बतकही

बातें कही-अनकही…

भूमिका बडोला

…जब हमारे चारों ओर निराशमय वातावरण हो, नकारात्मक शक्तियाँ अपने चरम पर हों, राजनीतिक-परिदृश्य निराशा उत्पन्न कर रहा हो, सामाजिक-सांस्कृतिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हों, लोगों के विचारों एवं बौद्धिक-चिंतन में लगातार कलुषता भरती चली जा रही हो और एक-दूसरे के प्रति वैमनस्यता तेज़ी से अपने पाँव पसार रही हो… तब ऐसे में जब युवा हो रही पीढ़ी के बीच से कुछ ऐसे लोग निकलकर सामने आने लगें, जो अंगद की भाँति इन तमाम नकारात्मक-प्रवृत्तियों एवं शक्तियों के विरुद्ध अपने पाँव मज़बूती से जमाकर खड़े होने का दुस्साहस कर रहे हों, तो समझ लेना चाहिए, कि उम्मीद की किरण अभी बाक़ी ही नहीं है, बल्कि भविष्य में ये नन्हीं-नन्हीं किरणें अपने प्रकाश से अंधकार की छाती चीरने का माद्दा भी रखती हैं और संभव है कि निकट भविष्य में वह सवेरा भी विद्यमान हो, जिसकी हम इच्छा करते हैं…

फ़्रेंच में ऐसे युवाओं को ‘आवाँगार्द’ (Avant Garde) कहते हैं और हमारे अपने देश में उन्हें ‘अग्रदूत’ की संज्ञा दी जाती है, जबकि हिंदी साहित्य की दुनिया के प्रयोगवादी कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ऐसे युवाओं को ‘नई राहों के अन्वेषी’ कहते हैं | इनके नाम चाहे जो भी हों, इनकी पहचान तो एक ही है— रूढ़िवादी प्रवृत्तियों एवं विनाशकारी परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह; सम्पूर्ण समाज के पक्ष में निरंतर नई राहों की तलाश और कोई राह न मिलने की सूरत में उनका सृजन; और इन उद्देश्यों को साधने के लिए अकुंठ मानवीय-संवेदना, दृढ़ संकल्प, अटूट इच्छाशक्ति और अपनी क्षमताओं पर विश्वास… 

मैं ऐसे नवयुवाओं को ‘सुबह के अग्रदूत’ के रूप में देखती हूँ…| …जिस प्रकार भोर होने से पहले …सूरज के निकलने से पहले… पूर्वी क्षितिज में ऊपर उठता हुआ ‘शुक्रतारा’ हमें आश्वस्त करता हुआ आता है, कि अब अँधेरा छँटने वाला हैं, काली रात बीतने वाली है और प्रकाश एवं जीवन की ऊर्जा लेकर सूरज आनेवाला है; ठीक उसी प्रकार ये नवयुवा अपने विचारों एवं कार्यों से आश्वस्त करते-से प्रतीत होते हैं, कि समाज के जीवन में जो निराशा, कलुषता और दुश्चिंताओं का अँधेरा छाया हुआ है, वह अब पुनः एक बार इन युवाओं के प्रयासों से समाप्त किया जाएगा और उम्मीदों की किरणें पुनः अपनी रौशनी फ़ैलाएँगी…

भूमिका बडोला…! केवल 18 वर्षीया नवयुवा छात्रा, जिसे किशोरी कहना ज्यादा ठीक होगा…| इतनी कम उम्र होने के बावजूद अपने विचारों में अपनी उम्र की तुलना में अपेक्षा से अधिक गहराई रखती हुई, साथ ही अपने विचारों में काफ़ी सुलझी हुई न कि उलझी हुई या कंफ्यूज, स्पष्टवादी लेकिन मृदुभाषी, बातों में दृढ़ता न कि ढुलमुलपन, अपने व्यक्तित्व में ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ या ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ को साथ-साथ लेकर चलने की कोशिश करती हुई— यानी संवेदनशील और चिन्तनशील…! इतना ठोस व्यक्तित्व इतनी कम उम्र में बहुत विरले ही देखने को मिलता है…

