वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक
गत अंक से आगे ….
भाग –दो
‘गैर-जिम्मेदार’ युवक से ज़िम्मेदार अध्यापक बनने की ओर…
कवि अज्ञेय लिखते हैं, कि
“दुःख सब को माँजता है
और –
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु-
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें |”
यह पंक्तियाँ चाहे सभी व्यक्तियों पर लागू हो, अथवा नहीं, लेकिन सम्पूर्णानन्द जुयाल जी पर बहुत ही सटीक बैठती हैं | उनके अपने जीवन के संघर्षों ने उन्हें दूसरों की तकलीफ़ों एवं परेशानियों के प्रति जो गहरी संवेदनाशीलता प्रदान की, उसकी अभिव्यक्ति उनके जीवन में अनेक रूपों में होती हुई देखी जा सकती है— चाहे वह बंजारे समाज के बच्चों के प्रति हो या उन बच्चों के अभिभावकों के प्रति, चाहे अपने विद्यालय के बच्चों के प्रति हो या समाज में अन्य लोगों के प्रति, चाहे अपने पारिवारिक आत्मीय-जनों के प्रति हो या अपने सहयोगियों, मित्रों एवं शुभचिंतकों के प्रति…
जब कभी उनसे मैंने यह जानने की कोशिश की, कि यह गहरी संवेदनशीलता उन्हें कहाँ से मिली, तब उनके चेहरे पर तो मुस्कान आती थी, किन्तु आँखों में गहरी उदासी ही तैरती थी, जो कई बार वाष्पित-सी भी होती थीं; लेकिन उसे भी यदा-कदा ही देखा जा सकता है, वह भी तब, जब कोई बेहद आत्मीय होकर निश्चलता से बात कर रहा हो | वैसे भी स्वाभिमानी व्यक्ति की एक कमज़ोरी यह भी होती है, कि उसे टूटना पसंद होता है, लेकिन अपनी पीड़ाओं एवं संघर्षों का मज़ाक या उपहास अथवा तिरस्कार किया जाना किसी भी रूप में सहन नहीं हो सकता | मैं इस बात को ख़ूब अच्छी तरह समझ चुकी थी, और अब मैं भली-भाँति जानती हूँ, उनकी बात-बात पर खिलखिलाहटों का रहस्य, चेहरे पर सदैव चस्पा मुस्कुराहटों का सच…
…पौड़ी में रहते हुए जब भी उनसे अलग-अलग स्थानों पर मुलाकात होती और उनसे जब कभी-कभी अनौपचारिक बातचीत होती, तब वे अक्सर कहते —“…मैं अपने जीवन में बहुत समय तक दिशाहीनता के कारण सदैव उलझनों में पड़ा हुआ इधर-उधर भटकते हुए बेचैनियों में जीता रहा, जीवन से मिले कठोर-कटु अनुभवों एवं घोर गरीबी और उसके कारण कठोर संघर्षों ने जीवन के प्रति जो नज़रिया दिया, उसी ने मुझे रास्ता दिखाया …| …जीवन से मिले इन कड़वे अनुभवों ने तब मुझे विद्यालय में मेरे बच्चों से इतना जोड़ दिया, कि मैं उनके प्रति जी-जान से समर्पित हो गया | …विद्यालय में आने के बाद मेरे जीवन को दिशा मिल गई, जैसे नेत्रहीन को आँखें मिली हों…! मेरी छटपटाहटों को जैसे राहत मिल गई, जिस प्रकार किसी असह्य पीड़ा से तड़पते रोगी को किसी औषधि से आराम मिल जाता है…”…
