वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक
भाग-तीन:—
ख़ानाबदोश बच्चों की दुनिया बदलने को प्रतिबद्ध
जब किसी समाज या उसके वृहद् भाग पर कोई भीषण संकट आता है, तब अधिकांश लोग अपने-आप को बचाने की क़वायद में लग जाते हैं, अपने जीवन की रक्षा में संलग्न, अपनी संपत्ति, अपने संसाधनों की रक्षा में सन्नद्ध…| लेकिन हमारे ही आसपास कुछ ऐसे भी लोग अक्सर मिल जाएँगें, जो अपने जीवन और संसाधनों की रक्षा की बजाय दूसरों की रक्षा करने की क़वायद में जुटे हुए होंगे…| ऐसा ही एक नाम है— सम्पूर्णानन्द जुयाल ! राजकीय प्राथमिक विद्यालय ल्वाली के अध्यापक…|
वर्तमान समय में, जब कोरोना-संकट के दौरान पूरा देश ठप्प हो गया, तब बंजारा-समाज का एक परिवार उत्तराखंड के ल्वाली नामक स्थान में फँस गया, जहाँ सम्पूर्णानन्द रहते हैं और काम करते हैं | यह परिवार मूलतः राजस्थान के बागड़ी समुदाय से है, जो वर्तमान में ऊपरी राजस्थान में रहता है | लेकिन इस समय उसका लगभग 150 परिवारों का एक समूह सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में रहता है | जैसाकि अक्सर बंजारे या घुमंतू-समुदायों में होता है, वे बहुत-समय तक एक जगह नहीं टिकते | शायद इस कारण भी और दूसरे सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से भी, उनके यहाँ बच्चों की स्कूली-शिक्षा को लेकर न तो कोई परंपरा है, न कोई विचार, और न ही कोई माहौल या परिस्थिति है; और तो और बदलते सामाजिक परिदृश्य एवं हालातों को देखते हुए भी वे शिक्षा की ओर प्रायः उन्मुख नहीं हुए हैं |
उनके यहाँ बच्चों को अपने समाज के काम ही सीखने की हिदायत होती है, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं पारंपरिक रूप से भी, और धार्मिक रूप से भी…| और यही उनकी ‘शिक्षा’ है, इसके अलावा किसी और तरह की शिक्षा की ‘ज़रूरत’ उन्हें नहीं है और न ही प्रायः ‘अनुमति’…| वे जितनी जल्दी अपने पूर्वजों का काम सीख जाएँगे, उतनी जल्दी अपने परिवार एवं अपने समाज के लिए ‘उपयोगी’ और ‘कमाऊ’ होंगे | इसके अलावा इन ख़ानाबदोश-समाजों के अपने-अपने विश्वास, अपनी परम्पराएँ, अपनी मान्यताएँ और अपनी-अपनी जीवन-शैलियाँ तो होती ही हैं, जिनका सीधा असर उनके बच्चों की स्कूली-शिक्षा पर पड़ता है…
…जिस परिवार की बात की जा रही है, उसका सम्बन्ध उस ख़ानाबदोश-समाज से है, जो लोहे की वस्तुएँ (कुल्हाड़ी, खुरपी, दराँती, हँसिया, चाकू तथा ऐसे ही दर्ज़नों सामान) बनाने का काम करता है | बहुत सारी व्यक्तिगत ‘विशेषताओं’ के अलावा इस परिवार के बच्चे भी नहीं पढ़ते थे, क्योंकि उनके अनुसार, उनके यहाँ इसकी कोई परंपरा नहीं है और न ही उसकी कोई ज़रूरत समझी जाती है…
…लॉकडाउन के दौरान सम्पूर्णानन्द जुयाल का ध्यान, घर पर रहते हुए इस बात की ओर गया, कि उनके घर से थोड़ी ही दूर पर टेंट में रहनेवाले इस परिवार के सात बच्चे दिनभर या तो इधर-उधर खेलते रहते हैं, अथवा अपने पिता के साथ लोहा पीटने और सामान बनाने का काम करते रहते हैं… एक दिन इसी तरह बच्चों को खेलते देखकर उनके मन में प्रश्न उठा, कि ये बच्चे स्कूल जाने की उम्र में काम क्यों करते हैं ? क्या बच्चों को विद्यालय नहीं भेज पाने की उनके माता-पिता की कोई मज़बूरी है? अथवा उनको यह ठीक लगता है, कि विद्यालय और पुस्तकों की दुनिया में जीने की उम्र में ये बच्चे रोजगार या परिवार के लिए आय-अर्जन का काम करने में हाथ बँटाएँ? यदि उनकी कोई मज़बूरी है, तो उसके समाधान की कोशिश होनी चाहिए, और यदि उनका ऐसा विचार है, तो जानना होगा, कि ऐसा क्यों…?
