भीख माँगते बच्चों को अक्षरों की दुनिया में ले जाती एक शिक्षिका
भाग-2 :
भीख के कटोरे से अक्षरों की दुनिया की ओर बढ़ते क़दम …
पौड़ी में मेरे प्रवास के लगभग डेढ़ सालों के दौरान संगीता जी से कई बार मिलने और उनसे बातचीत के अवसर मिले | एक बार जब मैंने उनसे पूछा, कि उन्हें भीख माँगने वाले बच्चों को पढ़ाने का ख्याल कैसे आया, तो उन्होंने बड़ी ही दिलचस्प घटना बताई, जो कहने को तो दिलचस्प है, लेकिन वास्तव में है बेहद दुःखद, जो हमारे समाज का एक भयानक चेहरा उजागर करती है | इस घटना को आधार बनाकर मैंने एक कहानी भी लिखी है, ‘कटोरे की दुनिया से अक्षरों की दुनिया की ओर…’ नाम से, जिसे इसी ब्लॉग पर पिछले दिनों पोस्ट भी किया था | उसी कहानी को लिखते हुए संगीता जी के प्रयासों के विषय में लिखने का विचार भी आया था …
अस्तु,…
बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था, कि जब साल 2015 में उनका ट्रान्सफर राजकीय प्राथमिक विद्यालय कुरुड़, से श्रीनगर के राजकीय प्राथमिक विद्यालय, गहड़ में हुआ था, तो स्वाभाविक था कि एक नए स्थान पर फिर से अपने पैर जमाने में कुछ छोटी-बड़ी दिक्क़तें तो आतीं ही | उन्हीं के साथ-साथ उनके सामने एक अलग किस्म की समस्या भी आई थी | और उसी समस्या ने उनके जीवन का रुख बदला, उसी ने उनको एक और निश्चित मकसद दिया था, उन्हें एक उद्देश्य दिया था …
…बात यह हुई थी, कि जब वे दिनभर अपने विद्यालय में काम करने के बाद तीसरे प्रहर विद्यालय से थकी हुई वापस घर लौटतीं, तब तनिक आराम करने की कोशिश करतीं | इसी दौरान जैसे ही उनकी आँख लगती, कोई उनके घर की घंटी बजाकर भाग जाता, उनकी नींद उचट जाती और मन खिन्न हो जाता था | दरवाज़ा खोलकर देखने पर कोई नहीं मिलता था | उनको लगता था, कि शायद गली में खेलने वाले कॉलोनी के बच्चे ही शरारत कर रहे हैं | उन्होंने इसके विषय में अपने आस-पड़ोस से पूछताछ भी की, लेकिन इस बारे में कुछ पता नहीं चल सका | हाँ, एक बात और पता चली, कि उनकी ही तरह अन्य लोगों के दरवाज़े की भी कोई घंटी बजाकर भाग जाता है | उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ |
कुछ दिनों बाद, उसी तरह घंटी बजने पर जब उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो अपने सामने चार-पाँच बच्चों को हाथों में थैले और पॉलिथीन बैग थामे खड़ा पाया | बच्चों के फटे-पुराने मैले-कुचैले कपड़ों और बच्चों की स्थिति देखकर उनको समझते देर नहीं लगी कि बच्चे किसी झुग्गी के हैं | लेकिन घंटी बजाने के बारे में वह पूछताछ करने के लिए जैसे ही बच्चों की ओर बढीं, बच्चे उनको अपनी ओर आता देख अपनी बस्ती की ओर दौड़कर भागे | शायद वे यह समझ रहे थे कि अध्यापिका अब उनको छोड़नेवाली नहीं है |
