बतकही

बातें कही-अनकही…

‘बाल-साहित्य’ के माध्यम से समाज की ओर यात्रा…

भाग दो :-

‘मनोहर चमोली’ से ‘मनोहर चमोली’ तक  

मनोहर चमोली ‘मनु’…! एक बाल-साहित्यकार…! उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में पौड़ी जिले के अंतर्गत स्थित राजकीय उच्च विद्यालय, केवर्स के एक समर्पित अध्यापक | कई लोगों, या यूँ कहा जाय, कि अपने विरोधियों एवं इस साहित्यकार-अध्यापक को नापसंद करनेवालों की दृष्टि में एक बहिर्मुखी-व्यक्तित्व, एक अहंकारी, मुँहफट, ज़िद्दी, आत्म-मुग्ध, आत्म-प्रवंचना के शिकार, अपने विचारों के प्रति अति-आग्रही… और भी न जाने क्या-क्या…? लेकिन जो व्यक्ति, जिन्हें प्रायः ‘समाजवादी’ और ‘जनवादी’ जैसी ‘दक्षिणपंथी गालियों’ (जो कि अक्सर दक्षिणपंथी-मानसिकता वाले लोग ही दिया करते हैं, इन शब्दों को इसी कारण मैं ‘दक्षिणपंथी गालियाँ’ कहना पसंद करुँगी— प्रतिष्ठित एवं सम्मानित तथा जनता के हक़ की वक़ालत करनेवाले शब्दों को एक ‘गाली’ की तरह प्रयोग करने की मानसिकता | जोकि ऐसे लोगों की ‘ब्राह्मणवादी’ या ‘वर्चस्ववादी’ प्रवृत्ति को ख़ूब अच्छी तरह प्रतिबिंबित करता है) से विभूषित किया जाता है, जो समाज में सभी की समानता एवं अधिकारों की वक़ालत करते हैं, सभी के लिए समान अवसरों की बात करते हैं, सभी के प्रति मानवीय-संवेदनाएँ रखते हैं, इस दिशा में प्रयास करते हैं…! लेकिन बहुत से अपने जैसों की दृष्टि में यह साहित्यकार-अध्यापक एक दृढ़-प्रतिज्ञ, समाजवादी सोच, मानवीय-संवेदनाओं से संपृक्त, सुचिंतित एवं सुविचारित विचारों एवं चिंतना से युक्त एक ठोस व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति है …

मनोहर चमोली का जन्म 1 अगस्त 1977 को पलाम गाँव, टिहरी, गढ़वाल मंडल में हुआ | वे अपने माता-पिता, स्व. माणिकलाल चमोली एवं श्रीमती सुन्दा देवी की चार संतानों में तीसरी संतान हैं, उनसे बड़े उनके दो भाई ललित मोहन चमोली और मनमोहन चमोली हैं एवं एक इन सभी भाइयों से छोटी इकलौती बहन सरोज हैं | उनके बड़े भाई, पारिवारिक आर्थिक स्थिति एवं संघर्षों के कारण बहुत अधिक पढ़ नहीं सके और वर्तमान में देहरादून में ही एक दूकान के माध्यम से अपना और परिवार का भरण-पोषण करते हैं, और दूसरे भाई किसी इंश्योरेंस कंपनी में काम करते हैं तथा साथ ही कुछ और भी छिटपुट काम भी | बहन का विवाह चंडीगढ़ में हुआ है और वह अपने परिवार के साथ वहीँ निवास करती हैं |

यह परिवार वर्त्तमान में जिस स्थिति में है, उसमें सदैव नहीं था, बल्कि परिवार के एक-एक सदस्य ने बहुत संघर्ष किया है, अनेक दुर्दिन देखे हैं, परेशानियाँ उठाईं हैं…| उनका संयुक्त परिवार था, और आय का कोई ठोस ज़रिया न होने के कारण परिवार के सामने प्रायः आर्थिक-तंगी की स्थिति बनी ही रहती थी, सभी की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती थीं, जिस कारण परिवार के बच्चों को भी काफ़ी संघर्ष करना पड़ा | प्रभावित होनेवाले उन बच्चों में मनोहर के पिता माणिकलाल चमोली भी शामिल थे |

