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बातें कही-अनकही…

भाग-चार : बंजारे बच्चों को उनकी मंजिल की ओर ले जाने की कोशिश

कहते हैं कि प्रत्येक बच्चे में कुछ ऐसी विशेषताएँ अवश्य होती हैं, जिनको यदि समय रहते पहचानकर उसका परिष्कार किया जाए, तो उन विशेषताओं से संपन्न होकर वह बच्चा अपने आप में एक विशिष्ट व्यक्ति या नागरिक बनता है, उसका लाभ समाज और देश को मिलता है | लेकिन यदि उसकी ख़ूबियों को जानते हुए भी उसको अवसर न दिया जाए, तो उसकी क्षमता और योग्यता कभी बाहर आ ही नहीं पाती है, वह केवल किसी तरह जीवन-यापन तक रह जाता है |

सम्पूर्णानन्द जुयाल (अध्यापक राजकीय प्राथमिक विद्यालय, ल्वाली) ने जिन छः बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी ली है, उनमें नीलम (14-15 साल), आशु (12-13 साल), ख़ुशी (10-11 साल), शिवा (8-9 साल), शिवानी (6-7 साल), करन (4-5 साल) है और हाँ, इन सबसे एक छोटी बहन और भी है— मोहिनी (2-3 साल), जो अभी अपने भाई-बहनों को पढ़ते-लिखते और चित्र बनाते देख शिशु-सुलभ उत्साह से किलकारती हुई उनके बीच घूमती रहती है और क़िताबों, कॉपियों आदि को छू-छूकर उनकी ख़ुशबू को महसूसती हुई भविष्य की विद्यार्थी बनने की ओर अग्रसर है | सम्पूर्णानन्द उन सभी बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक मानते हैं, जिसके लिए कई स्तरों पर कोशिश की ज़रूरत होती है |  

सम्पूर्णानन्द से संबंधित पिछले आलेख में यह बात आई थी कि किस प्रकार उन्होंने उन बच्चों के पिता को उनकी ‘जातीय-परम्परा’ के विरुद्ध देखी जानेवाली उनकी पढ़ाई को शुरू करने के लिए मनाया और फिर सभी बच्चों के लिए प्लास्टिक की रंग-बिरंगी कुर्सियाँ, ह्वाइट बोर्ड, मार्कर, डस्टर, चित्र बनाने के लिए रंग, क्राफ्ट सीखने-सिखाने के लिए रंगीन कागज और दूसरी अन्य कई चीजें ख़रीदकर बच्चों के साथ काम शुरू किया | बच्चे अपनी पढ़ाई और अनेक तरह की कलाओं से संबंधित गतिविधियाँ अपनी-अपनी पसंद के अनुसार करने लगे हैं | राजकीय प्राथमिक विद्यालय, ल्वाली के विद्यार्थियों के रूप में इस समय बच्चों की पढ़ाई और उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं का विकास यथासंभव ज़ारी है | सभी बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला में भी भरपूर रूचि ले रहे हैं |

इस समय सम्पूर्णानन्द वंचित एवं कमज़ोर समाज के इन बच्चों के माध्यम से अनेक प्रचलित मिथकों एवं भ्रांतियों को तोड़ने में प्रयासरत हैं, समाज को कुछ नई दिशाएँ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ नए मुहावरे गढ़ रहे हैं…

…पढ़ाई करनेवाले छः बच्चों में सबसे बड़ी बेटी नीलम और चौथे बच्चे करन ने सबसे पहले पढ़ाई में अपनी रूचि दिखाई और उसके लिए कोशिश शुरू की | उसके बाद दोनों बच्चों ने अपने अन्य भाई-बहनों को प्रेरित किया और उनकी भी रूचि जागने पर वे अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार पढ़ने में उनकी मदद करने लगे, जिसमें उनके अध्यापक सम्पूर्णानन्द की लगातार कोशिश तो है ही | इस दौरान शिक्षक की कोशिशों से इन बच्चों में चित्रकला को लेकर भी अच्छी-ख़ासी रूचि पैदा हो गई और बच्चे ख़ूब दिल लगाकर अपनी पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला का भी अभ्यास करने लगे, जैसाकि बच्चों की प्रवृत्ति और ख़ासियत होती ही है | उनमें भी 8-9 साल के शिवा की चित्र बनाने में रूचि का कहना ही क्या !