संगीता जी भी उनके पीछे-पीछे गईं, क्योंकि वे जानना चाहती थीं, कि बच्चे क्यों उनके घर की तथा पड़ोसियों के घरों की घंटी रोज़ बजाकर भाग जाते हैं ? उनको चूँकि अनुमान था, कि बच्चे अब भागकर अपने घर जाएँगें, इसलिए वह भी उनके पीछे-पीछे उनकी बस्ती की ओर गईं |
उनके अनुमान के अनुसार बच्चे सचमुच में अपनी बस्ती की ओर ही गए और सीधे अपने घरों पर जाकर रुके | संगीता जी ने मुझे बताया था, कि वे किस कदर हैरान हुई थीं, जब उन्होंने अपने सामने दर्जनों छोटे-बड़े बच्चों को मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़े पहने खड़ा पाया | साथ में उन बच्चों के माँ-बाप भी उन्ही की तरह दीन-हीन-मलिन अवस्था में सामने खड़े थे |
माता-पिता को देखकर हालाँकि वे पहले थोड़ी झिझकी थीं, लेकिन चूँकि रोज़-रोज़ घंटी बजाये जाने से उनके परिवारजन परेशान थे, इसलिए उन्होंने निश्चय किया, कि वह बच्चों की हरकतों के बारे में उनके माँ-बाप को बताएँगी और उनसे बच्चों को समझाने को कहेंगी |
वहाँ उन माता-पिता और बच्चों से बातचीत के दौरान उन्हें पता चला, कि बच्चे भोजन के लिए दूसरों के घरों की घंटी बजाते थे | दोपहर के समय जब कॉलोनी के लोग खाना खा चुके होते थे, तो उसके बाद वे बच्चे उनके घर जाते थे, उनके घरों में बचा हुआ खाना लेने के लिए | कॉलोनी के लोग, जिनके पास जो भी खाना बच जाता था, उसे बेकार या फ़ालतू समझकर वे लोग इन बच्चों को दे देते थे, भीख के रूप में | उसी खाने के लिए वे बच्चे उन लोगों के घरों की घंटी बजाते थे | बच्चे, भीख में मिले उस भोजन को अपने साथ अपने घर ले आते थे, जहाँ उनके परिवार में माँ-बाप और भाई-बहन सहित सभी उस भोजन का इंतज़ार कर रहे होते थे, क्योंकि अपने भोजन के लिए बहुत हद तक वे उसी पर निर्भर थे …
…दरअसल वे लोग ख़ानाबदोश समाज के लोग थे, और अक्सर इसी प्रकार भीख माँगकर या कुछ छोटे-मोटे काम करके अपना गुजारा करते थे | लेकिन ख़ानाबदोश-जीवन की विडम्बना के कारण जीवन में स्थायित्व के अभाव की स्थिति के परिणामस्वरूप, इनके जीवन में आजीविका से जुड़े काम-काज और रोज़ी-रोटी के सम्बन्ध में काफ़ी अनिश्चितता बनी रहती है | यह अनिश्चितता इन ख़ानाबदोश समुदायों एवं उनके सदस्यों के जीवन के अनेक पक्षों को नकारात्मक ढंग से बहुत बुरी तरह प्रभावित करती है | आजीविका के साधन एवं बच्चों का भविष्य उससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं | इन समुदायों की यह दृढ़ मान्यता रहती है, कि पूर्वजों की परम्पराओं के अनुसार वे लोग एक जगह पर टिककर नहीं रह सकते, इससे अशुभ होता है | और उनको इसी प्रकार अपना जीवन बसर करना है |
