बतकही

बातें कही-अनकही…

भीख माँगते बच्चों को अक्षरों की दुनिया में ले जाती एक शिक्षिका

भाग- तीन :-

बच्चों में स्वाभिमान की भूख पैदा करने से आत्म-निर्भरता की ओर…

एक सच्ची माँ किसे कहा जा सकता है…? जो अपने बच्चों के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, बीमारियों से सुरक्षित रखने से संबंधित सभी ज़रूरतों का ध्यान रखते हुए उनका ठीक से पालन-पोषण करे…? या जो बच्चों को धार्मिक कहानियाँ सुनाते हुए, पूजा-पाठ या इबादत आदि में शामिल करते हुए उनको ‘संस्कारवान’ और ‘बड़ों का आज्ञाकारी’ बना सके…? अथवा अपनी संतानों को समाज में सम्मानजनक ढंग से जीना और दूसरों के अस्तित्व, भावना, सुख-दुःख का ध्यान रखना सिखाए…? अथवा कुछ और…?

मेरी समझ से एक अच्छी माँ केवल अपनी संतानों का पालन-पोषण भर नहीं करती, या उनकी छोटी-बड़ी जरूरतों का ध्यान-भर नहीं रखती; बल्कि एक अच्छी और ज़िम्मेदार माँ वह होती है, जो अपनी संतानों को समाज में सम्मानजनक ढंग से जीने के सलीक़े भी सिखाए, उनके भीतर अपने एवं दूसरों के प्रति संवेदनापूर्ण आदर-भाव भी जागृत करे, अपने एवं दूसरों के शारीरिक श्रम का महत्त्व एवं उसका आदर करना भी सिखाए, ताकि बच्चे हर काम का सम्मान कर सकें, समाज के भीतर कोई भी काम करनेवाले लोगों का सम्मान करना सीख सकें | सच्ची माँ केवल अपने बच्चों को अपना पेट भरने की क्षमता अर्जित करना ही नहीं सिखाती है, बल्कि उन्हें सही एवं सम्मानजनक ढंग से अपने एवं दूसरों के लिए भी, संसाधनों का अर्जन करना सिखाती है…| एक ज़िम्मेदार माँ अपनी संतानों को समाज के लिए अनुकरणीय और सम्मान्य नागरिक के रूप में पोषित करती है…

संगीता फ़रासी क्या एक अच्छी और ज़िम्मेदार माँ हैं…? उन्होंने अपनी पैदा की गई संतानों के लिए जितनी ज़िम्मेदारी एवं जवाबदेही से अपने कर्तव्य-पालन करती हैं, क्या उतनी ही ज़िम्मेदारी एवं जवाबदेही से अपने गोद लिए बच्चों के प्रति भी अपने कर्तव्यों का निर्व़हन करती है…?? यदि इस सवाल का जवाब ढूँढना हो, तो हमें उनके कार्यों को तनिक गौर से देखना चाहिए…

…उन्होंने जब 2015 में ख़ानाबदोश बच्चों के साथ काम करना शुरू किया था, तो उन्हें भी इसका अनुमान नहीं था कि उन बच्चों में कब तक और क्या-क्या बदलाव ला सकेंगीं | लेकिन उन्होंने अपनी कोशिशें निरंतर जारी रखीं और भीख का कटोरा थामनेवाले बच्चों को विद्यालय की दहलीज़ तक ले आने में कामयाब रहीं | उसके बाद उन्होंने अपने लिए नई ज़िम्मेदारी तय की और अपनी गोद ली हुई इन संतानों के भविष्य के प्रति स्वयं को और अधिक जवाबदेह बनाया | इसमें विद्यालय उनका बहुत बड़ा सहायक बना |

दरअसल विद्यालय वह पवित्र स्थान होता है, जहाँ यदि अध्यापक सजग और सचेत होकर अपने अध्यापकीय-दायित्वों को पूरी निष्ठा और संवेदनशीलता से निभाएँ, तो अपने विद्यार्थियों के सम्पूर्ण जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ला सकते हैं | इसी कारण मेरी समझ में विद्यालय का स्थान किसी भी समाज में उसके आराधना-स्थलों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है | संगीता फ़रासी का भी यही विश्वास रहा है…| शायद इसी कारण वे एक तरह से दृढ़-संकल्प लेकर भीख मांगने वाले बच्चों को स्कूल तक ले आने को समर्पित रही हैं…

