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बातें कही-अनकही…

भाग-एक : ‘पहली अध्यापिका’

तत्कालीन सोवियत रूस के एक क्षेत्र कज़ाकिस्तान के लेखक चिंगिज़ एतमाटोव द्वारा रचित ‘पहला अध्यापक’ पढ़ने के बाद मैं कभी उस अध्यापक दूइशेन को भूल ही नहीं सकी, जिसने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए न केवल अपनी पूरी ऊर्जा ही ख़र्च कर डाली, बल्कि उसके लिए अपना जीवन संकट में डाल दिया ! और इससे भी आगे बढ़कर अपनी एक किर्गीज विद्यार्थी आल्तीनाई सुलैमानोव्ना की केवल शिक्षा के लिए ही नहीं बल्कि उसकी जीवन-रक्षा के लिए भी स्वयं अपना जीवन तक दाँव पर लगा दिया | मैं अक्सर सोचती हूँ कि कोई अध्यापक अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने की ‘प्रबल इच्छा’ किस सीमा तक रख सकता है और उसके लिए कहाँ तक कष्ट सहने की क्षमता रखता है, किस सीमा तक जा सकता है, या कितना परिश्रम कर सकता है; तो कुछ चेहरे भी अवश्य मेरी आँखों के सामने घूमने लगते हैं…

सरिता मेहरा नेगी…! जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क (कोटद्वार, उत्तराखंड) के दायरे में स्थित एक विद्यालय की अध्यापिका (इन्चार्ज) | सरिता मेहरा वह नाम है, जिन्होंने हमारे देश के एक उपेक्षित समाज के बच्चों के लिए विद्यालय बनाने के निश्चय के साथ कोशिश शुरू की और अंततः उसे धरातल पर उतार लाईं ! कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरी में रहने के लिए तो यह केवल उनकी नौकरी का हिस्सा भर है, जिसको कोई भी शिक्षक करेगा ही; इसमें क्या बड़ी बात है, या उन्होंने इसमें कौन-सा करिश्मा कर दिया? बात तो ठीक है; क्योंकि जिस प्रकार की हमारे सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों की छवि बनी हुई है, उसे देखते हुए समाज शायद ही अपने सरकारी अध्यापकों से किसी ‘चमत्कार’ की उम्मीद रखता है |

लेकिन जनाब, ठहरिए…! हमारे इसी शिक्षक-समाज में कुछ ऐसे अध्यापक मौजूद हैं, जो अपने कर्तव्यों को इतने संवेदनशील एवं दायित्वपूर्ण ढंग से निभाते हैं कि देखनेवाले उसे किसी ‘चमत्कार’ से कम नहीं समझ सकेंगे ! सरिता मेहरा नेगी एक ऐसा ही नाम है, जिन्होंने अपने कर्तव्य के रूप में वाकई में समाज के उन बच्चों के लिए ‘चमत्कारों’ की श्रृंखला बना रखी है, जिसके विषय में वे केवल इतना ही कहती हैं— “यह तो मेरा काम है, यदि मैं इतना भी नहीं करुँगी, तो मुझे ‘टीचर’ के पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है | फ़िर तो मुझे ये काम छोड़ देना चाहिए |”

और ये ‘उपेक्षित समाज’ कौन है, जिसकी ओर देखने की भी फुर्सत किसी के पास नहीं है और यह शिक्षिका उसके लिए एक स्कूल की ख़ातिर ‘व्यवस्थाओं’ का सामना करती हैं?

दरअसल जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के इलाक़ों में वन-गूजरों की प्रवासी आबादी रहती है, जो मौसम या परिस्थितियों के अनुसार अपने समस्त साज़ो-सामान और पशुओं के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करती रहती है | इसी कारण ये ‘घुमंतू’, ‘ख़ानाबदोश’ और ‘बंजारे’ कहे जाते हैं | इनका जीवन इतना अस्थाई और भविष्य अनिश्चित होता है कि तथाकथित ‘सभ्य समाज’ इनकी ओर ध्यान देना भी आवश्यक नहीं समझता | लेकिन ऐसा क्यों…? समाज इनके साथ ऐसा क्यों करता है…? इसके लिए कुछ पीछे जाकर एक नज़र इतिहास की ओर देखना होगा…

