बतकही

बातें कही-अनकही…

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा…

भाग-एक :-

‘मनोहर चमोली’ होने का अर्थ…

सफ़दर हाशमी ने कभी बच्चों को सपनों और कल्पनाओं की दुनिया में ले जाने की कोशिश में उन्हें संबोधित करते हुए लिखा था—

“किताबें कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं॥

किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं

किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?”        (सफ़दर हाशमी)

ऐसा लगता है, जैसे मनोहर चमोली भी बच्चों से कुछ ऐसा ही कहने की कोशिश पिछले कई सालों से कर रहे हैं, अपनी बाल-रचनाओं के द्वारा | जैसे वे बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें किताबों की दुनिया में ले जाना चाहते हों, अपनी कहानियों एवं कविताओं द्वारा…जैसे वे उन्हें सपनों, उम्मीदों, आशाओं के मोहक संसार में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, अपनी कहानियों-कविताओं के पात्रों के माध्यम से… जैसे वे बच्चों के मन में साहस, उत्साह, प्रयत्नशीलता, रचनात्मकता भर देना चाहते हैं, अपनी कहानियों-कविताओं के पात्रों के चरित्र एवं व्यक्तित्व के माध्यम से… 

मनोहर चमोली…! एक ऐसा अध्यापक, जो अपने तयशुदा कार्य —विद्यालय में पढ़ाना और शिक्षा-विभाग का हुक्म बजाना— के अलावा साहित्य की दुनिया में आकर एक अतिरिक्त कार्य, एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी उठाए चल रहा है | वह ज़िम्मेदारी, जिसके लिए यह अध्यापक किसी भी रूप में बाध्य नहीं है, वह ज़िम्मेदारी, जिसके लिए बाध्य न होते हुए भी प्रतिबद्ध है, क्योंकि वह शिक्षक बच्चों के बेहतर भविष्य से स्वयं को सम्बद्ध पाता है, आबद्ध रखना चाहता है…! इसी कारण बच्चों के लिए साहित्य की रचना करना अपना कर्तव्य समझता है, ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारी को जवाबदेही के साथ अंजाम दे सके… इसके लिए उस व्यक्ति ने बच्चों के साथ काम करने का जो अतिरिक्त तरीका चुना है, वह है ‘बाल-साहित्य’ का सृजन ! 

लेकिन यह ‘बाल-साहित्य’ क्या बला है…? भला बच्चों को साहित्य की क्या ज़रूरत…उन्हें तो अक्षर-ज्ञान करा दो, अक्षरों को पढ़ना-लिखना सिखा दो, रटने का आदेश दे दो…बस बहुत है…! जिसमें जितना रटने की शक्ति और क्षमता होगी, वह उतना ही ‘योग्य’ और ‘काबिल’ होगा ! उस रटने की क्षमता से ही उनका दिमाग तेज हो जाएगा, यदि उनमें सच में काबिलियत होगी तो…? उनके लिए किसी साहित्य की क्या ज़रूरत…? उसकी क्या उपयोगिता…? उसकी आवश्यकता ही क्यों…? उनकी स्कूल की किताबों में कम कहानियाँ हैं क्या..? उसी को पढ़ लें, बहुत है उनके लिए तो…? अलग से कहानियों-कविताओं में उन्हें उलझाकर उन्हें ‘पढ़ने से दूर’ ही किया जाएगा, फिर ऐसी ‘बेकार’ और ‘हानिकारक’ चीजें उनके आगे क्यों परोसना…? उनके चक्कर में तो बच्चों का समय ही ख़राब होता है, पढ़ने से उनका ध्यान हटता है, वे उसी में उलझकर रह जाते हैं…! 

…और यदि मनोहर चमोली को साहित्य लिखे बिना चैन नहीं आता है, तो उन्हें बड़ों का गंभीर साहित्य लिखना चाहिए, जिसमें खूब इज्ज़त भी है, शोहरत भी, …और पैसा भी …! उन्हें लुभावनी रोमानी प्रेम-कविताएँ और कहानियाँ लिखनी चाहिए, प्रकृति के सौन्दर्य-चित्रण में कलम घिसनी चाहिए, जो उनके निवास-स्थल और कर्मभूमि के ज़र्रे-ज़र्रे में बिखरी हुई है…! उनके तो बड़े-बड़े लोगों से संपर्क हैं, यदि सचमुच में उन्होंने प्रभावशाली पदों पर आसीन लोगों के साथ काम किया है, तो उनके साथ अपने रिश्तों का भरपूर प्रचार करते हुए उससे संबंधित संस्मरण भी लिखा जा सकता था उनके द्वारा, इससे दूसरों में उनकी धाक ही जमती…! …लेकिन इन सब को छोड़कर उन्होंने बच्चों के लिए साहित्य-रचना करना अपना उद्देश्य बनाया…!