भूमिका से न केवल उनके अभिभावकों को विशेष उम्मीदें हैं, या न केवल उनके अध्यापक ही आशा रखते हैं, बल्कि समाज और समय भी उम्मीद भरी दृष्टि से उनकी ओर देख रहा है | उनके इस प्रभावशाली व्यक्तित्व को माँजने-निखारने और एक ठोस आकार देने में माता-पिता और स्कूल के अध्यापकों से लेकर समाज और परिवेश तो निरंतर अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभा ही रहे हैं, उनका अपना व्यक्तित्व भी इसमें कम निर्णायक नहीं है…

…भूमिका का जन्म कृष्णकांत बडोला और आरती बडोला की पहली संतान के रूप में 26 मार्च 2003 के दिन बडोली गाँव (एकेश्वर, उत्तराखंड) में हुआ | उनसे दो साल छोटा उनका एक भाई है, जो उनका सहायक भी है, मित्र भी और उनके कार्यों का एक हद तक आलोचक या मूल्यांकन-कर्ता भी…| जहाँ तक भूमिका की पढ़ाई का सवाल है, तो कक्षा 1 से 5 तक की उनकी प्राथमिक शिक्षा राजकीय प्राथमिक विद्यालय, बडोला से ही हुई और आगे कक्षा 6 से 10 तक की पढ़ाई जवाहर नवोदय विद्यालय (जयहरीखाल, पौड़ी) से हुई, जहाँ से भूमिका ने 2018 में 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की | इंटरमीडिएट की पढ़ाई राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय (इंटरमीडिएट कॉलेज), एकेश्वर से हुई, जहाँ से उन्होंने 2020 में 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की |

भूमिका का मन चूँकि चित्रकला में ही रमता है, इसलिए उन्होंने अपनी आगे की शिक्षा को इसी रूचि से जोड़ा | इस क्षेत्र में पढ़ाई के लिए उन्होंने दिल्ली के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अपने दाख़िले की कोशिश की, लेकिन कुछ कारणों से वहाँ सफ़लता नहीं मिली | इस दौरान देश में लॉकडाउन के कारण एक साल का समय भी यूँ ही निकल गया | अंत में इसी साल फ़रवरी 2021 में उन्होंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय (देवसिंह बिष्ट परिसर, नैनीताल) से चित्रकला (फाइन आर्ट) से अपनी स्नातक-स्तर की पढ़ाई शुरू की है |

उनकी सामाजिक-गतिविधियों में भागीदारी कैसे शुरू हुई? इस सवाल के जवाब में भूमिका अपने माता-पिता, ख़ासकर माँ का नाम लेती हैं | इसके अलावा इसका श्रेय अपने अध्यापकों, ख़ासकर राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय (एकेश्वर) की अपनी प्रधानाचार्या रुक्मा भारती एवं अध्यापिकाएँ सपना तोमर (हिंदी की प्रवक्ता) तथा जुबली सेंजवाण (अंग्रेजी की प्रवक्ता) सहित अपने एक अनौपचारिक अध्यापक आशीष नेगी (अध्यापक राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, एकेश्वर) का ज़िक्र करती हैं |

अपनी माँ के विषय में बात करते हुए वे कहती हैं— “मेरे जीवन में मेरी माँ की बहुत ख़ास भूमिका है | उन्होंने ही मेरे मन में ग़लत के ख़िलाफ़ विद्रोह का बीज डाला है | …हालाँकि मेरी माँ भी समाज की सदस्य होने के कारण पारंपरिक रूप से बहुत सारी ऐसी बातों को मानती हैं, जिनसे मैं सहमत नहीं हूँ | इस कारण उनके और मेरे विचारों में समानताएँ भी हैं और असमानताएँ भी | लेकिन इन सबके बावजूद किसी मुद्दे पर स्वतन्त्र रूप से सोचना, सामाजिक-समस्याओं को अपने नज़रिए से देखना और उसपर विचार करना तथा ग़लत लगने पर उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना मुझे मेरी माँ ने ही सिखाया है | हम आज भी बहुत सारे मुद्दों पर बात करते हैं और कभी मैं माँ की बात से सहमत होती हूँ, तो कभी वे मेरी बातों से सहमत होती हैं…! इन सबमें हम दोनों ही ऱोज थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहे हैं…!”