…उनके ख़ानाबदोश बच्चे, हालंकि विद्यालय आने के बाद भी काफ़ी समय तक भीख मांगना और चोरियाँ करना नहीं छोड़ पाए थे, तब उन्होंने बच्चों के भीतर स्वाभिमान की भूख पैदा करने एवं अपने श्रम पर विश्वास करने की भावना विकसित करने की ठानी | इसके लिए उन्होंने बड़ी अनूठी तरकीब निकाली | उन्होंने स्थानीय स्तर पर लगनेवाले वैकुण्ठ चतुर्दशी मेले को अपना एक बेहद कारगर माध्यम बनाया…

…दरअसल इस मेले में तरह-तरह के स्टॉल लगते हैं | संगीता फ़रासी ने भी नवम्बर 2018 में इस मेले के आयोजन के समय अपने इन गोद लिए बच्चों के भीतर स्वाभिमान की भूख जगाने के लिए बाक़ायदा अपने पैसे लगाकर एक स्टॉल ख़रीदा | उसमें शामिल होनेवाले इन सभी बच्चों को उस मेले और स्टॉल के बारे में बताकर उनको प्रेरित किया, ताकि वे अपनी पसंद, रूचि एवं क्षमता से तरह-तरह की आर्ट और क्राफ्ट से संबंधित चीज़े बनाएँ | इसमें उन्होंने अपने सहायकों की भी मदद ली |

जब बच्चे अपनी चीजें लेकर अपने स्टॉल में पहुँचे, तो वहां उन्होंने एक नई दुनिया देखी— सपनों की दुनिया… उम्मीदों की दुनिया… आशाओं-आकाँक्षाओं की दुनिया… सम्मान अर्जित करने की दुनिया… | उनको वास्तव में हैरानी हुई, कि ऐसी भी कोई दुनिया हो सकती है…

इन ग़रीब अभागे बच्चों ने अपनी छोटी-सी जिंदगी में अभी तक जो दुनिया देखी थी, उसमें उनके लिए तिरस्कार, दुत्कार और अपमान ही रहा था, अभी तक उनके हिस्से में भूख और ग़रीबी ही थी, उनके समाज के लिए परम्परागत रूप से भीख मांगना, चोरी और दूसरे अपराध करना ही उनका ‘काम’ तय किया गया था, ‘सामाजिक-परंपराओं’ और ‘मान्यताओं’ में उनको घोषित ‘अपराधी’ का दर्जा दिया गया था…! ऐसे में ये बच्चे क्या जानें, कि ‘आत्मसम्मान’ क्या चीज है, ‘सामाजिक-हैसियत’ किस बला का नाम है, ‘सम्मान’ और ‘अधिकार’ किसे कहते हैं….? उनके भीतर तो सदियों में विकसित की गई समाज की ‘परम्पराओं’ के अनुसार भीख मांगने और चोरी, झपटमारी जैसे निंदनीय एवं अपमानजनक काम करना उनकी ‘निर्धारित परंपरागत नियति’ थी…

…लेकिन संगीता भी कहाँ पीछे रहनेवाली थीं…! दृढ़-निश्चयी इस अध्यापिका ने बच्चों को नई दुनिया दिखाने की खातिर ही तो इतने जतन किए थे…! बच्चों ने जब मेले में क़दम रखा, तो इस नई दुनिया को आँखे फाड़-फाड़कर देखा और ख़ूब देखा… उसका भरपूर आनंद लिया, अपने भीतर एक नई ‘भूख’ को जागते देखी, मन में उमंगें उठती महसूस कीं, ह्रदय में उस आनंद को महसूस किया, जिससे अभी तक वे सर्वथा वंचित रहे थे… अपने लिए अनेक रास्ते खुलते और बनते भी देखे…