एक और बात, जिसका उल्लेख बेहद ज़रूरी है… अपने जन्म से ही बेहद विषम परिस्थितियों को देखने, झेलने और जीने वाले ये बच्चे जिस हद तक आत्म-विश्वास से भरे रहते हैं, वह अभूतपूर्व है | यही आत्म-विश्वास सामान्य घरों में लाड़-प्यार, सुविधाओं और बेहद सुरक्षात्मक वातावरण में पलनेवाले बच्चों में अक्सर नहीं दिखाई देता है | ज़ाहिर है, जो बच्चे ‘पलंग पीठ तजि गोद हिंडोला’ वाला जीवन जीते हैं, वह उन तमाम अनुभवों से वंचित होते हैं, जो वंचित, कमज़ोर और साधनहीन परिवारों के बच्चे अपनी अभावग्रस्तता के कारण अनचाहे ही अपने शैशवावस्था से ही प्राप्त करने लगते हैं | यही कारण है कि सुविधाओं में पले बच्चे ज़रा-सी समस्या आने पर परेशान हो जाते हैं, जबकि सुविधाहीन जीवन जीते ये बच्चे उन समस्याओं को कब मात दे देते हैं, यह तो उनके घरवालों को भी बाद में पता चलता है |

…वैसे यदि बच्चों के मामले में आत्म-विश्वास को उसके उच्चतम स्तर में देखना हो, तो सड़कों पर भिक्षावृत्ति करनेवाले बच्चों में देखना चाहिए, जिन्हें ज़िंदगी उस हालात में पहुँचा चुकी होती है, कि यदि उनका आत्म-विश्वास ख़त्म, तो उनकी ज़िंदगी भी प्रायः ख़त्म…| वे केवल अपने आत्म-विश्वास और उससे ही जनित दुस्साहस की बदौलत क्रूर दुनिया का सामना करते हुए जीते हैं, जो उनके जीने की शर्त बन चुकी होती है…

…समस्या बस यही है, कि इन बच्चों के उस आत्म-विश्वास के पास सही दिशा का अक्सर ही अभाव होता है, जोकि शिक्षा की कमी के कारण होता है | कई बार सोचती हूँ कि यदि समाज के सभी बच्चों को पढ़ने-लिखने एवं आगे बढ़ने के अवसर समान रूप से दिए जाएँ और इसके साथ ही साधन-संपन्न घरों के बच्चों को भी इन्हीं बच्चों के साथ शिक्षा प्राप्त करने दिया जाए; और उस शिक्षा की प्रक्रिया में ही जीवन में आने वाली छोटी-छोटी चुनौतियों को उन्हें स्वयं ही समझने, उनका सामना करने, उनका समाधान निकालने एवं स्वयं ही उन्हें हल करने के लिए स्वतन्त्र छोड़ दिया जाए और निगरानी तनिक दूर से की जाए, बजाय इसके कि लाड़लों-लाड़लियों को तनिक-सी भी ख़रोच लग जाने पर माता-पिता हाय-तौबा मचाने लगें; तो निश्चित रूप से समाज के सभी बच्चों के भीतर न केवल भरपूर आत्म-विश्वास विकसित होगा, बल्कि उनके आत्म-विश्वास को सही-सार्थक दिशा भी मिल सकेगी, एक-दूसरे के सान्निध्य में बच्चे अधिक मानवीय और लोकतान्त्रिक बनेंगे, सो अलग |

लेकिन समस्या तो दरअसल ठीक यहीं पर है, शक्तिशाली वर्चस्ववादी तबका यह कत्तई पसंद नहीं करता कि समाज में समानता आए, उनके अपने ही बच्चे लोकतान्त्रिक और संवेदनशील बनें | क्योंकि तब उनके समाज का पीढ़ियों से संचित ‘श्रेष्ठता-भाव’ और समाज पर उनके वर्चस्व का क्या होगा? वह समाज कत्तई नहीं चाहता कि समाज पर उनका शासन और वर्चस्व कभी भी समाप्त हो और जो लोग कल तक उनकी ठोकरों में पड़े उनके सामने रिरियाते रहते थे, वे ही लोग उनके बराबर में आकर खड़े हों जाएँ | इसके लिए अपने बच्चों में भी उन्हीं वर्चस्ववादी ‘मूल्यों’ और ‘संस्कारों’ को भरना ज़रूरी है, जो स्वयं अपने भीतर पीढ़ियों से उन्होंने संचित किया है; न कि समानता, बंधुत्व, संवेदनशीलता और लोकतान्त्रिक मूल्यों को उनके बच्चों में भरकर उन्हें अपनी ‘परम्परा’ के विरुद्ध जाने दिया जाए | तभी तो उनके बच्चे भी उनकी ‘जातीय-सत्ता’ को सहर्ष कायम रखने की क़वायद में स्वेच्छा से प्रयासरत होंगे !

