बतकही

बातें कही-अनकही…

भाग-दो‘शिक्षक’ बनने की प्रक्रिया में एक शिक्षक का संघर्ष…!

यदि किसी माता-पिता को अपनी ऐसी किसी संतान, जिसपर उनकी सभी भावनाएँ, समस्त सपने और उनका भविष्य भी टिका हो, जिसका उन्होंने बड़े ही जतन से अपने मन और अपनी भावनाओं की पूरी ताक़त लगाकर पालन-पोषण किया हो, उसके लिए अपनी सारी उम्र लगाईं हो; उसी संतान के बड़े हो जाने के बाद अचानक उसे ‘किसी’ के द्वारा ‘मृत’ घोषित कर दिया जाए, और उस माता-पिता को अपने ही हाथों उस प्रिय संतान को भूमि में दफ़नानी पड़े; तब क्या कोई कल्पना कर सकता है कि उस माता-पिता की मनःस्थिति उस समय क्या रही होगी और उसके बाद वे कैसे जीते होंगे?

महेशानंद…! पूर्व माध्यमिक विद्यालय (जूनियर हाई स्कूल), बाड़ा (पौड़ी, उत्तराखंड) के अध्यापक ! एक ऐसा अध्यापक जो अपने विद्यार्थियों की अच्छी-से-अच्छी शिक्षा के लिए जो भी संवैधानिक रूप से संभव हो सकता था, वह सब उपाय करता रहा; जो अपने विद्यार्थियों के व्यक्तित्व-विकास के लिए जितने रास्ते हो सकते थे, वे सभी मार्ग उनके लिए सुगम बनाने की कोशिशें करता रहा | एक ऐसा अध्यापक, जो न केवल अपने विद्यार्थियों को शिक्षित करने की कोशिश करता रहा, बल्कि उन विद्यार्थियों के माता-पिता सहित सम्पूर्ण समाज को भी, जितने रूपों में संभव था, जागरूक बनाने की कोशिशें भी निरंतर करता रहा | …और एक दिन… उसी अध्यापक को, वर्षों तक अपने उस प्रिय विद्यालय, अपनी कर्मभूमि—अपनी संतान, को अपने खून-पसीने से सींच-सींचकर बड़ा करने के बाद अपने ही हाथों से ताला लगाकर बाद करना पड़ा… हमेशा के लिए…! जैसे किसी ‘मृतक’ को जमीन में मिटटी की परतों के बहुत नीचे बंद किया जाता है …हमेशा के लिए ! और इसी के साथ शायद बहुत दिनों के लिए शिक्षा के भविष्य और भाग्य पर भी ताला लग गया, …कम से कम उस इलाक़े में ! …जी हाँ, वह विद्यालय बंद हो गया, हमेशा के लिए ! या शायद तब तक के लिए तब तक कोई दूसरा ‘महेशानंद’ आकर शिक्षा के भविष्य पर लगे उस ताले को न खोल दे…!

लेकिन वर्तमान महेशानंद की मनःस्थिति को एकदम ठीक-ठीक केवल वही समझ सकता है, जिसने अपने खून-पसीने से सींचे गए विद्यालय, या अपनी किसी भी कर्म-स्थली को अपने हाथों ही बंद किया हो, अथवा जिस माता-पिता ने अपनी किसी संतान को अपने ही हाथों भूमि या अग्नि के हवाले किया हो…! दूसरा कोई भी नहीं समझ सकता…! आख़िर ‘सहानुभूति’ और ‘स्वानुभूति’ का अंतर ऐसे ही तो नहीं होता…!