…मेले में इनका स्टॉल ‘एक कदम शिक्षा और स्वावलंबन की ओर’ नाम से लगा, जिसमें बच्चों ने अपने हाथ से बनाई कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाईं |

…पहाड़ी जीवन में भी, हालाँकि सामाजिक-दुराग्रह कम नहीं होते, न भेदभावों की ही वहाँ कमी होती है, और न ही अमानवीयता एवं क्रूरता ही नदारद होती है…| लेकिन इन सबके बावजूद, हमें अपेक्षाकृत विकसित एवं आधुनिक शहरों, गाँवों, कस्बों में जिस प्रकार की एवं जितनी मात्रा में अमानवीयता, क्रूरता, अत्याचार और सामाजिक-दुराग्रहों की स्थिति दिखाई देती है, वह इन दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में प्रायः नहीं होती है | इस रूप में भारत के दूरस्थ इलाक़े तथाकथित ‘सभ्य-शहरी’ जीवन को बहुत कुछ सिखाने का माद्दा रखते हैं…

…तो श्रीनगर (उत्तराखंड) के भी लोग अपनी अमानवीयता या क्रूरता में हमारे महानगरों से तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हैं, कहीं अधिक मानवीय और संवेदनशील हैं…! इसी कारण जब समाज के इन ‘घृणित’ एवं ‘अछूत’ बच्चों ने चोरी और भीख माँगना छोड़ा और उसके स्थान पर अपने छोटे-छोटे हाथों में किताबें थामी, तब श्रीनगर-वासियों ने बच्चों को प्रोत्साहित किया | इसीलिए बच्चों ने जब इस मेले में अपनी बनाई चीजों की प्रदर्शनी लगाईं, तब उनकी बनाई वस्तुओं की कोई उपयोगिता न होने के बावजूद भी, श्रीनगर एवं अन्य स्थानों के वाशिंदों, जो उस मेले में घूमने आते थे, ने बच्चों की बनाई चीजें ख़रीदी… और ख़रीदी ही नहीं, बल्कि दिल खोलकर उन बच्चों की एवं उनकी कलाकृतियों की प्रशंसा भी की |

…इतना ही नहीं, उन बच्चों की इस ‘अध्यापिका माँ’ ने अपने इन बच्चों को सिखाया था, कि मेले में अपनी चीजें बनाते हुए भी दिखानी है | इस बात ने एक और स्तर पर जाकर बच्चों के भीतर स्वाभिमान और प्रशंसा की भूख पैदा करने में मदद की | दरअसल बच्चे मेले में जब अपने अनभ्यस्त हाथों से कोई चीज बनाते, तो मेले में आए दर्शक उनके स्टॉल पर रुक-रुककर उनके अनभ्यस्त हाथों की कच्ची-पक्की कारीगरी देखते और बच्चों की तारीफ़ भी मुक्त कंठ से करते | इससे बच्चों ने पहली बार ‘प्रशंसा’ को और उससे प्राप्त संतोष और आह्लाद की भावना को अपने दिलों में महसूस किया | जाहिर है, ये बच्चे जिस प्रकार की जिंदगी जीते रहे हैं, उसमें अभी तक उनको प्रशंसा की बजाय तिरस्कार, धिक्कार, अपमान और गाली-गलौज ही मिली थी…| लेकिन यहाँ आकर उन्होंने पहली बार जाना कि प्रशंसा क्या होती है, लोगों की तारीफ भरी नज़रें जब बच्चों की ओर उठतीं, तो बच्चों के मन में जो आह्लाद उत्पन्न होता, उसकी तरंगों को उन बच्चों ने पहली बार अनुभव किया…