सम्पूर्णानन्द जी का जन्म 18 मई 1975 को बम्बई (वर्तमान मुंबई) में हुआ था | वे अपने माता-पिता, की तीन संतानों में सबसे बड़े हैं | उनकी एक छोटी बहन और एक छोटा भाई है | बहन, शादी के बाद देहरादून में रहती हैं एवं भाई भी, उत्तराखंड सिविल सेवा के माध्यम से रसायन शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर चयनित होकर उत्तराखंड में ही कार्यरत हैं |
…तब उनका परिवार बम्बई में ही रहता था, जहाँ उनके पिता वहीँ एक कपड़ा-मिल में काम करते थे | लेकिन उससे इतनी आमदनी नहीं होती थी, कि परिवार का जीवन सहूलियत से चल सके, इसलिए परिवार के सामने प्रायः आर्थिक तंगी की स्थिति बनी ही रहती थी, जिससे जूझते हुए परिवार किसी तरह अपना गुज़ारा कर पाता था | इस दौरान तीनों भाई-बहन की शिक्षा बम्बई में ही नगरपालिका के स्कूल में शुरू हुई, उस स्कूल का नाम था —राजेन्द्रपाल मंगला हिंदी हाई स्कूल |
बम्बई में रहते हुए सम्पूर्णानन्द जी की पढ़ाई अभी ग्यारहवीं तक हुई ही थी, कि ग़रीबी से संघर्ष में हार जाने के कारण पिता ने परिवार को लेकर वहाँ से गाँव का रुख किया; इस आशा में, कि गाँव का आत्मीय वातावरण उनके संघर्षों को समझकर आत्मीयता से उन्हें एवं उनके परिवार को अपना लेगा और सहारा देगा, जिससे ज़िंदगी कुछ आसान हो सकेगी, बच्चों का भविष्य कुछ बेहतर हो सकेगा | लेकिन गाँव में रिश्तेदारों और समाज ने जो व्यवहार किया, उसने किशोर सम्पूर्णानन्द को जीवन के अनेक नए पाठ पढ़ाए | किशोर सम्पूर्णानन्द ने यहीं आकर समझा, कि देश अपना हो या बेगाना, लोग अपने हों या पराए, वे हमेशा उसी के साथ खड़े रहते हैं, जो सक्षम हैं, जिनके पास पैसे की ताक़त है, जो ‘व्यावहारिक’ होकर लोगों को ‘कुछ दे सकते’ हैं, जिनसे लोगों को ‘कुछ लाभ’ मिल पाने की आशा होती है | और जिस व्यक्ति के पास इन सबका अभाव होता है, जिससे संपर्क रखने में, बात करने में लोगों को कोई लाभ नज़र नहीं आता, उसे कोई पूछता भी नहीं, कोई उसे अपने पास खड़ा भी नहीं होने देना चाहता…
…गाँव में रिश्तेदारों ने उनके सीधे-सादे अव्यावहारिक पिता के साथ ऐसा छलपूर्ण व्यवहार किया, जिसने उनके परिवार को तो ग़रीबी, मुफ़लिसी एवं बेबसी के और अधिक गहरे दलदल में धकेल ही दिया, पिता के एवं किशोर सम्पूर्णानन्द के मन को बुरी तरह छलनी भी कर दिया, उसका ‘विश्वास’ शब्द पर से ही विश्वास उठ गया | ऐसे में उस पिता की मनःस्थिति का आकलन कौन कर सकेगा, जो अपने बच्चों को एक बेहतर एवं सुरक्षित भविष्य भी न दे पा रहा हो ? उस पिता के निरपराध मन के अपराधबोध को किसकी संवेदना महसूस कर सकेगी, जो अपने बच्चों को भरपेट भोजन तक न दे पा रहा हो ?