बड़े दुर्भाग्य की बात है, कि किसी समय में किन्हीं ज्ञात-अज्ञात कारणों से इनके पूर्वजों ने दूसरे समुदायों, या अति-सुदृढ़ राजनीतिक सत्ताओं से अपने समुदायों की रक्षा के निमित्त, अपने लोगों को किसी भी एक स्थान पर अधिक समय तक टिकने से मना किया था | यदि तनिक इतिहास में पीछे की ओर जाकर देखें, तो पाएँगे, की पिछले तीन हजार सालों के भारत के इतिहास में सैकड़ों छोटे-बड़े सामाजिक समुदाय विभिन्न कारणों से भारत की ओर आते हैं और अपने-अपने समुदायों की सुरक्षा के लिए भारत की विस्तृत उपजाऊ भूमि के भीतर तक धँसते चले जाते हैं, उदाहरण के लिए शक (सिथीयन) हूण, कुषाण, जाट, गुर्जर, आभीर, मंगोल एवं सैकड़ों अनाम छोटे-छोटे सामाजिक समूह | लेकिन इनमें भी अपने-अपने वर्चस्व के लिए, और कभी-कभी एक-दूसरे से अपनी रक्षा के लिए भी, संघर्ष हुए | लेकिन यह भी सत्य है, कि निरंतर संघर्ष से कोई भी जाति अधिक समय तक अपने अस्तित्व को अधिक समय तक नहीं बचा सकती | संभव है, इसी संघर्ष से अपने-अपने समुदायों को बचाकर उनके अस्तित्व की रक्षा के निमित्त इस प्रकार के नियम बनाए गए हों ? अन्य इतिहासकारों सहित भगवतशरण उपाध्याय, राहुल सांकृत्यायन, रोमिला थापर द्विजेंद्र नारायण झा आदि प्रसिद्द इतिहासकारों की दर्ज़नों पुस्तकें इसपर बहुत अच्छा प्रकाश डालती हैं …
इनके इसी धुमंतू स्वभाव के कारण एवं समाज के शक्तिशाली तबकों द्वारा इनके बारे में फैलाए गए भ्रमों के कारण भी, औपनिवेशिक-भारत में अंग्रेज़ी सरकार द्वारा इन खानाबदोशों के अनेक समुदायों को ‘अपराधी-समुदायों’ की श्रेणी में डाल दिया गया | और इस कारण वे समुदाय आज भी इसी उपनाम से जाने जाते हैं | रांगेय राघव का उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ इन्हीं में से एक समुदाय ‘कमीन’ नामक खानाबदोश-समाज को आधार बनाकर रचा गया है, जिनके नाम के आधार पर हमारे ‘सभ्य समाज’ में ‘कमीना’ नामक गाली का ईज़ाद हुआ है, जिसका प्रयोग खुल्लम-खुल्ला ‘नीचता’, ‘घटियापन’ आदि के अर्थ में किया जाता है | इतना ही नहीं, कौन जाने, समय बीतने के साथ-साथ अपने बारे में प्रचलित धारणाओं को सत्य समझकर इन निरक्षर सामाजिक समूहों ने यह भी धारणा बना ली हो, कि इन्हें ‘धार्मिकप एवं रंपरागत रूप से अपराध भी करना है’ ? क्योंकि इनके पास जानकारी का कोई दूसरा स्रोत तो है नहीं, किंवदंतियों के अतिरिक्त …! शायद इसी कारण हम इनमें से अनेक समुदायों के लोगों को अधिकारपूर्वक चोरी आदि करते हुए अक्सर देख सकते हैं या कम से कम ख़बरें तो सुनते ही हैं | वस्तुतः यह हमारे आधुनिक समाज की भी विडम्बना ही है, जो इन समुदायों को वस्तुस्थिति से अवगत न करा सका, उन्हें उनकी पारंपरिक अँधेरी दुनिया से बाहर न ला सका, वहाँ तक शिक्षा की पर्याप्त रौशनी न ले जा सका …!!!
