बतकही

बातें कही-अनकही…

भाग—एक : हर नई भाषा एक नई खिड़की खोलती है !

हम हिंदी पट्टी के लोगों की अपने बचपन और कैशोर्य अवस्था में अंग्रेजी भाषा को लेकर कैसी मनःस्थिति हुआ करती थी, ख़ासकर हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों की, यह तो हम सभी जानते हैं | इस भाषा को किस अचम्भे और लालसा से हम हिंदी पट्टी के विद्यार्थी अपने किशोरावस्था में प्रायः ही देखा करते थे और यह सोचते थे कि काश, हमको भी आती इंग्लिश बोलती, लिखनी और समझनी; काश, कि कोई हमको भी सिखा देता दुनियाभर की चहेती इस भाषा को बोलना और समझना; काश कोई हमारी भी दोस्ती करा देता इस विश्वमोहिनी लुभावनी भाषा से, जो केवल गिने-चुने अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े लोगों की ही दोस्त है, तो कितना मज़ा आता; काश, कि कोई हमारे लिए भी इस ‘कठिन’ भाषा को उतना ही सहज-सरल बना देता, जितनी हमारी अपनी मातृभाषा है | कितना इतराते हैं अंग्रेजी स्कूलों में पढने वाले ये लड़के-लड़कियाँ अपनी अंग्रेजी पर, जबकि हम उनसे अधिक पढ़ते, जानते और समझते हैं | हमारा सारा-का-सारा ज्ञान उनकी इस अंग्रेजी के सामने धरा का धरा रह जाता है | काश…! कि हमको भी उतनी ही अच्छी अंग्रेज़ी आती, जितनी इंग्लिश प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को आती है, तब हम भी न जाने कैसे-कैसे झंडे हर रोज़ गाड़ते…! …

हमने अनेक लोगों को देखा भी होगा कि उनको अपने अध्ययन-क्षेत्र की बहुत अच्छी जानकारी और समझ होती है, वे बेहद ही तार्किक ढंग से अपनी बात को दूसरों के सामने रखते भी हैं; साथ ही अपनी भाषा में बात करते हुए उनका आत्मविश्वास देखने लायक होता है | लेकिन जैसे ही वे अंग्रेजी माध्यम के अधकचरे ज्ञान वाले लड़के-लड़कियों के सामने भी आ जाते हैं, तो उनका आत्मविश्वास जैसे स्खलित होकर बिखरने लगता है |

इसका कारण क्या है? इसका एक ही कारण है, विश्वभर में अंग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व एवं बोलबाला | दरअसल बीती दो सदियों में दुनिया के अनेक देशों, समाजों, संस्कृतियों पर औपनिवेशिक शासन के दौरान जिन यूरोपियनों ने अपना आधिपत्य स्थापित किया था, उनकी भाषा इंग्लिश ही थी, जिस कारण इंग्लिश भाषा पूरी दुनिया में छा गई और उसका वर्चस्व कायम हो गया | लैटिन भाषा से निसृत विभिन्न प्रकार की इंग्लिश भाषाएँ बोलनेवाले यूरोपियन चूँकि आधी से अधिक दुनिया को अपने अधीन करके उनपर शासन कर रहे थे, इसलिए अपने लाभ की ख़ातिर अपनी नीतियों के माध्यम से अधीनस्थ कमज़ोर समाजों के मन में यह बात बिठाने में कामयाब हो गए कि उनकी संस्कृति, उनकी भाषा, उनका रहन-सहन आदि उन अधीनस्थ संस्कृतियों से श्रेष्ठ हैं, जिस कारण वे बेहद बुद्धिमान और क़ाबिल हैं; इसी कारण वे पूरी दुनिया पर राज भी करते हैं |

बाद में यूरोपियनों के औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बावजूद समय की माँग और विभिन्न देशों के बीच संपर्क की आवश्यकता को देखते हुए भी दुनिया को एक ऐसी संपर्क-भाषा की ज़रूरत पड़ी, जिसे अधिकांश लोग समझ सकें, या कम से-कम सभी समाजों के कुछ लोग स्वयं समझकर अपने समाज के अन्य लोगों को समझा सकें |

जो भी हो, लैटिन भाषा से निकली इस वर्त्तमान अंग्रेज़ी भाषा ने पिछली एक सदी के दौरान अपनी एक अलग पहचान पूरी दुनिया में कायम की है और लोगों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम बन रही है | यही कारण है की भारत में भी इस भाषा को लेकर न केवल एक आकर्षण है, बल्कि इस भाषा की एक अलग किस्म की लुभावनी मनमोहिनी छवि भी बनी हुई है |