हालाँकि उस समय कोरोना-संकट के कारण पूरे देश में विद्यालय बंद थे, लेकिन जब विद्यालय खुले थे, तब भी ये बच्चे कभी स्कूल में नहीं दिखे | क्योंकि सरकारी नियम के अनुसार उन बच्चों को अपने सबसे नज़दीकी विद्यालय में होना चाहिए था, जो कि सम्पूर्णानन्द का ही विद्यालय था, जो उस परिवार के सबसे नजदीक था | और यदि ये बच्चे स्कूल जाते, तो अवश्य उन्हें पता होता |
तब सम्पूर्णानन्द ने बच्चों के पिता से बात की | पता चला, कि बच्चों की माता का देहांत हो चुका था, सातवें बच्चे को जन्म देने के दौरान और पिता अकेले ही अपने बड़े बच्चों की मदद से परिवार की गाड़ी खींच रहा था | बच्चों को पढ़ाने के सम्बन्ध में इस अध्यापक की बात पर पिता को बहुत हैरानी हुई, क्योंकि उसके तर्क के अनुसार ‘बच्चे पढ़कर क्या करेंगे ? करना तो उनको वही है, जो उनका पिता करता है, या उसके अपने समुदाय के लोग करते हैं | यदि बच्चों ने दो अक्षर पढ़ भी लिए, तो उससे क्या बन जाएगा, पढ़-लिखकर कोई नौकरी थोड़े न करनी है उनको…’ …यह भी कि ‘यदि बच्चे पढ़ने चले जाएँगे, तो पिता की मदद कौन करेगा, आय के लिए सामान बनाने में ? ऐसे में परिवार का गुज़ारा कैसे होगा ? इससे तो उनकी ग़रीबी और विकट हो जाएगी !’
…सम्पूर्णानन्द समझ गए, कि जब तक उस परिवार की प्राथमिक ज़रूरत —भूख की समस्या— हल नहीं होगी, तब तक शिक्षा की बात करना इस परिवार के साथ अन्याय ही नहीं अत्याचार भी होगा | कुछ ऐसी ही समस्या संगीता फ़रासी (अध्यापिका, राजकीय प्राथमिक विद्यालय, गहड़, श्रीनगर) के सामने भी आई थी, जब वे श्रीनगर में ऐसे ही एक घुमंतू समुदाय के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की कवायदें कर रही थीं…! …और वही समस्या अब सम्पूर्णानन्द के सामने भी खड़ी थी…!
और सच तो यह है, कि समस्या सिर्फ़ इतनी ही नहीं थी, असली समस्या तो पिता को बच्चों की स्कूली शिक्षा के लिए तैयार करने की थी | उसके लिए उनको उनके समाज की रुढ़िवादी सोच के विरुद्ध जाकर कोई निर्णय लेने को तैयार करना था, वह भी उस पिता को, जो एक परपरागत ढंग से जीने वाले समाज का हिस्सा था, जो शिक्षा की रौशनी से सदियों दूर था…
…तब सम्पूर्णानन्द ने लॉकडाउन की इस संकटपूर्ण घड़ी में सबसे पहले परिवार की आर्थिक सहायता करने का निश्चय किया, उसके बाद उनका विश्वास जीतने का | क्योंकि यदि पिता को विश्वास हो गया कि यह अध्यापक, जो उनका और उनके बच्चों का सच्चा हितैषी है, वह उनके बच्चों के बेहतर भविष्य के विरुद्ध कोई काम नहीं करेगा, कोई सुझाव नहीं देगा…| परिवार की जरूरतों के हिसाब से सम्पूर्णानन्द ने उनको कुछ राशन (जैसे चावल, आटा, दालें, तेल, साबुन, सेनेटाइज़र, बच्चों के लिए बिस्कुट आदि) उपलब्ध कराए, और साथ ही आनेवाली सर्दियों को देखते हुए बच्चों की खातिर नए कम्बल आदि भी ख़रीदकर दिए | इसमें उनकी मदद आशीष नेगी (अध्यापक राजकीय इंटर कॉलेज, एकेश्वर) ने भी की, अपनी बिटिया के जन्म दिन के अवसर पर |