समय के साथ-साथ बढ़ती ग़रीबी की मार ने इनके स्वाभिमान को कुचलकर अनेक समुदायों को भीख माँगकर गुजारा करने को भी बाध्य किया, जिसे बढ़ावा दिया, हमारे तथाकथित सभ्य-समाज के अपमानजनक रवैए एवं दुत्कारपूर्ण व्यवहारों ने | हमारे तथाकथित सभ्य समाज का अपने वंचित एवं कमज़ोर तबकों के प्रति जो व्यवहार सहस्त्राब्दियों से रहा है, वह हिम्मती से हिम्मती समाज के स्वाभिमान एवं आत्म-विश्वास की हत्या करने में माहिर है …
अस्तु…
हम जिन बच्चों की बात यहाँ कर रहे हैं, उनका व्ह घुमंतू समुदाय भी ऐसे ही दुर्भाग्य का मारा हुआ है | अन्य सामाजिक-समुदायों की भाँति इन्होंने भी अपनी आजीविका की समस्या के समाधान के रूप में जो उपाय ढूँढा, वह बेहद दुःखद और निराशाजनक रहा है, यानी चोरी करके या भीख माँगकर अपने लिए संसाधन इकट्ठे करना | उन लोगों में से कोई भी कभी स्कूल नहीं गया था, यानी शिक्षा के मामले में वे लोग भी बिल्कुल निर्धन थे |
…संगीता जी मुझसे बातचीत के दौरान कई बार बता चुकी थीं, कि उन लोगों की सामाजिक स्थिति को देखते हुए और उनके हालात को समझते हुए वे समझ चुकी थीं, कि इन बच्चों की और इनके परिवार की सबसे बड़ी समस्या भोजन की ही समस्या है | हालाँकि उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया, कि वह उन सभी बच्चों को शिक्षा के दरवाजे तक ले जायेगी, क्योंकि वहीँ से सभी रास्ते खुलते हैं, किसी भी समाज और उसके वाशिंदों को परिश्रम का महत्त्व समझाया जा सकता है, बेहतर जीवन के प्रति उनमें उम्मीद जगाई जा सकती है, उनकी आँखें भी सपने देखने की शुरुआत कर सकती हैं, माता-पिता में अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की इच्छा एवं आशा पैदा होती है, अपने लिए स्वाभिमान की भावना उत्पन्न हो सकती है… |
लेकिन उससे भी पहले उन बच्चों की भूख की समस्या को हल करना ज़रूरी था | संगीता जी का कहना था, कि किसी भी समाज में, भूख के लिए जद्दोजहद करनेवाले बच्चों के भोजन की व्यवस्था किए बिना उनसे शिक्षा की बात करना व्यर्थ होता है, इसलिए उन बच्चों की भी भूख की समस्या को हल करना सबसे ज़रूरी था |
मानव-सभ्यता की यह विडम्बना नहीं तो और क्या है, कि प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मानव’ होकर भी, इस ‘सर्वश्रेष्ठ कृति’ ने अपना एवं दूसरों का जीवन नरक बनाने के लिए तमाम उपाय किए हैं और आज भी कर रहा है ? उस ‘सर्वश्रेष्ठ कृति’ के भीतर के सशक्त समुदायों ने अपने लिए मुफ़्त के दास पाने के लिए, उन बेबस दासों के परिश्रम से अर्जित समस्त संसाधनों का उपभोग करने के लिए, उन दासों पर अपना वर्चस्व स्थापित करके सत्ता का सुख हासिल करने के लिए, उन दासों से स्वयं को श्रेष्ठ साबित करके अपनी अद्वितीयता, अद्भुतता, महानता, श्रेष्ठता के अहंकार भरे झूठे सुख की चाह में, भूख और धर्म को अपना अस्त्र बनाया |
दरअसल भूख वह अस्त्र है, जिससे किसी भी व्यक्ति, किसी भी समुदाय को वश में किया जा सकता है, उससे मनमाना काम कराया जा सकता है, उसे दयनीय से दयनीय हालत में ले जाकर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है —-चोरी, हत्या, आगजनी, लूटपाट से लेकर अपमान, तिरस्कार, प्रताड़ना… यानी कुछ भी…|
और धर्म…? धर्म का उपयोग उन्हें मानसिक एवं भावनात्मक रूप से बेबस करके सदा-सदा के लिए अपने अधीन बनाने का अस्त्र है, जिसका प्रयोग विविध रूपों में सदियों से किया जाता रहा है | ईश्वर, भाग्य, पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का भय दिखाकर इन भूखे बेबस इंसानों को सदैव उनके लिए सामाजिक एवं पारंपरिक कार्यों/पेशों से जकड़ कर रखना भी सरल होता है | उनके स्वाभिमान की हत्या करना, उनके सपनों को कुचलना, उनकी आशा-निराशा एवं उनकी इच्छा-अनिच्छा को नियंत्रित करना बहुत ही आसान हो जाता है |
क्या यही कारण नहीं है, कि इन्हीं उद्देश्यों से सदियों से पहले कमजोर समुदायों को सम्मानजनक भोजन के अधिकार से वंचित करना और फिर उसके बाद धर्म एवं ईश्वर द्वारा उन्हें भयभीत करते हुए उन्हें एक निश्चित घेरे में समेट देने की साजिशें होती रही हैं ? तब कैसे ऐसे समुदायों में अपना आत्म-सम्मान जीवित बचेगा ? कैसे उनमें अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की इच्छा और आशा पैदा होगी ? किस प्रकार वे सम्मानजनक ढंग से अपने लिए रोज़ी-रोटी अर्जित करने की सोचेगें ? सोचने वाली बात तो है ही …!!!