…इसी दौरान इस प्रसिद्द मेले की रिपोर्टिंग के लिए वहाँ पत्रकार आए थे | उनको भी मेले में आनेवालों से इस अध्यापिका द्वारा ख़ानाबदोश समाज के बच्चों को शिक्षा के द्वार तक ले जाने एवं उनके लिए इस मेले में एक स्टॉल ख़रीदकर उनकी बनाई वस्तुओं की प्रदर्शनी लगवाने के बारे में पता चला | जिज्ञासावश जब उन्होंने इनके स्टॉल का रुख किया और कल तक भीख माँगने एवं चोरियाँ करनेवाले बच्चों को कलाकृतियाँ बनाते देखा, तो उन पत्रकारों के क़दम भी थोड़ी देर के लिए वहाँ रुक गए | उन्होंने तब उन बच्चों से बात की, उनके काम के बारे में पूछा… और अंततः उनका ठीक-ठाक-सा इंटरव्यू लिया | बच्चों ने इस रूप में पुनः एक नया अनुभव पाया |

उन्होंने पहली बार जाना कि सम्मानजनक ढंग से काम करने पर समाज ही नहीं दुनिया द्वारा भी प्रशंसा और सम्मान मिलता है | इस छोटी-सी बात ने उनके भीतर किसी कोने में सोये हुए मासूम सपनों और इच्छाओं को जैसे हौले-से आवाज़ देकर जगा दिया हो…| बच्चों ने इस मेले के दौरान बहुत सारी चीजें और बहुत-से परिवर्तन अपने भीतर महसूस किए …

बात यहीं ख़त्म नहीं हो गई, बल्कि एक बढ़िया मौका जानकार संगीता फ़रासी अपने इन गोद लिए बच्चों के मनो-मस्तिष्क में जीवन के अन्य अनुभवों को संजोने, जीवन के दूसरे रूपों के दर्शन कराने एवं एक नई दुनिया दिखाने की खातिर इनको अपने दोनों सहयोगियों के संरक्षण में मेले में घूमने के लिए भी भेजती रहीं, जिससे बच्चे जान सकें, कि दुनिया कैसी-कैसी हो सकती है, ताकि बच्चे अपने लिए दूसरे अनेक विकल्प भी देख-समझ पाएँ, कुछ नए अनुभव ले सकें, कुछ नया सीख पाएँ…

अब समस्या थी, बच्चों की चोरी की आदत पर नियंत्रण करने की…| बच्चों के सामने मेले के दौरान ऐसे अनेक अवसर थे, जो उनके मन को आसानी से इस ओर आकर्षित कर सकते थे, उनको चोरी के लिए उकसा सकते थे | वैसे भी जिन बच्चों ने अपना पूरा बचपन चोरी में ही बिताया हो, या दूसरों के सामने दयनीय बनकर हाथ ही फैलाए हों, उनमें से इन आदतों को बाहर निकालना बेहद चुनौती भरा भी था और उतना ही ज़रूरी भी…|  

…बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, बड़ों के भीतर भी एक बार जो आदत विकसित हो जाती है, उसे बदलना बहुत मुश्किल होता है, …उसमें भी कोई नकारात्मक आदत…| तब बच्चों का क्या कहा जाय…? इन ग़रीब बच्चों ने जो दुनिया अपनी छोटी-सी जिंदगी में देखी थी, उसमें समाज द्वारा उनके भीतर उसकी ‘परम्पराओं’ के अनुसार भीख माँगने, चोरी और झपटमारी करने की जो आदत विकसित की गई थी, वह इतनी आसानी से तो नहीं ही जा सकती थी | तब संगीता ने कुम्हार की भाँति काम किया— वह भीतर से अपने स्नेह, ममत्व, कोशिश और विश्वास का सहारा देतीं और बाहर से एक चौकस अभिभावक की भाँति उनकी गतिविधियों पर सचेत दृष्टि रखतीं…|

…चोरी-झपटमारी के आदी बच्चे मेले में भी ये व्यवहार कर सकते थे, इससे न केवल उन्हें सबके सामने शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती थी, बल्कि बच्चों के भविष्य को भी ठेस लग सकती थी; साथ ही, अब तक की सारी मेहनत पर पानी भी फिर सकता था | इससे बचाव के लिए संगीता ने एक सचेत और सजग अभिभावक की तरह अपने दोनों सहायकों की मदद से पूरे मेले के दौरान बच्चों पर परोक्ष रूप से अपना निगरानी बनाये रखने की कोशिश की …और बच्चों ने भी उनको निराश नहीं किया |