घर-परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब होने के कारण उनके पिता, परिवार के भरण-पोषण में अपने माता-पिता की सहायता के लिए उस उम्र में घर से दूर आए, जिस उम्र में किसी बच्चे को स्वयं ही माता-पिता के संरक्षण और उनसे भरण-पोषण प्राप्त करने की ज़रूरत होती है, अर्थात् 12 साल के बचपन और कैशोर्य की वयः-संधि में | चूँकि आधी सदी पहले टिहरी-गढ़वाल में रोज़गार की कोई विशेष सुविधा नहीं थी, जिसमें आज भी बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है | इस कारण लोग रोज़गार की तलाश में वहाँ से बाहर निकलने को बाध्य थे | इसलिए माणिकलाल चमोली भी 12 साल की उम्र में अपने परिवार के कुछ लोगों के साथ अपने गृह-स्थान, टिहरी-गढ़वाल, से बाहर आए |

चूँकि उनका संयुक्त परिवार था, इसलिए ज़िम्मेदारियाँ भी बड़ी थीं, इसलिए अपने माता-पिता की सहायता के लिए उन्हें काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी | ज़िम्मेदारियों का ठीक से निर्वहन करने के लिए पिता ने अपने किशोरावस्था में वो सारे काम किए, जिससे कुछ आर्थिक-सक्षमता हासिल की जा सके— नए बन रहे मकानों में छोटे-मोटे काम, जैसे ईंटें ढोना, पाइप की फिटिंग में कारीगरों की मदद करना आदि से लेकर दर्ज़ी, बढ़ई… और भी न जाने कितने तरह के काम | यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा, जब उनका अपना परिवार बना और मनोहर सहित सभी बच्चे उनके जीवन का हिस्सा बन चुके थे |  

इसी बीच उनकी सरकारी नौकरी लग गई, मिलेट्री इंजीनियरिंग सर्विस के तहत | तब हालाँकि काफ़ी राहत हो गई थी, लेकिन पिछले आर्थिक अनुभवों को याद रखते हुए उन्होंने ख़ाली समय में छिटपुट काम भी ज़ारी रखा | छोटी-सी उम्र में ही आर्थिकोपार्जन में संलग्न हो जाने के कारण पिता की पढ़ाई पाँचवीं कक्षा से आगे नहीं बढ़ सकी थी, लेकिन अपनी सर्विस के दौरान उन्होंने, जब स्वयं उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते थे, दसवीं की परीक्षा पास की | इस सर्विस के दौरान उनका अलग-अलग स्थानों पर तबादला होता रहता था, जिस कारण परिवार भी उनके साथ-साथ जाता था | इस वजह से इस परिवार का, कभी चकराता, कभी कालसी, देहरादून, सहिया, क्लेमेंटाउन आदि विविध स्थानों पर जाना हुआ |

लेकिन इन विभिन स्थान-परिवर्तनों ने बालक मनोहर और उसके भाई-बहनों को जीवन के कुछ बहुत आवश्यक एवं मूलभूत पाठ बख़ूबी पढ़ाए | इस दौरान चकराता में इस परिवार को कुछ अधिक समय तक टिकने का मौक़ा मिला, जिस कारण मनोहर एवं उनके भाई-बहनों का बचपन और कैशोर्य का अधिकांश समय मूलतः चकराता में बीता | यहाँ उनका निवास-स्थान एवं उनके स्कूल जिस क्षेत्र में पड़ते थे, वह जौनसार बाबर का इलाक़ा था, जहाँ मूलतः आदिवासी समाज रहता था | उस क्षेत्र की ख़ास विशेषता उसकी गंगा-जमुनी संस्कृति थी, जहाँ रोज़ी-रोटी की तलाश में आनेवाले दक्षिण भारत के लोग भी रहते थे, तो उत्तर भारत के कई प्रान्तों के लोग भी, गढ़वाली समाज के लोग भी थे, तो कुमायूँनी भी, दलित समाज के लोग भी रहते थे, और आदिवासियों का इलाका तो वह मूलतः था ही |

जहाँ तक बालक मनोहर सहित उसके भाई-बहन की पढ़ाई का सवाल है, तो संयुक्त परिवार में माता-पिता द्वारा सबकी ज़िम्मेदारी उठाने के कारण बच्चों को महँगे अंग्रेज़ी स्कूलों में भेजने का विकल्प उनके सामने बचा ही नहीं था, इसलिए सभी भाई-बहनों को सरकारी स्कूल भेजा गया |