नौबत यहाँ तक आ गई, कि हर तरफ़ से निराश पिता को टेंट में चाय की छोटी-मोटी दूकान लगाकर किसी तरह परिवार को जीवित रख पाने की जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ी | उसपर भी दुर्भाग्य यह, कि समाज ने इस परिवार को पूरी तरह नज़र-अंदाज कर दिया | कोई उनसे संपर्क नहीं रखना चाहता था, क्योंकि उन लोगों को देने के लिए, उनका कुछ लाभ-लोभ फलीभूत कर पाने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था, समाज मान बैठा था, कि वे किसी भी तरह उनके काम नहीं आ सकते थे, तब क्यों उनसे संपर्क रखना …? पिता को हर क्षण टूटते-बिखरते किशोर सम्पूर्णानन्द ने बहुत क़रीब से देखा |
ऐसे में किसी किशोर की मानसिक स्थिति क्या हो सकती है, उसका व्यक्तित्व किस दिशा की ओर जा सकता है, कभी-कभी जब मैं सोचती हूँ, तो अध्ययन-अध्यापन के दौरान पढ़ी गई साहित्यिक कृतियों के अनेक पात्र मेरी आँखों के आगे घूमने लगते हैं, जिनमें सबसे अधिक प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ के ‘घीसू-माधव’ याद आते हैं | और इससे भी अधिक अपनी आँखों से देखे गये वे दर्ज़नों चेहरे, ख़ासकर बच्चों एवं किशोरों के, याद आते हैं, जो कुछ इसी प्रकार की तोड़ देनेवाली परिस्थितियों के बीच निर्मित हुए | उन बच्चों एवं किशोरों की बेबाकी, लापरवाही, बेपरवाही, निडरता, निर्लज्जता जैसे चीख-चीख कर कहती हो— “हम भी भावुक और संवेदनशील इन्सान थे, …तुम लोगों की ही तरह, …हमें भी दुःख में दुखी होना और ख़ुशी में ख़ुश होना आता था, वह पसंद था, …लेकिन ‘सभ्य-समाज’ की निर्दयता ने हमारी मानवीय-अनुभूतियों को गीले कपड़े की तरह निचोड़ दिया, …स्पंज की तरह सोख लिया है… इसलिए अब हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, जब हमें गहरी-से-गहरी चोट कोई देता है, हमें ठोकरें मारता है, …हमें कोई विशेष दुःख नहीं होता, जब तुम, हमें अनेक क्रूरतम तरीकों से अपमानित करते हो… यहाँ तक कि जब हमारे प्रियजन हमारी आँखों के सामने मरते हैं, तो भी हमें ख़ास फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब यही हमारी जिंदगी है …हम अनुभूत भी नहीं करना चाहते, क्योंकि तब हमारा जीना कठिन हो जाएगा…”
क्या कुछ ऐसी ही मनःस्थिति सम्पूर्णानन्द जी की भी बनी होगी… ? किसी भी किशोर का मन अपनी उम्र में जितने विश्वास, उल्लास और उत्साह से भरा होता है, यदि समाज द्वारा वहीँ पर उसके विश्वास को मारकर उसे हतोत्साहित कर दिया जाय, तो उसकी छाप जीवन-भर के लिए उसके कोमल विकसनशील मन पर अंकित हो जाती है | क्या कुछ ऐसा ही उनके साथ भी हुआ था…? …शायद ….! परिणामस्वरूप उनमें निराशाजनित एक लापरवाही-सी आती गई, ‘कफ़न’ के घीसू-माधव की तरह, जिसके कारण उन्हें उसी हठी-निर्दयी समाज द्वारा एक ‘ग़ैर-ज़िम्मेदार’ युवक के रूप में देखा और माना जाने लगा | इस कारण उनके भविष्य के सम्बन्ध में माता-पिता भी काफ़ी चिंतित रहने लगे | यह स्थिति कुछ समय तक कायम रही | किशोर से युवा होते सम्पूर्णानन्द को एक तो भविष्य में किसी बेहतर स्थिति की उम्मीदें निरंतर धुँधली होती चली जाती नज़र आने लगीं, तो दूसरी तरफ़ सही मार्गदर्शन के अभाव में कोई सही रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा था |