…इन्हीं सिलसिलों के दौरान सम्पूर्णानन्द अक्सर उस परिवार के बीच जाकर बैठते, उनसे बातें करते, उनके सुख-दुःख में शरीक होते, उनकी परेशानियों में उनके साथ खड़े होते…| धीरे-धीरे उस बंजारे पिता को इस संवेदनशील अध्यापक पर विश्वास होने लगा | वह ख़ानाबदोश पिता इस बात को समझने लगा, कि यह अध्यापक उनका शत्रु या हानि पहुँचाने वाला व्यक्ति नहीं है | जब पिता को इस अध्यापक की नीयत पर विश्वास होने लगा, तब सम्पूर्णानन्द ने अगला क़दम बढ़ाते हुए बच्चों को पढ़ाने के लिए पिता को समझाने की कोशिश की | इसमें मदद मिली उस पिता की कुछ चिन्तनशील मनःस्थिति के कारण |
दरअसल जब सम्पूर्णानन्द अपने तर्कों एवं स्पष्ट विचारों के साथ अपनी बात उस वृद्ध के सामने रखते, तब वह व्यक्ति अकेले में विचार करने लगता | सम्पूर्णानन्द बताते हैं, “मैं अपनी बात अनेक तर्कों के साथ उनके सामने रख देता, अनेक तरह के उदाहरण देता और उनकी समस्या के भी दूसरे अनेक पक्षों को उनके सामने खोल देता, जो उनके दिमाग में भी नहीं आए होते थे…| उस समय तो वे कुछ नहीं कहते थे, केवल ख़ामोशी से एकटक मेरे चेहरे को देखते हुए सुनते रहते थे | लेकिन उनके चेहरे की लकीरें साफ़-साफ़ कहती थीं, कि मेरी बातों ने उनपर कुछ तो असर डाला है…| कुछ दिनों बाद जब मैं उनसे दोबारा मिलता, तो वे कहते ‘गुरूजी, आप सही कह रहे हैं, मैंने तो कभी इस तरह से सोचा ही नहीं’, और कभी कहते, ‘बचपन में मैं भी जब शहरों या गाँवों के बच्चों को स्कूल जाते देखता था, तो मेरी भी इच्छा होती थी पढ़ने की, लेकिन मेरे समाज में यह वर्जित था, इसलिए मैं नहीं पढ़ सका | लेकिन मैं अब चाहता हूँ, कि मेरे बच्चे पढ़ें…’ और मुझे समझ में आने लगा, कि इन लोगों को दिनभर काम में लगे रहने के कारण कभी सोचने-समझने की फ़ुर्सत नहीं मिली | शायद इसीलिए ये अपनी समस्याओं पर प्रगतिशील तरीके से कभी सोच नहीं पाए | शायद इनके आस-पास ऐसे लोग भी नहीं रहते होंगे, जो उनको समझा सकें, या जिसके साथ वे किसी मुद्दे पर खुलकर बात कर सकें | उनके यहाँ इसकी परंपरा भी नहीं है |”
अब पिता को भी लगने लगा, कि उनके बच्चे यदि पढ़-लिख जाएँगे, तो यह उनके हित में ही होगा | और सम्पूर्णानन्द ने तब सभी छः बड़े बच्चों (एक अभी बहुत छोटी बच्ची है, शायद दो साल की) के लिए कॉपियाँ, किताबें, पेन, पेंसिल, वगैरह ख़रीदे और बच्चों की पढ़ने-लिखने की शुरुआत हो गई | इन बच्चों के अध्यापक बने— सम्पूर्णानन्द जुयाल ! और पाठशाला बना बच्चों के घर के सामने का ख़ाली पड़ा मैदान !