…मन में सवाल तो उठता ही है…कि …क्यों…??? प्रश्नों और जिज्ञासाओं के साथ-साथ मन में ऐसी बातों और विचारों से तो अनेक शंकाएँ भी उठने लगती हैं…! …

…क्यों उन्हें बच्चों के लिए साहित्य लिखना ही ज्यादा ज़रूरी लगता है …? क्या उनको बड़ों का गंभीर साहित्य-सर्जन करना नहीं आता …? क्या उनमें मधुर प्रेम-कविताएँ लिखने की क्षमता नहीं है…? क्या किसी रूपसी-प्रेयसी के सौन्दर्य का बखान करना, किसी मोहिनी के चित्ताकर्षक मनमोहक भाव-भंगिमाओं को उतने ही सुन्दर-सजीले शब्दों में पिरोना नहीं आता…? अथवा गंभीर साहित्य-सर्जना के लिए उनके पास ‘आवश्यक गंभीर विचारों, वादों, विमर्शों’ की पर्याप्त ‘समझ’ ही नहीं है…? या उन्हें मारक शब्दों में बाँधने के लिए उनके शब्दकोश में पर्याप्त शब्द ही नहीं हैं…? जिनके माध्यम से वे देश-दुनिया की बातों को, घटनाओं को गर्जन-तर्जन करते शब्दों में बाँधकर चिंतकों की दुनिया में धमाकेदार ढंग से घुसपैठ कर सकें, वहाँ अपनी पैठ बना सकें…???

ये सभी सवाल, …हैं तो गंभीर… और इस लेखक को जैसे ‘लेखक’ के पद से धकेलकर नीचे गिरा देने को आतुर भी… साथ ही, उसके ‘अध्यापकीय-दायित्वों’ के प्रति उसकी ‘लापरवाही और उपेक्षा’ के प्रमाण-रूप में प्रस्तुत होने को प्रतिबद्ध-से भी दिखते हैं ये सभी प्रश्न और शंकाएँ…! लेकिन सच क्या है…? समझ में नहीं आता…! क्यों शिक्षक-बिरादरी, जिसके मनोहर चमोली सदस्य हैं, उनसे भीतर ही भीतर इतनी नाराज़ है…? क्यों उसे इतनी शिकायतें हैं अपने इस अध्यापक से… कि वह उन्हें न तो ठीक से ‘अध्यापक’ मानने को तैयार है, न बाल-साहित्यकार के रूप में देखने को प्रस्तुत, और न ही उनके अन्य कार्यों को सम्मान देने को किसी भी रूप में तत्पर…???

पौड़ी में रहने के दौरान इस अध्यापक के विषय में इस प्रकार की दर्ज़नों बातें, दर्ज़नों आरोप अक्सर सुनने को मिलते थे, अनेक अध्यापकों से भी और अपने उन सहकर्मियों की परस्पर बातचीत में भी, जिनके साथ एक संस्था में तब मैं कार्यरत थी |

लेकिन उनसे मेरी पहली भेंट मुझे अब तक याद है, और मेरी डायरी का हिस्सा तो वह है ही…! डायरी-लेखन में अपने कार्यों एवं उससे जुड़े अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को लिपिबद्ध करने की अपनी इस आदत को मेरे भीतर विकसित करने के लिए मैं अपने अध्यापक प्रोफ़ेसर सुधीश पचौरी (दिल्ली विश्वविद्यालय) की हमेशा ही आभारी रहती हूँ, क्योंकि उनके द्वारा मुझमें विकसित की गई इसी आदत के कारण न केवल बहुत-सी यादें मेरे पास संचित हो जाती हैं, बल्कि यह मेरे काम की गुणवत्ता सुधारने में भी मदद करती है | …और जब मैं उत्तराखंड के वर्त्तमान और भविष्य को समझने की कोशिश में यहाँ के अध्यापकों के सकारात्मक-नकारात्मक ‘योगदान’ को समझने के लिए पीछे मुड़कर देखने के प्रयत्न कर रही हूँ, तो इस कोशिश में मेरी यह डायरी ही मेरी सबसे बड़ी सहायक बन रही है…

अस्तु…

उक्त संस्था (पौड़ी, उत्तराखंड) में शामिल हुए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए थे और वहीँ अगस्त 2018 में एक कार्यक्रम के दौरान मैं कई अध्यापकों सहित उनसे भी मिली थी | तब तक न तो मैंने उनका नाम सुना था, न उनसे किसी भी रूप में परिचित थी | …और यदि सुना भी होगा, तो वह मुझे ध्यान नहीं है, क्योंकि तब तो साथियों की बातचीत में कई नाम आते ही रहते थे, लेकिन किसी को भी न जानने, या उनके बारे में किसी भी तरह की कुछ भी ठोस जानकारी तत्काल न होने के कारण उन सबका जिक्र और उनके बारे में हो रही बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल जाया करती थीं | इसलिए तब तक कोई भी अध्यापक मेरी डायरी में नहीं आ सका था | वस्तुतः वही कार्यक्रम और उस दौरान उन सबसे भेंट, शिक्षकों से प्रत्यक्षतः परिचित होने का पहला अवसर था | उसी कार्यक्रम में पहली बार कुछ अध्यापकों के व्यक्तित्व ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था और इसी कारण वे मेरी निजी डायरी में प्रवेश कर गए, मनोहर चमोली भी उनमें से एक थे…|

…उस कार्यक्रम के दौरान उनसे हुई बातचीत और उस बातचीत में आए उनके विचारों, उन विचारों की गंभीरता एवं परिपक्वता, उनकी तार्किक बातों ने मुझे उनकी पहली झलक दी थी, मेरा एकदम से ध्यान खींचा था | मेरे पढ़ने-लिखने के शौक़ के कारण मैं अक्सर ऐसे लोगों से जुड़ जाती हूँ, जिनके जीवन का हिस्सा ‘पढ़ना-लिखना’ होता है | शायद इसी कारण मनोहर चमोली नामक उस अध्यापक ने मेरा ध्यान आकर्षित किया…