इसलिए वह वर्चस्ववादी तबका अपना चेहरा चमकाने और अपनी ‘महानता’ एवं ‘दयालुता’ की स्थापना-मात्र के उद्देश्य से दिखावे-भर के लिए जितना ज़रूरी हो, उतना ही लोकतांत्रिकता प्रदर्शित करता है और उसके बाद पुनः अपनी वास्तविक खोल के भीतर चला जाता है | इसका खामियाज़ा स्वयं उनके अपने बच्चे भी भुगतते हैं, अन्य चीजों के साथ-साथ आत्म-विश्वास की कमी के रूप में भी | इसलिए अपने से कमज़ोर लोगों के सामने तो उनका आत्म-विश्वास दिखता है, किन्तु जैसे ही उनसे अधिक सक्षम व्यक्ति सामने आता है, उनका आत्म-विश्वास जवाब देने लगता है |

हालाँकि ऐसे में तब भी अपनी सामाजिक बढ़त और साधन-सम्पन्नता के बल पर उनका जीवन आसान होता है और वे समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी मज़बूत स्थिति बनाए रखते हैं | लेकिन जहाँ तक वंचित, कमज़ोर और साधनहीन समाज की बात है, तो वे अपनी साधनहीनता के बावजूद इसलिए बचे और बने रह पाते हैं, क्योंकि परिस्थितियों से वे न केवल जूझना जानते हैं बल्कि विपरीत हालात से लड़ते-लड़ते उनके भीतर जो आत्म-विश्वास विकसित होता है, वह उनके लिए कर्ण के कवच-कुंडल की तरह उनकी रक्षा करता है…

…और उन बंजारे बच्चों में भी ऐसा ही आत्म-विश्वास मौजूद है, जो परिस्थितियों की देन है | उसे ज़रूरत है, तो एक सही दिशा की, जो उनके भविष्य का निर्धारण करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाए | तब दिशा देने की ज़िम्मेदारी भी सम्पूर्णानन्द को ही उठानी थी, उनके अध्यापक होने के नाते | इसके लिए अनेक तरह के उपाय वे करते हैं, जिनमें से एक उपाय है, मौक़ा मिलने पर बच्चों को बाहर की दुनिया दिखाना और वहाँ यदि संभव हो, तो अनेक छोटे-बड़े मंच उपलब्ध कराना |

ऐसा ही एक मौक़ा था दिसम्बर 2020 में आयोजित विद्यालय प्रबंधन समिति (स्कूल मैनेजमेंट कमेटी) की दो दिवसीय मीटिंग का, जो सीआरसी (क्लस्टर रिसोर्स सेंटर) ल्वाली में आयोजित हुई थी | संकुल स्तर पर आयोजित होनेवाली SMC के सदस्य-अध्यापकों की यह मीटिंग दरअसल स्कूलों में पढ़ाई की स्थिति पर विचार-विमर्श के लिए होती है | इन बंजारे बच्चों के लिए यह मीटिंग इसलिए ख़ास थी, कि यहाँ सम्पूर्णानन्द के उन छः घुमंतू बच्चों में से कुछ बच्चे उनके साथ वहाँ गए थे, दुनिया देखने के उद्देश्य से |

वहाँ मौक़ा मिलने पर 8-9 वर्षीय बालक शिवा ने अपनी चित्रकला का जो हुनर दिखाया, उसे देख सबने दाँतो तले उँगली दबा ली | किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि साधनहीन समाज का इतना छोटा बच्चा इतनी कम आयु में इतना सक्षम हो सकता है | तब बच्चे के काम की सराहना करते हुए वहाँ आए अध्यापकों ने बच्चे को प्रोत्साहन के रूप में दो सौ रुपये भी दिए | इस पुरस्कार को पाकर उस बच्चे की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था | पहली बार उसके शिक्षा से जुड़े काम (बच्चों की कलात्मक गतिविधियाँ उनकी शैक्षणिक गतिविधि का ही हिस्सा समझी जाती हैं) को पहचान और सम्मान, दोनों मिले थे |

