भाग-दो :- बच्चे, भाषा और शिक्षा
एक समृद्ध एवं सक्षम भाषा किसी व्यक्ति, समाज एवं देश के जीवन में क्यों आवश्यक है? साथ ही, अपनी भाषा को समय के साथ निरंतर समृद्ध एवं सक्षम बनाते चलना भी क्यों आवश्यक है? इन प्रश्नों का उत्तर इस तथ्य में छिपा है कि कोई भाषा किसी व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के जीवन में क्या भूमिका निभा सकती है या निभाती है? इसे समझना हो तो भाषाओँ के इतिहास को देखना-समझना चाहिए, जहाँ भाषाएँ अनेक स्थानों पर एक-दूसरे को विस्थापित करते हुए स्वयं को स्थापित करने की कोशिश में दिखाई दे रही हैं, तो कहीं-कहीं वे एक-दूसरे के सान्निध्य में एक-दूसरे को समृद्ध करती हुई आगे बढ़ रही हैं |
हमारे देश के ही नहीं दुनिया के तमाम देशों एवं समाजों-संस्कृतियों के इतिहास से लेकर वर्तमान समय में भी अनेक शक्तिशाली भाषाओँ का राज्याश्रय पाकर लम्बे समय तक वर्चस्व स्थापित होना, फिर धीरे-धीरे उनका पतन के गर्त में समाते चले जाना, उन समृद्ध एवं राज्य-पोषित भाषाओँ की लाशों पर बहुत ही मामूली एवं नामालूम-सी भाषाओँ का जन-समाज के बीच से बवंडर की तरह उठकर संस्कृतियों के आकाश पर आँधी की तरह छा जाना… अपने आप में बहुत-सी कहानियाँ कहता है, बहुत-से किस्से सुनाता है; जनता के अपने संघर्षों और शासकों द्वारा उनके दमन, उस दमन की पराजय एवं कमज़ोर जनता की जीत का इतिहास भी बयाँ करता है…!
वर्तमान आधुनिक युग में भारत-भूमि के भीतर केवल-और-केवल भाषा की भिन्नता के आधार पर अनेक राज्यों का बन जाना भी क्या उसी ‘सत्य’ एवं उन्हीं कथाओं की ओर इशारा नहीं करता है, जहाँ भाषाओँ का बहुत ख़ास महत्त्व हैं, जिसका संबंध संस्कृतियों की अपनी सुरक्षा एवं विकास से है, उनकी अपनी अस्मिता एवं अपनी पहचान से है?…
…इसलिए जब कोई शिक्षक अपने विद्यालय में विद्यार्थियों के साथ बच्चों की अपनी भाषा को लेकर काम करता है, तो यह तय है कि वह शिक्षक उक्त भाषा एवं उसके बोलनेवालों के संबंध में अनेक प्रकार के बहुस्तरीय प्रयास कर रहा है | उस प्रयास में उस भाषा के संरक्षण-संवर्द्धन की कोशिश तो है ही, साथ ही बच्चों में अपनी उस भाषा के प्रति रुझान विकसित करना, बच्चों को उस भाषा के प्रयोग का अभ्यस्त बनाना एवं उसके प्रति किसी भी हीनभावना से बच्चों को बाहर निकालना, उस भाषा की समस्त विशेषताओं, तमाम उतार-चढ़ावों, उसकी क्षमताओं आदि से बच्चों को परिचित कराने की कोशिशें भी शामिल होती हैं |