लेकिन उस झलक के बाद, भविष्य में जब उनके सम्बन्ध में अनेक प्रकार की आलोचनाएँ सुनने को मिलीं, उनपर गंभीर आरोप लगते देखे, तब मैं असमंजस में रहने लगी | उनके सम्बन्ध में मेरी ‘आँखों देखी’ में और अन्य अध्यापकों एवं अपने सहकर्मियों की बातों में जमीन-असमान का अंतर था, अतः एक ही व्यक्ति के सन्दर्भ में दो विपरीत पहलू सामने आने के बाद मैंने उनके सम्बन्ध में कोई भी राय बनाने से ख़ुद को तत्काल रोक दिया और चुपचाप अध्ययन करने लगी, अपने आप को समय दिया, अध्यापकों को समझने के लिए…   

समय बीतने के साथ-साथ, मेरे सहकर्मियों द्वारा मेरे सामने व्यवधान उत्पन्न किए जाने के बावजूद, संस्था के उद्देश्यों के साथ चलने के क्रम में उनके संग काम करने के कुछ बेहतरीन मौक़े मिले, जिसने मुझे इस अध्यापक को समझने में, उसके व्यवहार को, विचारों को, विभिन्न मामलों, व्यक्तियों, सामाजिक-समुदायों के सम्बन्ध में उसकी वास्तविक-नीयत को बहुत क़रीब से जानने, अपनी आँखों से देखने, अपनी बुद्धि से समझने के मौक़े मिले | उन विभिन्न अवसरों पर उनके विचारों एवं व्यवहारों से उस व्यक्ति की एक दूसरी ही तस्वीर उभरने लगी…

और जैसाकि साहित्य की दुनिया में माना जाता है, कि किसी व्यक्ति को समझने के मुख्यतः तीन स्रोत होते है— एक, उस व्यक्ति के द्वारा अपने बारे में बताना, जिसे निम्न कोटि का माना जाता है; दूसरा, उसके परिचितों, मित्रों आदि के माध्यम से जानना, जो मध्यम कोटि का माना जाता है; और तीसरा, सम-विषम परिस्थितियों में उस व्यक्ति का स्वतः प्रकट होने वाला स्वाभाविक चरित्र, सहज व्यक्तित्व, वास्तविक व्यवहार | और यह तरीका, सहज-स्वाभाविक होने के कारण ही उच्च कोटि का माना जाता है |

…पता नहीं, यह केवल संयोग है, या मौक़ा न मिल पाने की स्थिति, मनोहर चमोली से कभी उनके बारे में मुझे कुछ विशेष जानकारी नहीं मिल सकी, अनेक बार बातचीत के मौक़े मिलने के बावजूद | जहाँ तक परिचितों, मित्रों आदि से मिली प्रतिक्रियाओं का प्रश्न है, तो वह प्रायः किस प्रकार का रहा होगा, उसकी झलक ऊपर मिल चुकी है | केवल कुछ चुनिन्दा अध्यापकों से ही उनमें निहित असीम क्षमताओं और अपने कर्तव्यों के प्रति उनकी बेचैनी के सम्बन्ध में जानकारी मिली…! और अब मेरे पास अपनी ‘आँखिन देखी’ के अलावा कोई दूसरा स्रोत बचा ही नहीं था | अतः इस व्यक्ति को, इस अध्यापक को समझने के लिए मैंने कुछ अपनी याददाश्त का, तो कुछ अपनी डायरी का सहारा लिया |

हालाँकि एक मनुष्य होने के नाते मेरी भी सीमा है, किसी व्यक्ति को ठीक से समझने की, उसके व्यक्तित्व के देखे-अनदेखे पहलुओं को ‘देख’ सकने की…| ग़लतियों की संभावनाएँ इस कारण बहुत अधिक हैं, इसलिए यह आवश्यक नहीं, कि जो मैंने ‘महसूस’ किया, या जो मेरी आँखों ने ‘देखा’, अथवा जो मेरे मस्तिष्क ने ‘समझा’, वही एकमात्र सत्य है…| मेरे आलेखों में… जिस प्रकार एक कहानी के चार अंधों द्वारा अपने-अपने ‘अनुभवों’ के आधार पर एक हाथी के ‘सत्य’ को जानने की कोशिश हो रही थी, …शायद कुछ वैसी ही कोशिश मेरी भी है इस अध्यापक के ‘सत्य’ को जानने के सन्दर्भ में…

…हालाँकि यह तो दुनिया के किसी भी व्यक्ति के बारे में दावा नहीं किया जा सकता है, कि उसमें केवल अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ होंगी, या हो सकती हैं | और इसी तरह किसी के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता, कि उसमें केवल बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं | यह ‘मानव स्वभाव’ या उसकी नियति भी नहीं है, न होनी चाहिए | मेरी दृष्टि में एक मनुष्य की ख़ूबसूरती और अद्वितीयता इसी में है, कि उसकी अच्छाइयाँ और कमियाँ उसमें साथ-साथ बनी रहें, मनुष्य उन्हें स्वीकार करता हुआ आगे बढ़े, कमियों को समय के साथ न्यून करता हुआ चले, विशेषताओं को और निखारे, और सँवारे …| …और मेरी समझ से, यही ‘मानव’ होने का सुख भी है…! …और …शायद यही सुख तथाकथित ‘देवताओं/देवियों’ के पास नहीं है…! उनकी तुलना में हम मनुष्य कितने अधिक भाग्यशाली हैं…!!? …इतने अधिक भाग्यशाली, कि हम अपनी कमियों के साथ ही ‘पूर्णता’ को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो पाने का अधिकार और सुविधा रखते हैं…! इस मामले में देवताओं की भला हमसे तुलना क्या…!?  