यहाँ उस बच्चे का आत्म-विश्वास देखने लायक था, बच्चे ने बिना कहीं से देखे अपनी कल्पना और याददाश्त-क्षमता के बल पर ह्वाइट-बोर्ड मार्कर से बाघ, गाँव, लड़की, खेत आदि के चित्र बनाए | चित्र बनाते हुए बच्चे की एकाग्रता, तन्मयता और अपने ऊपर विश्वास देखने लायक थे | बड़ों की उपस्थिति ने बच्चे की एकाग्रता को कहीं भंग नहीं किया, न बच्चा उससे झिझका, न डरा | बल्कि वह निरंतर अपने-आप में डूबा हुआ चित्र बनाने में मशगुल था |

यही आत्म-विश्वास सामान्य साधन-संपन्न घरों के बच्चों में देखने को नहीं मिलता है | वहाँ आए अध्यापकों को बच्चे की कलात्मक-क्षमता के साथ-साथ उसकी योग्यता, एकाग्रता और आत्म-विश्वास अचंभित कर रहा था |

तब अध्यापकों और प्रिंसिपल के आग्रह पर सम्पूर्णानन्द ने जो बात कही, दरअसल वह क़ाबिले-गौर है—“…आत्म-विश्वास प्रत्येक बच्चे का नैसर्गिक गुण है, लेकिन हम अपने बच्चों को घर एवं विद्यालय, दोनों जगह इतने दबाव में रखते हैं, उनके किसी भी काम में इतने मीन-मेख निकालते हैं, उनको इतना अधिक रोकते-टोकते हैं, कि उससे बच्चे का अपने ऊपर विश्वास कम होता चला जाता है | …हमारे विद्यालयों में भी आपस में को-ऑर्डिनेशन नहीं है, हमारे विद्यालय अलग-अलग बंटे हुए हैं— कभी जाति के आधार पर, तो कभी क्षेत्र या संप्रदाय के आधार पर और कभी किसी और आधार पर | इसलिए हमारे विद्यालय आज बर्बाद हो रहे हैं, हमारे बच्चों का आत्म-विश्वास ख़त्म हो रहा है, उनके पास सही दिशा नहीं है…!”

इसी कार्यक्रम के दौरान एक अभिभावक ने प्रतिक्रिया दी—“जिन लोगों (बंजारे या अन्य वंचित समाज) के बच्चों को कोई छूता भी नहीं है, उसको आप आगे बढ़ा रहे हैं…” तब छूटते ही सम्पूर्णानंद ने कहा—“आप ख़ुद सोचो, इस बच्चे की जगह यदि आपका बच्चा होता, तो उसका इतना बेहतरीन परफॉरमेंस देखकर आपको कितनी ख़ुशी होती | ये भी तो किसी का बच्चा है | जब इसे कोई एक्पोजर नहीं मिला है, तो इसका प्रदर्शन इतना बढ़िया है; सोचो यदि इसे आगे बढ़ने और एक्सपोजर का बेहतर मौक़ा मिल जाए, तो ये क्या नहीं कर सकता | क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि इनको भी कुछ मौक़े दिए जाएँ?”

दरअसल हमारे समाज में कमज़ोर तबकों के प्रति जो बहुत सारी धारणाएँ प्रचलित हैं, उनमें से एक धारणा तो यह भी है कि ‘ये बच्चे या तो केवल माता-पिता का पुश्तैनी काम सँभालते हुए उनका हाथ बँटा सकते हैं अथवा पढ़ सके है | दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते | और यदि ये काम नहीं करेंगे, तो उनकी भोजन की ज़रूरत भी पूरी नहीं होगी | इसलिए इनके माता-पिता को समझाना मुश्किल होता है कि वे अपने बच्चों से काम करवाने की बजाय उनकी पढ़ाई को महत्त्व दें | इसलिए उनकी शिक्षा मुश्किल है |’