भारत में आर्यों के आने के बहुत समय बाद जब पुनः विदेशी-जातियों के विविध समूहों के आने का सिलसिला शुरू हुआ, तब शक, कुषाण, पह्लव, पार्थियन, हूण, गुर्जर, जाट, आभीर आदि के रेले भी आए | 8वीं शताब्दी में हर्षवर्द्धन के शासनकाल की समाप्ति के बाद जब भारत में वंचित-समुदायों (शूद्र, यानी वर्तमान ओबीसी; अन्त्यज-अस्पृश्य-आदिवासी, यानी वर्तमान दलित और आदिवासी) ने ब्राह्मणों के अत्याचारों की अति हो जाने पर ‘बौद्ध-सिद्धों’ के नेतृत्व में विद्रोह का बिगुल बजा दिया और ब्राह्मणों के एकान्तिक अधिकार के लिए शस्त्र उठानेवाले क्षत्रिय उस समय तक शक्तिहीन हो जाने के कारण ब्राह्मणों के किसी काम के नहीं रहे; तब ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ-रक्षा के लिए आबू पर्वत पर यज्ञ करके इन्हीं विदेशी समूहों का ‘राजपूतीकरण’ किया और इन्हें नाम दिया ‘राजपूत’, जिनको उन्होंने ‘अग्निवंशी’ कहा | इन्हीं नवीन राजपूतों ने कुछ अंशों में ब्राह्मणों की स्वार्थ-रक्षा के लिए भारत के वंचित-समुदायों पर अपने शस्त्र चलाए और आज तक उनके सबसे कारगर अस्त्र बने हुए हैं |

किन्तु इन समुदायों, यानी ‘अग्निवंशीय राजपूत’, में भी सभी लोगों को सैनिक का काम नहीं मिलता था; क्योंकि कोई भी समुदाय केवल सैनिक-वृत्ति के बल पर नहीं जीवित रह सकता; उसे भोजन, वस्त्र और जीवन-यापन की दूसरी मूलभूत वस्तुएँ भी चाहिए ही | इसके लिए हर समुदाय में अनेक तरह के काम करनेवाले लोग समुदाय के भीतर ही छोटे-छोटे समूहों में रहते थे; जैसे समुदाय के लिए भोजन की व्यवस्था करने के उद्देश्य से आसपास से खाद्य-सामग्री एकत्र करनेवाले, मांसाहार एवं दुग्ध-उत्पादों के लिए पशुपालन करनेवाले, कपड़े बनानेवाले, बर्तन और लोहे आदि के हथियार एवं औज़ार बनानेवाले इत्यादि | यह व्यवस्था उनके ‘राजपूतीकरण’ से पूर्व से ही विद्यमान थी | और जब इनके समुदायों का कारवाँ आगे बढ़ता, तो ये सभी छोटे-छोटे समूह भी अपने समुदायों के साथ ही चलते थे | इन समुदायों को एक विशाल गाँव ही कह लीजिए, जो समय-समय पर सहूलियत के अनुसार चलायमान होता था |

अपने ‘राजपूतीकरण’ के कुछ पहले से लेकर बाद की शताब्दियों में ये समुदाय भारत के अनेक हिस्सों में स्थायी रूप से बसते चले गए और कुछ हिस्सों को इन्होंने अपने नियंत्रण में भी ले लिया; जैसे जाटों ने हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में अपना प्रभुत्व स्थापित किया, तो आभीरों ने उत्तरप्रदेश के बड़े इलाक़ों को, जबकि गुज्जरों ने मुख्य रूप से गुजरात को अपना गढ़ बनाया और उस इलाक़े का नामकरण अपने समुदाय के नाम पर किया | अंग्रेज़ों के समय तक इनका प्रभुत्व पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के बहुत बड़े स्थान में भी था, जिसे वे ‘गुजरात’ कहा करते थे |

…लेकिन इन समुदायों के उत्पादक समूह (जैसे पशुपालक, हथियार एवं औज़ार बनानेवाले, बर्तन बनानेवाले, बुनकर आदि), जिनका स्थान इन समाजों के ‘राजपूतीकरण’ के बाद ब्राह्मणीय वर्ण-व्यवस्था के प्रभाव में आने के बाद अपने ही समुदाय के भीतर निम्नतम, कुछ-कुछ अस्पृश्य-सा, बना दिया गया; ‘राजपूतों’ के अपने स्थायी निवास बन जाने के बावजूद इनको एक ही स्थान पर टिकने या स्थाई रूप से बसने की मनाही कर दी गई | इसका कारण यह था कि इनके समुदाय अनेक इलाक़ों में फ़ैलकर बस गए थे, जिनको इनके द्वारा उत्पादित चीजों की आवश्यकता पड़ती ही रहती थी; और उसी की उपलब्धता और आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए इन उत्पादक-समूहों को चलायमान बनाते हुए उनको बहुत समय तक एक ही स्थान पर टिकने से मना कर दिया गया |

