वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक
भाग-एक :
यदि कोई मुझसे पूछे, कि संसार का सबसे अधिक दायित्वपूर्ण कार्य कौन-सा है ? तो निःसंकोच मेरा उत्तर होगा —अध्यापक का कार्य | क्योंकि वही समाज का निर्माता है, वही उसका विनाशक भी; वही उसका मार्गदर्शक है, वही उसका पथ-भ्रष्टक भी; वह चाहे तो समाज को नई दिशा मिल जाय और वह यदि निश्चय कर ले तो समाज को दिग्भ्रमित करके पतन की ओर धकेल दे |
यह बात कहने का अर्थ यह कदापि नहीं है, कि समाज के निर्माण में अन्य लोगों की भूमिका नहीं होती है, या नगण्य होती है | लेकिन जितनी और जिस प्रकार की भूमिका शिक्षक की होती है उतनी किसी और की नहीं होती, न हो सकती है | उसके किए का जितना अधिक एवं दूरगामी असर समाज के वर्त्तमान और भविष्य पर पड़ता है, उतना किसी और का नहीं | इसीलिए भले ही ‘राष्ट्र’ की निर्माता राजनीतिक या प्रशासनिक शक्तियाँ हों, भले ही ‘देश’ का निर्माता युवा-वर्ग हो, लेकिन ‘समाज’ का निर्माता तो उसका अध्यापक-वर्ग ही होता है | और यह भी, कि प्रकारांतर से कोई शिक्षक-समाज जिस प्रकार की पीढ़ियों की संरचना अपने द्वारा दी जाने वाली शिक्षा, विचारों, आचरण एवं व्यवहारों से करता है; उसी प्रकार का ‘देश’ और ‘राष्ट्र’ भी, उसके द्वारा निर्मित युवा-वर्ग विविध रूपों में करता है | यानी प्रत्यक्ष रूप से ‘समाज’ का निर्माण करनेवाला शिक्षक-वर्ग, परोक्ष रूप से ‘देश’ और ‘राष्ट्र’ का भी निर्माण कर रहा होता है |
तनिक इतिहास में झाकें, तो अनेक उदाहरण मिलेंगें | एक द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित केवल एक अर्जुन ने पूरे ‘महाभारत’ की तस्वीर बदल दी, जिससे ‘महाभारत’ का परिणाम उलट गया | एक चाणक्य ने केवल एक चन्द्रगुप्त का निर्माण किया और इतिहास की धारा बदल गई | बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, हम अपने समय के इतिहास को ही देख लें, एक शिक्षक कृष्णा महादेव अम्बेडकर ने अपनी सोच, चिंतन, व्यवहार से एक युवक, भीमराव रामजी अम्बेडकर, का सृजन किया, और उसका चमत्कार देखिए | केवल उस एक युवक ने इतिहास की चूलों को ऐसी हिलाई, कि सदियों से नहीं, सहस्त्राब्दियों से चली आती अनेकानेक त्रासदमय-व्यवस्थाएँ अपनी जड़ों समेत ऐसी उखड़ीं, कि सनातन-धर्मावलम्बियों के पिछले सत्तर सालों के विविध प्रयासों के बाद भी पुनः ठीक से जड़ न जमा सकीं | और समाज …? समाज में हज़ारों सालों से दमित सभी वर्गों —चाहे वह स्त्रियाँ हों या अस्पृश्य-दलित, चाहे वे शूद्र हों या आदिवासी— के लिए न सिर्फ़ उनके मानवीय अधिकारों की घोषणा हुई, बल्कि सभी को सम्मानजनक जीवन के नैसर्गिक अधिकार भी हासिल हुए | यह अलग बात है, इन सभी वर्गों को पुनः उसी अवस्था में वापस पहुँचाने की कवायदें तेज़ हो गईं हैं, और कमाल देखिए, कि इस क़वायद में भी शिक्षकों की ही प्रकारांतर से सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है |
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने बिखरे हुए मिल जाएँगें, जो यह घोषणा बार-बार करते-से मिलेंगें, कि किसी भी समाज का शिक्षक-वर्ग उसके लिए क्या महत्त्व रखता है ? वह चाहे तो समाज को प्रगति के पथ पर ले चले, और चाहे तो उसे विनाश के गर्त में धकेल दे | सोचने की बात है, कि जब ऐसे विद्यार्थी सामूहिक रूप से ‘तैयार’ किए जाएँगे, सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी रूप में, जो अपने देश के युवा-वर्ग के रूप में विभिन्न प्रकार की शासनिक-प्रशासनिक एवं राजनीतिक भूमिका निभाते हुए उसी प्रकार से मिली हुई शिक्षा के अनुरूप देश और समाज को सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में ले जाएँगे, तब उस समाज की तस्वीर क्या होगी ….?