इस प्रकार अपने निवास-स्थान और सरकारी विद्यालयों में बिखरी हुई इस गंगा-जमुनी संस्कृति ने मनोहर और उसके भाई-बहनों को बचपन से ही सह-अस्तित्व की भावना की सीख दी; उनको जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के संकीर्ण बंधनों से ऊपर उठकर जीना सिखाया | कक्षा में आनेवाले बच्चे चूँकि अनेक समुदायों, क्षेत्रों, भाषाओँ आदि से सम्बन्ध रखते थे, अतः वहाँ स्वाभाविक रूप से भाषा के विविध रूप देखने को मिलते थे | तब तो यह निश्चित है, कि मनोहर और उसके भाई-बहनों ने उन विभिन्न भाषाओँ की बनावट को, उनके टेक्सचर को, बोलियों के अपने व्यक्तिगत तरीक़े या टोन आदि को बहुत करीब से देखा, जाना, समझा होगा |

और यह तो सर्वविदित तथ्य है, कि व्यक्ति को यदि अपनी ‘दृष्टि’ (विज़न) व्यापक बनानी हो, तो या तो वह जीवन में यायावरी-वृत्ति को अपनाए, अथवा अनेक भाषाओँ, संस्कृतियों, समाजों, देशों आदि के साहित्य से गुजरे…| मनोहर को यह अवसर इसी रूप में मिला | हालाँकि उन्हें बचपन में यायावरी-वृत्ति उस रूप में नहीं प्राप्त हुई, जो व्यक्ति की दृष्टि को व्यापक बनाती है, और न बचपन में अनेक भाषाओँ, देशों, समाजों के साहित्य ही पढ़ने की स्थिति बनी | उन्हें यह अवसर मिला अपने सहपाठियों के साथ रहने, उनके साथ सहभागिता करने एवं परस्पर संपर्कों के रूप में | उनकी कक्षा गंगा-जमुनी संस्कृति का बेहतरीन उदाहरण थी, जिसमें हर बच्चा अलग किस्म का था, हर बच्चे की अपनी संस्कृति, अलग भाषा, अलग खान-पान, अलग भाषा-व्यवहार थे | और इन सभी ने सम्मिलित रूप से वह स्थिति निर्मित कर दी थी, जहाँ बच्चों को अपनी ‘दृष्टि’ व्यापक बनाने के अवसर स्वयं बन गए |

सरकारी विद्यालयों द्वारा निर्मित आज का यह एक सफ़ल, बहु-चर्चित एवं बहु-प्रशंसित बाल-साहित्यकार और योग्य अध्यापक उन्हीं सरकारी विद्यालयों की देन है, जिन विद्यालयों की योग्यता एवं क्षमता को लेकर वर्तमान में दर्ज़नों प्रश्न खड़े होते रहते हैं | इससे कम से कम यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है, कि ज़िम्मेदारी एवं दायित्व-निर्वहन में तब के सरकारी विद्यालय एवं शिक्षा-नीतियाँ आज की तुलना में कहीं अधिक कारगर थीं |

यहीं पर थोड़ी देर रूककर इस प्रश्न पर ग़ौर करने की बहुत ज़रूरत है, कि ऐसा कैसे हुआ, कि पिछले दो-ढाई दशकों में भारतीय-शिक्षा-प्रणाली में लगातार सुधारों के बावजूद, उन्हीं सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता में निरंतर गिरावट होती चली गई, जिन विद्यालयों ने देश को बड़े-बड़े वैज्ञानिक, इंजीनियर, शिक्षाविद्, प्रशासक आदि दिए ? क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, कि तब अंगेज़ी माध्यम के निजी विद्यालय कभी-कभी शहरों की किसी कोने में दुबके हुए इक्का-दुक्का ही मिल पाते थे, वह भी कुछ अच्छे शहरों में | वहाँ भी निम्न वर्गों एवं निम्न-मध्य-वर्गों के माता-पिता भी उधर भूले-भटके ही ध्यान दिया करते थे, क्योंकि तब न तो इन महँगे निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाना माता-पिताओं के लिए किसी भी रूप में स्टेटस-सिम्बल की बात थी, न उनमें उसका क्रेज़ था | निजी विद्यालय शहर के किसी कोने में पड़े अपना काम चुपचाप किया करते थे, उनके बीच वैसी होड़ या प्रतियोगिता भी नहीं थी, जैसी आज है | होती भी तो कैसे, किसी के पास ‘ग्राहक’ ही कहाँ थे…?