किसी भी विद्यालय का बंद होना कोई साधारण बात नहीं होती, हर बंद होता हुआ, यानी ‘मरता हुआ’ विद्यालय अपने समाज के लिए, वहाँ के बौद्धिक-जगत के लिए, अपने देश और उसकी व्यवस्थाओं के लिए दर्ज़नों प्रश्न छोड़ जाता है…! मानो वह कह रहा हो, कि जिस समाज को अपने बच्चों की शिक्षा इतनी बेकार और अनुपयोगी लगती हो कि विद्यालयों के बंद होने पर उसको कोई फर्क़ तक न पड़ता हो, क्यों नहीं उस समाज को जितनी जल्दी हो सके स्वयं ही रसातल में चले जाना चाहिए…!? क्योंकि यदि वह स्वयं नहीं भी जाएगा, तो शिक्षा के प्रति उसकी यह उदासीनता कुछ ही समय में अपने-आप ही उसे रसातल की ओर धकेल देगी…! कि जिस बौद्धिक-जगत को अपनी ‘बौद्धिक-जुगाली’ ही से अपने ‘बौद्धिक-चिन्तक’ होने का सुख और संतोष मिल जाता हो और वह अपने बंद होते विद्यालयों को बंद होने से रोकने की ख़ातिर सफ़ल होने तक सक्रिय-सार्थक प्रयास न करता हो, उस बौद्धिक-जगत की बुद्धि को क्यों नहीं जंग लग जाना चाहिए, या उन्हें क्यों नहीं वनवास में भेज दिया जाना चाहिए, जहाँ उनकी ‘जुगाली’, यानी खोखले और निरर्थक ‘चिंतन-मनन’ में कोई भी बाधा डालनेवाला या सवाल खड़े करनेवाला न हो; ताकि उनकी ‘जुगालियों’ से झूठी आशा रखनेवाले बच्चे और कुछ गिनती के कर्मठ लोग किसी आकाशकुसुम की आशा में न रहें? कि देश और उसकी व्यवस्थाओं को क्यों नहीं भस्मासुर की तरह अपने-आप को जल्द-से-जल्द नष्ट कर लेना चाहिए, ताकि उनकी लाशों को हटाकर वहाँ कोई नया भवन खड़ा किया जा सके, जिसमें शिक्षा सबसे ज़रूरी ‘आवश्यकता’ की तरह देखी-समझी जाए, जहाँ विद्यालय उसके सबसे सुन्दर और कमनीय स्थान हों, जैसे चीन में उसके सबसे ग़रीब गाँवों तक में वहाँ के सबसे सुन्दर भवन उसके विद्यालय होते हैं, न कि किसी जमींदार या नवाबजादों का शीशमहल…?!  

महेशानंद ने जिस विद्यालय को, एक सरकारी कर्मचारी से आगे बढ़कर, अपनी संतान की तरह पालन-पोषण करते हुए उसे एक मुक़ाम तक पहुँचाया था, उसी विद्यालय के कपाट हमेशा के लिए बंद करते हुए जो महसूस हुआ, उसे दरकिनार करते हुए जब हम अतीत में झाँककर देखते हैं, जब उस विद्यालय को एक मुक़ाम तक लाने के लिए अध्यापकों द्वारा खून-पसीना बहाया जा रहा था, तब कई चित्र उभरते हैं, जो विभिन्न स्रोतों से मुझ तक पहुँचे हैं |

जब महेशानंद की नियुक्ति इस विद्यालय में हुई, तब जैसे-जैसे उनका काम आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे दोनों ही एक-दूसरे के सान्निध्य में निखरते गए— विद्यालय भी और उसके इस अध्यापक का व्यक्तित्व भी | और उन्हें निखारा सामने आनेवाली चुनौतियों ने | कहते हैं ना, कि काम करनेवाले के सामने ही चुनौतियाँ आती हैं, जो कोई काम ही नहीं करता या नहीं करना चाहता उसके सामने भला क्या चुनौती और कैसी चुनौती !? और महेशानंद के सामने ये चुनौतियाँ अकेली नहीं थीं, बल्कि बहुस्तरीय थीं, विद्यालय में बच्चों की चिंताजनक संख्या से लेकर बच्चों की विद्यालय में अनुपस्थिति तक; समाज में शिक्षा के संबंध में जागरूकता की कमी से लेकर अभिभावकों का अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति उदासीनता तक; विद्यालय के  मूलभूत ढाँचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) की कमी से लेकर विद्यालय में संसाधनों के अभाव तक…!