अपनी इस भूमिका, और अपने इस दायित्व की गंभीरता को जो अध्यापक बहुत ही संजीदगी से समझते हैं, वे इस ज़िम्मेदारी के प्रति सावधान भी रहते हैं, और ज़िम्मेदारी से उसका निर्वहन भी करते हैं | मेरे अध्ययन-अध्यापन का क्षेत्र ही कुछ ऐसा रहा है, कि मेरा साबका अक्सर विविध प्रकार के और विभिन्न श्रेणियों के शिक्षक-समुदायों से पड़ता ही रहता है—विश्वविद्यालय की दुनिया से लेकर प्राथमिक-शालाओं के अध्यापकों तक |
पौड़ी में रहते हुए मैंने अनेक अध्यापकों के कार्यों को बहुत नज़दीक से देखा है, उनके साथ जुड़ी, उनके साथ कुछ गतिविधियों में भागीदारी भी की | और इसीलिए उनके साथ काम करते हुए, विचार-विनिमय करते हुए उनके व्यक्तित्व को बहुत क़रीब से देखने-समझने के मौक़े मिले, जो मेरी डायरी के हिस्से बने | इसलिए मेरी यह धारणा यूँ ही नहीं है, कि किसी समाज का शिक्षक-समुदाय जिस प्रकार का होगा, उस समाज का स्वरूप भी उसी के अनुरूप होगा |
इन कुछेक दशकों में अनेक स्थानों पर मुझे एक से बढ़कर एक ऐसे कर्मठ अध्यापक भी मिले, जिनके लिए उनका अध्यापन-कार्य किसी मंदिर-मस्जिद में पूजा-इबादत से कहीं बढ़कर रहा है, उनके लिए उनका प्रत्येक विद्यार्थी उनकी ‘ज़िम्मेदारी’ रहा है | और ऐसे भी अध्यापक दर्ज़नों की संख्या में मिले, जिनके लिए उनका अध्यापन-कार्य ‘मोटी आय का ज़रिया-मात्र’ होता था, जिनकी दृष्टि में प्रत्येक समाज के बच्चे को पढ़ने का अधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि “यदि सब पढ़-लिख जाएँगे, तो उनके घरों से कूड़ा कौन उठाएगा, सड़कों की सफ़ाई कौन करेगा, मरे जानवरों को उनके घरों के सामने से कौन हटाएगा ?”
लेकिन यदि यह सत्य है, कि हर दौर में कुछ नकारात्मक सोचवाले लोग होते हैं, तो यह भी सत्य है, कि हर दौर में सकारात्मक सोचवाले लोग भी होते हैं, प्रत्येक वर्ग में —सवर्ण हो या अवर्ण, हिन्दू हो या मुसलमान, महिला हो या पुरुष…| और सकारात्मक सोच वाले ऐसे ही अध्यापकों की बदौलत समाज धीरे-धीरे परिवर्तन की ओर बढ़ता है —सकारात्मक-मानवीय-गरिमायुक्त परिवर्तन की ओर …!