जब-सब संगीता जी मुझे उस समुदाय और उनके बच्चों के बारे में बताती थीं, तब-तब मेरी आँखों के सामने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ के निर्लज्ज और आत्म-सम्मान रहित, परिश्रम से जी चुरानेवाले घीसू और माधव अनेक रूप धारण करके घूमने लगते थे, जिनकी सभी मानवीय-संवेदनाओं और भावनाओं की इस हद तक हत्या की जा चुकी थीं, कि उन्हें अपने ही परिजनों की मौत उसी प्रकार से व्यथित नहीं करती, जैसे एक सामान्य व्यक्ति को करती हैं | मैं तब ख़ूब अच्छी तरह से समझ पाती थी, कि क्यों ऐसे समाज के लोग या इस प्रकार का जीवन जीने वाले लोग अपने आत्म-सम्मान को महत्त्व नहीं देते ? क्यों उन्हें लोगों द्वारा गालियाँ दिए जाने से, अपमानित एवं तिरस्कृत किये जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता ? …
… संगीता जी ने तय किया, कि वह सबसे पहले कम से कम भीख माँगने के लिए जानेवाले उन बच्चों की भूख की समस्या को हल करेंगीं | इस निश्चय के बाद उसी साल, यानी 2015 में ही, उन्होंने उस बस्ती के भीख माँगने के लिए जाने वाले उन सभी 15 बच्चों को उनके माता-पिता की सहमति से अनौपचारिक रूप से गोद ले लिया | वह उन सभी बच्चों की तमाम ज़रूरतों को अपने दम पर पूरी करने लगीं —बच्चों के भोजन से लेकर, कपड़े, दवाइयाँ, कॉपी-क़िताबें, …यानी सब कुछ | इसके लिए वह अपनी आय का एक अच्छा-खासा भाग उन बच्चों पर ख़र्च करतीं |
इस दौरान उन्होंने बच्चों के माता-पिता से लगातार संवाद जारी रखा, हर रोज़ वह शाम को उनकी बस्ती में जातीं, माता-पिता से बात करती, उनके सुख-दुःख में उनके साथ खड़ी होतीं | इस दौरान उन्होंने उनके भोजन को और क़रीब से देखा | वे लोग श्रीनगर में मीट की दूकानों के बाहर फेंके गए बध्य जानवरों की आँतों एवं अन्य अवशिष्ट भागों को लाते थे और उसे पकाकर भात और नमक के साथ खाते थे | तथाकथित सभ्य एवं साधन-संपन्न समाज अपने मांसाहार में ऐसी चीजें शामिल नहीं करता है, मीट-विक्रेता भी उन्हें फेंक ही देते हैं और फिर वह अवशिष्ट मांस-पदार्थ, ऐसे ‘असभ्य’, ‘असंस्कृत’, ‘निकृष्ट’, ‘निम्न’ समाज के लोगों के भोजन की जरूरतों को पूरा करता है |