संदीप रावत…! गवर्नमेंट इंटर कॉलेज धद्दी घंडियाल, बड़ियारगढ़, टिहरी (उत्तराखंड) के रसायन-शास्त्र के प्रवक्ता; किन्तु अपनी गढ़वाली-भाषा के प्रति अत्यधिक प्रेम रखनेवाले | संदीप रावत वैसे तो उक्त विद्यालय में रसायन-शास्त्र के प्रवक्ता हैं, लेकिन उनका रुझान अपनी स्थानीय-भाषा ‘गढ़वाली’ की ओर कहीं अधिक है, इसलिए उनका काम भी इस दिशा में कई स्तरों पर दिखाई देता है | किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह भी उठता ही है और बार-बार उठेगा भी, कि अपने उक्त विद्यालय एवं विद्यार्थियों के प्रति बतौर रसायनशास्त्र के अध्यापक किस प्रकार की ज़िम्मेदारियाँ उन्हें दी गई हैं और वे उन ज़िम्मेदारियों को कैसे निभाते हैं या निभा रहे हैं | एक रसायनशास्त्र का अध्यापक बोरिंग या उबाऊ समझे जानेवाले इस पाठ्य-विषय के प्रति यदि अपने विद्यार्थियों में उत्सुकता, रूचि और पढ़ने की इच्छा जगा सके, तो यह कोशिश उस अध्यापक के अध्यापकीय कार्य की सफ़लता के रूप में चिह्नित की जाती है | इसलिए एक नीरस समझे जानेवाले विषय के प्रति उसके अध्यापकों की ज़िम्मेदारी कुछ अधिक होती हैं |
संदीप द्वारा इस संबंध में किए गए या किए जा रहे विशिष्ट कार्यों एवं कोशिशों के संबंध में बातचीत किसी और अंक में…
बहरहाल संदीप अपनी स्थानीय-भाषा के प्रति अति-लगाव रखते हुए अपने विद्यार्थियों को भी उस दिशा में प्रेरित कर रहे हैं | इसके माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति, भाषा एवं इतिहास से जोड़ने के लिए वे हर मुमकिन कोशिश करते हैं | कहने का तात्पर्य यह कि बच्चों को उनकी अपनी संस्कृति, परम्परा, ऐतिहासिक विशेषताओं आदि से परिचित कराने के लिए एवं उसके प्रति बच्चों के मन में सम्मान-भाव भरने के लिए भाषा को एक बेहतरीन माध्यम की तरह प्रयोग करने की क़वायद इस शिक्षक द्वारा की जा रही है |
इसके लिए वे विद्यालय में बच्चों से ख़ाली समय में गढ़वाली-भाषा में अनेक मुद्दों और विषयों पर छोटे-छोटे लेख या निबंध लिखवाने की कोशिश करते हैं; चाहे वह महिलाओं से संबंधित विविध मुद्दे हों, या अपनी संस्कृति से संबंधित विविध विषय, समाज का कोई मसला हो या अपनी संस्कृति से जुड़ा मुद्दा | इसके अलावा अपने आसपास पाए जाने वाले विविध क्षेत्रीय अनाजों (झंगोरा, कोदा) एवं उनके लाभों की जानकारी ही बच्चों को नहीं देते हैं, बल्कि प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर बच्चे उनके बारे में ख़ुद भी ख़ोजबीन करते हैं |
इस प्रकार की गतिविधियों का बच्चों के पढ़ने-लिखने से सीधा लाभ न भी हो, तो भी बच्चों में इस प्रकार की क़वायादों से अपने आसपास की अच्छी जानकारी हो जाती है | बच्चे अपने निवास-स्थान के आसपास पाए जानेवाले अनाजों, पशु-पक्षियों, जीव- जंतुओं, पेड़-पौधों, विविध कीट-पतंगों आदि के बारे में जिज्ञासु होकर खोजबीन शुरू कर देते हैं | और क्या जाने यह क़वायद एक दिन इन्हीं बच्चों में से कोई जीव-विज्ञानी ढूँढ निकाले, तो किसी को वनस्पति-वैज्ञानिक बना दे; या इनमें से कोई सामाजिक-कार्यकर्ता बन जाए या कोई बच्चा बहुत बेहतरीन भाषाविद ही बन जाए अथवा कोई समाजशास्त्री; अथवा क्या जाने इन्हीं बच्चों में भविष्य का कोई कृषि-वैज्ञानिक ही छुपा हुआ हो, जो एक दिन उत्तराखंड का कायापलट कर दे…!