एक सजग-सचेत माँ का यह कर्तव्य होता है, कि वह न केवल अपने बच्चों के व्यक्तित्व, भावनाओं, विचारों और विश्वासों को गढ़े, तराशे, उन्हें उचित आकार और दिशा दे; बल्कि उनपर विश्वास रखते हुए बच्चों को एहसास भी दिलाए, कि वह अपने बच्चों पर विश्वास करती है | इससे बच्चे अपनी माँ का विश्वास तोड़ने या क्षति पहुँचाने के बारे में बहुत सचेत रहते हैं …! …संगीता फ़रासी ने बच्चों के इसी मनोविज्ञान को समझकर उसका उपयोग किया… और वे इसमें काफ़ी हद तक सफ़ल रहीं… 

…पहली बार इस मेले में शामिल हुए इन बच्चों के बनाए सामान बिके और उन्होंने 14,520 रूपये कमाए | संगीता बताती हैं, कि “पहली बार जब इन सभी बच्चों ने मिलकर 7 दिन में 14,520 रुपये कमाए, तो उनके चेहरों पर जो चमक थी, वह देखने लायक थी | क्योंकि इससे पहले यही बच्चे चोरी-झपटमारी करके एक दिन में बीस-बीस हज़ार रुपये तक इकठ्ठा कर लिया करते थे, जिससे इनकी ज़रूरतें तो पूरी हो जाती थीं, लेकिन मन में कहीं-न-कहीं एक अपराध-बोध तो बना ही रहता था | इस मेले में पहली बार बच्चों ने इज्ज़त के साथ और लोगों की प्रशंसा पाते हुए ये थोड़े-से पैसे कमाए थे, और उसका संतोष और उसकी ख़ुशी उनके चेहरों पर साफ़-साफ़ दिखाई दे रही रही थी…” 

…बच्चों ने संकल्प लिया कि अगले साल के मेले के लिए वे और अधिक मेहनत करेंगे…| संगीता के लिए यह कम संतोष की बात नहीं थी और ना ही यह कोई मामूली उपलब्धि थी ! उन्हें आगे के रास्ते दिखाई देने लगे…

इसी का परिणाम था, कि जब अगली बार इस मेले का आयोजन हुआ, तो पुनः संगीता ने अपने इन बच्चों के लिए स्टॉल ख़रीदा और उनके बनाए सामान की प्रदर्शनी लगाईं | इस बार बच्चों का उत्साह पहले से अधिक था | नवम्बर 2019 के दौरान आयोजित इस मेले में बच्चों ने 16000 रुपये से अधिक की कमाई की | इस बार भी इनके स्टॉल का शीर्षक था—‘एक क़दम शिक्षा और स्वावलंबन की ओर’ |

सवाल उठता है, कि इन छिटपुट मेलों में बच्चों को ले जाकर क्या मिल जाता है, इस अध्यापिका ‘माँ’ को…? कुछ छिटपुट सामान बेचकर बच्चों के जीवन में क्या परिवर्तन आ जाएगा…? क्या इन बच्चों का जीवन सँवर जाएगा…? क्या इनके समाज में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा…? क्या तथाकथित ‘मुख्यधारा’ का समाज इन्हें ‘अपराधी-समाज’ मानना बंद कर देगा और मानवीय-दृष्टि से उन्हें देखने-समझने लगेगा…? क्या इन घोषित ‘अपराधी-ख़ानाबदोश-समाजों’ की नियति और नीयत बदल जाएगी…?