दरअसल यह समस्या हमारे समाज में बहुत व्यापक है | हमारा युवा-वर्ग जितना संघर्षशील और जुझारू है, यदि उसे देखते हुए सही समय पर उचित मार्गदर्शन मिलने लगे, तो हमारे देश एवं समाज की तस्वीर ही कुछ और बन जाय | लेकिन हमारा युवा-वर्ग अपनी तमाम खूबियों एवं योग्यताओं के बावजूद सही मार्गदर्शन के अभाव में अपनी विशेषताओं को रोज ही गँवाता हुआ निरतंर अपने आप को निराशा एवं हताशा की ओर बढ़ता हुए देखता है, तो दूसरी ओर समाज को भी उसकी योग्यता का कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाता है |
लेकिन चूँकि अपने पिता की तरह ही सम्पूर्णानन्द जी भी काफ़ी संघर्षशील प्रकृति के व्यक्ति हैं और सरलता से पराजय स्वीकार करना नहीं जानते, इसलिए काफ़ी समय तक उचित मार्ग की तलाश में अनेक जगहों पर प्रयास करते रहे, इस बीच उन्होंने कई तरह के कार्यों में हाथ आज़माने की कोशिश की, एक फाइनेंस कंपनी में बहुत कम पैसे में काम करने से लेकर पौड़ी में एक होटल में हाथ आजमाने तक | लेकिन किसी में भी उन्हें सफ़लता नहीं मिली, और सबसे बड़ी बात, कहीं उन्हें संतुष्टि भी नहीं मिली, यानी उन कार्यों में उन्हें ‘काम करने का संतोष और आनंद’ नहीं मिल पाया | वास्तव में सही मार्गदर्शन नहीं मिलने के कारण कुछ समझ में नहीं आता था, कि उन्हें जाना कहाँ है, किस मंजिल की ओर क़दम बढ़ाने हैं, वास्तव में उन्हें क्या करना चाहिए, या वे स्वयं क्या करना चाहते हैं…?
इसी बीच उनकी पढाई भी टुकड़ों-टुकड़ों में चलती रही और उन्होंने श्रीनगर में हेमवती नंदन बहुगुणा, गढ़वाल विश्वविद्यालय से बीएड. और एम.कॉम किया | काफ़ी भटकते-भटकते उन्हें रास्ता मिला विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने के रूप में | उत्तराखंड में शिक्षक की भर्ती-प्रक्रिया के अंतर्गत उन्हें 2008 में सहायक-अध्यापक की नौकरी मिली और साल 2008-09 के लगभग डेढ़ साल के ट्रेनिंग-पीरियड में उन्हें राजकीय प्राथमिक विद्यालय खोला, पट्टी बनेलस्यूं (कोट ब्लाक, पौड़ी) में बच्चों के साथ काम करने का मौक़ा मिला | वे कहते हैं हैं, कि “मुझे वहाँ बच्चों के बीच जाकर महसूस हुआ, कि मैं तो दरअसल इसी की तलाश में था | मुझे अब जीने का मकसद मिल गया | …जीवन से मिले अनुभवों ने मुझे बच्चों से इतना अधिक जोड़ दिया, कि मैं उनको पढ़ाने और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए जी-जान से कोशिशें करने लगा |… उनके दुःख अब मुझे अपने दुःख प्रतीत होते, … उनके संघर्षों में मुझे अपने संघर्ष दिखाई देने लगे, …मेरे प्रयासों से जब उनके चेहरों पर थोड़ी-सी भी ख़ुशी देखता, तो मेरी आत्मा जैसे तृप्त हो जाती…| इसके बाद लोगों का समर्थन मिलना भी शुरू हो गया…” …स्वाभाविक था, कि वहाँ जिन बच्चों के प्रति उन्होंने निश्छल ममत्व एवं लगाव प्रदर्शित किया, उनके भविष्य की बेहतरी के लिए अथक प्रयास किए, उन बच्चों और उनके अभिभावकों का उनसे बहुत लगाव एवं उनके प्रति बहुत सम्मान-भाव होना ही था |