…भारत में मुसलमानों के आने बाद इन छोटे-छोटे चलायमान समूहों में से कुछ ने तो उनके भय से, तो कुछ उनके भीतर की समतामूलक सामाजिक-संरचनाओं से प्रभावित होकर अपना धर्म-परिवर्तन भी किया | उन्हीं गतिशील समूहों में शामिल हैं कुछ ‘वन-गूजर’ समुदाय, जो वर्तमान में अनेक कारणों से घुमंतू जीवन जीते हैं |

जहाँ-जहाँ ये घुमंतू समाज जाते हैं, वहाँ-वहाँ इनके लिए सरकार अस्थाई विद्यालयों की व्यवस्था करती है, जिसे ‘ईजीएस’ (EGS-Education Guarantee Scheme) कहते हैं | ये विद्यालय प्रायः पास के विद्यालयों के सहयोग से संचालित होते हैं | लेकिन उत्तराखंड में वर्तमान में शायद ये विद्यालय अब नहीं संचालित हो रहे हैं, जिस कारण वह स्कूल भी बंद हो गया, जिसकी बात यहाँ हो रही है |

तब उसी समुदाय के एक जागरूक युवा जहूर हुसैन ने अपने समाज के बच्चों की व्यवस्थित शिक्षा के लिए सरकार से उनके निवास-स्थान के नजदीक ही एक स्वतन्त्र विद्यालय की माँग की | तब उस माँग पर विचार करते हुए उक्त इलाक़े के जिला शिक्षा-अधिकारी यशवंत चौधरी ने इलाक़े का निरीक्षण किया और उन्हें वहाँ स्कूल जाने लायक लगभग 35 बच्चों के बारे में जानकारी मिली | तब उन्होंने वहाँ एक विद्यालय स्थापित करने का निर्णय लिया और तब नियुक्ति हुई सरिता मेहरा नेगी की, जो इस ‘विद्यालय’ की ‘पहली अध्यापिका’ भी हैं |

सरिता मेहरा नेगी ! जिम कॉर्बेट पार्क स्थित उस विद्यालय के बच्चों की ‘पहली अध्यापिका’, जिन्होंने उन बच्चों के लिए एक व्यवस्थित विद्यालय बनाने एवं उनकी शिक्षा को एक सकारात्मक एवं सार्थक रूप देने की ख़ातिर न जाने कितने पापड़ बेले ! 12 जुलाई 1981 को जन्मी सरिता मेहरा श्रीरामपुर (कोटद्वार) के निवासी पिता कुंदन सिंह मेहरा (रिटायर्ड फ़ॉरेस्ट ऑफिसर) और माँ हेमा मेहरा की चार संतानों में तीसरी संतान है, एक भाई और एक बहन उनसे बड़े हैं एवं एक भाई उनसे छोटा है | उनकी शादी साल 2010 में विमलेश नेगी (अधिकारी, पैरामिलिट्री) से हुई, जो इस समय अरुणाचल प्रदेश में कार्यरत हैं | इस दंपत्ति की एकमात्र संतान एक बेटी है, जिसके विषय में सरिता हँसती हुई बताती हैं—“हमारी बेटी के जन्म के बाद जब दूसरी संतान की बात उठी तो मेरे पति ने कहा कि ‘मैं और कोई संतान नहीं चाहता, क्योंकि यदि बेटा हुआ और यदि तुम बेटे को ही अधिक प्यार करने लगोगी, तो मेरी बेटी तो तुम्हारी ममता से वंचित रह जाएगी !…इसलिए मुझे कोई दूसरी संतान नहीं चाहिए !’ तब मैंने भी दूसरी संतान का ख्याल छोड़ दिया |”

इस प्रगतिशील दंपत्ति, ख़ासकर पति विमलेश नेगी, की वास्तविक वैचारिक मनःस्थिति का अंदाज़ा इसी से लगता है कि जिस समाज में लड़कियों को शादी के बाद अपनी पहचान छोड़कर या मिटाकर ससुराल की पहचान-मात्र को ही अपनाना पड़ता है, जिसकी शुरुआत वधू के नाम से हो जाती है; वहाँ पत्नी द्वारा अपनी पूर्व-पहचान, अपना नाम, को बरक़रार रखना विमलेश की प्रगतिशील विचारधारा का एक मौन परिचायक ही है | और बेटी के प्रति व्यक्त की गई भावनाएँ उसी का विस्तार-मात्र…!