अब बच्चे धीरे-धीरे पढ़ने लगे और उनकी पढ़ने के प्रति रूचि भी विकसित होने लगी | जब बच्चों का पढ़ने-लिखने में मन लगने लगा, तब अध्यापक ने बच्चों के घर के सामने के उसी ख़ाली स्थान को एक व्यवस्थित क्लास-रूम में तब्दील कर दिया | सभी छः बच्चों के लिए प्लास्टिक की रंग-बिरंगी कुर्सियाँ ख़रीदी, वाइट बोर्ड ख़रीदा, मार्कर, डस्टर, चित्र बनाने के लिए रंग, क्राफ्ट सीखने-सिखाने के लिए रंगीन कागज, और दूसरी न जाने कितनी चीजें | तर्क था, कि बच्चे अपने घर पर ये चीजें पाकर जब भी उनका मन करे, बोर्ड पर पढ़ने-लिखने का अभ्यास कर सकें, चित्र वगैरह बना सकें | इसमें इन्होंने अपनी व्यक्तिगत पूँजी लगाई, जिसमें उनके एक प्रिय मित्र और सहयोगी आशीष नेगी ने भी मदद की | व्यक्तिगत पूँजी को इन बच्चों या अपने किसी भी विद्यार्थी पर खुले हाथ से ख़र्च करने, यहाँ तक की अपने कार्य-स्थल राजकीय प्राथमिक विद्यालय ल्वाली के बच्चों पर भी, जिनको पढ़ने-लिखने सम्बन्धी लगभग सारी सुविधाएँ सरकारी-स्तर पर उपलब्ध हैं, ख़र्च करने के सन्दर्भ में सम्पूर्णानन्द का जो विचार है, वह न केवल उनके ह्रदय की विशालता को ही अभिव्यंजित करता है, बल्कि उनके सम्पूर्ण जीवन के संघर्षों और उस संघर्ष के प्रति सम्पूर्णानन्द के ह्रदय की उस पीड़ा को भी प्रकट कर देता है, जो न जाने कितने सालों से उनके दिल में चुपके-चुपके अपना घर बनाए हुए है…
…वे अक्सर बातचीत के दौरान कहते हैं— “मैंने अपने परिवार को जिस घोर ग़रीबी में एक-एक दाने के लिए छटपटाते देखा है, अपने पिता की आँखों में इस पैसे के कारण अपनी संतानों की खातिर कुछ न कर पाने की जो तकलीफ़ देखी है, उससे मेरा मन इस पैसे से इतना टूट चुका है, कि मैंने तय कर लिया, कि यदि कभी मैं इस लायक बन पाया, कि मैं पैसे कमा पाऊँगा, तब भी मैं इस पैसे को कभी भी अपने सिर पर चढ़कर नाचने नहीं दूँगा, इसे सदैव मैं इसकी औकात में ही रखूँगा | इसने मेरे पिता की जान ले ली, मेरे पिता को इतना तड़पाया, कि ग़रीबी और बेबसी की निराशा ने उनसे उनका जीवन ही छीन लिया और मुझसे मेरे पिता को | …जब मेरी नौकरी लगी, तो मैं अपने माता-पिता को सारी खुशियाँ देना चाहता था, उनको वह सब देना चाहता था, जो ग़रीबी के कारण उनको कभी नहीं मिल सका | लेकिन इसी पैसे ने मुझे इतना भी समय नहीं दिया, कि मैं उनकी थोड़ी-सी भी सेवा कर पाऊँ, क्योंकि घोर निराशा से उनका ह्रदय इतना फट चुका था, कि मेरी नौकरी लगने के कुछ ही दिनों बाद पिताजी हमें छोड़कर चले गए | मेरी नौकरी और अच्छी तनख्वाह भी उनकी टूटी हुई हिम्मत को वापस नहीं ला सकी और वे मुझे कोई मौक़ा दिए बिना ही चले गए | …मैं इस पैसे को कभी माफ़ नहीं कर सका…| मैं कभी नहीं समझ सका, कि यह उन्हीं लोगों के पास क्यों रहना पसंद करता है, जो दूसरों को धोखा देकर, दूसरों को लूटकर इसे हासिल करते हैं…? इसलिए मैं कभी इससे लगाव नहीं रख पाया | …और इसी कारण जब मैं किसी मजबूर को, ख़ासकर किसी बच्चे को, पैसे के अभाव में अपना भविष्य नष्ट करते देखता हूँ, और मुझे लगता है, कि मुझे उसकी सहायता करनी चाहिए, तो मैं बिल्कुल नहीं देखता कि उसपर मैं कितने पैसे खर्च कर रहा हूँ..|”