शाकाहार और मांसाहार भोजन से संबंधित विमर्श करनेवाले लोगों को इस दिशा में भी अवश्य सोचना चाहिए, कि यदि वंचित समुदायों के लोग केवल शाकाहार को अपने भोजन का हिस्सा बनाएँ, तो किस प्रकार ऐसे कमज़ोर, दयनीय, दर-दर की ठोकरें खाने वाले एवं सभी प्रकार के संसाधनों एवं मानवीय अधिकारों से वंचित समुदाय जीवनभर अपनी एवं अपने परिवार की भूख की समस्या को हल कर सकते हैं, जिनके भोजन का एक बड़ा हिस्सा, सभ्य-समाज द्वारा इस प्रकार से फेंके गए अवशिष्ट मांस-पदार्थों (जो कभी-कभी सड़ने की स्थिति में पहुँच चुके होते हैं) से पूरा होता है ? जिस समाज में यह सब, परंपरा एवं धर्म के नाम पर कमज़ोर समुदायों को चूहे खाने (चूहड़ या मुसहर जाति के लोगों द्वारा), दूसरों की जूठन खाने (भंगी जाति को), अन्य वर्जित जीव-जंतु खाने, गोबरहा ( कई दलित जातियाँ गाय-बैलों, भैसों आदि के गोबर से गेहूँ के दाने —जिन्हें वे जानवर फ़सलों के साथ कभी-कभी खा जाते हैं— बीनकर उसे खाते हैं, उन दानों को पूर्वी उत्तर-प्रदेश एवं बिहार में ‘गोबरहा’ कहा जाता है) खाने, आम की गुठली को पीसकर खाने …आदि को बाध्य किया जाता रहा है, उस समाज को अपनी सोच के साथ-साथ अपनी परम्पराओं एवं धर्म का भी पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत है …
…संगीता जी ने भूख के कारण दिन भर भागते बच्चों को जब प्राथमिक सुविधाएँ देनी शुरू कीं, तब यह नहीं सोचा था, कि यह उपाय बच्चों को अक्षरों की दुनिया तक ले जाने और उनका महत्त्व समझाने में कितना कारगर होगा | बस उन्होंने केवल उम्मीद करते हुए यह प्रयास जारी रखा | बच्चों को अब उनके साथ अच्छा लगने लगा था | लेकिन उनके अभिभावकों को समझाना अभी बाकी था | जब उन लोगों के बीच आते-जाते थोड़ा समय बीत गया, तब कई बार उन्होंने उन लोगों से आग्रह किया, कि वे उनके बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं | लेकिन शुरू में वे लोग, धर्म एवं परंपरा की मज़बूत बेड़ियों में जकड़े होने के कारण, इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुए | संगीता जी ने हालाँकि उनको बहुत समझाने की कोशिश, लेकिन वे नहीं माने | उन्होंने इस विषय में बातचीत के दौरान मुझे बताया था —-“मैंने उन लोगों को कई बार मनाने और समझाने की कोशिश की थीं, कि क्या आपलोग रोज़ थोड़ी देर के लिए अपने बच्चे मुझे नहीं दे सकते हैं ? मैं उनको पढ़ाना चाहती हूँ … जब आपलोग अपने बच्चों को रोज़ भीख माँगने के लिए भेज सकते हैं, तो क्या आपलोग एक घंटे के लिए मुझे ये बच्चे दे नहीं सकते, पढ़ने के लिए…?”