जहाँ तक सरिता की शिक्षा का सवाल है, तो उनकी स्कूली-शिक्षा सरकारी विद्यालयों से हुई— कक्षा 1 से 5 तक प्राथमिक विद्यालय सिगड्डी से; कक्षा 6 से 8 तक कन्या पूर्व माध्यमिक विद्यालय लोकमनीपुर से; कक्षा 9-10 की उच्चविद्यालय जयदेवपुर सिगड्डी से; और 11वीं-12 वीं की राजकीय इंटर कॉलेज कण्वघाटी से | इस क्रम में उन्होंने साल 1996 में यूपी बोर्ड से 10 वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और साल 1998 में यूपी बोर्ड से ही 12 वीं की परीक्षा |

उच्च-शिक्षा के मामले में उन्होंने कोटद्वार स्थित डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल हिमालयन राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय से 2001 में विज्ञान विषय (रसायनशास्त एवं जन्तुविज्ञान) से स्नातक (बीएससी) किया और आगे प्राइवेट से 2003 में अर्थशास्त्र (इकोनॉमिक्स) विषय से एमए भी किया |

उच्चशिक्षा के मामले में विषयों को लेकर यह वैपरीत्य कई लोगों की दृष्टि में वस्तुतः शिक्षा के क्षेत्र में उनकी अस्त-व्यस्तता एवं नासमझी का परिचायक हो सकता है; किन्तु यह हमारे देश एवं समाज की आम समस्या है, जिसका कारण है पूर्व-पीढ़ियों की अशिक्षा और पर्याप्त जागरूकता का अभाव एवं स्कूल के शिक्षकों में बच्चों को अपने भविष्य और करियर को ठीक से नियोजित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करने सम्बन्धी योग्यता का पर्याप्त अभाव | इस कारण युवा-पीढ़ी को समय पर सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाता है | और सबसे बढ़कर हमारे देश की एवं इसके अलग-अलग राज्यों की अपनी-अपनी शिक्षा-प्रणाली—‘अपनी डफली, अपना राग’ की तर्ज़ पर, जिस कारण कई बार अनेक राज्यों के नियम एक-दूसरे के विपरीत भी पड़ने लगते हैं, जो अपने विद्यार्थियों के लिए अपनी शिक्षा, करियर एवं भविष्य को ठीक प्रकार से नियोजित करने में सहायक नहीं बन पाते हैं !

इस सम्बन्ध में सरिता कहती हैं—“शिक्षा के क्षेत्र में जाने के उद्देश्य से मैं जब बी.एड. की पढ़ाई के लिए देहरादून गई, तब यहीं आकर मैंने दुनिया को ठीक से समझना सीखा; क्योंकि यहीं पर अन्य लड़कियों के संपर्क में आने के बाद बहुत सारी चीजें जानने और समझने को मिलीं, जिसमें यह बात भी शामिल थी कि यदि शिक्षा के क्षेत्र में बतौर टीचर काम करना है, तो यू.पी. के नियम के अनुसार विषयों का कॉम्बिनेशन भी उसके अनुसार होना ज़रूरी है | तब मैंने 2004 में बीएड पूरा करने के बाद जंतु-विज्ञान (Zoology) से एम.एससी. की पढ़ाई शुरू की और 2007 में इसे पूरा किया |”

इसी दौरान 2007 में ही नवोदय विद्यालय में टीजीटी के तहत अध्यापन के लिए इंटरव्यू हो रहे थे जिसमें साइंस विषय के लिए सरिता ने इंटरव्यू दिया और उनका चयन हो गया | इसमें उन्होंने अभी 7-8 महीने काम किया ही था कि तभी 2008 में विशिष्ट बीटीसी में उनका नाम आ गया और उनकी पहली पोस्टिंग जनवरी 2008 में राजकीय प्राथमिक विद्यालय, बलोद (कल्जीखाल ब्लॉक, कोटद्वार) में हो गई | यह स्कूल मुख्य सड़क से 2 किलोमीटर नीचे गहराई में स्थित था, जहाँ उन्हें पैदल ही जाना होता था | इसकी कहानी फ़िर कभी…

कुछ सालों बाद मई 2012 में उनका ट्रांसफर, राजकीय प्राथमिक विद्यालय दुगड्डा, नालीखाल, कोटद्वार में हो गया और मई 2014 में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क (कोटद्वार) के उस इलाक़े में स्थित उस ‘अदृश्य-विद्यालय’ में जहाँ की बात लेख की शुरुआत से हो रही है |

अब इस ‘अदृश्य विद्यालय’ तक पहुँचने और उसको ‘दृश्यात्मक’ स्वरूप प्रदान करने तथा उसमें आनेवाले तमाम उतार-चढ़ावों की कहानी अगले लेख में…

…तब तक इंतज़ार…

–डॉ. कनक लता

 नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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