अंग्रेज़ी भाषा को अपनाने या न अपनाने का मुद्दा, अथवा देशी-भाषा बनाम विदेशी-भाषा से संबंधित बहसें अपनी जगह हैं; लेकिन एक नई भाषा को सीखने-सिखाने के अनेक लाभ अपनी जगह हैं | वैज्ञानिक शोध भी बताते हैं कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा के अलावा कोई अन्य भाषा या भाषाएँ जानते हैं, उनके मस्तिष्क का विकास अपेक्षाकृत अधिक देखा गया है | उनकी तार्किक क्षमता, समझने एवं सीखने की तीव्रता (अर्थात् कितनी जल्दी सीखते या समझते हैं) कहीं अधिक होती है | वस्तुतः एक सामान्य मनुष्य सामान्य तौर पर अपने मस्तिष्क के केवल 12%-13% भाग का ही प्रयोग करता है और 87%-88% मस्तिष्क बिना उपयोग के यूँ ही पड़ा रहता है | लेकिन जब हम एक नई भाषा सीखते हैं तो हमारे मस्तिष्क का भाषा से संबंधित भाग और अधिक सक्रिय हो जाता है, जो पुनः आसपास की दूसरी मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देता है | इससे व्यक्ति की ज्ञान, तर्क, सूचनाओं को ग्रहण करने एवं उनपर विचार की क्षमता में अद्भुत वृद्धि होती है | हम अपनी महान विभूतियों/ विद्वानों-विदुषियों को देखकर इस बात को कुछ और बेहतर समझ सकते हैं | बौद्धिक-जगत में ‘महापण्डित’ कहे जाने वाले राहुल सांकृत्यायन लगभग दो दर्जन देशी-विदेशी भाषाओँ के अच्छे वक्ता, जानकार और विद्वान् थे; और उनकी प्रतिभा की विलक्षणता से कौन वाकिफ़ नहीं है | ऐसे सैकड़ों विद्वान्-विदुषियाँ हमारे चारों ओर मिल जाएँगे |

दरअसल अनेक लाभों के साथ हर नई भाषा अपने अध्ययनकर्ताओं की ख़ातिर जानकारी, ज्ञान, अनुभव, तार्किकता आदि के लिए अपने आप में एक नई खिड़की खोलती है, उन्हें नए क्षितिज तक ले जाती है…

भारत के सन्दर्भ में समाज के विकास, देश के सामाजिक-सांस्कृतिक सहित आर्थिक उन्नति एवं सबसे बढ़कर बौद्धिक-विकास में योगदान और बच्चों के व्यक्तित्व-विकास को ध्यान में रखकर हमारे सरकारी विद्यालयों में इस भाषा को पढ़ाने का निर्णय लिया गया है | लेकिन बच्चों से अधिक अनेक अध्यापकों में ही इस भाषा के प्रति इतनी अधिक झिझक है कि उन्हें यह भाषा सीखना और सिखाना पहाड़ तोड़ने से भी अधिक कठिन प्रतीत होता है | लेकिन हमारे ही समाज में कुछ ऐसे भी अध्यापक हैं, जो बच्चों के लिए न केवल इस भाषा को अत्यंत सरल, सुगम और ग्राह्य बना रहे हैं, बल्कि बच्चों की अपनी ज़िंदगी में भी उनके नित्य-व्यवहारों में यह भाषा स्वाभाविक ढंग से शामिल हो रही है | ऐसी ही एक अध्यापिका हैं— माधवी ध्यानी; वर्तमान में राजकीय प्राथमिक विद्यालय डकमोलीधार (पौड़ी, उत्तराखंड) की प्रधानाध्यापिका |

मूलतः गाँव घंडियाल (कल्जीखाल) की रहनेवाली माधवी ध्यानी का जन्म28 जून 1971 को वहीँ गाँव में हुआ | उनके माता-पिता विशेश्वरी देवी एवं सर्वेश्वर प्रसाद थपलियाल अपने समय में काफी शिक्षित रहे | पिता सेना में कार्यरत थे और माँ अध्यापिका रहीं | माधवी अपने जीवन, अपने व्यक्तित्व एवं सबसे बढ़कर अपने विचारों पर अपनी माँ की गहरी छाप को खुले दिल से स्वीकार करती हैं और कोशिश करती हैं कि माँ के विचारों एवं अध्यापिका के रूप में उनके काम करने के तरीक़ों को अपने जीवन में अपनाकर बच्चों के साथ विद्यालय में कुछ और बेहतर काम कर पाएँ |