सम्पूर्णानन्द के ये शब्द अक्सर ही मेरे कानों में गूँजते रहते हैं, लेकिन जितनी तकलीफ़ होती है, उतना ही संतोष भी, कि उनकी इस संवेदनशीलता के कारण कई बच्चों का भविष्य शायद सही राह पर आ सके | इसका प्रमाण हैं, उनके विद्यालय के वे बच्चे, जिनको समाज ने सामाजिक-आधार पर बौद्धिक रूप से ‘कमज़ोर’, ‘नाक़ाबिल’, ‘अयोग्य’ और ‘नालायक’ करार दे रखा है | लेकिन सम्पूर्णानन्द जैसा अध्यापक पाकर वे ही ‘नाक़ाबिल’ बच्चे न केवल सफ़लता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं, बल्कि समाज की मान्यताओं के परखच्चे भी उड़ा रहे हैं, वह भी कभी-कभी नहीं, बल्कि अक्सर ! और इसी कारण सम्पूर्णानन्द को अब बच्चों की सफ़लता के ‘पर्याय’ के रूप में देखा जाने लगा है ! ….लेकिन यह कहानी फिर कभी… कुछ दिनों बाद… विस्तार से कही जाएगी….
… तो बंजारे समाज के उन छः बच्चों की शिक्षा की शुरुआत इस अध्यापक ने व्यक्तिगत स्तर पर शुरू कर दी, उनके पिता की सहमति से…| बच्चे पढ़ने लगे, पुस्तकों, अक्षरों, रंगों और ऐसी ही तमाम दूसरी चीजों के प्रति उनकी रूचि विकसित होने लगी | …और अंततः उन सभी छः बच्चों का विद्यालय में बाकायदा नामांकन कराने में इस अध्यापक को सफ़लता मिल गई … आज उन बच्चों की शिक्षा काफ़ी कुछ अपनी अच्छी रफ़्तार से आगे बढ़ रही है…
एक सवाल है…! क्या वह शिक्षा या पढ़ाई-लिखाई पर्याप्त समझी जा सकती है, जो केवल अपने विद्यार्थियों को कुछ अक्षर, कुछ शब्द लिखना-पढ़ना-समझना सिखा दे, लेकिन उनमें अपने ही वजूद या अस्तित्व का सम्मान करना न सिखा सके, उनमें आत्म-सम्मान और स्वाभिमान की भावना विकसित न कर सके…? मेरी दृष्टि में वह शिक्षा अधूरी और अपर्याप्त है ! बच्चों में स्वाभिमान की भावना जगाना भी शिक्षा का उतना ही ज़रूरी कर्तव्य और उद्देश्य होना चाहिए, जितना उनको पुस्तकें पढ़ना सिखाना, या सवाल करना सिखाना ! इसके बिना ऐसी शिक्षा का न तो कोई महत्त्व है, न कोई मूल्य…!
ऐसा मैं क्यों कह रही हूँ…? इसका उत्तर है, कुछ तथाकथित ‘कल्याणकारी’ ‘समाजसेवी’ संस्थाओं का इन वंचित समाज के बच्चों के प्रति क्रूर और अपमानजनक व्यवहार और सम्पूर्णानन्द द्वारा बच्चों को ऐसी संस्थाओं की तथाकथित ‘कल्याणकारी-भावनाओं’ से सचेत करते हुए उनको अपने आत्म-सम्मान के प्रति सजग और सचेत करना |
…दरअसल कोरोना-काल में कुछ ‘कल्याणकारी’ संस्थाएँ ल्वाली में भी आईं थीं और राशन-वितरण के माध्यम से लोगों को भुखमरी की स्थिति में पहुँचने से बचाने की क़वायदों में जुटी थी | उन्हीं में से एक संस्था इस परिवार को भी राशन दे रही थी | एक दिन सम्पूर्णानन्द के सामने ही उस संस्था का कोई कर्मचारी जिस भाषा में बात कर रहा था, सम्पूर्णानन्द का पूरा व्यक्तित्व उस व्यक्ति और उसकी अपमानजनक भाषा एवं व्यवहारों से विद्रोह कर उठा | वह व्यक्ति उन छः बच्चों में से किसी लड़के से कह रहा था—“ओय, तू कल क्यों नहीं आया था राशन लेने…? सब लोग ले गया, केवल तू ही नहीं आया था… क्यों…? मैं तेरे घर आकर पहुँचाऊँगा क्या…? …आज आ जइयो…!”