लेकिन सम्पूर्णानन्द ने यह स्थापित किया है कि यदि माता-पिता अपनी ग़रीबी एवं लाचारी के कारण बच्चों के काम करने को नहीं टाल सकते हैं, तब भी बच्चों को काम के साथ-साथ पढ़ाया भी जा सकता है, ये बच्चे इसका उदाहरण हैं, जो अपने पिता (इन बच्चों की माँ का निधन हो चुका है) की मदद भी करते हैं और अपनी पढ़ाई भी करते हैं | हालाँकि छोटी उम्र में बच्चों का काम करना दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन यदि माता-पिता की मज़बूरी को देखते हुए कोई विकल्प न हो, तो काम के साथ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए, तो भी सफ़लता मिल सकती है |

उस दो-दिवसीय कार्यक्रम के दौरान मिली अनेक प्रतिक्रियाओं और लोगों, ख़ासकर अध्यापकों की ओर से मिले प्रोत्साहन को देखते हुए सम्पूर्णानन्द मानते हैं कि इस छोटे से मौक़े के माध्यम से से समाज में यह सन्देश गया है कि ये बच्चे भी सामान्य घरों के बच्चों की तरह ही अनेक योग्यताओं और क्षमताओं से भरे हैं और यदि कोशिश की जाए, तो ये बच्चे भी ख़ूब पढ़ सकते हैं और समाज में बहुत बढ़िया काम कर सकते हैं और उनको भी आगे बढ़ने के मौक़े मिलने चाहिए |

इसी दौरान बच्चों को पुनः एक बार दिसम्बर 2020 में ही सीआरसी कालेश्वर में ले जाने का अवसर मिला, पुनः मौक़ा था SMC की मीटिंग का | उसके पास ही जीआईसी इंटर कॉलेज, कालेश्वर था, जहाँ के कुछ विद्यार्थी भी अपने शिक्षकों के साथ उस मीटिंग में आए थे | यहाँ भी बच्चे शिवा को अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौक़ा मिला, जिससे एक बार पुनः विद्यार्थी और शिक्षक भी बेहद प्रभावित हुए और प्रोत्साहन हेतु 300 का पुरस्कार भी मिला|

जब स्कूलों में बच्चों की शिक्षा की हालत के सम्बन्ध में विचार-विमर्श चल रहा था, तब सम्पूर्णानन्द के काम से प्रभावित वहाँ के प्रिंसिपल ने उनके इस प्रयास के संबंध में अपने अनुभव साझा करने और अपनी राय रखने का आग्रह किया | तब सम्पूर्णानन्द ने इंटर कॉलेज के बच्चों को संबोधित करते हुए कहा— “…आप विद्यार्थी अक्सर असुविधा और साधनों की कमी का रोना रोते हैं, लेकिन जब आप अपने जीवन का लक्ष्य बना लेंगे कि मुझे हर हाल में पढ़ना है, चाहे कुछ भी हो जाए, तो कोई भी असुविधा या संसाधनों की कमी आपका रास्ता नहीं रोक पाएगी | ये बच्चे (शिवा और उसके भाई-बहन की ओर संकेत करके) कोई सुविधा नहीं जानते, इनके पास जीने के लिए भी बहुत चीजें नहीं होती हैं | इनको तो पढ़ने के लिए ज़रा-सा प्रोत्साहन मिला और एकदम थोड़े से संसाधन मिले; लेकिन ये बच्चे जी तोड़ मेहनत करते हैं, अपने ऊपर विश्वास करते हैं, और सबसे बढ़कर सुविधाओं की कमी का रोना रोए बिना उसी संसाधन में अपना अधिकतम प्रयास करते हैं | यदि आप लोग भी ऐसा करो, तो आपको सफ़ल होने से कोई नहीं रोक सकता |”