ट्रेनिंग-पीरियड के इन डेढ़ सालों में उन्होंने वहाँ बच्चों के साथ जिस प्रकार से काम किया और उससे बच्चों के पढ़ने-लिखने के स्तर में जो सकारात्मक परिवर्तन आए, उन सबने अभिभावकों को उनका मुरीद बना दिया | बच्चों के लिए किसी चीज की ज़रूरत होती, तो वे बिना सोचे-समझे अपने ख़र्च पर उनके लिए वे चीजें उपलब्ध करवाते, बच्चों को किसी भी समय उनकी सहायता की ज़रूरत होती, तो वे घड़ी में समय नहीं देखते और तुरंत बच्चों की सहायता को तैयार हो जाते | इस कारण बच्चे उनके साथ इस हद तक घुलमिल गए, कि वे कभी भी निःसंकोच अपने इस अध्यापक के घर चले जाते, या तो पढ़ने-लिखने से संबंधित अपनी कोई भी छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी समस्या लेकर, अथवा कभी-कभी धमा-चौकड़ी मचाने के लिए भी…| उनका यह अध्यापक कभी भी ‘अपने बच्चों’ से आज़िज नहीं आता, न कभी उन्हें रोकता-टोकता, न डाँटता-डपटता…
इससे स्वाभाविक रूप से माता-पिता का विश्वास उनपर निरंतर जमता चला गया | वे बच्चों के साथ जिस प्रेमपूर्वक अपनत्व से भरे जिंदादिल और खुशमिजाज़ अंदाज में व्यवहार करते हैं, जाहिर है, उसने बच्चों को केवल मुग्ध ही नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में खुशियाँ, उत्साह, पढ़ने के प्रति ललक और जिज्ञासा भी भर दी | इसी कारण, जब अपनी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद वे अपनी अगली मंजिल, राजकीय प्राथमिक विद्यालय तमलाग जा रहे थे, तो स्वाभाविक रूप से बच्चे उदास और दुःखी हो गए थे एवं उनके माता-पिता एक अच्छे अध्यापक के चले जाने से चिंतित…
…ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद फ़रवरी 2009 में जब वे राजकीय प्राथमिक विद्यालय तमलाग में पहुँचे, तब वहाँ बमुश्किल लगभग 12-15 बच्चे ही थे | उन्होंने यहाँ भी पुनः उसी प्रकार बच्चों के प्रति लगाव, अपनेपन, आनंदपूर्ण एवं खेल-खेल में पठन-पाठन के तरीक़ों से अपना काम शुरू किया, तो यहाँ के भी बच्चों के पढ़ने-लिखने के स्तर में सुधार से लेकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आने लगे, बच्चे पढ़ने-लिखने को आनंद की चीज समझने लगे और पढ़ाई से उनका लगाव होने लगा, बच्चों के लिए पढ़ना-लिखना अब कोई सजा नहीं रही |
बच्चों को इस प्रकार आनंद-पूर्वक पढ़ता-लिखता देख आस-पास के उन माता-पिताओं को अचंभित करने लगा, जो महँगी फ़ीस देकर अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाते थे और उसके बाद भी उनके बच्चों के पढ़ने-लिखने में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ था, न ही उनमें पढ़ने-लिखने के प्रति वो ललक और लगन ही पैदा हो सकी थी, जो सरकारी विद्यालय के हिंदी मीडियम के इन ग़रीब बच्चों में थी | उन्होंने तब अपने बच्चों को वहां से निकालकर सम्पूर्णानन्द जी वाले इस सरकारी स्कूल में भर्ती कराना पसंद किया और कराया भी |