हर चेहरा अपने व्यक्तित्व का आईना नहीं होता…
समाज में मानवीय गरिमा की स्थापना करने की कोशिशों की ओर अग्रसर अध्यापकों में एक नाम सम्पूर्णानन्द जुयाल जी का भी है | उनसे एवं, उन्हीं की भाँति समाज के दबे-कुचले समुदायों के बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए समर्पित एक अन्य अध्यापिका, संगीता फ़रासी जी से मेरी भेट एक इत्तिफ़ाक से हुई, वस्तुतः इस एक ‘इत्तिफ़ाक’ ने मुझे दो ऐसे लोगों से मिलाया, जिनकी एक अमिट-सी छाप मेरे मन-मस्तिष्क पर पड़ गई, और इसी कारण उनसे प्रत्येक मुलाक़ात एवं बातचीत को मैंने अपनी डायरी का हिस्सा बनाया…
…तब मैं, बच्चों की शिक्षा को समर्पित एक संस्था में कार्य करती थी, बतौर सुगमकर्ता ( Knowledge Resource Person), जब मेरी पोस्टिंग पौड़ी (उत्तराखंड) में हुई थी | वहीँ पर मैंने ऑफिस में अपने सहकर्मियों से कई बार सम्पूर्णानन्द जी का ज़िक्र सुना था | और वहीं एक दिन उनसे मेरी मुलाक़ात उस ऑफिस में हुई, जहाँ मैं कार्यरत थी | दरअसल संस्था, जैसाकि ऊपर बताया गया है, बच्चों की शिक्षा को समर्पित है, लेकिन उसका काम शिक्षकों के साथ है, क्योंकि शिक्षकों की विभिन्न प्रकार की ट्रेनिंग के माध्यम से बच्चों की शिक्षा को सुगम बनाए जाने का काम संस्था द्वारा किया जाता है | और इसीलिए वहाँ कई अध्यापक आते रहते है |
हालाँकि सम्पूर्णानन्द जी बहुत कम, यदा-कदा ही वहाँ आते थे, उक्त संस्था में डेढ़ साल तक रहने के दौरान मैंने उनको वहाँ बमुश्किल केवल तीन-चार बार ही देखा था | इसका कारण क्या था, ये तो संस्था को पता होगा, या जुयाल जी को | लेकिन वे जब 14 मार्च 2019 को मेरी उपस्थिति में वहाँ आए, तो मैं हमेशा की तरह चुपचाप अपने लैपटॉप में आँखें गड़ाए अपने काम में तल्लीन थी |
वे वहाँ लगभग साढ़े तीन घंटे तक रहे, लेकिन मैं उनसे सामान्य औपचारिकता से अधिक कोई विशेष बात नहीं कर पाई, क्योंकि संस्था के लीडर और पुराने कर्मचारियों द्वारा मुझे अपने सहकर्मियों सहित किसी भी अध्यापक या उनके विद्यार्थियों से बात करने की सख्त मनाही थी और वे लोग मुझपर और मेरे काम पर लगातार नज़र रखते थे | हालाँकि मुझे उम्मीद ही नहीं विश्वास भी था, कि एक दिन भविष्य में मेरे प्रति सबका विरोधात्मक रवैया एवं व्यवहार अवश्य बदल जाएगा | सम्पूर्णानन्द जी ने मुझे कई बार टोका भी कि, “मै’म, आप कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं ? …मैं आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा हूँ ?” मेरे पास उनकी बात के लिए कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था, इसलिए मैं उस दिन एक हल्की-सी मुस्कराहट में उनकी बात को बार-बार टालती रही …
एक बात और, जिसके कारण मुझे स्वयं भी उनसे बातचीत करने में उस दिन कोई विशेष रूचि नहीं जग पाई | दरअसल उनकी बातचीत के दौरान उनके चेहरे की भाव-भंगिमा से कुछ-कुछ ऐसा भाव-सा टपकता रहता है, जिसे देखकर, उन्हें क़रीब से नहीं जाननेवालों के मन में उनकी नकारात्मक छवि-सी बन सकती है, जोकि बनती ही रहती है, और जिसके बारे में अक्सर दूसरे अध्यापकों एवं अपने अन्य सहकर्मियों से सुनती ही रहती थी |
कहते हैं, कि किसी व्यक्ति का चेहरा उसके मन का आइना होता है, लेकिन यदि इस उक्ति पर विश्वास किया जाय, तो कहना होगा, कि सम्पूर्णानन्द जी का चेहरा उनके मन एवं व्यक्तित्व के बारे में सच नहीं बताता, वह उनके मन का आइना नहीं है | उनका मन, यदि आज उनके बारे में मेरा विश्लेषण एवं आकलन कुछ ठीक-ठाक है, जितना सुन्दर और सराहनीय है, उनके चेहरे के भाव उस मन का साथ नहीं देते | बल्कि मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि जिसने यह उक्ति बनाई, वह शायद यह कहना भूल गया, कि हर व्यक्ति का चेहरा उनके मन का दर्पण नहीं हो सकता, और ऐसे चेहरे अपने मन की कोमलता और पवित्रता की रक्षा में कुछ कठोर भावों को पर्दे की तरह इस्तेमाल करते हैं | काफ़ी संभव है, कि उनके व्यक्तिगत जीवन में ऐसे संघर्षपूर्ण उतार-चढ़ाव रहे हों, जिन्होंने इस सुन्दर मन वाले व्यक्ति के चेहरे पर कटुता एवं कुछ अन्य नकारात्मक भावों को चस्पा कर दिया हो, जिसे यह व्यक्ति अपनी निरंतर मुस्कुराहटों एवं खिलखिलाहटों में छिपाने की कोशिशें करता है…! ….और जिसको जानना समझना अभी मेरे लिए शेष है….