…माँ से मिले उस विद्रोह के बीज को मन में रोपित करके यह बालिका जब समाज में निकलती है, तो अपने चारों तरफ़ एक ऐसा समाज पाती है, जो अपने ही लोगों को अलग-अलग समूहों में बाँटकर उनके साथ अलग-अलग तरह का, अर्थात् दोगला व्यवहार करता है | भूमिका को उसके दोगले व्यवहार समझ में नहीं आते और वह उनके बारे में सवाल करने लगती है | बदले में समाज, प्रश्न करती और स्वतन्त्र चिंतन करती उस लड़की पर प्रतिबन्ध लगाने की कोशिशें करता है और ‘निम्न’ कहे जाने वाले लोगों, विद्यालय के उसके सहपाठियों और दोस्तों से दूर रहने की हिदायतें देता है | ये नासमझ हिदायतें, अबुझ बंदिशें, दोहरी मानसिकताएँ अंततः उस लड़की को उसके बालपन से ही विद्रोही बनाने की शुरुआत कर देती हैं…

…समय बीतने के साथ समाज के इन दोहरे व्यवहार का सत्य भूमिका के सामने धीरे-धीरे उजागर होने लगा और उसी मात्रा में उनका प्रतिरोध भी बढ़ने लगा | व्यवहारों की तिक्तता/कडुवाहट को उन्होंने बहुत अधिक शिद्दत से तब महसूस किया, जब वह कक्षा 6 में जवाहर नवोदय विद्यालय में पढ़ने के लिए पहुँचीं | यह एक आवासीय विद्यालय था, जहाँ बात-बात पर लड़कियों ने लिंगभेद को बहुत क़रीब से देखा और भुगता | वे कहती हैं— “…जब मैंने ख़ुद बिना किसी ग़लती या अपराध के उस लड़कों द्वारा किए जाने वाले अपमान और जानबूझकर नीचा दिखाए जाने की भावना को झेला और स्कूल की बाक़ी सभी लड़कियों को चुपचाप झेलते देखा, सिर्फ़ इसलिए कि हम लड़कियाँ थीं, तब मैंने महसूस किया कि ‘निम्न’ कहे जानेवाले समाज के कमज़ोर तबकों के लोग कैसा महसूस करते होंगे, जब बिना किसी अपराध के वे रोज़ ही हमसे भी अधिक अपमान, तिरस्कार, दुत्कार झेलते हैं और जानबूझकर नीचा दिखाए जाते हैं…|”  भूमिका बताती हैं, कि उनके विद्यालय में भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से लिंगभेद बहुत अधिक था | यह विद्यालय और कक्षाओं में लड़के-लड़कियों के अनुपात से भी समझा जा सकता है, जहाँ स्कूल में लड़कियाँ केवल 40 थीं जबकि लड़के 82, और किसी-किसी कक्षा में यह अनुपात और अधिक था, जैसे भूमिका की कक्षा में केवल 6 लड़कियाँ थीं, जबकि लड़के 18 थे |

वे सवाल करती हैं कि “क्यों स्कूलों में लड़कियों की संख्या लड़कों के बराबर नहीं होती है? क्या लड़कियाँ पढ़ नहीं सकतीं, या पढ़ने के काबिल नहीं होतीं, या पढ़ना नहीं चाहती? मुझे ये बातें समझ में नहीं आतीं हैं…” वह अभी तक इस बात से काफ़ी नाराज़ रहती हैं कि उनके स्कूल में लड़कों द्वारा लड़कियों को प्रत्यक्ष रूप से परेशान किया ही जाता था, परोक्ष रूप से भी लड़के उन लड़कियों को परेशान करना नहीं भूलते थे | उनपर फब्तियाँ कसना, सीटियाँ बजाना, क्लास में उनको तरह-तरह से परेशान करना, लड़कियों द्वारा ऐतराज़ करने पर उनके साथ कुछ बदतमीजी करना या झगड़ने पर उतारू हो जाना तो जैसे रोज़ की बात थी |