इतनी कठोर एवं तिरस्कारपूर्ण भाषा में बच्चों के साथ उस ‘समाज-सेवक’ की बातचीत ने सम्पूर्णानंद को एक और कर्तव्य का एहसास दिलाया— बच्चों में स्वाभिमान जगाना और किसी का मोहताज न बनना…!
दिल्ली में रहते हुए मैंने ऐसी कई संस्थाओं को देखा है, बहुत क़रीब से… जो समाज के कल्याण के नाम पर देश-विदेश के धन्ना-सेठों से मोटी कमाई दान या चंदे के रूप में इकट्ठी करती हैं, ख़ासकर बच्चों, महिलाओं और वंचित तबकों के ‘कल्याण’ के नाम पर | इससे उन ‘कल्याणकारी’ संस्थाओं के भी उद्देश्य पूरे हो जाते हैं और कुछ मामलों में उन धन्नासेठों के भी ! इसके लिए उनके कुछ ख़ास तरीक़े हैं |
…कई आंदोलनों में मैंने अपनी आँखों से देखा है, कि आन्दोलनों के दौरान धरना या प्रदर्शन में इस प्रकार के संगठन उस समय आते हैं, जब यह आन्दोलन ठीक-ठाक गति पकड़ चुका होता है | ऐसे संगठन तब पता नहीं कहाँ से आकर भीड़ के बीच में से प्रकट होते हैं, अपना बड़ा-सा शानदार चमचमाता बैनर खोलते और जुलूस में फ़ैला लेते हैं, उनके कुछ ख़ास-ख़ास लोग बैनर के आगे-पीछे, अगल-बगल खड़े होकर ज़ोर-ज़ोर से ‘अन्याय के ख़िलाफ़ नारे बुलंद’ करते हैं, उनके कुछ साथी इन सबकी शानदार तस्वीरें खींचते हैं, वीडियो बनाते हैं, मीडिया भी उनको नोटिस कर लेता है और अपने वीडियो और तस्वीरों में कैद कर लेता है | और दो-तीन घंटे अपनी दमदार उपस्थिति का भरपूर एहसास कराते हुए ये जुलूस में छा जाते हैं…. और उसके कुछ घंटों बाद नदारद….! जुलूस और धरने में उनका कहीं कोई अता-पता नहीं…! वे ऐसे ग़ायब हो चुके होते हैं, जैसे गदहे के सिर से सींग …अगले कुछ ही घंटों बाद अख़बारों और टीवी में वे छाए हुए मिलते हैं…!
…ऐसी संस्थाएँ दूसरों के काम के सुफ़ल को हड़प कर ‘अपने काम’ और ‘अपनी मेहनत के सुफ़ल’ के रूप में प्रचारित करती हैं | …किसी सामाजिक-समूह के साथ, या बच्चों, स्त्रियों, वंचित-कमज़ोर तबकों के साथ कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अपनी सहज एवं वास्तविक मानवीय-संवेदनाओं एवं सामाजिक-कर्तव्यों के वशीभूत होकर, एकदम अपने निजी प्रयासों एवं निजी ख़र्च पर दिन-रात मेहनत करके उनके जीवन में कुछ बेहतर लाने की कोशिशें करते हैं | उस समय ऐसी संस्थाएँ कहीं भी दिखाई नहीं देती हैं | लेकिन जब उन व्यक्तियों के इन व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ बेहतर और सकारात्मक परिणाम आने लगते हैं, तब ऐसी संस्थाएँ अचानक प्रकट होती हैं, भगवान् की तरह, …अपनी ‘सहायता’ का छोटा-सा, लेकिन बेहद आकर्षक झुनझुना उन वर्गों को थमाती हैं …और इतने से ही उनका काम बन जाता है…! फ़िर वही पोस्टर… वही बैनर… फ़ोटोबाज़ी… अख़बारों और टीवी में छाने की क़वायादें…! और उसके बाद वे भी नदारद…. गदहे के सिर से सींग की तरह…!