इसलिए जब संदीप स्कूल में बच्चों को गढ़वाली-भाषा के माध्यम से पढ़ाने का या कुछ विशिष्ट प्रयोग करने की कोशिश करते हैं, तो उन कोशिशों एवं क़वायदों में अनेक छुपी हुई सम्भावनाएँ स्पष्ट नज़र आती हैं | जब वे बच्चों को उनके घर के आसपास की जानकारी इकट्ठी करके लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तो निश्चित रूप से बच्चे इस कोशिश में चीजों को बारीकी से देखना सीखते हैं, और इस ‘देखने’ में बच्चे अपनी आँखों से देखी जाने वाली उन वस्तुओं, घटनाओं, तथ्यों आदि में बहुत-सी ऐसी बातों को भी देखने-जाँचने लगते हैं, जो उनके सामान्य पाठ्यक्रम में शामिल नहीं होती हैं | और जब उन बच्चों के शिक्षक आसपास के वातावरण से उनकी पुस्तकों के पाठों को जोड़कर आसपास की जानकारी को एक प्रामाणिकता प्रदान करते हैं, तो बच्चे सहजतापूर्वक अपनी विद्यालयी-शिक्षा से अपने समाज और उसकी तमाम बातों, विशेषताओं, घटनाओं आदि को जोड़ने की कोशिश करते हुए शिक्षा के महत्त्व को समझ पाते हैं, शिक्षा का समाज से सीधा संबंध को देख भी पाते हैं और समाज की विभिन्न समस्याओं पर स्वतन्त्र रूप से चिंतन भी करना सीख पाते हैं |
और जब बच्चों को विभिन्न विषयों से संबंधित लेख, कविताएँ, निबंध, संस्मरण आदि लिखने को प्रेरित किया जाता है, तो बच्चे इससे स्वतन्त्र रूप से चिंतन करने की ओर बढ़ते हैं एवं उस चिंतन से प्राप्त होनेवाले अपने अनुभवों, विचारों एवं अपनी समझ को लिखित रूप में अभिव्यक्त करना भी लगातार सीखते हैं | इसका प्रमाण है संदीप के विद्यालय के बच्चों की विविध रचनाओं (लिखित) का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना…! और कौन जाने यह कोशिश एक दिन कुछ नए रचनात्मक लेखक ही समाज को दे दे…!
…और जबकि हम सब जानते हैं कि भाषा वह माध्यम है, जिसके द्वारा हम अपने विचारों और भावनाओं को, अपने मन-मस्तिष्क के वैचारिक उथल-पुथल को, तर्कों को, मन के उद्गारों को, भावनात्मक गहराइयों को दूसरों तक पहुँचाते हैं और दूसरों की भावनाओं एवं विचारों को समझने की कोशिश करते हैं | तब अपनी भाषा को जानने-समझने की कोशिश करना एवं उसे अपनी शिक्षा में प्रयोग करना बच्चे को न केवल अपनी भाषा के नज़दीक ले जाता है, बल्कि अपनी भाषा की तमाम गहराइयों, खोहों और खाइयों को जानने का अवसर भी देता है | जब बच्चा अपनी भाषा को जानने की प्रक्रिया में उसमें प्रयुक्त मुहावरों, लोकोक्तियों, शाब्दिक उतार-चढ़ावों, व्याकरणों आदि में व्यक्त हो रहे तथ्यों से उसके ऐतिहासिक संघर्षों को समझने लगता है तो उसे पता चलता है कि उसकी अपनी संस्कृति ने कहाँ-कहाँ और कितने संघर्ष किए; कहाँ वह पराजित हुई और कहाँ विजयी; कहाँ उसने ऐतिहासिक भूलें कीं और कहाँ उसने शक्तियाँ अर्जित कीं; किसने उसका दमन किया और स्वयं उसने भी किनका दमन किया; अपनी संस्कृति के भीतर भी उसका अपने ही लोगों (विशेषकर बच्चों, महिलाओं, वंचित-वर्गों, गरीबों, विकलांगों, लाचारों आदि के साथ) के प्रति क्या व्यवहार रहा है…!