घोषित ‘अपराधी-ख़ानाबदोश-समाज’…!!! ये क्या होता है…? क्या कोई पूरा-का पूरा समाज इस हद तक अपराधी-मानसिकता वाला हो सकता है, कि कोई उन्हें ‘अपराधी-समाज’ के रूप में चिह्नित कर दे…? रांगेय राघव का कालजयी उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहता है…

…इतिहास में थोड़ा-सा पीछे चलें, तो देखने को मिलता है, कि दरअसल अंग्रेज़ों के द्वारा विशेष परिस्थितियों में कुछ ख़ानाबदोश समाजों को ‘अपराधी-समाज’ के रूप में चिह्नित किया गया था | दरअसल अंग्रेज़ों के आने से पहले भारत में व्यवस्थित ढंग से जनगणना नहीं होती थी | इसकी शुरुआत उन्होंने ही की | लेकिन बंजारों के लगातार भ्रमणशील रहने के कारण इसमें बहुत दिक्क़तें आती थीं | दूसरे, जिन इलाक़ों में ये ख़ानाबदोश रुकते थे, वहाँ कोई भी चोरी वगैरह आपराधिक वारदातें होने पर तथाकथित सभ्य समाज अपने-आप को पाक-साफ़ बनाए रखने के लिए सारा आरोप या तो निम्न-तबकों पर डाल दिया करता था, अथवा इन बंजारे समुदायों पर | क्योंकि वर्चस्वशाली-सशक्त-समाज के ऐसे अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध एवं इन कमज़ोर समाजों के पक्ष में आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं था, जो उनके आरोपों का विरोध कर सके |

दुर्भाग्यवश, भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों की वास्तविक धरातलीय सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति से बेख़बर अंग्रेज़ प्रायः उसे ही सत्य मान लेते थे, जो उनके साथ रोज उठने-बैठनेवाले शक्तिशाली वर्गों द्वारा बताया जाता था | इसीलिए जब उनके द्वारा बंजारों को ही अपराधों के लिए ज़िम्मेदार बताया जाता और प्रमाण के रूप में उनकी भ्रमणशील प्रवृत्ति को प्रस्तुत करते हुए यह तर्क (कुतर्क) दिया जाता, कि ‘क्यों जिन इलाक़ों में ये मौजूद होते हैं, अपराधों की मात्रा वहीँ पर बढ़ जाती है…?’ तब अग्रेज़ अधिकारी उनकी बातों पर ही विश्वास कर लिया करते थे…

…ऐसा नहीं है, कि ये बंजारे-समाज के लोग कोई अपराध नहीं करते, या चोरी-झपटमारी आदि नहीं करते, यह तो हर समाज में होता ही है…! अनिवार्यतः…! यह मानव-प्रवृत्ति जो है…! प्रत्येक समाज अपने भीतर अच्छी एवं बुरी आदतों को लेकर चलता है | अंतर सिर्फ़ इतना ही है, कि शक्तिशाली तबका अपनी चोरी और अन्य आपराधिक-वृत्तियों को ख़ूबसूरत आवरण में लपेटकर आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करता है, जिस कारण उनका अपराध भी किसी महान कार्य की तरह अक्सर दिखने लगता है | और यही शक्तिशाली अपने से कमज़ोर वर्गों की मजबूरियों को भी किसी जघन्य अपराध की तरह प्रस्तुत करता है…! ऐसा करने का उनका उद्देश्य क्या हो सकता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं…! लेकिन यहीं पर ठहरकर कुछ प्रश्नों पर गौर करने की ज़रूरत है…

…जिन लोगों के सामने हमने जीवन-यापन के लिए कोई बेहतर और प्रभावशाली मार्ग या विकल्प न छोड़ा हो, जिसे हमारे ‘सभ्य-समाज’ के पूर्वजों द्वारा सदियों पहले, अंग्रेज़ों और मुसलमानों के भी आने से पहले, बनाए गए ‘धर्म-सम्मत’ ‘पारंपरिक’ नियम-कानूनों में एक सीमित दायरे में रहते हुए जीवन-यापन करने को बाध्य किया गया हो, चाहे उससे उनके सामने भुखमरी की नौबत ही क्यों न आये, वे किसी भी हाल में अपना काम या व्यवसाय नहीं बदल सकते | तब उनके सामने अपने बच्चों का पेट भरने के लिए संसाधनों के अभाव में अपराध का रास्ता अपनाने के अलावा और कौन-सा विकल्प शेष बचता है ?