उस समय भारत का समाज इन्हीं सरकारी शिक्षण-संस्थाओं के भरोसे शिक्षा की गाड़ी को आगे भविष्य की ओर ले जा रहा था | और ये सरकारी विद्यालय ही भारत में शिक्षा की मशाल को जलाए-जगाए भावी पीढियों का निर्माण कर रहे थे | मैं स्वयं सरकारी विद्यालयों की छात्रा रही और उसी डगर से चलते हुए दिल्ली-विश्वविद्यालय की सीढियों तक आई, उसी विश्वविद्यालय में मैंने उस पीढ़ी को भी पढ़ाया, जो अंग्रेज़ी-माध्यम के चमक-दमक भरे वातावरण से फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हुए और अभिमान से सबको अपनी ठोकरों में ले आने को आतुर दिखती हुई वहाँ आती थी | मुझे बेहद अभिमान होता है, कि मुझे इस योग्य बनाया हमारे सरकारी विद्यालयों ने, मैंने अपनी पढ़ाई का एक भी अक्षर किसी निजी विद्यालय में नहीं पढ़ा…!

हालाँकि ऐसा नहीं है, कि तब हमारे विद्यालयों एवं शिक्षा-व्यवस्था में ‘सबकुछ बहुत अच्छा’ और ग्राह्य था, या शिक्षा-व्यवस्था में सुधार की ज़रुरत नहीं थी, अथवा सभी अध्यापक ‘देवतुल्य’ ही थे और उनके पढ़ाने की पद्धतियों में, उनकी मानसिकताओं में किसी सुधार की आवश्यकता ही नहीं थी | लेकिन कुछ तो ऐसा हुआ इन पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान, कि हमारे देश की सरकारी शिक्षा-प्रणाली का ध्वंस और अंग्रेज़ी-माध्यमों के निजी-विद्यालयों का उत्थान एक साथ समानांतर रूप से हुआ ! क्या संदेह नहीं होता, कि कहीं सरकारी-संस्थानों में उच्चासनों पर विराजमान ‘श्रीमानों’ को सरकारी-शिक्षा-प्रणाली द्वारा, बिना जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि का भेद किए, सभी सामाजिक-समुदायों के लिए उपलब्ध करवाई जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के ‘ख़तरे’ और निजी विद्यालयों के विकास में बहु-स्तरीय लाभ एक साथ नज़र तो नहीं आए…?

सरकारी शिक्षा सर्वजन-सुलभ रही, जहाँ देश के किसी भी समाज और वर्गों के बच्चे पढ़ सकते थे (हैं भी) | सरकारी विद्यालयों की योग्यता अपने विद्यार्थियों में परिलक्षित होती थी | सभी वर्गों के बच्चे, अनेक अध्यापकों की तमाम सवर्णीय-मानसिकताओं एवं इस रूप में वंचितों के प्रति दुर्भावनापूर्ण व्यवहारों एवं कोशिशों के बावजूद, पढ़ने ही नहीं लगे, बल्कि क़ाबिल भी होने लगे, बड़े-बड़े पदों पर पहुँचने लगे, उनमें जागरूकता आने लगी, वे सचेत होने लगे, अपने अधिकारों को पहचानने लगे, उसकी माँग करने लगे, उसके लिए प्रयत्न करने लगे, संघर्ष करने लगे…! समाज, देश, राजनीति, प्रशासन, अधिकार, सत्ता के शीर्ष पर बैठे सशक्त-सवर्णीय-मानसिकता वाले समाज के नेतृत्वकर्ता ‘प्रभुओं’ ने उस ख़तरे को भाँप लिया, पहचान लिया, समझ लिया… और सचेत हो गए | तब शुरू हुई ‘सुधारों’ की एक ऐसी श्रृंखला एवं प्रक्रिया, जिसमें दावे के साथ डंके की चोट पर बहुत से ‘सुधार’ किए गए | लेकिन समाज का बड़ा हिस्सा, जिसका सम्बन्ध निश्चित रूप से वंचित-वर्गों से था, समय रहते यह नहीं देख सका, न समझ सका, कि उन्हीं सुधारों के बीच चुपके से कुछ ऐसे काम भी किए गए, जिसने भारतीय सरकारी शिक्षा-प्रणाली को धीरे-धीरे घुन की तरह खा लिया…!