इसी कारण मैंने उनके विषय में, अपनी शुरूआती अरुचि के बावजूद, उस समय कुछ भी धारणा बनाना, कुछ भी विचार करना, कोई भी राय कायम करना स्थगित कर दिया | दरअसल समय वह मार्गदर्शक गुरु होता है, जो हमारे अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर ठीक और उचित समय पर देता है…
अस्तु…
उस दिन सम्पूर्णानन्द जी मेरे सहकर्मियों से बातें करते रहे और मैं वहीँ पर बैठी अपने लैपटॉप पर झुकी हुई निरंतर अपने काम में तल्लीन रही | चूँकि मैं सम्पूर्णानन्द जी से, मेरे सहकर्मियों की चल रही बातचीत का हिस्सा नहीं थी, इसलिए अपने काम में लगी रही | इस दौरान बीच-बीच में जब भी मेरा ध्यान थोड़ी देर के लिए टूटता, उनकी कुछ बातें मेरे कानों में पड़ जाती थीं |
मेरे कानों में पड़ी उनकी छिटपुट बातों से मैं प्राथमिक रूप से यही समझ पाई, कि सम्पूर्णानन्द जी दिल के काफ़ी खुले इन्सान हैं, स्वभाव से मिलनसार हैं और अपने व्यवहार में हँसमुख, जिन्हें बहुत सारे मुद्दों पर लोगों से खुलकर बातें करना पसंद है | और शायद यही बेबाक़ी, यही खुलापन उनकी बननेवाली नकारात्मक छवि का कारण भी है, जैसाकि मैंने अनेक अवसरों पर अपने सहकर्मियों एवं अन्य अध्यापकों की बातों से अनुमान लगाया | लेकिन इतने-मात्र से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं वैचारिक-व्यावहारिक संसार को ठीक से न तो जाना जा सकता है, और न ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है …
…उनके बारे में कुछ ठीक से जानने का अवसर तब मिला, जब इत्तिफ़ाक से श्रीनगर की एक अध्यापिका, संगीता फ़रासी जी के साथ काम करने का मौक़ा मिला | वस्तुतः इस सिलसिले में संगीता जी से मुलाक़ात एवं उनके साथ काम करने के लिए सम्पूर्णानन्द जी ही माध्यम बने थे, यानी मैं उन्हीं के माध्यम से संगीता जी से जुड़ पाई थी |
…दरअसल जून 2019 के शुरुआती दिनों में एक दिन मेरी सहकर्मी एवं मित्र पल्लवी पाण्डे ने सम्पूर्णानन्द जी एवं संगीता जी का प्रस्ताव मेरे सामने रखते हुए मुझसे कहा था
- “दीदी, एक मैडम हैं, श्रीनगर में…संगीता फ़रासी मैडम… वे भीख माँगने वाले बच्चों के साथ काम करती हैं और वे चाहती हैं, कि तुम आर्ट और क्राफ्ट को लेकर उनके बच्चों के साथ कुछ काम करो | जुयाल सर (संपूर्णानंद जुयाल जी) का मेरे पास फ़ोन आया था, वे पूछ रहे थे, कि क्या तुम उनके साथ काम करना पसंद करोगी ?”
पल्लवी की बात से मेरे सामने धर्मसंकट खड़ा हो गया | क्योंकि एक तो, जैसाकि कि ऊपर जिक्र है, कि संस्था ज्वाइन करने के कुछ ही दिनों बाद, पुराने स्थानीय कर्मचारियों के अपने लाभ-लोभ के कारण मेरे मेंटर और लीडर द्वारा मुझे किसी से भी संपर्क एवं बात करने से सख्ती से मना किया गया था | दूसरे, मैं उक्त दोनों अध्यापकों के विषय में, उनके काम के विषय में कुछ ख़ास नहीं जानती थी, इसलिए तत्काल यह निर्णय कर पाना मेरे लिए कुछ मुश्किल था, कि उनके साथ काम करना ठीक होगा या नहीं, क्योंकि पिछले डेढ़-दो दशकों के दौरान ऐसे कई लोग और संस्थाएँ अक्सर मिलते रहे हैं, या उनके बारे में अक्सर अलग-अलग स्रोतों से जानकारी मिलती रही है, जिनके खाने के दाँत और होते हैं एवं दिखाने के दाँत कुछ और… | मैं इस समय भी ऐसे ही अनुभवों से लगातार गुजर रही थी और इस दौरान घटित एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना से मिले कटु अनुभवों को मैंने एक कहानी (‘औकात वाले सपने’) में पिरोकर इसी ब्लॉग पर पोस्ट भी किया है |
इन्हीं कटु अनुभवों के कारण उक्त अध्यापकों की ओर से मिले इस एक अच्छे एवं सकारात्मक प्रस्ताव की भी निश्छलता पर मुझे तत्काल विश्वास नहीं हो सका | साथ ही मुझे इस विषय में भी कोई जानकारी नहीं थी, कि ये दोनों अध्यापक वास्तव में क्या काम और किस उद्देश्य से करते हैं ? सिवाय इसके कि वे भीख माँगते बच्चों की शिक्षा और बेहतरी के प्रयास कर रहे हैं | इन्हीं कारणों से शुरुआत में मैंने पल्लवी के माध्यम से मिले शिक्षकों के इस प्रस्ताव को टालने की कोशिश की
- “पल्लवी, आप तो जानती हैं, कि मैं संगीता जी को या सम्पूर्णानन्द जी को अधिक नहीं जानती, फिर मैं ऐसे कैसे चली जाऊँ…?”