तब विद्यालय के अध्यापकों ने मिलकर बच्चों को पढ़ाने के अलावा अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी तय की और उनको प्रोत्साहन, सहयोग एवं समर्थन मिला अपने प्रधानाध्यापक प्रताप सिंह राणा से | विद्यालय में बच्चों के लिए आयोजित होनेवाले विविध कार्यक्रमों के अंतर्गत उनके सामान्य ज्ञान, पढ़ाई-लिखाई, भाषण से संबंधित कार्यक्रमों में आयोजन-स्थलों पर लेकर जाने का दायित्व संभाला राकेश मोहन ने | विद्यालय में खेल-सम्बन्धी कार्यक्रमों और उससे संबंधित विभिन्न गतिविधियों की ज़िम्मेदारी कमल उप्रेती ने उठाई | विनोद रावत और महेशानंद सांस्कृतिक-कार्यक्रमों में बच्चों की भागीदारी का काम देखते और उसमें शिरकत करने के लिए अपने विद्यालय में ही बच्चों को प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि बेहतर प्रदर्शन करनेवाले बच्चों को बाहर भी विविध आयोजन-स्थलों पर लेकर जाते | विनोद रावत के ट्रान्सफर के बाद उनकी जगह पर जब रजनीश अथवाल आए, तो वे भी इस रंग में रंगकर महेशानंद की मदद करने लगे |

और परिणाम…! सभी अध्यापकों के सम्मिलित प्रयासों के जो नतीजे सामने आए, उसमें बच्चों ने अनेक क्षेत्रों में जो प्रदर्शन किए, वे वाकई प्रशंसा के क़ाबिल हैं | उन सम्मिलित प्रयासों के कारण बच्चों द्वारा अनेक सफ़ल कहानियाँ इस विद्यालय में लिखी गईं |

बच्चों को विभिन्न प्रकार के मंच प्रदान कराने में जो कोशिशें इस विद्यालय के अध्यापकों एवं महेशानंद द्वारा की गई, उसी के नतीजे के रूप में इस विद्यालय की एक विद्यार्थी साक्षी डोभाल को उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए साल 2011-12 में और पुनः 2012-13 में बाल-भवन ननूरखेड़ा (देहरादून) जाने के अवसर मिले | और इससे भी आगे बढ़कर साल 2012 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री (विजय बहुगुणा) के आवास पर जाकर अपनी उपलब्धि हेतु सम्मान प्राप्त करने का मौक़ा मिला | यह इसलिए भी संभव हुआ, क्योंकि महेशानंद अपने भूतपूर्व विद्यार्थियों की सहायता और हौसलाअफजाई उनके विद्यालय छोड़ने के बाद भी करना नहीं छोड़ते | अपने विद्यार्थियों के भविष्य के संघर्षों में उनकी सहायता वे सदैव करते रहे हैं, जोकि उनकी ‘नौकरी’ के दायरे में नहीं आता है, लेकिन जिन्हें अपनी अध्यापकीय-ज़िम्मेदारी समझकर स्वेच्छा से उन्होंने उठा रखे हैं | यही कारण है कि साक्षी डोभाल अपने पूर्व-विद्यालय के अध्यापक महेशानंद के साथ ही देहरादून स्थित बालभवन और मुख्यमंत्री के आवास पर गई | विद्यालय में अध्यापकों द्वारा गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई एवं खेलकूद का प्रोत्साहन-भरा माहौल पाकर महेशानंद के द्वारा पढ़ाए गए दो नेपाली बच्चों में से एक लड़का अपने समय में राष्ट्रीय स्तर पर कबड्डी का चैम्पियन रहा और इस समय वह मलेशिया में कार्यरत है | जबकि उसकी बहन स्वयं इस समय एक अध्यापिका बनकर नेपाल में बच्चों को पढ़ा रही हैं | इस प्रकार इस विद्यालय में, ख़ासकर महेशानंद से प्रोत्साहन एवं पढ़ने-लिखने के सन्दर्भ में सहायता पाकर अधिकांश बच्चे किसी न किसी क्षेत्र में कुछ न कुछ कार्य कर रहे हैं, जैसे नर्स, फ़ौज, पुलिस, टीचर जैसे अनेक क्षेत्रों में |

ये सफ़लताएँ अपने अध्यापकों के परिश्रम की ही नहीं, बल्कि उनकी स्वस्थ एवं पक्षपात-रहित वैचारिक-मनःस्थिति की भी कहानी बयाँ करती है | हालाँकि वे अधिकांश बच्चे अपने लिए ही सफ़ल हुए हैं, लेकिन फिर भी यह भी तो मानना पड़ेगा कि वे किसी के सामने लाचार नहीं हैं; और यह भी तो तथ्य है ही कि अनेक सेवाएँ, जिनमें उनके विद्यार्थी कार्यरत हैं, समाज को कहीं-न-कहीं लाभान्वित कर ही रही हैं |