और दूसरी तरफ़ अनेक लक्ष्यों को सामने रखकर समाज एवं सत्ता के शीर्ष पर विराजमान उन ‘श्रीमानों’ द्वारा निजी विद्यालयों को, चुपचाप पिछले दरवाज़े से ख़ूब प्रोत्साहित किया गया | और यह सत्य भी तो किसी ने नहीं छुपा है, कि ये विद्यालय इन्हीं ‘प्रभुओं’ के बिजनेस के एक रूप थे, पैसा बनाने का एक बढ़िया ज़रिया, एक मुनाफ़ा वाला धंधा…! इस कारण भी उनके पोषकों और स्वामियों द्वारा उन्हें बहुविध सहायता पहुँचाई गई, ताकि सरकारी विद्यालयों में निम्न गुणवत्ता से हताश अभिभावक जब अपने बच्चे और अपने समाज के बेहतर भविष्य की आकांक्षा में निजी विद्यालयों का रुख करें, तब या तो बेहतरीन निजी विद्यालयों के माध्यम से दोहरे दोहन के शिकार बनें और उनकी आर्थिक कमर टूट जाय, जिससे उनको पुनः खड़े होने में पीढियाँ गुजर जायँ | अथवा पैसों के अभाव में सस्ते निजी विद्यालयों में उनके बच्चों की शिक्षा का हश्र वैसा ही हो, जैसा सरकारी विद्यालयों में वर्तमान में होता है…| क्या धीरे-धीरे इन्हीं कारणों से भी सायास निजी विद्यालयों को ‘स्टेट्स-सिम्बल’ का प्रतीक नहीं बनाया गया…?

अस्तु…. इसपर व्यापक चर्चा फ़िर कभी…

…तो बालक मनोहर और उसके भाई-बहनों की शिक्षा सरकारी विद्यालयों में शुरू हुई, कैंटोनमेंट हाई स्कूल, चकराता, जौनसार बाबर से | यहाँ रहते हुए इस भावी साहित्यकार-अध्यापक ने साल 1990 में दसवीं की पढ़ाई पूरी की और साल 1992 में बारहवीं की पढ़ाई | मनोहर की इंटर के बाद आगे की पढ़ाई पारिवारिक स्थितियों के कारण प्राइवेट से हुई | उन्होंने साल 1993-94 में ट्रेड-इलेक्ट्रिकल वायरमैन से आईटीआई का कोर्स किया | और उसी साथ-साथ उनकी ग्रेजुएशन की पढ़ाई भी चल रही थी, डीएवी दून विश्वविद्यालय से, जहाँ से 1995 में स्नातक (बी.ए.) और वहीँ से साल 1997 में बीएड की डिग्रियाँ भी प्राप्त की | इसके बाद उसी विश्वविद्यालय से साल 2000 में वक़ालत की भी पढ़ाई की | इसी दौरान साथ-साथ ही उन्होंने अगले वर्ष, अर्थात् साल 2001 में, पत्रकारिता का कोर्स भी पूरा किया, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार से, जिसमें उन्हें गोल्ड मैडल भी मिला | उनके घर से उक्त डीएवी कॉलेज लगभग 13-14 किलोमीटर दूर था और वहाँ जाने का साधन थी, उनकी साइकिल | चूँकि वे प्राइवेट से अपनी पढ़ाई कर रहे थे, इसलिए कॉलेज में उनकी क्लासेज़ शाम को पांच बजे से ही लगती थी | उसके लिए वे रोज़ साइकिल से उतनी दूर जाते और रात गए वापस लौटते |

लेकिन इन भाई-बहनों की शिक्षा का ये दौर इतना सीधा-सरल नहीं था, जितना वह प्रतीत होता है | बल्कि माता-पिता के आर्थिक संघर्षों में उनकी मदद के लिए मनोहर चमोली और उनके भाइयों को बचपन से ही काम पर लगना पड़ा था | बालक ‘मनु’ जब तीसरी कक्षा का छात्र था, तब उसने अपने निवास-स्थान, यानी चकराता में स्थित मौसम-विभाग के डाक-तार विभाग में काम की शुरुआत की, तब उस बालक की उम्र थी, मात्र 8 या 9 साल |