हालाँकि सभी संस्थाएँ ऐसी नहीं होती हैं, लेकिन बहुत-सी तो ऐसी ही हैं…! और ऐसा मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव और ‘आँखिन देखी’ के आधार पर कह रही हूँ, हवा में नहीं…!
…तो ऐसी ही कुछ संस्थाएँ इस अध्यापक सम्पूर्णानन्द के भी इस कर्मभूमि के आस-पास सक्रिय हैं, जिनको इन बच्चों एवं दूसरे लोगों के साथ थोड़े-से राशन के लिए अपमानजनक व्यवहार करते देख इस अध्यापक का कलेजा छलनी हो गया | …और यह सर्वविदित सत्य है, कि किसी के भी साथ आप बेहद अपमानजनक और मनमाना व्यवहार कर सकते हैं, यदि वह भूखा हो और उसकी रोटी आपकी मुट्ठी में बंद हो…! शायद इसी लिए सदियों से शक्तिशाली तबके ने समाज के कमज़ोर हिस्सों की रोटी को अपनी मुट्ठी में दबाए रखा है, ताकि उनसे कभी भी कोई भी मनमाना व्यवहार किया जा सके, उनसे मनमाना काम लिया जा सके | वर्तमान समय में अपने को एक ‘कल्याणकारी’ संस्था के रूप में स्थापित करने की कोशिश में कुछ ‘कल्याणकारी’ निजी सामाजिक-संस्थाएँ भी यही तरीका अपनाती हैं |
वैसे भी एक प्रसिद्द विद्वान् ने कहा ही है, कि जिस दिन किसी समाज की सारी समस्याएँ ख़त्म या हल हो जाएँगी, उस दिन इन संस्थाओं की कोई आवश्यकता ही नहीं बचेगी और ये संस्थाएँ उसी दिन अपना वजूद खो देंगी | इसलिए दुनिया की शायद ही कोई ऐसी सामाजिक-संस्था है, जो यह चाहती हो, कि समस्याएँ हमेशा के लिए ख़त्म हो जायँ…! उनकी यही इच्छा और कोशिश रहती है, कि बेबस लोगों और समाजों की समस्याएँ कभी ख़त्म न हों, ताकि उनका वजूद बना रहे, उनकी आवश्यकता महसूस की जाती रहे, और लोगों के ‘कल्याण’ के नाम पर उनकी जेबें भरती रहें…
…अपने इन मासूम विद्यार्थियों को ऐसे लोगों और संस्थाओं की ‘कल्याणकारी-भावना’ और उसके परिणाम में बच्चों के स्वाभिमान की रोज़-रोज़ थोड़ी-थोड़ी हत्या होती देख सम्पूर्णानन्द ने तब अपने तरीक़े से बच्चों के भीतर आत्मसम्मान के बीज आरोपित करने की कवायदें शुरू की | बच्चों को यह एहसास दिलाया, कि किसी भी व्यक्ति के सामने हाथ फ़ैलाने से बेहतर होता है, स्वयं परिश्रम करके वो चीज प्राप्त करना, जिसकी उन्हें ज़रूरत या इच्छा हो | धीरे-धीरे बच्चे अपने आत्मसम्मान के प्रति सचेत भी हो रहे हैं | उनका यह अध्यापक काफ़ी संतुष्ट है, कि बच्चे और उनका निरक्षर पिता अपने सम्मान को महत्त्व देने लगे हैं…
….सवाल उठता है, कि ऐसे अध्यापकों के ऐसे छिटपुट प्रयासों से क्या बन या बिगड़ जाएगा…? लेकिन किसी ने कहा है ना, कि “कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो…!”
…जिस समाज की परंपरागत रूप से यह नियति निर्धारित कर दी गई है, कि वह हमेशा यात्रा में रहेगा और एक स्थान पर ज्यादा समय तक नहीं टिकेगा, उस समाज का यह बंजारा पिता अपने बच्चों की पढ़ाई की खातिर उसी स्थान पर, जहाँ अभी वह है, कुछ सालों के लिए रुक गया है | सम्पूर्णानन्द से ही यह सूचना मिली | पिता का कहना है— “मेरे बच्चों के अच्छे भविष्य के बारे में इतना आज तक किसी ने नहीं सोचा था, जितना आप सोचते हैं, गुरूजी…! मेरे बच्चों को आपके जैसा कोई दूसरा अध्यापक मिलेगा या नहीं, पता नहीं | इसलिए मैं अपने बच्चों के अच्छे भविष्य की खातिर अभी कुछ समय तक यहीं रहूँगा, जब तक रहना संभव होगा | क्या जाने मेरे बच्चों का जीवन सँवर जाय…?”