…इसी कारण, जब किसी समाज में किसी मनुष्य से सभी कमियों से मुक्त होकर ‘ईश्वरतुल्य’ होने की अपेक्षा की जाने लगे, तभी समझ लेना चाहिए, कि उस समाज को अपना मूल्यांकन करने, अपने आप को पुनः परिशोधित-संशोधित करने का समय आ गया है…| या इसके विपरीत भी, जब कोई समाज अपने किसी व्यक्ति को लगातार धिकृत करता जा रहा हो, उसमें बुराइयाँ-मात्र ही उसे नज़र आने लगें, तब भी समाज को समझने की ज़रूरत होती है, कि वह अपना मंथन करे, …क्यों उसका एक सदस्य ‘बुराइयों की खान’ बन गया ? समाज की शिक्षा में कहाँ कमी थीं…? या वह अपनी की कमियों के वशीभूत होकर अपने सदस्यों को उचित वातावरण नहीं दे सका…? अथवा उसका अपना ही दृष्टिकोण इस सीमा तक दूषित-सा हो चला है, कि वह उससे बाहर आने की कोशिश भी नहीं करना चाहता…?

मेरा निश्चयपूर्वक यह मानना है, कि वस्तुतः प्राकृतिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति के मन के, विचारों एवं जीवन के कुछ सकारात्मक पक्ष भी होते हैं, तो कुछ नकारात्मक पक्ष भी | इसलिए मनोहर चमोली से भी, केवल सकारात्मकता की आशा या अपेक्षा करना उनके ‘मनुष्यत्व’ के प्रति अन्याय ही नहीं, अत्याचार भी है | लेकिन हमें यह भी समझने की ज़रूरत है, कि किसी व्यक्ति के जीवन का कौन सा ‘नकारात्मक’ पक्ष उसके व्यक्तित्व का सहज भाग हो सकता है और कौन सा परिस्थितियों की देन…?

इस साहित्यकार-अध्यापक के बारे में जो बातें अक्सर सुनने को मिलती थीं, उसके अनुसार मनोहर चमोली एक अहंकारी, जिद्दी, अपने विचारों के प्रति अति-आग्रही, मुँहफट, आत्म-मुग्ध, आत्म-प्रवंचना एवं वर्चस्ववादी-प्रवृत्ति से ग्रसित… व्यक्ति हैं…! लेकिन उनके साथ काम करते हुए और उन्हें नजदीक से देखने पर पता चलता है, कि उनमें मौजूद ये सभी ‘कमियाँ’ उनके व्यक्तित्व का सहज हिस्सा होने की तुलना में स्थिति-परिस्थितियों की देन और प्रतिक्रिया अधिक प्रतीत होती हैं…

जब उनके साथ काम करते हुए उनके बारे में कुछ नज़दीक और गहराई से मैंने जाना, तो उनकी शिक्षा, उनके सामाजिक-सरोकारों से जुड़े कार्यों आदि के माध्यम से पता चला, कि वे जिन बातों और उससे जुड़े तर्कों को लेकर ‘जिद्दी’, ‘आग्रही’ ‘अहंकारी’ समझे जाते हैं, दरअसल उसका कारण उनके विचारों की स्पष्टता है | जाहिर है, जो व्यक्ति अपने विचारों में जितना अधिक स्पष्ट होगा, वह अपनी बात को उतनी ही दृढ़ता से रखेगा | और जिनके पास छिछला या अधकचरा ज्ञान होता है, उसके पास ठोस तर्क का अभाव तो हमेशा ही रहेगा, कम से कम तब तक, जब तक उसके इस पक्ष का परिशोधन न हो | ऐसे में वह सामने वाले को कैसे बर्दाश्त करे, जिसके पास किसी चीज के विषय में गहरी समझ और ज्ञान भी है, ठोस तर्क भी हैं, और उसे कहने का सत्साहस-दुस्साहस भी | ऐसे में कई बार उथले लोग सामनेवाले को ‘अहंकारी’, ‘आग्रही’, ‘जिद्दी’ जैसे विशेषणों से विभूषित कर अपनी ईर्ष्या को सहलाते हैं, या अपनी कमियों को छिपाते हैं |

दूसरी बात, जब कोई व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्वों को लेकर गंभीर हो, जब समाज में असमानता, वैमनस्य, अमानवीयता, क्रूरता, अस्पृश्यता, स्त्रियों की रोज-रोज की दुर्दशा, बच्चों के प्रति अनेक क्रूरताएँ आदि को देखकर उसकी आत्मा उसे मिटाने को छटपटाती हो, लेकिन सामने उसका रास्ता रोके हज़ार बाधाएँ खड़ी हों, तो क्या उसकी बेचैनी को सरलता से समझा जा सकता है…? उसके व्यक्तित्व को गालियाँ देने वाले, उसके जीवन को कोसने वाले कितने लोग उसकी बेचैनी को महसूस कर सकते होंगे…? मैंने अपने समाज को, दूसरे लोगों की ही तरह, जितने क़रीब से देखा-समझा है, उससे मुझे अनुमान है कि उल्टी तान छेड़ने वाले लोगों द्वारा विरोध के स्वर कैसे-कैसे और कितने रूपों में हो सकते हैं ?