दरअसल स्थानीय स्तर का मौसम विभाग यहाँ के प्रत्येक दिन के मौसम की जानकारी पोस्ट-ऑफिस में डाक-तार के माध्यम से दिल्ली भेजता था | वातावरण में पानी का स्तर, मौसम की स्थिति, बारिश की स्थिति, बारिश की मात्रा, तापमान आदि की जानकारी दिल्ली भेजने का तरीका था, डाक-विभाग के माध्यम से तार द्वारा सूचना देना | दरअसल संबंधित व्यक्तियों द्वारा कागज़ में यह सारा हाल लिखकर बालक मनोहर को दे दिया जाता था | यह काम वैसे तो मौसम-विभाग का ही था, लेकिन हमारे देश में सरकारी महकमों के अधिकारियों की अपने काम के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण-भाव की स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है | हाँ, इतना ज़रूर है, कि उनकी ऐसी मनोवृत्तियों के कारण समाज के ज़रूरतमंद लोगों में से कुछ को अपनी गरीबी से लड़ने के कुछ छिटपुट मौके मिल जाते हैं | हालाँकि इस प्रक्रिया में बच्चों का बचपन छिन जाना तो हमारी इस पूरी दुनिया की एक तरह से स्वीकृत नियति बन चुकी है |

…तीसरी कक्षा का यह महज 8 या 9 वर्षीय बालक ‘मनु’ सुबह-सुबह मौसम विभाग से कागज़ का वह टुकड़ा लेकर पैदल 5-6 किलोमीटर दूर, बाँज और बुरांश के घने जंगलों को पार करते हुए डाकघर तक जाता, पोस्ट-मास्टर को वह काग़ज़ का टुकड़ा देता, और फिर उसके बाद स्कूल का रुख़ करता | यह काम उसे प्रत्येक मौसम में करना पड़ता था, चाहे गर्मी का मौसम हो, या सर्दी का, चाहे घनघोर बारिश हो रही हो, या मौसम सुहावना हो, उसे यह करना ही होता था, क्योंकि इसके बदले में बालक मनोहर को 20 या 30 रुपये महीने के मिलते थे, जो ग़रीबी से लड़ने में परिवार की छोटी-सी मदद करते थे | यह काम मनोहर ने लगभग अगले 7-8 सालों तक किया, यानी कक्षा तीन से लेकर दसवीं तक | ज़ाहिर है, ग़रीबी ने ही माँ-बाप को मजबूर किया होगा, अपने नौनिहालों को इस तरह के काम करने की अनुमति देने की ख़ातिर…! अन्य भाई भी, परिवार की गाडी खींचने में माता-पिता की मदद के लिए, ऐसी ही अलग-अलग गतिविधियों में संलग्न थे |

हालाँकि यह भी एक सत्य है, कि जब किसी बच्चे और किशोर के जीवन की परिस्थितियाँ जितनी विषम होती हैं, समय और हालात उस बच्चे को भविष्य के लिए उसी मात्रा में शक्ति, क्षमता, ऊर्जा, सामर्थ्य प्रदान करते हैं | यही कारण है, कि ऐसे व्यक्ति भविष्य में बहुत आसानी से विषम-परिस्थितियों के आगे पराजय स्वीकार कर नतमस्तक नहीं होते हैं | यह भी सर्वविदित तथ्य और सत्य है, कि मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाले और सभी सुख-सुविधाओं में पलने वाले बच्चे अपने जीवन में आनेवाली विषम-परिस्थितियों के सामने तुलनात्मक रूप से जल्दी घुटने टेक देते हैं, जबकि जिन बच्चों के जीवन में भूख और ग़रीबी से संघर्ष, उनके जीवन का रोज़ का अनिवार्य हिस्सा होता है, उन्हें तोड़ना उतना आसान नहीं होता है, किसी के लिए भी | उसकी परिस्थितियाँ अपने-आप में स्वयं ही एक उच्च कोटि की पाठशाला की भूमिका में होतीं हैं, जो उन बच्चों को परिस्थितियों से लड़ना सिखाती हैं, समस्याओं के हल निकालना सिखाती हैं, धैर्य और साहस के महत्त्व समझाती हैं…|