अपनी तरफ़ से चूँकि मैंने किसी को भी, मेंटर एवं लीडर से मिले आदेश के बारे में नहीं बताया था, इसलिए मैंने पल्लवी से झूठ बोला, लेकिन कुछ नहीं जानने के कारण उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया
- “दीदी, तुम जाओ, तुम्हें अच्छा लगेगा उनके साथ काम करके …वे लोग बहुत अच्छे हैं …|”
तब पल्लवी के स्नेहिल आग्रह पर मैं सोचने लगी और फ़िर विचार करने के लिए मैंने उनसे थोड़ा समय माँगा | मैंने सोचा, कि अध्यापकों के बारे में कुछ भी राय बनाने से पहले ख़ुद उनके साथ थोड़ा समय बिताकर, उनके साथ कुछ काम करते हुए उनको समझने की कोशिश करना ज़्यादा बेहतर होगा |
इसके अलावा पल्लवी की बात को टालना भी इतना आसान नहीं था, क्योंकि उस समय उनके, मुझसे आयु में लगभग आधी होने के बावजूद उन्हें कुछ मामलों में मैं अपनी गुरु मानती हूँ | उन्होंने संस्था में, मेरी उस समय मदद की, जब मैं वहाँ एकदम नई कर्मचारी थी, और वहाँ के काम को ठीक से समझने के लिए मुझे पुराने सहकर्मियों की मदद की बहुत अधिक ज़रूरत थी, जो नहीं मिली थी | इस कारण मुझे वहाँ के काम को समझने में बहुत अधिक दिक्क़तें हो रही थीं | ऐसे में मेरी सहायक बनी यह 21-22 वर्षीया लड़की, पल्लवी पाण्डे, जो अपनी आंशिक नेत्रहीनता और उससे उपजी तथाकथित ‘कुरूपता’ एवं ‘’अयोग्यता’ के कारण स्वयं भी वहाँ कुछ उपेक्षित-सी थी | उन्होंने ही संस्था के काम के स्वरुप को, उसके ढंग को, काम के तौर-तरीक़ों को समझने में मेरी मदद की | साथ ही उन्हीं की मदद से वहाँ के शिक्षकों, विद्यालयों और पौड़ी के समाज को भी समझने में मुझे काफ़ी सहायता मिली | इस अर्थ में मैं उन्हें अपनी गुरु मानती हूँ …
इसलिए उनकी बात को इतनी सरलता से नज़र अंदाज़ कर देना इतना सरल नहीं था | तब सबसे पहले मैंने अपने मेंटर एवं लीडर से अनुमति ली, ताकि बाद में कोई परेशानी न करें | हालाँकि उक्त दोनों अध्यापकों ने संस्था से इतर मुझसे मदद माँगी थी, और रविवार (छुट्टी का दिन) होने के कारण मैं कहीं भी किसी के भी साथ काम करने को स्वतंत्र थी, लेकिन तब भी मैंने अपने कटु अनुभवों के आधार अनुमति लेना आवश्यक समझा | और अच्छी बात यह रही, कि इसमें कोई दिक्क़त भी नहीं आई, क्योंकि इससे संस्था को ही लाभ होना था, शिक्षकों को संस्था से जोड़ने के सन्दर्भ में | उसके बाद मैंने अपनी सहमति पल्लवी के माध्यम से उन दोनों अध्यापकों तक पहुँचा दी |