यही कारण है कि प्राचीनतम काल में यूरोप एवं पश्चिम एशिया तथा मध्य एशिया में अपनी सत्ता रखती हुई लैटिन-भाषा एवं उससे निकली विविध भाषाओं के अध्ययन में हम उन तमाम संस्कृतियों के परस्पर संघर्ष को ही नहीं देखते हैं, बल्कि शमन-दमन का क्रूर खेल और उससे बचने की क़वायद करती स्थानीय भाषाओँ को लगातार शक्तिशाली होते भी देखते हैं | और ऐसा ही हम भारत में भी संस्कृत एवं अन्य भाषाओँ के संबंध में भी देखते हैं |
तब क्या यही कारण नहीं रहा है कि जब कोई समाजशास्त्री किसी समाज या उसकी संस्कृति को समझने की कोशिश करता है, तो वह उसकी भाषा को एवं उस भाषा की प्रकृति-प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करता है? शायद इसीलिए किसी ने कहा है कि जब कोई व्यक्ति किसी भाषा पर अपनी पकड़ जितनी अधिक मजबूत बनाता है, वह उस भाषा के बोलनेवालों की संस्कृति, विकास-यात्राओं एवं इतिहास को उतने ही बेहतर ढंग से समझ पाता है | यही कारण है कि हर जागरूक समाज और उसकी संस्कृतियाँ अपनी भाषा को लेकर बेहद ही संवेदनशील होती हैं; उसकी रक्षा, संवर्द्धन एवं समय के साथ उसके समायोजन को लेकर बहुविध प्रयोग एवं प्रयास करती हैं, ताकि वह भाषा लम्बे समय तक अपना अस्तित्व एवं महत्त्व बनाए रख सके |
…इसलिए बतौर एक अध्यापक जब संदीप रावत अपनी स्थानीय भाषा ‘गढ़वाली’ को लेकर लगातार चिंतित एवं उसके संवर्द्धन के लिए प्रयत्नशील होते हैं, तो उनका काम स्वयं ही अपनी महत्ता बताने लगता है | और जैसाकि ऊपर ज़िक्र हुआ है, इसके लिए वे विद्यार्थियों को उनके अपने आसपास के वातावरण से जोड़ने की कोशिश करते हैं, तो यह कोशिश प्रकारांतर से अनेक दिशाओं में अपने-आप ही अपना विस्तार करती हैं | बच्चों को अपने आसपास को बारीक़ी से समझने के साथ-साथ चीजों को एक अन्वेषक की दृष्टि से देखने की भी आदत पड़ जाती है, जो बच्चों को एक स्वाभाविक जिज्ञासु-शोधार्थी में परिवर्तित कर सकती है | अपनी कोशिशों को विस्तार देते हुए संदीप विद्यालयी गतिविधियों में शामिल सरस्वती-वंदना का सहारा भी लेते हैं और सांस्कृतिक-कार्यक्रमों का भी | इसका प्रभाव यह पड़ा है कि बहुत पहले जब वे एक बार अपने विद्यालय में सरस्वती वंदना करवा रहे थे, तभी वहाँ ईटीवी वाले आए और बच्चों की संगीतमयी प्रार्थना उनको इतनी अच्छी लगी, कि उन्होंने उसे रिकॉर्ड कर लिया एवं उसे अपने चैनल पर प्रसारित किया | इसने उत्तराखंड के कम-से-कम गढ़वाल मंडल के अनेक अध्यापकों को प्रेरित किया और उन्होंने भी अपने-अपने विद्यालयों के लिए अनेक तरह की ‘सरस्वती-वन्दनाएँ’ लिखनी शुरू की और उसे अपने विद्यालयों में संगीत के साथ प्रयोग करना शुरू किया | और यह क्रम आज भी ज़ारी है |