कक्षा 10 तक आते-आते जब भूमिका के सहन करने के सब्र का बाँध टूटने के कगार पर पहुँच गया, तब उन्होंने एक दिन वहाँ अपना विद्रोही तेवर दिखाया, जिसे तत्काल कुचल दिया गया | भूमिका ने दरअसल अपनी कक्षा के नोटिस-बोर्ड पर एक खुले पत्र के रूप में अपने विद्रोही विचार लिखकर चिपकाए थे, जिसका स्वर कुछ ऐसा था— “…ऐसा क्यों होता है कि हमेशा लड़के हम लड़कियों को नीचा दिखाने की कोशिश में जीत जाते हैं और दूसरे लोग भी उनका ही साथ देते हैं…? ऐसा क्यों होता है कि स्कूल की गैलरी के दोनों तरफ़ लडके अपना कब्ज़ा जमाए अक्सर खड़े रहते हैं और वहाँ से लड़कियों के गुजरते समय उनको देखकर जानबूझकर सीटियाँ बजाते हैं या परोक्ष रूप से कुछ न कुछ उल्टी-सीधी हरकतें करते हैं हमें परेशान करने के लिए ? और यदि लड़कियाँ उसका विरोध करती हैं तो लड़के हमसे मारपीट और गाली-गलौज पर उतर आते हैं और इसके लिए स्कूल में सज़ा भी हम निर्दोष लड़कियों को ही दी जाती है…? ऐसा क्यों होता है कि लड़के स्कूल से कभी भी निकलकर कहीं भी जा सकते हैं, गेम के टाइम में बाहर निकलकर घूम सकते हैं, छुट्टियों में यदि हॉस्टल में रहना चाहें तो रह सकते हैं, लेकिन हम लड़कियाँ नहीं…यहाँ तक कि छुट्टियाँ पड़ने पर हॉस्टल के बंद हो जाने के बाद हम अपने ही स्कूल के हॉस्टल के अपने ही कमरे के वॉशरूम तक का भी इस्तेमाल नहीं कर सकतीं…? ऐसा क्यों होता है कि लड़कों की हर डिमांड पूरी होती है, लेकिन लड़कियों की एक भी नहीं…? …क्या हम लड़कियाँ इस समाज का हिस्सा नहीं हैं? क्यों हमारे टीचर और दूसरे लोग हमेशा इन लड़कों के आगे झुक जाते हैं? क्यों निर्दोष होने पर भी हमें ही सज़ा मिलती है, लेकिन दोषी होने पर भी उन लड़कों को कोई सज़ा नहीं मिलती…? ऐसा क्यों होता है…?”

लेकिन विद्यालय के प्रधानाध्यापक को यह पसंद नहीं आया | या तो वे उसी व्यवस्था के पोषक रहे होंगे, अथवा लड़कों की बहुलता के कारण उनके दबाव में रहते होंगे | यदि ऐसा हो, तो इसमें कोई अचम्भा नहीं है | भूमिका बताती हैं कि लड़कों की बहुलता (Majority) के कारण स्कूल के सभी स्टाफ़ और टीचर भी उनके दबाव में रहते थे, यहाँ तक कि महिला कर्मचारी भी | क्या हम रोज़ ही ऐसी चीजें अपने सामने घटित होते नहीं देखते हैं? शायद इसीलिए प्रधानाध्यापक महोदय ने अपनी इस चिन्तनशील विद्रोही छात्रा की वह खुली चिट्ठी उसके सामने ही फाड़कर कूड़ेदान में फ़ेंक दी और अपनी इस छात्रा को आगे से ऐसा करने से मना कर दिया | क्या यह समझना कठिन है कि अपने सहपाठियों और स्कूल के दूसरे लड़कों सहित प्रधानाध्यापक का यह व्यवहार इस किशोरी के मन में अपनी कैसी छाप छोड़ गया होगा? कौन बता सकता है कि तब उस लड़की ने अपने मन में क्या निश्चय किया होगा…? किसे पता कि उसकी आगे की जीवन-यात्रा पर उन घटनाओं और व्यवहारों ने अपनी कोई छाप न छोड़ी होगी…?