वे तीन भाइयों की इकलौती बहन हैं, जिसमें से दो भाई उनसे बड़े हैं और एक भाई उनसे छोटा है | उनकी स्कूली शिक्षा अपने पैतृक स्थान से ही हुई, जहाँ उन्होंने कक्षा 1 से 12 तक की पढ़ाई स्थानीय सरकारी विद्यालय से की | राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय (गवर्नमेंट इंटर कॉलेज) काँसखेत से उन्होंने 1986 में 10वीं उत्तीर्ण की और 1988 में 12 वीं | इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे देहरादून आ गईं, क्योंकि वे विज्ञान विषय से स्नातक करना चाहती थीं, जोकि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध नहीं था | देहरादून में महादेवी कन्या पाठशाला महाविद्यालय (MKP College) से उन्होंने जीवविज्ञान विषय से स्नातक (बी.एससी.) किया, स्नातक-उत्तीर्ण का साल था—1991 | इसके बाद 1992 में उन्होंने गोपेश्वर में राजकीय परास्नातक महाविद्यालय (पीजी कॉलेज) से बीएड. किया और श्रीनगर स्थित हेमवतीनन्दन बहुगुणा विश्वविद्यालय से साल 1994 में मास्टर डिग्री (एमए) किया, अंग्रेज़ी साहित्य से |

स्कूल तक की अपनी पूरी पढ़ाई लगभग हिंदी में करनेवाली माधवी के सामने बीएससी एवं एमए के दौरान एक नई चुनौती आई | वह चुनौती थी अंग्रेज़ी भाषा की, और एमए के दौरान इंग्लिश साहित्य की भाषा | इस रूप में बीएससी एवं एमए की पढ़ाई करने के दौरान किस हद तक भाषा की यह समस्या उनके लिए कठिन चुनौती बनी होगी, यह तो हम केवल अनुमान ही कर सकते हैं | शायद इसी दौरान मिले भाषा की इस समस्या संबंधी अनुभवों ने उनको यह सीख दी हो कि विद्यालय में बच्चों को शुरू से ही यदि इस भाषा के प्रति सहज बनाने की कोशिश की जाए, तो आगे चलकर उनको यह भाषा उतनी कठिन नहीं लगेगी, जितनी हम समझते हैं, या मानकर चलते हैं |

एमए के बाद अगले साल दिसम्बर 1995 में उनका विवाह सुरेन्द्र कुमार ध्यानी से हो गया, जो राजकीय पॉलिटेकनीक, उत्तरकाशी में उस समय गणित के प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थे, और जो इस समय राजकीय पॉलिटेकनीक, नई टिहरी में प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत हैं | विवाह के बाद पति का स्थानांतरण अनेक स्थानों, जैसे नई टिहरी, ऋषिकेश आदि पर होता रहा और वे पति के तबादले के साथ-साथ नए स्थानों पर जाती रहीं | स्थानांतरण की इस यात्रा ने उनको भविष्य में शिक्षकीय ज़िम्मेदारियों के लिए कई बेहतरीन अनुभव दिए | इस दौरान वे पति एवं परिवार के साथ जहाँ भी रहीं, वहीँ निजी कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाती रहीं, जिससे वहाँ के बच्चों, अध्यापकों एवं अभिभावकों के सामाजिक व्यवहार को नजदीक से देखने के मौक़े मिले, जिसका लाभ आगे चलकर सरकारी विद्यालय में कार्य करने के दौरान वहाँ के बच्चों के साथ काम करते हुए मिला | इस बीच उनके बड़े बेटे ईशान का जन्म 1999 में हो चुका था |

इसके बाद उन्होंने 2004 में विशिष्ट बीटीसी की ट्रेनिंग ली और मार्च 2005 में बतौर सहायक अध्यापिका सरकारी विद्यालय में उनकी नौकरी लग गई | उनका पहला स्कूल था, जहाँ उनकी नियुक्ति हुई— राजकीय प्राथमिक विद्यालय, देवल (विकासखंड कल्जीखाल, जिला पौड़ी) | यह विद्यालय कल्जीखाल के भीतरी क्षेत्र में स्थित एक दुर्गम स्थान में था | यहाँ काम करते हुए उन्हें कुछ चुनौतीपूर्ण स्वास्थ्यगत एवं पारिवारिक समस्याओं के कारण लम्बे अवकाश पर रहना पड़ा, जिस कारण विद्यालय में अपने अध्यापन-कार्य को पूरा समय नहीं दे पाईं | इसी दौरान उनके दूसरे बेटे विनायक का 2008 में जन्म हुआ |