इसका एक और ख़ास कारण था— बच्चों को पढ़ाते समय हिंदी के अलावा अंग्रेजी और गणित पर सम्पूर्णानन्द जी द्वारा विशेष ध्यान दिया जाना | नतीजा यह हुआ, कि ग्रामीण-परिवेश के उन बच्चों की भी इंग्लिश-भाषा और गणित के ज्ञान में बेहतरीन स्थिति बनने लगी | इस कारण जिन बच्चों को पहले हिंदी पढ़ना-लिखना भी ठीक से नहीं आता था, वे बेबाक होकर गणित के कठिन प्रश्नों को भी हल करने लगे और इंग्लिश भी उनकी, अंग्रेजी माध्यम के बच्चों की तुलना में, बहुत अच्छी हो गई | ऐसे में इस प्रकार के सरकारी विद्यालय में अपने बच्चों को भेजना अभिभावकों को कहीं बेहतर लगा, जहाँ बच्चों को, इंग्लिश मीडियम की तुलना में कहीं बेहतर ढंग से एवं हँसते-खेलते इंग्लिश और गणित पढ़ाया जाता था | नतीजतन वहाँ अब बच्चों की संख्या 35 तक पहुँच गई | इस पूरी गतिविधि में सम्पूर्णानन्द जी को वहाँ की प्रधानाध्यापिका से भी काफ़ी सहयोग और समर्थन मिला |
इसी विद्यालय में जब सम्पूर्णानन्द जी के प्रयासों से वहाँ की एक बालिका का चयन देहरादून के प्रतिष्ठित ‘हिम-ज्योति विद्यालय’ में हुआ, तब उनके आत्मविश्वास में अभूतपूर्व वृद्धि हुई | उन्हें अब अपने-आप पर पहले से अधिक भरोसा होने लगा, कि वे भी समाज के लिए कुछ कर सकते हैं, कि उनमें भी कुछ बेहतर कर पाने की क्षमताएँ हैं, कि वे भी शिक्षा के क्षेत्र में कुछ अभूतपूर्व कर सकते हैं, कि वे भी समाज के लिए उपयोगी हैं, कि उनके भी जीवन, कार्यों, योगदानों का मूल्य एवं महत्त्व है…
सत्य है, किसी भी व्यक्ति की जीवन-यात्रा में उस एक छोटी-सी सफ़लता का मूल्य सबसे अधिक होता है, जो उस व्यक्ति को अपने ऊपर भरोसा करने में सक्षम बनाती है, बाद की बड़ी-बड़ी सफलताएँ तो उसी एक छोटी-सी सफ़लता की नींव पर खड़ी होती हैं | सम्पूर्णानन्द जी भी इसके अपवाद नहीं हैं | उनकी इस छोटी-सी सफ़लता ने उन्हें उम्मीद की एक नई राह दिखाई और वे उसपर चल पड़े | अब उन्होंने अपने दृढ़ एवं मजबूत लक्ष्य बनाए, जो कठिन भी हैं, चुनौतीपूर्ण भी हैं, जिसमें अथक परिश्रम की भी बहुत ज़रूरत है, जिसमें कठिनाइयाँ भी काफ़ी हैं, जिसपर चलना भी इतना आसान नहीं… ! लेकिन सम्पूर्णानन्द जी जितने आत्म-विश्वास से अपने लक्ष्य की ओर हर दिन बढ़ रहे हैं, वह उन्हीं जैसे दृढ़-निश्चयी और अपनी बात के धनी व्यक्ति के लिए संभव है | इतना ऊँचा और इस प्रकार का लक्ष्य वही बना सकता है, जिसमें कठिन संघर्ष का आत्म-विश्वास हो, जिसमें चुनौतियों के सामने अड़ जाने एवं उनसे लड़ जाने का दुस्साहस हो, जिसमें इतनी गहरी अनुभूतियाँ हों कि हर किसी की पीड़ा वह बिना कहे महसूस कर सके, जो प्रत्येक व्यक्ति की तकलीफ़ों को, उसके संघर्षों को अनुभूत कर सकता हो बिना उसकी जाति या धर्म को देखे या बिना उनके आर्थिक-सामाजिक परिवेश का गुणा-भाग किए, जिसमें बच्चों के प्रति इतना निश्छल ममत्व और प्रेम का गहरा सोता बहता हो, कि बच्चों के सुन्दर एवं उज्ज्वल भविष्य में अपनी सफ़लता देख पाने की दृष्टि रखता हो, जिसमें समाज को बदल डालने और सबके लिए सबकुछ प्राप्य बनाने की भावुक इच्छा विद्यमान रहती हो …