…तय दिन और समय पर, यानी 5 जून 2019 को सुबह मैं सम्पूर्णानन्द जी के साथ उनकी बाइक से अपने गंतव्य, यानी श्रीनगर जाने के लिए निकली | पौड़ी से श्रीनगर का सड़क-मार्ग से रास्ता करीब एक घंटे का है, और उस एक घंटे का सफ़र मेरे लिए बहुत यादगार रहा, क्योंकि उसी एक घंटे के दौरान मुझे इस अध्यापक, सम्पूर्णानन्द जी, के व्यक्तित्व का पहला ठोस परिचय मिला —उनके व्यवहार के माध्यम से, उनकी बातचीत के माध्यम से…| सड़क पर आ-जा रहे अन्य लोगों के प्रति उनका व्यवहार, बाइक चलाते हुए पैदल यात्रियों के प्रति व्यवहार, सुबह-सुबह पहाड़ों की ऊँची खड़ी ढलानों पर घास काटती एवं लकड़ियाँ इकट्ठी करती महिलाओं के प्रति उनके विचार… बिना कुछ बोले ही उनके बारे में बहुत कुछ बता रहे थे …और मेरे प्रति भी, एक अल्प-परिचित महिला के प्रति… व्यवहार भी तो देखने-समझने लायक था…
इस एक घंटे की ‘बाइक-यात्रा’ के दौरान हमारी बातचीत अनेक मुद्दों पर हुई, अनेक मसलों पर उन्होंने अपनी राय रखी, अपने विद्यालय के बारे में, अपने विद्यार्थियों के बारे में, समाज और देश के हालात के बारे में… यानी बहुत सारी बातें | लेकिन अंततः सब तरफ़ से घूम-फिरकर उनकी बातचीत का विषय बार-बार एक ही बिंदु पर आकर रुक जाता, कि “मैं अपने बच्चों के लिए ऐसा क्या करूँ कि उनको पढ़ना-लिखना बहुत अच्छा लगने लगे ?”, कि “किस तरीक़े से पढ़ाऊँ कि उनको आसानी से वह समझ में आ जाय ?”, कि “मैं उनमें पढ़ने की ललक कैसे पैदा करूँ ?”, कि “ऐसा क्या करूँ, कि मेरे बच्चों का भविष्य उज्ज्वल हो जाय ?”, कि “उनको कैसे पढ़ाऊँ कि वे अपने जीवन में ख़ूब तरक्की करने लगें?”, कि “उनके माता-पिता को कैसे समझाऊँ कि वे अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने को तैयार हो जायँ ?”, कि “ऐसा क्या काम करूँ, कि सरकारी स्कूलों के प्रति माता-पिता का, समाज का, व्यवस्था का नज़रिया बदले ?”….आदि…आदि !
उनकी बातें और ‘अपने बच्चों’ के लिए उनकी ऐसी गहरी चिंता देख-सुनकर मेरी आँखें नम हो जाती थीं, हालाँकि बाइक पर मैं पीछे बैठी थी, इसलिए उनको पता नहीं चला | पूरे रास्ते मैं यही सोचती रही, कि क्या सच में भीड़ भरी तथाकथित ‘मुख्यधारा की दुनिया’ से दूर किन्हीं दूर-दराज के पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसे अध्यापक मौजूद हैं, जो सभी सुविधाओं एवं सभी मानवीय अधिकारों से भी दूर इन दमित समुदायों के इन ‘अपने बच्चों’, यानी विद्यार्थियों के भविष्य को लेकर इस कदर चिंतित रहते हैं ?