इस विद्यालय में उनकी कार्यावधि लगभग 5 साल तक रही और उसके बाद उनका स्थानांतरण मार्च 2010 को नैथाना (कल्जीखाल ब्लाक, जिला पौड़ी) में हो गया | यहाँ से जुलाई 2015 में उनका ट्रांसफर कठूरपोखरी हो गया, जहाँ वे लगभग एक साल तक, अगस्त 2016 तक, रहीं |

यहाँ से उनके जीवन में, बतौर अध्यापिका, एक नया मोड़ आता है, क्योंकि उत्तराखंड में आदर्श विद्यालयों की जो एक श्रृंखला चल रही है, उसका हिस्सा बनने के लिए अध्यापकों को एक इम्तहान देना होता है और उसे उत्तीर्ण करने के बाद ही वे इन विद्यालयों में विशेष मुहिम के साथ जुड़ते हैं | माधवी ने वह इम्तहान देकर इस अभियान का हिस्सा बनने की अपनी योग्यता साबित की और अगस्त 2016 को नलई स्थित राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय में बतौर ईवीएस की अध्यापिका उनकी नियुक्ति हो गई | यहीं काम करते हुए उन्होंने अपने अध्यापकीय करियर में एक और मुकाम हासिल किया | दरअसल बीते साल जुलाई 2020 में उनका प्रमोशन हुआ और बतौर प्रधानाध्यापिका उनकी नियुक्ति राजकीय प्राथमिक विद्यालय डकमोलीधार (ब्लॉक कल्जीखाल, जिला पौड़ी) में हो गई है |

इस पूरे कार्यकाल के दौरान उनके शिक्षकीय दायित्व-निर्वहन की अन्य विशेषताओं के साथ जो बेहद महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय बातें उभरकर सामने आईं, उन्हें इन रूपों में देखा और समझा जा सकता है— पहला, समाज के सभी वर्गों से आनेवाले बच्चों के प्रति उनका व्यवहार; दूसरा, सभी बच्चों की शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण और और तीसरा, एक विदेशी भाषा ‘अंग्रेज़ी’ को पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उनका दृष्टिकोण एवं तौर-तरीक़े |

ये सभी बातें उनके व्यवहार एवं विचारों में प्रायः परस्पर घुली-मिली दिखाई देती हैं | इस संबंध में बातचीत करते हुए मैंने उनसे कम से कम दर्जन भर सवाल किए | जिनके संबंध में माधवी से संबंधित अगले लेख में विस्तार से चर्चा होगी…

उनके द्वारा जो बातें कही गईं, वे मेरी समझ में विश्वसनीय इसलिए हैं, क्योंकि इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मैंने अपने निजी अनुभवों को तो शामिल किया ही है, साथ ही अन्य कई लोगों द्वारा मिले फीडबैक को भी माध्यम बनाया है | दरअसल पौड़ी में एक संस्था में काम करते हुए साल 2018 में उनके काम को और उसके परिणामों को मैंने स्वयं उनके तत्कालीन कार्य-स्थल राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय नलई में जाकर देखा है | तब मैं उक्त संस्था में ही काम करते हुए अपने एक सहकर्मी के साथ वहाँ गई थी |

बच्चों की कॉपियाँ देखकर मेरे सहकर्मी और मैं अचंभित रह गए, बच्चों की अंग्रेजी की सुन्दर हस्तलिपि (हैण्डराइटिंग) ने सबसे पहले प्रभावित किया | उसके बाद बच्चों से बातचीत के दौरान यह बात भी स्पष्ट हो गई कि उनकी इंग्लिश भाषा की समझ भी काफ़ी सराहनीय थी | पहली नज़र में कोई भी अजनबी अचंभित होकर उन बच्चों को भारत के सामान्य सरकारी विद्यालय के विद्यार्थी मानने से इंकार कर सकता है, क्योंकि बच्चों का फीडबैक किसी भी अच्छे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़नेवाले बच्चों से कम नहीं था |