…उक्त विद्यालय के माध्यम से समाज के स्वरूप को क़रीब से देखने-समझने के बाद 10वीं उत्तीर्ण करके वहाँ से निकलने के बाद जब भूमिका इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय (इंटर कॉलेज, एकेश्वर) आईं, तब इस स्कूल के अध्यापकों ने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया, ख़ासकर प्रशानाध्यापिका रुक्मा भारती ने | वहाँ दो साल के दौरान भूमिका के व्यक्तित्व को जो आकार मिला, वह उनके भविष्य के साथ-साथ वर्तमान में उनके सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन में काफ़ी हद तक निर्णायक सिद्ध हो रहा है…

…अभी तक भूमिका अपने विचारों और व्यक्तित्व को आकार दे रही थीं, समाज को, हालातों को समझने की कोशिशें कर रही थीं, लेकिन उन्हें कोई दिशा नहीं मिल पा रही थी और इस कारण उनकी क्षमताएँ प्रायः व्यर्थ जा रही थीं | यह कुछ ऐसा ही था, जैसे किसी रेडियोएक्टिव पदार्थ के ऊर्जा से भरे कणों के गतिशील इलेक्ट्रॉन या प्रोटॉन अपनी अत्यधिक उर्जा के दबाव में अपने को ही ध्वस्त कर रहे हों या अर्थहीन विस्फोटों में बार-बार नष्ट-से हो जा रहे हों…| इस ऊर्जा को जिस प्रकार किसी पॉवर-प्लांट में एक दिशा देकर निर्माणकारी एवं कल्याणकारी बनाया जाता है, कुछ उसी प्रकार भूमिका के विद्रोही और चिन्तनशील मन-प्राणों की शक्ति को एक निर्माणकारी दिशा की ज़रूरत थी | इसका अवसर काफ़ी हद तक इस विद्यालय में कक्षा 11-12 में पढ़ने के दौरान अपने शिक्षकों और प्रधानाध्यापिका रुक्मा भारती के सान्निध्य में मिला और घर में माता-पिता के सान्निध्य में, ख़ासकर माँ के साथ लगातार संवादों की श्रृंखला में…| भूमिका कहती हैं— “जब मैं दसवीं पास करके घर आई और नए स्कूल में गई, तो क्लास इलेवन-ट्वेल्व के दौरान मैंने समाज को और अधिक परिपक्वता के साथ समझा | माँ से मैं बहुत सारे टॉपिक्स पर बात करती, स्कूल में मेरे टीचर भी बहुत सारी चीजें मुझे समझाते…| तब मैंने समाज को और भी क़रीब से देखा, उसके चरित्र और व्यवहारों को और गहराई से समझने लगी | इसके पहले हॉस्टल में रहने के कारण मेरा एक तरह से बाहरी समाज से संपर्क टूटा हुआ सा था, इसलिए वहाँ इसका मौक़ा नहीं मिल पाया था…”  

…लेकिन भूमिका को अभी भी एक ऐसे गुरु की ज़रूरत थी, जो उनकी ऊर्जा को दिशा दे सके और अनुभवों को कार्यरूप में परिणत कर सके | भूमिका कहती हैं— “…प्रॉपर तरीके से एवं सार्थकता के साथ ग़लत चीजों का विरोध करना और ग़लत के ख़िलाफ़ दृढ़ता से खड़ा होना मैंने आशीष सर के संपर्क में आने के बाद सीखा | मैंने सर से सीखा कि अपनी बात कैसे कहनी चाहिए कि उसका ज्यादा असर हो और किसी को अनावश्यक चोट भी न पहुँचे…!”

लेकिन आशीष नेगी कौन हैं और उनके संपर्क में वे कैसे आईं? पता चला कि जीजीआईसी एकेश्वर में पढ़ने के दौरान ही 2018 में अपने पहले साल में भूमिका को अपने पसंदीदा विषय चित्रकला के सन्दर्भ में जनपद-स्तर पर कला उत्सव में भाग लेने का मौक़ा मिला था | लेकिन स्कूल के कला-विषय के अध्यापक उस दौरान छुट्टी पर थे, तब उनकी प्रधानाध्यापिका श्रीमती रुक्मा भारती ने अपनी छात्रा को परेशान देखा तो उन्होंने पास के ही राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय (जीआईसी, एकेश्वर) के एक अध्यापक आशीष नेगी से अपनी छात्रा की सहायता के लिए मदद माँगी |