इस कार्यक्रम का सुपरिणाम यह हुआ कि कालेश्वर इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल और दूसरे अध्यापक इन बंजारे बच्चों, ख़ासकर शिवा नामक बालक के काम से इतने प्रभावित एवं ख़ुश हुए कि जब उस कार्यक्रम के कुछ दिनों के बाद उन बच्चों के परिवार ने जनवरी-फ़रवरी 2021 में अपना पड़ाव दो महीने के लिए कालेश्वर में कॉलेज के नज़दीक ही डाला, तो अध्यापकों ने शिवा को पहचान लिया और बच्चों के पिता से एवं बच्चों से साग्रह कहा— “जब तक आपलोग यहाँ हैं, बच्चे हमारे कॉलेज आकर कॉलेज के प्रांगण में पढ़ाई कर सकते हैं, पढ़ने-लिखने और दूसरी शैक्षणिक गतिविधियों के लिए हम बच्चों को किताब-कॉपी और बाक़ी सामान भी देंगे और बच्चों की पढ़ाई में मदद भी करेंगे |” यह छोटी-सी बात वास्तव में सम्पूर्णानन्द के अब तक के परिश्रम एवं बच्चों की अपनी क्षमताओं के लिए एक अच्छी उपलब्धि थी, तो दूसरी ओर उक्त कॉलेज के अध्यापकों की एक सराहनीय पहल भी थी, जिसका स्वागत और प्रशंसा होनी ही चाहिए | सम्पूर्णानन्द अपने प्रयासों से जो नई पहल करने एवं नए विश्वास स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, उस दिशा में यह महत्वपूर्ण सफ़लता है |

उसी दौरान एक और अच्छी बात यह हुई कि एक दिन बच्चे जब यहीं पर उक्त इंटर कॉलेज के प्रांगण में अपनी पढ़ाई और चित्र आदि बनाने में व्यस्त थे, तो कुछ पत्रकारों की नज़र उनपर पड़ी, तब सम्पूर्णानन्द एवं उक्त कॉलेज के अध्यापकों की ये पहल समाज के सामने भी एक अंश में आई |

सम्पूर्णानन्द को अपनी मेहनत सफ़ल होती हुई तब पुनः दिखाई दी, जब बच्चों के पिता ने बताया–- “मुझे मेरे समुदाय के लोग अल्मोड़ा बुला रहे हैं, क्योंकि वहाँ हमें अच्छा काम मिल सकता है और अच्छी कमाई हो सकती है | लेकिन मैंने उनको मना कर दिया है और कहा है कि यहाँ मेरे बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, इसलिए डेढ़-दो साल मैं कहीं नहीं जाऊँगा, भले ही मुझे यहाँ दो पैसे कम मिलें |” अब सम्पूर्णानन्द की कोशिश है, कि उन बच्चों के पिता ने ये जो डेढ़-दो साल वहीँ रुकने का निर्णय लिया है, उस समयावधि में बच्चों की पढ़ाई इतनी बेहतर हो जाए और इन बच्चों को कुछ ऐसे मौक़े मिल जाएँ, जिससे उनके भविष्य और जीवन को नई दिशा मिल सके और वे अपने पिता के साथ जहाँ भी जाएँ, अपनी पढ़ाई और अपनी कला को ज़ारी रख सकें |

इसीलिए इस समय सम्पूर्णानन्द का उद्देश्य है बच्चे की पढ़ाई-लिखाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित करना और चित्रकला के अभ्यास को भी साथ-साथ ज़ारी रखना | इस सम्बन्ध में वे कहते हैं— “पढ़ना-लिखना तो सबसे ज़रूरी है, क्योंकि उससे दुनिया को समझना आसान होता है | और दुनिया को समझना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि तभी यह समझ में आता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, क्या उचित है और क्या अनुचित, क्या करना चाहिए क्या नहीं, कौन हमारा शुभचिंतक और कौन हमारा विनाशक…| इसलिए  इनकी कला को निखारने के साथ-साथ मैं इनकी पढ़ाई पर विशेष रूप से ध्यान देता हूँ |”

आत्म-विश्वास से लबरेज़ बच्चे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपनी पसंदीदा चित्रकला के अभ्यास में भी निरंतर लगे हुए है और बालक शिवा तो अब उस पूरे इलाक़े में, सम्पूर्णानन्द के ही शब्दों में, ‘हीरो’/नायक बन चुका है |” बंजारे समाज के बच्चों के लिए काम करने के कारणों के सम्बन्ध में सम्पूर्णानन्द बेहद इत्मिनान से बातें करते हैं और कहते हैं— “…मेरी कोशिश है, कि लोगों तक ये बात पहुँचे की यदि ग्राउंड/धरातल पर ईमानदारी से काम किया जाए, तो उसके अच्छे नतीजे मिलेंगे ही | क्योंकि एक टीचर जब समर्पित भाव से अपने विद्यार्थियों के साथ मेहनत करता है, तो बच्चे अपना सर्वोत्तम ज़रूर प्रदर्शित करते हैं, ज़रूरत है तो बस दिल से कोशिश करने की | जब एक साधनहीन बंजारा बच्चा बिना किसी ख़ास सुविधा के न्यूनतम सुविधा के साथ इतना अच्छा काम कर सकता है, तो जिन बच्चों को विद्यालय में कुछ बेहतर सुविधाएँ मिली हैं, यदि उनके पढने-लिखने और दूसरी शैक्षणिक गतिविधियों पर ठीक से ध्यान दिया जाए, तो बच्चे क्या नहीं कर सकते हैं |”