मनोहर चमोली भी इसके अपवाद नहीं हैं | संघर्षपूर्ण विषम-परिस्थितियों ने समय के साथ-साथ इस युवक को बहुत मजबूत बनाया, ठोस व्यक्तित्व दिया, विचारों की दृढ़ता दी, जिसे उनके आलोचक उनके अहंकार, जिद्दीपन आदि के रूप में प्रचारित करते हैं, जिनका उल्लेख इस आलेख की शुरुआत में किया गया है |

…मनोहर के जीवन में इस क़वायद से एक लाभ यह भी हुआ, कि डाकघर के संपर्क में रोज़-रोज़ आने से उसके सम्बन्ध में बचपन और कैशोर्य अवस्था में ही इन सभी को अच्छी-खासी जानकारी मिल गई जिसने उन्हें कुछ नई चीजें सिखाईं | इसका एक असर यह भी हुआ, कि बचपन में ही उन सभी भाई-बहनों के अकाउंट खुल गए, भारतीय स्टेट बैंक और डाकघर में, तो बच्चों ने अकाउंट के बारे में, बचत के बारे में, अपनी कमाई के महत्त्व के बारे में बहुत कुछ सीख लिया |  

…अब जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, परिवार की बढ़ती ज़रुरतों के लिए बच्चों के भी संघर्ष बढे | वे सभी भाई-बहन मिलकर पुराने अख़बारों से लिफ़ाफ़े (दूकानदारों द्वारा सामान रखकर ग्राहकों को देने के काम में उपयोग किया जानेवाला पैकेटनुमा लिफ़ाफ़ा) बनाते और दूकानदारों को बेच आते, ताकि कुछ पैसे आएँ | इससे यदि बच्चों का जीवन प्रभावित हुआ, तो उपरोक्त की तरह कुछ और अच्छे अनुभव इस अर्थ में मिले, जिसे मनोहर चमोली जीवन में अनुशासन सीखने के रूप में देखते हैं | कभी-कभी बातचीत में वे यह स्वीकार करते रहे हैं कि “…इससे हम भाई-बहन ने बचपन से ही जीवन में अनुशासन के महत्त्व को समझा और उसे समय के साथ अपने जीवन में अपनाते भी गए… आर्थिक तंगी के कारण हमने मितव्ययिता के महत्व को पहचाना और उसे भी अपनाया …इस क्रम में हमने कम से कम ख़र्च में गुजारा करना सीखा…”

उनके जीवन में लिफ़ाफ़े बनाने का यह काम भी वर्षों तक चला | जब उन्होंने इंटर (1992) पास किया, तब उन्हें उनके भाइयों के पास देहरादून भेज दिया गया, आगे की पढ़ाई के लिए | दरअसल वहाँ उनके पिता द्वारा पाई-पाई जोड़कर बनवाया हुआ घर था और सभी भाई एक-एक करके बारहवीं पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वहीँ भेज दिए जाते थे | लेकिन ख़र्च की समस्या तो तब भी बनी रही | इसके लिए किशोर मनोहर ने वहीँ देहरादून में रहने के दौरान खर्च के लिए बच्चों को टूशन पढ़ाना शुरू किया | इसी दौरान इस किशोर में एक और आदत विकसित हुई | देहरादून जिले में ही मेहुवाला में स्थित तुंतोवाला में एक प्राथमिक विद्यालय था, जहाँ मनोहर हर साल हमारे देश के स्वाधीनता दिवस (15 अगस्त), गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) और गाँधी जयंती (2 अक्टूबर) के दौरान ध्वजारोहण एवं इन अवसरों पर होने वाले कार्यक्रमों के दौरान शामिल होने के लिए जाते | स्वाभाविक है, कि वहाँ के अध्यापकों पर कुछ न कुछ असर तो होना ही था, अतः वहाँ की एक अध्यापिका, युवावस्था की ओर बढ़ रहे इस अल्प-वयस्क किशोर की इस देश-भावना से बहुत प्रभावित हुई…

