ, कि कम-से कम स्कूल में इनको पेट भरकर खाना खिला सकूं | घर जाने के बाद इनको खाना मिलेगा या नहीं, क्या मालूम…?”

जो समाज अपने बच्चों को भरपेट भोजन भी न दे सके, उस समाज को अपने भीतर की संरचनाओं और अपनी व्यवस्थाओं पर बार-बार सोचना चाहिए | अपने भीतर की संवेदनाओं को टटोलना चाहिए—देखना चाहिए कि वह संवेदना नामक चीज ज़िन्दा भी है, या नहीं ! जो देश और उसकी संस्थाएँ अपने बच्चों को भोजन देने के लोभ में स्कूल तक ले आएँ, उन्हें अपने गिरेबाँ में अवश्य झाँकना चाहिए, उसे देखना चाहिए कि वह और उसकी व्यवस्थाएँ फ़ेल तो नहीं हो गईं हैं !

होना तो यह चाहिए था कि हर माँ-बाप को उस दिन का इंतज़ार होता, जब उनके बच्चे स्कूल जाना शुर करते और हँसते-खेलते हुए अपनी पाठशाला का हिस्सा बनते | होना तो यह चाहिए था कि बच्चे हर दिन अपनी पुस्तकों की ख़ुशबू को अपने मन-प्राणों में भरने के लिए अपने विद्यालय जाने को मचलते | होना तो यह चाहिए था कि ग़रीबी से लाचार माता-पिता अपने बच्चों के लिए भोजन की उम्मीद में स्कूल भेजने की बजाय उनकी शिक्षा और उनके एवं देश के बेहतर भविष्य के निर्माण के उद्देश्य से वहाँ भेजते | होना तो यह चाहिए था कि स्कूल बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था की बजाय शिक्षा के केंद्र होते | होना तो यह भी चाहिए था कि बच्चों के लिए भोजन का विद्यालय से एक स्वाभाविक रिश्ता होता, न कि उसके लोभ में बच्चों को वहाँ तक खींच लाकर सरकार और उसकी संस्थाओं द्वारा अपने आँकड़ों को आकर्षक और ‘कल्याणकारी’ दिखाना | …क्या नहीं…???…

उक्त प्रधानाध्यापिका की बात जब-जब याद आती है, आँखों के सामने वे सैकड़ों भूखे बच्चे और हज़ारों भूखे लोग घूमने लगते हैं, जिनको हम अक्सर यहाँ-वहाँ देखते ही रहते हैं— कभी फुटपाथों पर, कभी बड़े-बड़े शहरों और नगरों के सिग्नलों पर, कभी गलियों में, तो कभी रेलवे स्टेशनों और बस-अड्डों पर | प्रसंगवश प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ के घीसू-माधव भी कम याद नहीं आते, जिनको 20 सालों तक भरपेट भोजन ही नसीब नहीं हुआ | 20 साल पहले उनको भोजन मिला भी था तो वह भी गाँव के किसी धनी-संपन्न व्यक्ति की दावत में | और उस दावत के 20 सालों के बाद उनको दोबारा भरपेट भोजन मिला, तो अपनी बहू/पत्नी की मृत्यु के बाद उसके कफ़न के पैसों से |

जो देश अपनी आबादी की तुलना में दो-तीन गुना अधिक अनाज पैदा करता हो; लेकिन उस अनाज पर समाज का अधिकार न होकर गिने-चुने दबंग और साधन-संपन्न लोगों का कब्ज़ा हो, वहाँ हर जगह घीसू-माधव ही नज़र आएँगे; वहाँ सरकारी विद्यालयों में बच्चे पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि भोजन के लिए ही आयेंगें….!!!

जिस व्यवस्था में किताबों और कफ़न के बदले भोजन मिले, उस व्यवस्था को भस्मासुर की तरह स्वयं को नष्ट कर देना चाहिए, ताकि एक नई व्यवस्था की संरचना की सम्भावना बन सके…! जो समाज अपने भीतर के कमज़ोर हिस्सों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने की नीयत से अपने उस हिस्से और उनके बच्चों को भूखा रखने में ही अपनी शान समझता हो और विद्यालयों द्वारा उन बेबस बच्चों की ख़ातिर भोजन की व्यवस्था किए जाने के कारण उन विद्यालयों को ‘दाल-भात वाला स्कूल’ कहकर विद्यालय सहित उन बच्चों और उनके समुदाय को तिरस्कृत और अपमानित करता हो, उस समाज को यथाशीघ्र उसी तरह नष्ट हो जाना चाहिए, जैसे जलती चिता में कोई लाश; ताकि एक नया समाज बनाने की राह निकल सके…! जो देश अपने बच्चों को शिक्षा की बजाय भोजन के लालच में विद्यालय की दहलीज तक लाता हो, लेकिन उनकी शिक्षा के लिए नहीं बल्कि अपने आँकड़े दुरुस्त करने के लिए, उस देश को अपने साथ क्या करना चाहिए, वह स्वयं तय करे…!!!

… … …

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!