अपने बच्चों को पढ़ाने की खातिर एक स्थान पर टिक जाने के मामले में इस पिता का अपने समाज की मान्यताओं के विपरीत जाकर यह निर्णय लेना कोई छोटी बात तो कत्तई नहीं है, चाहे वह कुछ समय के लिए ही रुकें | यह इस अध्यापक का कठिन परिश्रम, आत्म-विश्वास, ऐसे परिवारों, वंचित वर्गों और लोगों के बेहतर जीवन एवं भविष्य के प्रति प्रतिबद्धता ही है, जो किसी घुमंतू समाज को सिर्फ़ और सिर्फ़ इस आधार पर कुछ समय के लिए रोक सका है, जो कभी एक स्थान पर टिकता नहीं, निरंतर भ्रमणशील रहता है, जिस कारण ये ‘घुमंतू’ कहलाते हैं |
…इतना ही नहीं, इसके अलावा भी अन्य कई मामलों में भी उस पिता की मानसिकता को बदलने में सम्पूर्णानन्द को कुछ शुरूआती एवं बेहतर सफ़लता मिली है, ख़ासकर इस ख़ानाबदोश समाज के नियमानुसार इन लोगों के चारपाई पर न सोने के मामले में, प्रायः गर्म कपड़े न पहनने के मामले में (यह मज़बूरी और अनुपलब्धता के कारण भी हो सकता है), बेटियों की 10-12 साल की उम्र में शादी करने के मामले में, बच्चों को अपने करियर के सम्बन्ध में किसी और विकल्प के बारे में न सोचने के मामले में, अपने पारंपरिक कार्य को और बेहतर बनाने या ज़रूरत पड़ने पर उसे छोड़कर किसी और कला को न अपनाने के मामले में |
…इसी सफ़लता में एक और बेहद मज़बूत कड़ी तब जुड़ रही है, जब उनके विद्यार्थियों में एक नन्हा विद्यार्थी, 8-9 साल का एक बालक, रंगों और चित्रकारी की दुनिया में रोज़ नए झंडे गाड़ रहा है | वह अभी से चित्रकला में इतना माहिर हो गया है, कि वह अनेक स्थानों पर अपनी मासूम कला का प्रदर्शन पूरे विश्वास के साथ कर चुका है, स्कूलों से लेकर इंटर कॉलेज तक में | अभी से उसमें सम्पूर्णानन्द को भविष्य का एक बेहतरीन चित्रकार नज़र आने लगा है …और उस बच्चे की चित्र बनाने के दौरान तन्मयता, एकाग्रता और लगन ही सम्पूर्णानन्द को इस निष्कर्ष तक ले गई है…|
इसकी कहानी विस्तार से कहूँगी… फिर कभी… किसी और लेख में…
…स्वयं भी ऐसे परिवारों के बच्चों के साथ काम करनेवाली संगीता फ़रासी, सम्पूर्णानन्द की स्वेच्छा से ली गई इन ज़िम्मेदारियों के प्रति दायित्वबोध, समर्पण, लगन और अथक परिश्रम के बारे में प्रायः ही कहती रहती हैं— “…सम्पूर्ण समर्पण-भाव से समाज के लिए या दूसरों के लिए काम करना कोई सम्पूर्णानन्द जी से सीखे…! उन्होंने तो अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है, कमज़ोर समाज के बच्चों के लिए…! न दिन देखते हैं न रात ! उन बच्चों और अपने विद्यालय के बच्चों के लिए वे ऐसे खड़े रहते हैं, जैसे वे बच्चे उन्हीं के हों, किसी और के नहीं…! उनकी ऊँचाई पाना किसी के लिए भी बेहद मुश्किल है, मैडम…! हर कोई ऐसा नहीं कर पाएगा…!”
संगीता फ़रासी के ये उद्गार अपने-आप में बहुत कुछ कहते हैं ! …क्या नहीं….??!!…
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…