राजपूतों का इतिहास पढ़ते हुए हम अक्सर यह पाते हैं, कि चौथी-पाँचवीं सदी से जो विदेशी जातियाँ (शक, हूण, कुषाण, जाट, गुर्जर, आभीर आदि) भारत में आईं और यहीं बस गईं, उनके दो हिस्से थे—एक हिस्सा वह जो योद्धाओं का था, जिसने राजपूती-इतिहास निर्मित किया और समाज की तथाकथित ‘मुख्यधारा’, अर्थात् सशक्त और वर्चस्वशाली समाज, में शामिल हो गए | इन्होंने सत्ता भी हासिल की, भूमि और संपत्ति भी अर्जित किए और भारत के पहले से कमज़ोर वाशिंदों पर अपना वर्चस्व भी स्थापित किया…! क्यों और कैसे…? …यह इतिहास के गलियारे की बात हो जाएगी… इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं…

…इन्हीं विदेशी आगंतुक जातियों का दूसरा हिस्सा वह था, जो अपने इन योद्धाओं के लिए संसाधनों का निर्माण एवं उसकी व्यवस्था करता था, जैसे हथियार बनाना, बर्तन-भांडे बनाना, कपड़े बनाना, जानवर पालना आदि | और जैसाकि हर समाज में होता है, यहाँ भी ऐसे वास्तविक श्रम करनेवाले वर्ग को पहले से ही कोई अहमियत नहीं मिलती थी | और जब भारत में अपने समुदायों के साथ इनका आना हुआ, तो यहाँ की सामाजिक-संरचना में इनको ढालने के क्रम में इनके लिए कई ऐसी व्यवस्थाएँ सामाजिक एवं धार्मिक रूप से की गईं, जिनसे इनको हमेशा के लिए उनकी उसी स्थिति में बनाए रखा जा सके, ताकि वे कम से कम अपने समुदाय के मालिकों के लिए सदैव उत्पादन-कार्य करते रहें | इसके लिए इनके काम को धर्म एवं परंपरा की बेड़ियों से बाँधा गया |

…इनकी बेड़ियों को और उसकी कसावट को यदि महसूस करनी हो, तो आप उनकी परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं के बारे में पूछकर देखिए… आपको बहुत सारी दिलचस्प बातें जानने को मिलेंगीं | इन समुदायों में से कोई अपने को महाराणा प्रताप का वंशज कहेगा, तो कोई पृथ्वीराज चौहान का…तो कोई किसी और का…! …आप उनकी जीवन-शैलियों को ध्यान से देखिए, वे क्या खाते हैं… और क्यों…? वे क्या पहने हैं… और क्यों…? जीवन-शैली क्या है…? इत्यादि…

…इनमें से कई लोग आपको बताएँगे, कि उन्हें पूर्वजों का श्राप मिला है, कि वे कभी एक जगह स्थिर होकर नहीं रह सकते…| आप उन श्रापों के कारण को पूछकर देखिए… वह भी बहुत दिलचस्प होंगे…! उनके समाज में से कई ऐसे लोग होंगे, जो किसी भी हाल में चारपाई या बेड पर नहीं सोएँगे, चाहे कड़ाके की सर्दी हो, या बारिश से जमीन गीली हो गई हो, अथवा ठंढ लगने से कोई बीमार हो गया हो…! आप उसका कारण पूछकर देखिए…! पुनः आपको किसी न किसी श्राप की कहानी सुनाई जाएगी…! बस आपको यह पता नहीं चलेगा, कि किसने श्राप दिया और क्यों…! इसी प्रकार चोरी करने, अखाद्य खाने (जिसपर एक ठीक-ठाक-सी बातचीत संगीता से संबंधित पिछले आलेखों में हुई है), नौकरी या दूसरा कोई व्यवसाय न करने के बारे में भी आपको श्राप और धार्मिक परम्पराओं की कई दिलचस्प कहानियाँ और मान्यताएँ सुनने को मिलेंगीं…!