तीसरी बात, कि जब व्यक्ति अपने समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना को लेकर बेचैन हो, लेकिन कोई उसका मददगार न हो, तो वह व्यक्ति किस हद तक अपने को अकेला और असहाय समझता होगा ? ऐसे में वह मदद पाने, अपने मददगारों को ढूँढने कहाँ-कहाँ नहीं जाता होगा…? ऐसे में उसकी तलाश क्या उसे हर बार सही मंजिल की ओर ले जाती होगी…? या बहुत बार धोखे में वह उन गहरी खाइयों में गिर जाता होगा, जहाँ से निकलना उसके लिए एक नई चुनौती बन जाती होगी…? किसे मालूम, कि मनोहर चमोली इसके उदाहरण नहीं हैं…? क्या कोई दावे से कह सकता है, कि “हाँ, मैंने उस व्यक्ति की यह बेचैनी, यह छटपटाहट, यह तलाश, यह गिरना, बहेलियों के जाल में उलझना, उससे निकले की क़वायद… यह सब बहुत करीब से देखा है, उसे महसूस किया है…?” यद्यपि कभी-कभी छोटी-छोटी कोशशें मैंने की हैं, लेकिन वह काफ़ी या पर्याप्त नहीं हैं | हालाँकि उन्हें इसका एहसास नहीं है, कि मेरी ‘आँखों’ ने उनके जीवन के इस पक्ष को कभी-कभी चुपके से उनकी छटपटाहटों में ‘देखने’ के प्रयास किए हैं…! लेकिन बहुत अधिक नहीं…| मुझे हैरानी हुई, जब शिक्षक-समाज में से भी कई लोगों ने इस स्थिति को देखा और महसूस किया है |…और… कभी-कभी यूँ ही, अनौपचारिक बातचीत में इसपर बात भी होती थी हमारी…!

…मनोहर चमोली के विचारों में जो एक आक्रामकता कभी-कभी दिखाई देती है, वह अक्सर मुझे उसी बेचैनी का प्रतिबिम्ब लगती है, जब उन्हें सहायकों की बजाय नीचे धकेलनेवाले अधिक मिलते हैं, या जब वे ‘मददगार’ की तलाश में ‘बहेलियों के जाल में उलझा हुआ खुद को पाते हैं और तब वे खुद को अकेला-सा पाते हैं | मैं अक्सर कई ऐसे लोगों से मिल चुकी हूँ, जो मूलतः किसी न किसी कमज़ोर समुदाय (स्त्रियाँ, दलित, अर्धनारी/किन्नर, सड़कों पर भीख माँगते बच्चे, बंजारे आदि) के होते हैं और बहुसंख्य और सशक्त समुदाय से अपनी रक्षा के निमित्त कई बार बनावटी आक्रामक तेवर दिखाते हैं | …तो क्या, मनोहर चमोली के आक्रामक तेवर में कुछ ऐसे ही तत्व मिश्रित हैं…? क्या अपने को उन आक्रमणकारियों के आक्रमणों से बचाने के लिए ही वे बदले में आक्रामक-मुद्रा अख्तियार करते हैं…? कौन बता सकता है, कि क्या सच है…? या कौन दावे के साथ कह सकता है, कि यही सच नहीं है…?

चौथी बात, अनेक लोगों के विरोध में मुझे उनका एक और पक्ष बहुत साफ़-साफ़ दिखाई दिया | पौड़ी में रहने के दौरान अध्यापकों एवं अपने सहकर्मियों के विचारों ने मुझे कई दूसरे ‘सत्य’ के भी दर्शन ख़ूब कराए… एकदम स्पष्ट ‘सत्य’… आइने की तरह साफ़… अपने नग्न-रूप में…!

जिन समाजों के बच्चों के लिए शिक्षा एवं कल्याण के नाम पर उन ‘अध्यापकों’ एवं संस्थाओं के ‘समाजसेवियों’ को मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं, उन्हीं समाजों के बच्चों का पढ़ना उन्हें अरुचिकर लगता है, अनावश्यक लगता है, शक्तिशाली समाज के प्रति अन्याय एवं अत्याचार लगता है ! ऐसा नहीं है, कि वे अपनी मनोभाव छिपाते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे एकदम बिंदास अंदाज में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं और उसका ‘अनुकूल प्रभाव’ भी हतोत्साह, आत्म-ग्लानि, विश्वासहीनता के रूप में उन बच्चों पर एवं उनके समाज पर पड़ता हुआ देखकर ख़ुश और संतुष्ट होते हैं…! और मनोहर चमोली यहीं पर ऐसे अध्यापकों एवं तथाकथित ‘समाजसेवियों’ से भिन्न हो जाते हैं, जब वे कहते हैं, कि पढ़ने-लिखने का समान अधिकार इन कमज़ोर समुदायों को भी है, सम्मानजनक जीवन एवं उसके लिए आवश्यक सभी मानवीय अधिकार उनके भी हैं…!