…यह भी एक दिलचस्प बात है कि अक्सर एक ही विद्यालय में सहकर्मी अध्यापक एक-दूसरे की मदद लेने और देने में हिचकिचाते हैं | उनके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन एक ख़ास कारण और भी है, जिनसे यदि बचा जाए तो उसका बहुत अच्छा लाभ छात्र-छात्राओं को मिल सकता है | वह कारण है, अध्यापकों का अपना अहम्, यानी ईगो ! लेकिन यहाँ उक्त प्रधानाचार्या रुक्मा भारती और किसी दूसरे विद्यालय के अध्यापक आशीष नेगी का अपने शिक्षकीय दायित्वों के प्रति समर्पण निश्चय ही प्रशंसनीय है, जो केवल विद्यार्थियों के हितों को तरजीह देते हुए एक-दूसरे की मदद लेते हैं…| हालाँकि वे चाहते तो अपने सिर पर इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का ‘बोझ’ लेने से बच भी सकते थे, लेकिन रुक्मा भारती एवं आशीष नेगी का यह व्यवहार सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों का एक दूसरा पक्ष भी उजागर करता है, जो उनके सम्बन्ध में अनेक धारणाओं को खंडित करता है…

…उक्त प्रधानाचार्या रुक्मा भारती ने आशीष नेगी से बात करने के बाद अपनी छात्रा भूमिका को सुझाव दिया— “बेटे, …इंटरमीडिएट स्कूल (एकेश्वर) में कला के एक बहुत अच्छे अध्यापक हैं, वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं | इसलिए तुम उनके पास चली जाओ और उनसे मदद लो, मैंने तुम्हारे लिए उनसे बात कर ली है…|” तब भूमिका उक्त अध्यापक आशीष के पास उक्त प्रतियोगिता के सन्दर्भ में मार्गदर्शन के लिए गई और आशीष के सहयोगी एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उनको बेहद प्रभावित किया | वे कहती हैं— “…सर चित्रकला की बारीकियों को बहुत बेहतरीन तरीके से समझाते हैं, साथ ही सबके प्रति उनका व्यवहार इतना अच्छा है कि उस दिन के बाद से मैं अक्सर सोचने लगी कि ये सर हमारे टीचर क्यों नहीं हैं?” भूमिका का आशीष से दूसरा परिचय उसी प्रतियोगिता में प्रतियोगिता-स्थल पर हुआ, जहाँ आशीष उस कार्यक्रम में जज की भूमिका में थे | उसके बाद भूमिका ने चित्रकला की बारीकियों को ठीक से समझने के लिए अप्रैल 2019 से व्यक्तिगत रूप से आशीष की देखरेख में अपना चित्रकला का काम शुरू किया…

…और यहाँ से उनका आशीष के पुस्तकालय से परिचित होने का सिलसिला भी शुरू हुआ; साथ ही, आशीष के व्यापक कार्यों एवं सामाजिक-गतिविधियों से भी | धीरे-धीरे वह अपने इस अनौपचारिक गुरु के कार्यों को समझती गईं और थोड़ी-थोड़ी उसमें अपनी भागीदारी निभाने की प्रक्रिया में भी शामिल होती गईं, जैसे आशीष के दूसरे छात्र-छात्राएँ करते थे | यह उनके एक तरीक़े से प्रशिक्षण का समय था…

…दरअसल कई विद्यार्थियों को अपने जीवन में दो तरह के अध्यापक मिलते हैं; एक वे जिन्हें उनके लिए किसी अन्य (जैसे सरकार या माता-पिता) के द्वारा नियुक्त किया जाता है, और दूसरा वह जिसकी तलाश कोई विद्यार्थी स्वयं करता है, मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस के शिष्य’ की तरह…! वस्तुतः क़ायदे के हर विद्यार्थी को अपने जीवन में एक ऐसे अध्यापक की तलाश रहती ही है, जिसके ज्ञान, व्यक्तित्त्व और व्यवहारों पर वह आँखें बंद करके विश्वास कर सके; जब विद्यार्थी के मन में उलझनें हों, तो वह अध्यापक उसे सुलझाने का मार्ग बता सके; जब उसे रास्ता न मिल पा रहा हो, तो वह अध्यापक उसे अपना रास्ता स्वयं बनाने की प्रेरणा और प्रोत्साहन दे सके…| मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस के शिष्य’ ने गली-गली, नगर-नगर घूमकर और बहुत ख़ाक छानने के बाद अपने ऐसे ही गुरु के रूप में ‘ब्रह्मराक्षस’ को पाया था…| जब किसी विद्यार्थी को अपना ऐसा गुरु मिल जाता है, तो वह शिष्य दुनिया के सबसे भाग्यशाली लोगों में शुमार हो जाता है | इस सुख को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने ‘ब्रह्मराक्षस के शिष्य’ की तरह अपने गुरु की तलाश की हो और अंततः पा लिया हो…