बाद में अनेक अवसरों पर, जैसे शिक्षा-विभाग द्वारा आयोजित अध्यापकों की विभिन्न प्रकार की ट्रेनिंग में, जिस संस्था में मैं तब कार्यरत थी उसके विभिन्न कार्यक्रमों में माधवी की भागीदारी एवं उनकी बातचीत के दौरान उभरकर आनेवाले उनके तर्क उनकी बौद्धिक-संरचना और वैचारिक-आयामों के बारे में बहुत कुछ कहते रहे हैं | अध्यापिका का भारत की पारंपरिक सामाजिक-संरचना की हदों को मानने से इंकार करते हुए अपने प्रत्येक विद्यार्थी को केवल ‘विद्यार्थी-मात्र’ के रूप में देखते हुए उनकी यथासंभव अच्छी शिक्षा को अपनी ज़िम्मेदारी मानना उनके व्यक्तित्व के उजले पक्ष को रेखांकित करने के लिए एक सशक्त प्रमाण है |

हालाँकि अपनी लोकप्रियता के लिए अपने क्रूर चेहरे पर सुन्दर दिखावटी मानवीयता और नकली संवेदनशीलता का मुखौटा लगाकर अपने क्रूर चेहरे को छिपाया जा सकता है और कई लोग ऐसा सफ़लतापूर्वक कर भी लेते हैं | लेकिन फ़िर भी कहीं-न-कहीं कभी-न-कभी पल भर के लिए ही सही लेकिन उनका असली चेहरा अपनी वास्तविक झलक दिखा ही देता है | उस संस्था में काम करते हुए ऐसे नकली चेहरे या मुखौटे वाले लोग मुझे दर्ज़नों की संख्या में मिले— अध्यापक भी और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी | इसलिए माधवी के सामने दिखनेवाले मानवीय ममत्वपूर्ण चेहरे के पीछे के वास्तविक चेहरे को देखने की हर संभव कोशिश मैंने की, किन्तु उनका छिपा हुआ कोई अन्य रूप देखने में मुझे सफ़लता नहीं मिली |

हालाँकि यह तो नहीं ही दावा किया जा सकता कि उनके व्यक्तित्व का कोई नकारात्मक पक्ष होगा ही नहीं, क्योंकि मानवीय-प्रवृत्ति एवं मानव-नियति के अनुसार यह असंभव है कि व्यक्ति का केवल एक ही पक्ष हो— या तो केवल नकारात्मक या केवल सकारात्मक | दुनिया के सबसे अच्छे व्यक्ति के भीतर भी कुछ न कुछ नकारात्मकता होती ही है और इसी प्रकार सबसे बुरे और क्रूरतम व्यक्ति के भीतर उसका एक सकारात्मक पहलू मौजूद होता ही है | माधवी ध्यानी, बतौर एक अध्यापिका एवं एक सामाजिक व्यक्ति, सामान्य तौर पर जैसी बाहर से दिखती हैं, उनका आतंरिक मन भी काफ़ी कुछ वैसा ही है— हँसमुख, ऊर्जा से भरी हुई, उत्साहित, किसी से भी नई चीज सीखने को बच्चों की तरह लालायित…

इसके लिए माधवी अपने माता-पिता से मिले संस्कारों को श्रेय देती हैं, विशेष रूप से अपनी माँ को; जिनके बारे में उनका कहना है— “मेरी माँ एक अध्यापिका रही हैं और वे बहुत अच्छा पढ़ाती थीं, अपने विद्यार्थियों का वे बहुत ध्यान रखती थीं, बच्चों को पढ़ाने के लिए नए-नए तरीक़े ढूँढती रहती थीं, अपने विद्यार्थियों की काबिलियत पर भरोसा करती थीं | मैं भी उनका इन मामलों में अनुकरण करने की कोशिश करती हूँ और उससे बच्चों को नई भाषा और बहुत सारी नई चीजें सिखाने में मुझे बहुत सफ़लता मिली है |”