तब ऐसे में जब यह अध्यापक अपने लिए तय किए गए स्वतः-स्फूर्त लक्ष्यों को लेकर काम करने को दृढ़ता से समर्पित होगा, तो क्यों नहीं वह अपने लिए विरोधियों की फ़ौज खड़ी करेगा…? जब वह व्यक्ति अपने ऐसे ‘ख़तरनाक विचारों’ के प्रति प्रतिबद्ध होगा, उनकी रक्षा में आक्रामक हो जाएगा, तो समाज में समानता के स्थान पर ‘समता’ और अपनी जातीय ‘दैवीय हैसियत’ के हिमायती लोग उसे शत्रु की तरह क्यों नहीं देखेंगे…?      

मनोहर चमोली…! एक बहिर्मुखी व्यक्तित्व…! अन्य लोगों की दृष्टि में एक मुँहफट, आत्म-मुग्ध, आत्म-प्रवंचक… और भी न जाने क्या-क्या …! यहीं अनेक प्रश्न सिर उठाने लगते हैं, जिसपर मैं अक्सर विचार करती हूँ और अक्सर असमंजस में भी पड़ जाती हूँ, क्योंकि कोई ठोस उत्तर जो नहीं मिलता…! यह ‘बहिर्मुखता’ और ‘अंतर्मुखता’ क्या है…? ये आते कहाँ से हैं…क्यों आते हैं…? परिस्थितियाँ कैसे तय करती हैं, कि किसे अंतर्मुखी बनाना है, और किसे बहिर्मुखी…? क्या बहिर्मुखी व्यक्ति के भीतर कोई ऐसा कोना भी होता है मन के किसी परत में, जो अंतर्मुखी होता हो..? या ठीक इसके विपरीत भी, किसी अंतर्मुखी व्यक्ति के भीतर बहिर्मुखता के लक्षण नहीं मिलते …?

मनोविज्ञान कहता है, कि कोई भी व्यक्ति न तो अंतर्मुखी-मात्र हो सकता है, न बहिर्मुखी-मात्र | अंतर केवल मात्रा का होता है | जिसमें बहुर्मुखता के अंश अपेक्षाकृत अधिक होते हैं, वह ‘बहिर्मुखी’ माना जाता है और जिसमें अंतर्मुखता के लक्षण अधिक होते है, वह ‘अन्तर्मुखी’ कहलाता है |

एक बात और, जो मैंने अक्सर अपने अनुभवों से गौर किए हैं, कि अंतर्मुखी व्यक्ति का विश्वास हासिल करके उसके भीतर झाँकना अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन बहिर्मुखी व्यक्ति के साथ यहीं पर बहुत मुश्किल होती है, उसके मन के भीतरी परतों में उतरना, हथेली पर सरसों उगाने के समान कठिन…!

मनोहर चमोली…! एक बहिर्मुखी व्यक्तित्व…! जिसके मन के भीतरी परतों में उसकी अनुमति लेकर मैं कभी नहीं देख सकी…! वह अनुमति देते भी, तो क्यों…? उस व्यक्ति की मुखरता, उसका बेबाकपन, उसका आक्रामक दुस्साहस… जैसे हमेशा अपने उस अनदेखे हिस्से को अपने आवरण में छिपाए रखने की कोशिशें करता रहता…! उस भीतरी परत की मौजूदगी को महसूस करने के लिए मुझे दूसरे तरीके अपनाने पड़े, बिना उस व्यक्ति को आभास हुए… एकदम चुपके से… ! पौड़ी में रहने के दौरान जब कभी उनके साथ काम करने या विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करने के मौक़े मिलते थे, तब मैं उनकी बातों में, उनके स्वर में, भाषा की भाव-भंगिमा में, बातों के लहज़े (टोन) में… तथ्यों के साथ-साथ कुछ और भी पकड़ने की कोशिश करती रहती थी…

कहते हैं, कि यदि किसी व्यक्ति को ठीक से समझना हो, उसके ‘सत्य’ को पकड़ना हो, तो उससे बातचीत के दौरान, या उसे दूसरों के साथ व्यवहार करते हुए चुपचाप ध्यानपूर्वक ‘देखना’ चाहिए, उसके शरीर के विभिन्न अवयवों के ‘नृत्य’, यानी उनकी गति, को देखना चाहिए | क्योंकि बोलते समय किसी भी व्यक्ति की आवाज़, भाषा, शब्दों का चयन, बोलने का अंदाज, आँखों की गति, पलकों और पुतलियों की गति, हाथों एवं पैरों की उँगलियों की गति आदि स्वयं भी कई कहानियाँ कह रही होती हैं…| सिनेमा और टेलीविज़न की दुनिया इस ‘भाषा’ का बहुत अच्छा इस्तेमाल करती हैं | जब उसे अपने दर्शकों को किसी पात्र के भीतर के उथल-पुथल, अंतर्द्वंद्वों, संघर्षों, मनःस्थितियों, दुविधाओं आदि को दिखाना होता है, तो वह उस पात्र के शरीर के इन्हीं अवयवों के ‘नृत्य’ पर कैमरे को फोकस करके कुछ पलों के लिए वहीँ स्थिर-सी कर देती हैं | …इसलिए मैं भी इसी ‘मूक भाषा’ को कभी-कभी पढ़ने की कोशिशें किया करती हूँ लोगों को समझने के लिए… जैसे सभी करते हैं… ! मनोहर चमोली के व्यक्तित्व को भी ‘पढ़ने’ के लिए यह मेरे पास एक सुलभ ज़रिया था… एक मौन-भाषा…