…ऐसे में संदेह होना लाज़िमी है, कि संगीता फ़रासी के ये छोटे-छोटे प्रयास कौन-सा परिवर्तन ला सकते हैं…? सदियों से कठिन बंधनों में जकड़े समाज को किस प्रकार इन छोटी-छोटी कोशिशों से उनके बंधनों से बाहर लाया जा सकता है…? समस्या तो वाकई गंभीर है और चुनौती सचमुच में किसी असंभव को संभव बनाने के जैसी है…!

लेकिन सवाल तो यह भी उठता है, कि क्या तब केवल इस कारण हाथ पर हाथ धरे बैठा जाय, कि चुनौती बड़ी या अति-कठिन है…? क्या केवल इसलिए शुरुआत न की जाय, कि बदलाव की सम्भावना निकट-भविष्य में दिखाई नहीं देती…? संगीता इसे नकारती हैं…! उनका स्पष्ट मत है, कि “समस्या जितनी बड़ी और जितनी गंभीर होती है, उसपर उतनी ही शीघ्रता से एवं उतनी ही मात्रा में मेहनत करने की ज़रूरत होती है…!”

…अब इन मीलों लम्बी श्रापों की श्रृंखला, सदियों तक फ़ैले धार्मिक-विश्वासों एवं पीढ़ियों तक ढोई जाती रही सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं के बीच पलनेवाले ये ख़ानाबदोश बच्चे…! संगीता फ़रासी के लिए कितनी बड़ी चुनौती रही होगी, इन बच्चों को सदियों से चली आती परम्पराओं, धार्मिक आचार-विचारों एवं श्रापों से बाहर निकाल पाने में…? कितना मुश्किल होता होगा, परम्पराओं के सहारे और उन्हीं के लिए ही जीवन जीने के आदी माता-पिता को लीक से हटकर चलने के लिए मना पाना…?

ऐसे में इस अध्यापिका की कोशिश किसी ‘भगीरथ-प्रयास’ से कम तो कत्तई नहीं होगी…! अपराध और भीख मांगने को ही अपनी नियति मानने-जानने, और अपने ही माता-पिता द्वारा उसी में इनका भविष्य देखने के आदी इन बच्चों में ‘स्वाभिमान’ और ‘श्रम के सम्मान’ के प्रति विश्वास और आस्था जगाना कितनी कठिन चुनौती रही होगी, इसका मूल्यांकन वही कर सकता है, जो ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए उनसे दो-दो हाथ करता हो…! संगीता को न केवल उनके माता-पिता की पारम्परिक मानसिक स्थिति से ही जूझना पड़ा होगा, बल्कि धर्म से भी लड़ना पड़ा होगा, सामाजिक-मान्यताओं और परम्पराओं से भी दो-दो हाथ करने पड़े होंगे…|

लेकिन कहते हैं ना… जहाँ चाह वहाँ राह…! तो उन्होंने भी अपनी कोशिशों में कोई कमी नहीं आने दी, अपने धैर्य और विश्वास को कभी डगमगाने नहीं दिया, अपनी क्षमताओं पर कभी संदेह नहीं किया…! मंजिल को तो उनके सामने आना ही था… वह भी हाथ बाँधकर… नतमस्तक होते हुए…!

वर्त्तमान समय में उनकी कोशिशों का ही नतीजा है, कि उनका एक ‘बच्चा’ अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है और श्रीनगर में ही बैग, पर्स, आदि में चेन लगाने का काम करता है…! शेष कई बच्चे भी स्वावलंबन एवं आत्म-निर्भरता की ओर अपने क़दम बढाने को आतुर हैं…

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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3 thoughts on “संगीता कोठियाल फ़रासी

  1. अध्यापिका के रूप में संगीता जी विद्यालय तक सीमित नहीं है। वह उन बच्चों तक शिक्षा को पहुँचा रही है जो शिक्षा की कल्पना से भी दूर रहते है। संगीता जी के कार्य व उनके प्रयास प्रशंसनीय हैं ।

  2. ईश्वर की अवधारणा कुछ ऐसे ही लोगों से जिंदा हैं। जो दूसरों के बारे में सोचते है और उस सोच को अपने कर्मो में उतारते है।आपके कृत्यों को सलाम।।

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