ये सफ़लताएँ ऐसे ही थाली में परोसकर नहीं मिलीं, बल्कि उसके लिए इन अध्यापकों ने जो अथक प्रयास किए, उसी की पृष्ठभूमि पर सफ़लताओं का यह भवन खड़ा हुआ है | तब यह जानना बहुत आवश्यक है कि वे संघर्ष किस प्रकार के थे? उनसे पार पाने के लिए क्या कोशिशें की गईं, उन कोशिशों में महेशानंद का भाग क्या था, कि यहाँ उनका उल्लेख लेखन के माध्यम से किया जा रहा है?…

इस सिलसिले में विद्यालय में काम करते हुए महेशानंद एवं उनके सहकर्मियों के सामने अनेक छोटी-बड़ी चुनौतियों के अलावा जो सबसे बड़ी चुनौतियाँ मुँह खोले खड़ी थीं, वे थीं— विद्यालय में बच्चों की बहुत कम संख्या, मूलभूत ढाँचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) की कमी और समाज एवं अभिभावकों का अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर उदासीन नज़रिया…! ये सभी बड़ी-छोटी चुनौतियाँ हर समय शिक्षकों को चिंतित किए रहती थीं, विद्यालय बंद हो जाने की स्थिति में अपनी नौकरी के लिए भी, और शिक्षा के अभाव में समाज की हर रोज़ हो रही अधोगति के प्रति भी !

लेकिन तमाम विपरीत वातावरण के बावजूद महेशानंद ने उन्हीं चुनौतियों का सामना करने की ठानी और उसी उपक्रम में सबसे पहले स्वयं पहल की और उसके बाद अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर उनका समाधान निकालने के लिए अनेक उपायों पर काम शुरू कर दिया | विद्यालय से संबंधित समस्याओं को हल करने के लिए उन्होंने सरकार से सहायता मिलने का इंतज़ार नहीं किया, सरकारी मशीनरी की सहायता का मुँह नहीं देखा, समाज से कोई शिक़ायत नहीं की; बल्कि चुपचाप अपने काम में लग गए | और इस पहल के बाद जो मुश्किलें, जो बाधाएँ और जो विरोध सामने आए, उन्हीं से जूझने और उनसे जीतने की कहानी इसके आगे की कहानियों, अर्थात् लेखों की श्रृंखला का आधार बनेंगी…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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6 thoughts on “महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

  1. महेशानंद जी जैसे व्यक्तित्वों के कारण ही हमारा समाज थोड़ा जिंदा है। जो धरातल पर काम करके हमारे इस दूषित समाज में ऑक्सीजन छोड़ते है। इस समाज को रहने लायक बनाते हैं।

  2. किसी विद्यालय का इस तरह बंद हो जाना वास्तव में बहुत ही दुखद है । जिसने इसे बनाने में अपना जीवन लगा दिया हो, उसके लिए इससे ज्यादा दुखद बात और कुछ नहीं हो सकती ।

  3. पौड़ी जनपद के श्रेष्ठ विद्यालयों में शामिल विद्यालय का ऐसे बन्द होना वाकई अपने आप में अध्ययन का विषय है..! महेशा नंद जी गढ़वाली भाषा के गुणी साहित्यकार के साथ साथ समाज में संवेदनशील और प्रगतिशील मूल्यों के निरूपण के लिए प्रतिबद्ध वास्तविक शिक्षक हैं..!

  4. एक विद्यालय का बंद होना मतलब एक युग का अंत l
    लेकिन फिर से स्कूल खुलना करीब करीब असंभव सा होता है l
    हम सिस्टम के हाथो मज़बूर हो जाते हैं बस l
    सर पर विश्वास है वह हार नहीं मानेंगे औऱ फिर से मजबूती उठ खड़े होंगे उन बच्चों के लिए जिन के वो मसीहा है l
    उस कुटज की तरह जो चट्टान का सीना चीर कर उगता है।

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