इसके अलावा उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनने पर दो बातें समानांतर चलती हुई महसूस की जा सकती हैं… मैंने तो महसूस किए ही हैं… शायद दूसरों ने भी किए हो…? जब वे कहते, कि “अपने कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मेरे कॉलेज में जब एक कला-जत्था आया था, तो उनके काम ने मुझे प्रभावित किया और मैं उस जत्थे में शामिल हो गया… उनका हिस्सा हुआ, उनके साथ भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर वहां की संस्कृति, वहां के लोगों को, नजदीक से देखने की कोशिश की…|” तब मुझे सुनाई देता था, जैसे वे कह रहे हों, “..उनके नाटक में अभिव्यक्त आम-जन की पीड़ा ने मुझे अपने समाज की याद बार-बार दिलाई, और हमारे समाज की साझी तकलीफ़ को, उस तकलीफ़ के कारणों को ठीक से समझने के लिए मैं उनके साथ जुड़कर दूर-दूर तक गया, ताकि मैं जान सकूँ, कि मेरे उत्तराखंड के लोगों की पीड़ा और मेरे देश के अन्य इलाकों के लोगों की पीड़ा में क्या अंतर और क्या समानताएँ हैं… ताकि भविष्य के लिए अपना लक्ष्य तय कर सकूँ, कि मुझे किस ओर जाना है, …कि अपने समाज की मुक्ति के लिए मुझे क्या करना है, …कि उसकी मुक्ति में मेरा योगदान कैसा हो…?” जब वे कहते, “सम्पूर्ण साक्षरता अभियान में काम करने के दौरान जब मैंने पश्चिम बंगाल के लोगों का शिक्षा के प्रति अलग दृष्टिकोण देखा, केरल में रिक्शेवाला भी अख़बार पढ़ता नज़र आया, वहाँ रसोई में काम करती स्त्रियों के घरों में भी छोटी ही सही, लेकिन लाइब्रेरी देखी…” तो मुझे सुनाई देता था, जैसे वे कहना चाहते हों, कि “…मैं भी कोशिश करना चाहता हूँ, कि हमारे राज्य में भी हमारी बेटियाँ अपना पुस्तकालय बनाएँ और वहाँ बैठकर सुकून से पढ़ें, हमारे राज्य में भी इतनी शिक्षा हो, कि सबसे कमज़ोर समझा जाने वाला आदमी भी किताबों, अख़बारों को पढ़ना चाहे, पढ़ सके, देश-दुनिया के बारे में अपनी स्वतन्त्र समझ विकसित कर सके…”

मनोहर चमोली…! एक बहिर्मुखी व्यक्तित्व…! कई बार यह महसूस होता है, कि इस आदमी का वह चेहरा कैसा होगा, जो कभी सामने आ ही नहीं पाता है…? क्यों यह व्यक्ति लगातार इतने आक्रमण झेलता हुआ भी निरंतर अपने काम में लगा हुआ है…? क्या उसने कभी समाज के सबसे कमज़ोर लोगों की चीखें सुन ली हैं, जो उसे चैन से जीने नहीं देतीं…? एक बार की बात है, जब मैं छठवीं कक्षा की छात्रा थी, मेरी कालोनी में एक आदिवासी अपने भूखे बच्चों की खातिर इधर-उधर घूम रहे सुअर के बच्चों में से एक को पत्थरों से मार-मारकर घायल कर देता है | हालाँकि उसकी तो मज़बूरी थी, उसके बच्चे भूखे थे, उसकी जमीन, अन्य आदिवासियों की ही तरह, देश के आर्थिक विकास के लिए, जबरन अधिगृहित कर ली गई थी, मुआवज़े की छोटी-सी रकम भी समाप्त ही हो गई होगी, तभी तो वह इस प्रकार किसी और के जानवर चुरा रहा था | लेकिन उसके पत्थरों की मार से वह नन्हा शूकर-शिशु मर्मान्तक-वेदना से लगातार चीख रहा था, दर्ज़नों ‘सभ्य’ और खाए-पिए-अघाए लोग खड़े यह तमाशा देख रहे थे, उस शिशु की शूकर-माता याचना भरी दयनीय दृष्टि से कभी वहाँ खड़े लोगों की ओर देखती, तो कभी अपने पीड़ा से चिल्लाते मरणासन्न शिशु की ओर लपकती…! उसकी मर्मान्तक वेदना से मैं परेशान होकर अपने दोनों कानों को अपने हाथों से दबाए लगातार अपनी माँ से आग्रह कर रही थी— “माँ, उसे बचा लो, प्लीज़…!” माँ मुझे बार-बार वहाँ से खींच लाती, लेकिन मैं फिर उसकी तरफ़ दौड़ती, अंत में माँ ने मुझे घर में ले जाकर कमरे में बंद कर दिया…| इस घटना को आज बत्तीस-तैंतीस साल बीत चुके, लेकिन उस बच्चे की चीख कभी मेरे कानों से मिट नहीं सकी…!