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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8 thoughts on “सम्पूर्णानन्द जुयाल : वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक

  1. विद्वान शिक्षक आदरणीय श्री जुयाल जी एवं उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को नमन 🙏🙏
    श्री जुयाल सर जो कार्य कर रहे हैं, आज के दौर मे ऐसा देखने को बहुत ही कम मिलता है और यह हम सभी के लिए प्रेरणादायी है। आपको भी साधुवाद mdmji 🙏🙏

  2. संपूर्णा भाई का व्यक्तित्व ही अपने आप में काफी कुछ कह देता है, उनकी उपस्थिति हमेशा माहौल में सकारात्मक ऊर्जा और अपने पन की खुशबू बिखेर देती है..! उनके प्रयास समर्पण प्रेरक अनुकरणीय हैं और इस प्रकार के हर दिल अजीज शिक्षक की इधर उधर बिखरी छोटी बड़ी सफलताओं को एक जगह इकट्ठा करने और उन्हें बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए आपका परिश्रम भी प्रशंसनीय है..! आप दोनों गुणी लोगों शुभकामनाएं।

  3. शिक्षा का असली उद्देश्य बच्चों का सर्वांगीण विकास ही है। बच्चों को घर की तरह विद्यालय में भी स्वच्छंद वातावरण प्रदान किया जाए तो सोने पे सुहागा
    इससे बच्चों को स्वतंत्र होकर अपनी रुचि अनुसार सीखने के अवसर प्रदान होते हैं।
    जुयाल जी का बच्चों के प्रति लगाव और विशेषकर बच्चों की क्षमता व योग्यता को समझते हुए उनकी प्रतिभा को निखारने का गुण ही उन्हें शिक्षक समाज से एक अलग स्थान प्रदान करता है।
    आज आपके छात्र आत्मविश्वास से लबरेज हैं यह सब आपके समर्पित भाव से कार्य करने के परिणाम स्वरूप संभव है।
    साधुवाद।।

  4. संपूर्णानंद जुयाल जी एक कुशल वक्ता और विद्वान शिक्षक हैं| इन बच्चों की शिक्षा के लिए उनके द्वारा किए जा रहे हैं कार्य अनुकरणीय हैं.

  5. जुयाल जी कुशल वक्ता और विद्वान शिक्षक हैं.इन बच्चों की शिक्षा के लिए सम्पूर्णानन्द जुयाल जी के द्वारा किये जा रहे कार्य सभी को प्रभावित करते हैं.यह एक अनुकरणीय पहल है.

  6. सम्पूर्णानन्द जुयाल जी कुशल वक्ता और विद्वान शिक्षक हैं.इन बच्चों की शिक्षा के लिए उनके द्वारा जो काम किये जा रहे हैं वे अनुकरणीय हैं.

  7. अपनी नैतिक जिम्दारियों से इतर भी जो लोग कुछ अलग कर गुजरने की क्षमता रखते है,उन लोगों में से ही एक जुयाल सर भी है। अपने विद्यालय में तो वो सुपर शिक्षक है ही,साथ ही साथ अपने समाज में भी वंचित बच्चों को भी शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने का पुनीत कार्य भी बखूबी निभा रहे है।हमारे सरकारी समाज में ऐसे शिक्षकों की बहुत आवश्यकता है।जो शिक्षा की दशा और दिशा को नया रूप दें पायें।
    आपकी लेखनी को भी ढेरों साधुवाद कनक। एक दिन ये लेखनी आपको हम सबसे अलग स्थान पर पहुंचायेगी

  8. नमस्कार मैडम आप के प्रयासो के लिए आपको नमन। सर का सरल व्यक्तित्व वास्तव में अनुकरणीय है l वंचित बच्चों के लिए समर्पित हो कर काम करना उनके जीवन का रूपांतरण आप ही कर सकते थे और आप ने कर दिखाया l
    A big salute to Juyal sir as well as Kanak mam.

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