जब हम अपने गंतव्य पर पहुँचे, तो वहाँ भी मुझे उनके व्यक्तित्व के उजले पहलुओं के दर्शन अनेक बार हुए | यूँ तो प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में सकारात्मक एवं नकारात्मक, दोनों पक्ष मौजूद होते हैं, कम या अधिक मात्रा में, लेकिन जब किसी का उजला पक्ष इस हद तक आभायुक्त हो, कि उसमें उसकी छोटी-मोटी नकारात्मकताएँ छिप जायँ, तो वे अक्सर आँखों से ओझल-सी हो जाती हैं | सम्पूर्णानन्द जी एवं संगीता जी जैसे लोगों के सन्दर्भ में भी यही सच है |
जब हम श्रीनगर पहुँचें और एक मकान के सामने रुके, तो वहाँ पहले से लगभग 10-12 बच्चे खड़े हुए अपने अध्यापकों का इंतज़ार कर रहे थे | थोड़ी देर बाद संगीता जी भी आ गईं | उन्होंने सामने के उस मकान की बाउंड्री के भीतर जाकर दरवाज़े का ताला खोला और सभी बच्चे उल्लास में शोर मचाते उसमें चले गए | दरअसल वह एक छोटा-सा कमरा था, जिसे अध्यापकों ने किराए पर लिया था, उन बच्चों के साथ पढ़ने-लिखने से लेकर कलात्मक-गतिविधियाँ करने के लिए | वहाँ उनके लिए सात दिवसीय ग्रीष्मकालीन कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा था |
ये बच्चे दरअसल सडकों पर भीख माँगने वाले बच्चे थे, जिनका सम्बन्ध ख़ानाबदोश समुदाय से था | इनके साथ वस्तुतः संगीता जी ने काम शुरू किया था, जिनके बारे में दो आलेख मैंने इसी ब्लॉग पर पोस्ट किए हैं | रही बात सम्पूर्णानन्द जी की, तो इस अध्यापक के समर्पण एवं सहयोगी प्रवृत्ति और इन बच्चों के प्रति संवेदना उस दिन देखते ही बनती थी |
किसी दूसरे के काम में इस हद तक समर्पण-भाव से सहयोग देना कोई इनसे सीखे | समाज जानता है (हालाँकि इन शिक्षकों के काम के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, जबकि ऐसे कठिन एवं जटिल कार्यों में समाज के प्रोत्साहन और सहायता की बहुत ज़रूरत होती है), कि इन ख़ानाबदोश याचक-बच्चों के साथ संगीता जी का जुड़ाव है, लेकिन शायद कम लोग ही जानते हैं, कि कुछ कार्यों में उनके सहयोगी अन्य अध्यापक भी हैं | हालाँकि संगीता जी अपनी बातचीत में अपने सहयोगियों का जिक्र अक्सर करती रही हैं, वह भी बड़ी ही आत्मीयता और आदर के साथ, ख़ासकर सम्पूर्णानन्द जी एवं एक और अध्यापक आशीष नेगी जी का | उन्हीं की बातचीत से मुझे सम्पूर्णानन्द जी के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं के बारे में जानकारी मिली…
…सुबह लगभग 9:00 बजे से लेकर अगले लगभग चार-साढ़े चार घंटे तक मैं उन लोगों के साथ रही | इस दौरान इन दोनों अध्यापकों के व्यक्तित्व के बहुत सारे रंग देखने को मिले |
इसी बीच संगीता जी ने उन्हीं बच्चों में से किसी विद्यार्थी के बारे में पूछा, जो इस कार्यक्रम में शामिल होने नहीं आया था | जब बच्चों ने उनसे बताया, कि वह एक रेड लाइट पर भीख माँग रहा है, तो संगीता जी बच्चों को मेरी ज़िम्मेदारी पर थोड़ी देर के लिए छोड़कर, संपूर्णानंद जी के साथ उनकी बाइक पर तुरंत उस बच्चे को वहाँ से लाने के लिए निकल पड़ीं और सम्पूर्णानन्द जी के चेहरे पर एक बार भी झुंझलाहट या कोफ़्त जैसा कोई भाव नहीं आया, जैसे वे किसी मन्त्र से बद्ध हों, और जो कह दिया जाय, वे चुपचाप बिना किसी प्रतिक्रिया के करते चले जाएँगे | उनके जाने के बाद मैं काफ़ी देर तक उस ‘बाँधने वाले मन्त्र’ के बारे में सोचती रही…