…तो क्या कोई ऐसी ही चीख, समाज के बेबस और लाचार जनों की, इस अध्यापक-साहित्यकार ने भी सुन ली है, जिसकी मर्मान्तक वेदना उसे चैन से जीने नहीं देती, प्रहारों को झेलते हुए भी उसे सक्रिय रखे हुए है अपनी कोशिशों एवं लक्ष्य के प्रति…? किसे पता, सत्य क्या है…?…

अनेक प्रहार झेलता यह बाल-साहित्यकार अध्यापक अपने काम में निरंतर तल्लीन है…! उसकी यह तन्मयता जैसे चुनौती-सी दे रही हो— हमले होते हैं, तो हों… बाधाएँ आती हैं, तो आएँ… प्रवंचक राह रोकते हैं, तो रोकें…! यह शिक्षक-साहित्यकार तो ऐसा ही रहेगा… सत्साहसी-दुस्साहसी, बहिर्मुखी-अन्तर्मुखी, सहयोगी-आक्रामक, समर्पित-ऊर्जावान, सतत प्रयत्नशील…

                                                        …पिक्चर अभी बाक़ी है…

  • कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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6 thoughts on “मनोहर चमोली ‘मनु’

  1. सम्मानिता कनक जी नमस्कार।
    एक अजीम शख्सियत को आपके इस लेखकीय दर्पण द्वारा देखा। आपकी कलम सरस ,सहज और प्रवाहमयी है इसके लिए आपको बधाई।
    वस्तुतःअध्यापक -साहित्यकार दोनों ही कलम के सिपाही होते हैं और ये द्विगुणी मोती न जाने कितने होंगे किन्तु जुनून से जुड़े किसी सेवा साधक को अपने ही समाज में रहते हुए भी समाज के प्रोत्साहन के स्थान पर यदि हतोसाहित भरे शब्द मिलते भी हैं तो भी उनके अडिग विश्वास के पताके को कोई भी नहीं झुका सकता । बच्चों को बच्चे बनकर समझना और फिर उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण देते हुए बाल सुलभ साहित्य की संरचना करना मुश्किल कार्य है जिसमें वे सुविख्यात हैं। सम्मानित मनु जी बेहतरीन शिक्षक तो हैं ही किन्तु प्रखरता व स्पष्टवादिता उनके आचरण का विशिष्ट पहलू भी है। और यह मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है कि जो जितना खरा होगा उसे उतना ही ठुकराया जाता है किंतु उसको अपने आसपास रखने की चाह हरेक की लालसा होती है जैसे की सोना ! उसी तरह हीरे की खोज कोयले की खदानों में ही होती है जिसकी,प्राप्ति में छिपे संघर्ष को सभी जानते हैं तब भी बहुमूल्य ,अनुपम ,उत्कृष्ट हीरे तक। हर किसी की पहुँच नहीं होती। कोयले रूपी विस्तृत सामाजिक दायरे पर हीरा अपनी चमक से प्रभावित करने का प्रयास करते रहता है क्योंकि यह उसका स्वाभाविक गुण है किंतु तब भी कोयला कोयला ही रह जाता है । आपके द्वारा लिखित संस्मरण के माध्यम से सम्मानित शिक्षक- बाल साहित्यकार मनु जी के उत्कृष्ट व्यक्तित्व को लोग अधिकाधिक जानेंगे, समझेंगे और इससे समाज को अवश्यमेव लाभ होगा । आपको हार्दिक बधाई।

    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए …साथ ही मनोहर जी जैसे शिक्षकों पर अपनी लेखनी चलाना किसी कठिन चुनौती से कम नहीं …

  2. एक शिक्षक के नाते उत्कृष्ट काम करते हुए मनोहर चमोली जी को उनके विभाग के अलावा उनके सम्पर्क में आए तमाम बाहरी लोगों ने भी देखा है और बहुत ठोक-बजाकर देखने के बाद उनकी भूरि-भूरि प्राशंसा की है । मैं उन्हें पिछले २२-२३ सालों से जानता हूँ और इसी बिना पर कह सकता हूँ कि वह मूलत: व्यक्तित्व में तब भी ऐसे ही थे जैसे कि अब हैं ।हाँ, समय और अनुभव के साथ उन्होंने अपने को परिष्कृत करते हुए अब और अधिक मुखरताता अर्जित कर ली है साथ ही प्रतिष्ठा भी हालाँकि किसी की प्रशंसा के लिए वे कभी आग्रही भी नहीं रहे हैं । बस चुपचाप अपने काम में मगन रहना उनका एक प्रमुख गुण है ।विभिन्न सामाजिक सरोकारों से जुड़े रह कर मानव चेतना का विकास और कल्याण ही जैसे उनका उद्देश्य हो ।शायद इसीलिए उन्होंने बाल साहित्य की विधा चुनी हो । समकालीनों से प्राय: सभी को आलोचना ही मिली है इसलिए मनोहर चमोली इससे विचलित नहीं होते देखे कभी ।

    1. प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए ह्रदय से आभार…मुझसे बेहतर आप शिक्षक साथी एक-दूसरे के विषय में कहीं अधिक एवं प्रामाणिक ढंग से जानते हैं, मैं केवल चंद संकेतों और कुछ गिने-चुने अनुभवों के आधार पर अपनी समझ के सहारे लिखने की कोशिश कर रही हूँ | मुझे आपके इन शब्दों के माध्यम से संतोष हो रहा है, कि कुछ ठीक-थक लिख पाई…

  3. शिक्षा के लिए निरंतर काम करने वाले ऐसे व्यक्तित्व को सलाम चमोली जी हमें सारे मोर्चों पर बड़े स्पष्ट विचारों के साथ दिखते है और जो मुहँ पर सच्चाई बोले तो लोग उसे कड़वा ही समझते है पर ये कड़वापन स्वस्थ समाज के लिए जरूरी है।

    1. आशीष जी, आपकी टिप्पणी मेरा हौसला बढ़ा रही है। सादर,

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