…संभव है, कि शायद भूमिका बडोला को भी आशीष नेगी के रूप में अपना वह गुरु मिल चुका हो, जिसके मार्गदर्शन में वह अपने भविष्य की ओर एवं कर्तव्य मार्ग पर निश्चिन्त होकर चल सकती थीं…! भूमिका की इसके आगे की यात्रा उनके विभिन्न विद्यालयों के अध्यापकों एवं अभिभावकों के साथ-साथ इस अनौपचारिक अध्यापक के परिश्रम एवं उनका अपनी इस बेटी/छात्रा पर विश्वास की यात्रा है…

…अब भूमिका ने अपने इस अध्यापक की देख-रेख में समाज में अपने कर्तव्यों की दुनिया में क़दम रखा | इसकी शुरुआत कहाँ से हुई, यह तो शायद अब उन्हें भी याद न हो, लेकिन समाज के पक्ष में अनेक काम करती हुई यह लड़की एकेश्वर में दिख जाएँगी; चाहे वह सामाजिक मुद्दों को उजागर करते हुए लोगों में जागरूकता लाने की कोशिशें हो, या अपने इलाक़े के बच्चों को वैचारिक रूप से समृद्ध करने की कोशिश में आशीष की लाइब्रेरी से जोड़ने की क़वायद; साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेकर अपना बौद्धिक एवं तार्किक पक्ष मजबूत करने की बात हो या स्वयं भी सामाजिक-विषमताओं को उजागर करती कहानियों एवं कविताओं के लेखन की कोशिश; रक्षाबंधन जैसे मौक़े के बहाने पेड़-पौधे एवं पर्यावरण के प्रति अपना पक्ष प्रदर्शित करना हो अथवा सामाजिक बदलाओं के लिए अपनी ठोस ज़िम्मेदारी तय करना…

…और जब इस किशोरी लड़की की ज़िम्मेदारियाँ सीमित नहीं हैं, तो उसके सम्बन्ध में लेख कैसे सीमित हो सकेगा…? इसलिए आगे की कथा उनसे संबंधित लेखों की श्रृंखला के अगले भाग में …

फ़िलहाल… पिता के स्वतन्त्र-संरक्षण और प्रगतिशील स्वभाव की चिन्तनशील माँ के सान्निध्य में उनसे नित्य नए मुद्दों पर बहस करती हुई यह लड़की… दोनों माँ-बेटी एक-दूसरे को वैचारिक एवं चारित्रिक रूप से समृद्ध करती हुई आगे बढ़ रहीं हैं | और उस लड़की के नए-पुराने अध्यापक उसका हौसला बढ़ाते हुए उसके व्यक्तित्व को नित्य तराश रहे हैं | …और अपने अनौपचारिक गुरु के संरक्षण में अपने कर्तव्यों को कार्यरूप में परिणत करती हुई वह आपको एकेश्वर के इलाक़ों में अवश्य ही यहाँ-वहाँ किसी न किसी कार्य में तल्लीन दिख जाएगी…!

…चित्रों या ऐसे ही किसी अन्य माध्यम से जन-समाज को कुछ बताती, चेताती, या समझाती हुई यदि कोई ऐसी लड़की अपने कार्यों में डूबी हुई मिले, तो आप तनिक ठहरिएगा…! और जब उसकी तन्मयता टूटे, तो उससे उसका नाम पूछ लीजिएगा, शायद उसका नाम भूमिका बडोला हो…???

…शेष अगले भाग में….

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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3 thoughts on “‘सुबह के अग्रदूत’— दो

  1. U never take things for granted and its ur best quality. U r an extraordinary girl and I know u will prove it. Stay blessed.

  2. भूमिका के रूप में एक और अग्रदूत की जानकारी देने के लिए धन्यवाद कनक मैडम। आप की प्रखर लेखनी और सामाजिक सरोकार को सादर नमन।हम तो अब प्रतीक्षारत रहते हैं आप को पढ़ने के लिए। आप का धन्यवाद।

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