अपनी शिक्षकीय सफ़लता में योगदान के लिए वे अपनी सहकर्मियों का नाम लेना नहीं भूलती हैं | पिछले विद्यालय, अर्थात् राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय नलई की प्रधानाध्यापिका देवेश्वरी रावत के बारे में उनका कहना है कि “हमारी प्रधानाध्यापिका काफ़ी सहयोगी नेचर की रही हैं और उन्होंने हमें बेहतरीन काम करने के लिए नए-नए तरीक़े अपनाने से कभी नहीं रोका, बल्कि इसके लिए ख़ूब आज़ादी दी | साथ ही वे एक दोस्त की तरह हम टीचर्स को न केवल प्रोत्साहित करती रही हैं, बल्कि अपने सुझाव भी देती रहीं है |” माधवी उक्त विद्यालय में कार्यरत अपनी अन्य सहकर्मियों इंदुबाला नेगी और सुमन गुसाईं के संबंध में कहती हैं— “हमारे बीच अच्छी ट्यूनिंग रही, हम शायद ही कभी एक-दूसरे के प्रति प्रतिद्वंद्विता के भाव से पेश आईं | दरअसल हमारे बच्चों की अच्छी परफॉरमेंस का एक कारण हम टीचर्स के बीच का ये सौहार्दपूर्ण सामंजस्य भी रहा है | …हम एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने में विश्वास करतीं थीं, जिसमें हमारी प्रधानाध्यापिका देवेश्वरी जी का संतुलित व्यवहार काफ़ी मददगार रहा | वे किसी से भेदभाव नहीं करती थीं, जिसका असर हम सहायक अध्यापिकाओं के आपसी रिश्तों पर पड़ा; और इन सबका मिला-जुला असर हमारे बच्चों की पढ़ाई और उनकी अन्य शैक्षणिक गतिविधियों पर पड़ा | जिससे हमारे बच्चों के व्यक्तित्व एवं आपसी व्यवहारों को निखारने में हमें मदद मिली |”

यह पूछने पर कि “आपकी समझ में बच्चों के साथ किसी भी विषय या किसी भी शैक्षणिक गतिविधि की सफ़लता के लिए क्या चीज़ें सबसे ज़रूरी हैं?” तो एकदम स्पष्ट शब्दों में उत्तर मिला— “मैं समझती हूँ कि तीन चीज़ें सीधे-सीधे किसी भी बच्चे के साथ पढ़ने-पढ़ाने या अन्य शैक्षणिक कार्य की सफ़लता के लिए सबसे अधिक ज़रूरी हैं—पहला, अध्यापक की अपनी योग्यता, जिसे हम अध्यापक का ज्ञान या नॉलेज और कार्य करने की शैली भी कह सकते हैं; दूसरी चीज है टीचर का अपना आत्म-विश्वास कि वह कठिन से कठिन कार्य भी कर सकता है, यदि वह दृढ-निश्चय कर ले, फ़िर चाहे कोई भी विषय पढ़ाना हो, चाहे कोई बेहद मुश्किल टॉपिक बच्चों को समझाना हो; और तीसरा, अपने विद्यार्थियों की काबिलियत और सीखने की क्षमता पर पूरा भरोसा करना, क्योंकि सीखने की जितनी क्षमता बच्चों में होती है, वह बड़ों में नहीं, और हर बच्चे में सीखने की यह अद्भुत क्षमता भरपूर मात्रा में होती है | इन तीनों के माध्यम से किसी भी बच्चे के साथ काम करने पर सफ़लता ज़रूर मिलती है |”

माधवी ने जो ये तीन चीजें बताईं, उनपर उन्होंने स्वयं कैसे काम किया? उन तरीकों के साथ चलते हुए उनके सामने कैसी-कैसी चुनौतियाँ आईं? उन चुनौतियों का सामना उन्होंने कैसे किया? उनको इसके क्या परिणाम मिले? बच्चों पर विश्वास करके काम करने के क्या फ़ल उन्हें मिले—बच्चों ने उनके विश्वास को सच साबित किया या अध्यापिका की कोरी भावुकता-मात्र? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर माधवी ध्यानी से संबंधित लेखों की श्रृंखला की अगली कड़ी में मिलेंगे | तब तक प्रतीक्षा ही शेष है…

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

Related Posts

One thought on “माधवी ध्यानी : अंग्रेजी भाषा से बच्चों की दोस्ती कराती अध्यापिका

  1. एक बार फिर से आपको धन्यवाद कनक मैडम माधवी मैडम से रूबरू कराने के लिए। माधवी मैडम किसी परिचय की मोहताज नहीं है।उनका आत्मविश्वास सारी कहानी बयां कर देता है।हम वि बी टी सी में बैचमेट से ज्यादा दोस्त थे और हमेशा रहेंगे। अपने कार्य के प्रति समर्पित,शालीनऔर हिंदी अंग्रेजी में समान अधिकार रखने वाली मेरी सखी । मुझे गर्व है कि माधवी मेरी मित्र हैं। धन्यवाद।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!