ऐसे ही नज़ारे बच्चों के साथ काम करते हुए अनेक बार दिखे, बच्चे शरारतें करते थे, कई बार सम्पूर्णानन्द जी की बातें वे समझ नहीं पाते थे, तो इस कर्यशाला की शैक्षणिक गतिविधियों के दौरान कुछ बच्चे किसी और चीज में या परस्पर बातचीत में व्यस्त हो जाते थे….यानी अनेक ऐसे अवसर आए, जिनमें सरकारी विद्यालयों में अक्सर वेतन के बदले काम करते अध्यापकों को तुरंत झुंझलाकर बच्चों की पिटाई करते भी मैंने देखे हैं | लेकिन यहाँ बिना किसी वेतन के काम करनेवाले अध्यापकों को झुंझलाहट से दूर, बेहद ख़ुशमिजाज़ ढंग से, बच्चों के साथ हँसते-खेलते काम करते देखना बेहद ही सुखद अनुभव था |
ये बच्चे तो दरअसल संगीता जी के दायित्व के अधीन थे, जिनकी ज़िम्मेदारी उन्होंने स्वेच्छा से उठाई थी, लेकिन सम्पूर्णानन्द जी की, ‘किसी अन्य के दायित्व’ इन बच्चों के प्रति आत्मीयता, उनकी संवेदनशीलता देखते ही बनती थी | इस बीच संगीता जी ने उन्हें साधिकार अनेक ‘निर्देश’ दिए, जिन्हें सम्पूर्णानन्द जी बिना किसी तनाव या झुंझलाहट के करते रहे —बच्चों को पढ़ने-लिखने से संबंधित गतिविधियाँ कराने से लेकर उनके लिए सामान लाना, उनके खाने की व्यवस्था करना आदि |
जब संगीता जी उनके साथ बच्चों के भोजन की व्यवस्था करने जा रही थीं, तो दोनों अध्यापकों ने बच्चों से पूछा –“बच्चो, आज कौन-सी आइसक्रीम खाओगे, तुमलोग?”, तो बच्चों ने निःसंकोच अपनी-अपनी पसंद बताई | मैं समझ गई, कि बच्चे अपनी अध्यापिका सहित उनके साथ भी किस हद तक खुले हुए हैं, कि वे अपनी पसंद निःसंकोच बता सकते हैं, वह भी भोजन की नहीं, बल्कि आइसक्रीम की, जिसे कम से कम भीख माँगने वाले बच्चों के साथ तो जोड़कर नहीं ही देखा जा सकता है, जहाँ भोजन के एक-एक निवाले के लिए संघर्ष होता हो | आइसक्रीम तो उनकी पसंद में शामिल वस्तु है, जिनके पास भोजन की चिंता नहीं होती, और आइसक्रीम के लिए उनके पास अतिरिक्त साधन-संसाधन और सुविधा भी होती है | और यहाँ बच्चों की इच्छा एवं पसंद-नापसंद का इस हद तक ध्यान रखना, इन दोनों अध्यापकों के बारे में बहुत कुछ बताता है |
उस दिन मिले अनुभवों ने मुझे इन दोनों अध्यापकों, विशेष रूप से सम्पूर्णानन्द जी, के बारे में और अधिक जानने को उत्सुक कर दिया, क्योंकि दूसरों की तरह मैंने भी शुरुआत में उनके चेहरे से अभिव्यक्त होनेवाले भावों के आधार पर उनके व्यक्तित्व के प्रति विलगाव एवं अनाकर्षण-सा महसूस किया था, जब मैं उनको नहीं जानती थी, उनके काम एवं उनके मन की संवेदनाओं की गहराई से परिचित नहीं थी…| उस व्यक्ति को जानना अब ज़रूरी था, जिनके चेहरे पर आनेवाले भाव या उनकी बातचीत के दौरान झलकने वाली बेबाकी और खुलापन उनके मन को अभिव्यक्त नहीं करते हैं, उस अध्यापक को समझना आवश्यक था, जिसकी चिंता में केवल उनके ‘बच्चे’ शामिल थे, …क्योंकि अपने व्यक्तित्व को भी माँजने के लिए ऐसे लोगों के बारे में जानना आवश्यक होता है, जो बिना शर्त ‘किसी और के दायित्व-निर्वहन’ में उसके ‘निर्देशों’ का पालन किया करते हैं, …ऐसे व्यक्तियों को जानने पर उस मन्त्र को भी समझा जा सकता है, जिससे बद्ध होकर वे दूसरों के काम को भी अपने काम की तरह समझते हैं …
आख़िर अपने समय में अध्यापक-समाज की भूमिका एवं उसके क्रिया-कलाप ही तो वह खिड़की है, जिससे हम भविष्य के भारत को देख सकते हैं ! हमारे समाज के भविष्य को समझने के लिए अध्यापकों की वैचारिक दुनिया को ही तो समझना ज़रूरी है, ताकि हम जान पाएँ, कि भविष्य में हमारा समाज किस दिशा की ओर जाने वाला है, किस प्रकार के समाज की रचना होने वाली है, किस वैचारिक-बौद्धिक आयामों वाला युवा-वर्ग निर्मित होने वाला है…???…
… बात अभी जारी है….
- डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
सचमुच ऐसे शिक्षकों की समाज को बहुत ही आवश्यकता है जो समाज में अपनी जिम्मेदारी की समझते हैं और पूर्ण निष्ठा से उसे पूरा भी करते हैं।