इसी क्रम को ज़ारी रखते हुए पिछले साल से लगातार चल रहे लॉकडाउन के दौरान भी संदीप निरंतर सक्रिय रहे हैं | इसी सक्रियता का निर्वहन करते हुए विद्यालय में प्रयोग के लिए उन्होंने सरस्वती-वंदना के उद्देश्य से एक गीत ‘तेरु शुभाशीष’ लिखा | वह गीत अन्य विद्यालयों तक ले जाने के उद्देश्य से डाइट (टिहरी) ने न केवल पसंद किया, बल्कि उसकी धुन भी संदीप से तैयार करवाकर उसे गीत के रूप में परिणत/रिकॉर्ड किया है | इस गीत को अध्यापकों ने ही स्वर दिया है | कुछ ऐसी ही कहानी संदीप द्वारा संचालित विद्यालयी सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के संबंध में भी बार-बार दोहराई जाती है |
हालाँकि मैं इस बात से व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूँ कि विद्यालयों में पूजा-प्रार्थना या धार्मिक गतिविधियों को लेकर इतना अधिक काम किया जाए, कि उन गतिविधियों के पैरों के नीचे बच्चों की वास्तविक शिक्षा दम तोड़ने की कगार पर पहुँच जाए, या बच्चों की अपनी पढ़ाई कहीं पीछे छूट जाए | क्योंकि मैं स्पष्ट रूप से एवं पूरी दृढ़ता के साथ इस बात पर कायम हूँ कि विद्यालय का काम बच्चों के विचारों की तमाम खिड़कियों को खोलना ही होना चाहिए, न कि किसी भी रूप में उनको संकीर्ण बनाना; विद्यालय का सबसे पहला और सबसे जरूरी काम है विद्यार्थियों में स्वतन्त्र-चिंतन की क्षमताएँ विकसित करना | और यदि कोई विद्यालय या अध्यापक अपने विद्यार्थियों के भीतर बहुत अधिक धार्मिक-आस्था भर दे, किन्तु उसकी चिंतन-प्रक्रिया को माँज न सके, बच्चों को स्वतन्त्र रूप से सोचना न सिखा सके, विविध संवेदनात्मक-मानवीय कलाओं को सुन्दर कल्पनाओं की उड़ान भरना न सिखा सके, बच्चों को समाज के सभी लोगों एवं समस्त जीव-जगत के प्रति संवेदनशील एवं भावुक न बना सके, तो धार्मिक-गतिविधियाँ किस काम की? विद्यालय का पहा कर्तव्य है बच्चों को सह-अस्तित्वपूर्ण जीवन जीने के लिए उनमें सांविधानिक-मूल्यों का विकास करना | और इस दिशा में जो भी विद्यालय प्रयास करता है, इतिहास उसे सदैव आदर-सहित याद करता और रखता है; ‘तोत्तोचान’ और ‘पहला अध्यापक’ इसके सबसे सुन्दर उदाहरण हैं; …क्या नहीं…?
और शायद इस बात को समझते हुए ही संदीप कुछ सधे ढंग से इस दिशा में बच्चों को ले जाने की कोशिश करते हैं और अति में जाने से बचते हैं | वैसे भी बेहद शांत, स्थिर एवं मृदुल स्वभाव के संदीप में ये संतुलन तो स्वाभाविक ही है, जैसे यह उनके व्यक्तित्व में घुलकर ही उनको मिला हो जैसे दूध में मिस्री |
संदीप रावत अपने दो क्षेत्रों —अपना अध्यापकीय विषय ‘रसायनशास्त्र’ एवं अपना प्रिय क्षेत्र ‘गढ़वाली-भाषा’— में जो कार्य कर रहे हैं, वे उनकी कर्तव्य-निष्ठता के प्रति उनकी निष्ठा, लगन, परिश्रम एवं समर्पण को ज़ाहिर कर रहे हैं | अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बतौर एक रसायनशास्त्र के अध्यापक उनके कार्य एवं प्रभाव कैसे और कितने हैं… जिसपर अगले लेख में बात होगी…! तब तक इंतज़ार ही शेष है…
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
संदीप भाई बहुत अच्छे साहित्यकार, गीतकार व अध्यापक हैं.
प्रेरक..!
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मैडम जी..
थोड़ा सा कोशिश भर है मेरी🙏