हालाँकि रोज़-रोज़ इस अनजानी अध्यापिका को अपने बीच पाकर धीरे-धीरे उन अभिभावकों के मन में उनके प्रति आत्मीयता और लगाव पनपने लगा था और वे भी अब हर रोज़ उनके सम्मान में उनके लिए कुर्सी लगाकर उनका इंतज़ार करते, उनके आने पर बड़ी ही आत्मीयता से मिलते भी थे और अपने सुख-दुःख की बातें भी करते थे | संगीता जी को भी उनसे लगाव होने लगा था | नतीजा यह हुआ, कि अब उनका विश्वास भी संगीता पर जमने लगा था | लेकिन बच्चों को अक्षरों की दुनिया तक ले जाने की राह इतनी आसान नहीं थी |
वैसे भी पीढ़ियों से भीख माँगते और उसी को परंपरा एवं धर्म के नाम पर अपनी नियति एवं भाग्य मानने वाले समाज को अपने बच्चों के लिए शिक्षा के महत्त्व को समझ पाना और उसके लिए तैयार होना इतना सरल-कार्य होता, तो आज दुनिया-भर में भीख माँगते समाज विद्यमान नहीं होते, भारत में यह एक विकराल समस्या के रूप में नहीं होती | इसलिए संगीता जी ने उन लोगों का विश्वास जीतने के लिए अपनी कोशिशों का दायरा बढ़ाया | उन लोगों के दुःखों, तकलीफ़ों और परेशानियों में उनके साथ अक्सर खड़ी रहने लगीं | उनकी समस्याओं को सुनतीं, समझतीं और यथासंभव उनका समाधान निकालने की कोशिशें भी करतीं रहीं | और इसके साथ ही उन्होंने उन लोगों से बच्चों के पढ़ने-लिखने से संबंधित अपना संवाद लगातार जारी रखा, जिसमें वह उनको पढ़ाई का महत्व समझातीं, बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए प्रोत्साहित करतीं | अंततः वे लोग अपने बच्चों को पढ़ाने को मान गए |
वे बताती हैं, कि जब उन लोगों ने अपनी सहमति उनको दी, तो उनका निर्णय जानकर उनकी ख़ुश का ठिकाना नहीं रहा था | उसके बाद वे जी-जान से बच्चों को अक्षरों से प्रारम्भिक परिचय कराने में जुट गईं, जिसमें एक हद तक उनके सहयोगी बने उनके शिक्षक-साथी, ख़ासकर सम्पूर्णानन्द जुयाल जी और आशीष नेगी जी |
कुछ समय तक वे उन सभी बच्चों को व्यक्तिगत स्तर पर पढ़ाती रहीं, जिसके लिए बच्चों को सँभालने की खातिर उन्होंने दो सहायक भी रखे —अनिल बड़वालऔर रेखा गुप्ता | इसके लिए दोनों सहायकों को वे कुछ वेतन भी देती थीं | बच्चों के साथ उन्होंने अगले डेढ़-दो साल काम किया, अक्षर-ज्ञान से लेकर शुरूआती गणित, चित्रकला, क्राफ्ट, शैक्षणिक उद्देश्य से घूमना-फिरना ….बच्चे ख़ुश थे और उनके माता-पिता भी | अपनी इस शिक्षिका की ऊँगली थाम बच्चों ने नए संसार में क़दम रखे और आँखे फाड़-फाड़कर उस लुभावनी दुनिया को देखा, जिस तक पहुँचने का रास्ता शिक्षा से होकर जाता था |
कुछ ही समय में संगीता जी ने बच्चों में, उनकी आयु के अनुसार, शुरूआती भाषा और गणित की शुरूआती समझ विकसित करने में सफ़लता प्राप्त कर ली | जब बच्चों को पढ़ना-लिखना अच्छा लगने लगा, तब उन्होंने उन सभी बच्चों का दाख़िला श्रीनगर में ही नंदन नगर नगरपालिका के विद्यालय में करवा दिया, शिक्षक-दिवस के दिन, यानी 5 सितम्बर 2017 को | …और इस प्रकार अब उन बच्चों के हाथों में भीख के कटोरे की जगह किताबें थी, और सड़क पर लोगों के पीछे-पीछे भीख के लिए भागते-दौड़ते मासूम क़दम अब विद्यालय की भूमि को नाप रहे थे…
…. बात अभी जारी है…
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
संगीता जी के काम को जानता हूं। उन्हें न जानता था। शैक्षिक बैठकों में परिचय हुआ। आपने उनके ज़रूरी काम को विस्तार दिया। यह ज़रूरी है। सादर,
एक मानव और एक शिक्षिका के रूप में संगीताजी का कार्य अत्यंत सराहनीय है। बाकी दुनिया से कटे उस छोटी सी जगह में किये जा रहे इतने बड़े परिवर्तन को सामने लाने का आपका प्रयास भी सराहनीय है।