…समाज की दृष्टि में एक तथाकथित ‘ग़ैर जिम्मेदार’ और ‘भटका हुआ’ युवक अब एक बेहद ही ज़िम्मेदार अध्यापक के रूप में तब्दील हो चुका था, जिसके लिए उसका शैक्षणिक-कार्य ही उसका मुक्तिदाता और मार्गदर्शक बना | …तथाकथित ‘सभ्य’ और ‘सुसंस्कृत’ समाज ने जिसे अपमानित, अनादृत और तिरस्कृत किया, जिसे हेय दृष्टि से देखा, उसी ‘नाकारा युवक’ को छोटे-छोटे मासूम बच्चों ने अकथ रूप से अपने साथ सम्बद्ध करते हुए उसे उसके कर्म-पथ और कर्तव्यों की राह दिखाई है… बड़ों के सापेक्ष बच्चों ने…! और वह अध्यापक अपने नन्हें फ़रिश्तों के जीवन को अन्धकार से मुक्त करने की खातिर, उनके जीवन में खुशियाँ भरने की खातिर शिक्षा को माध्यम बनाकर बच्चों के नन्हें हाथ थामे अपनी यात्रा पर चल पड़ा है | उस अध्यापक की इसके आगे की यात्रा मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा’ के नायक की याद दिलाती है, जो ‘किसी भी सूरज को नहीं डूबने देने’ का दृढ़-संकल्प यहाँ कर रहा है | ऐसा लगता है जैसे इस अध्यापक ने भी उसी नायक की भाँति अपने किसी भी बच्चे को अन्धकार में नहीं छोड़ने और उसकी शिक्षा के लिए हर संभव कार्य करने का संकल्प-सा अपने मन में ले रखा हो…! इस कविता में नायक के चेहरे में इसी संवेदनशील अध्यापक का चेहरा देखा जा सकता है… बस देखनेवाली वो आँखें चाहिए… क्या वह आँख आपके पास है…? यदि है, तो देखिए ना….
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा
देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिए हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एडियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है
घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ
सूरज जब ठीक पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूँगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा
…..
रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिए तस से मस नहीं होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं |
…..
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूंगा
इसके बाद की कहानी तो इस संवेदनशील अध्यापक की, अपना जीवन इन्हीं मासूम बच्चों के नाम समर्पित करने एवं उसके माध्यम से नित्य नए अध्याय लिखते जाने की कहानी है, जिसका वाचन अगले अंक में किया जाएगा…
…बात अभी जारी है…
- डॉ कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
संपूर्णानंद जी का परिश्रम व निष्ठा भाव प्रशंसनीय व सराहनीय है। आज के समय में ऐसे ही समर्पित शिक्षकों के कारण ही सरकारी विद्यालयों के बच्चों को नई दिशा मिली है।
मुझे प्रसन्नता है कि सम्पूर्णानन्द जी के काम को मैंने देखा है। उनके साथ काम भी किया है। आपके शब्द संसार ने ये अनोखा काम किया है। नमन I
ऐसे शिक्षक समाज का दर्पण होते है।संपूर्णानंद एक ऐसे शिक्षक है जो शिक्षा की मसाल बनकर हम सबका मार्गदर्शन करते है।आप अपनी कलम के माध्यम से ऐसे शिक्षकों की हौसला अफजाई का कार्य कर रही है।आपके शब्द समाज को नयी दिशा देने में समर्थ हो भगवान से हम यही प्रार्थना करते है।