…कहते हैं, कि कोई व्यक्ति अपने जीवन में जो भी अच्छे-बुरे कार्य कर रहा होता है, उसका कोई न कोई प्रभाव आस-पास के लोगों पर देर-सबेर पड़ता ही है, चाहे वह अल्प-प्रभाव ही क्यों न हो | और शायद इसी लिए हमारे शिक्षक और हमारे बड़े-बुजुर्ग हमें हमेशा सकारात्मक एवं अच्छे काम करने की सीख दिया करते हैं | उक्त विद्यालय की अध्यापिका का इस किशोर के इस छोटे-से आचरण से प्रभावित होना इसी का एक उदाहरण भर है |

यह संयोग कहा जाय या नियति की कोई पूर्व-योजना, कि कुछ ही समय बाद उक्त विद्यालय के प्रधानाध्यापक की पदोन्नति हो गई और इस कारण वह अध्यापिका वहाँ अकेली रह गईं | वह अकेली सभी बच्चों की ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं उठा पा रहीं थी | अतः उन्होंने अपनी सहायता के लिए अपने ख़र्च पर इस युवक के सामने प्रस्ताव रखा, कि वह रोज़ स्कूल में आकर बच्चों को पढ़ाने में उनकी मदद करे, बदले में उसे तीन सौ रुपए प्रतिमाह पारिश्रमिक देने की बात भी कही | युवक मनोहर के लिए यह प्रस्ताव एक पंथ दो काज वाली बात हो गई, उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अगले लगभग दो-ढाई सालों तक. अर्थात् साल 1992 से लेकर 1994-1995 तक, वहाँ पढ़ाते रहे, जब वे डीएवी कॉलेज से स्नातक कर रहे थे | बाद में शायद उक्त अध्यापिका द्वारा मनोहर चमोली को दिए जाने वाले पारिश्रमिक के रूप में इस आर्थिक दबाव को स्वयं अकेले व्यक्तिगत रूप से वहन करने के स्थान पर बच्चों के अभिभावकों को भी इसमें शामिल करने की कोशिश की गई, जिसके लिए उनके द्वारा बच्चों के अभिभावकों से दस-दस रुपये की माँग की गई | लेकिन इस माँग से समस्या बढ़ गई, अभिभावकों द्वारा इस माँग का विरोध किया गया, जो अपनी जगह उचित ही था | यह बात कुछ अधिक बढ़ जाने से उक्त अध्यापिका ने मनोहर को वहाँ आने से मना कर दिया और उसके बाद ही उनका वहाँ पर यह काम बंद हो गया, हालाँकि अध्यापिका की बात और माँग (एक सहायक की आवश्यकता की माँग) को जायज़ मानते हुए ही शायद तब तक वहाँ के लिए शिक्षा-विभाग द्वारा दूसरे अध्यापक की स्थाई व्यवस्था भी कर दी गई थी |

हालाँकि यह एक छोटी-सी घटना देखने में सीधी-सपाट लग सकती, किन्तु है नहीं | क्या इससे इस युवक ने कुछ सीखा न होगा…? क्या उसने उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय, आवश्यक-अनावश्यक के भेद को न समझा होगा…? क्या उसे आगे के लिए रास्ते दिखाई नहीं दिए होंगे…? क्या बच्चों के साथ काम करने के दौरान बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की उसने कोई कोशिश नहीं की होगी…? कौन कह सकता है, कि आज का यह ‘बाल-साहित्यकार’, एक साहित्यकार के रूप में, उसी समय से ‘सृजित’ होना शुरू नहीं हुआ था ? या उसने बच्चों को पढ़ाने के दौरान उनके लिए उनके अपने साहित्य की आवश्यकता को महसूस नहीं किया होगा…? क्या जाने उसके अवचेतन मन के किसी कोने में वह साहित्यकार धीरे-धीरे उसी समय से आकार लेना शुरू कर चुका हो, जिसकी ख़बर शायद उसे भी उस समय न हो सकी हो…? इसके अलावा कम से कम एक अध्यापक के रूप में इस युवक ने अनौपचारिक प्रशिक्षण तो प्राप्त कर ही लिया…

इसके अलावा वे तीनों भाई विभिन्न बिलों के लिए काग़ज़ बनाने वाली फैक्ट्री में भी काम करते रहे, ताकि अपनी पढ़ाई का ख़र्च जुटा सकें और पिता पर अधिक दबाव न पड़े | जब यह सब गतिविधियाँ चल रही थीं, तब इसी के समानांतर मनोहर चमोली का जुड़ाव साक्षरता अभियान से हुआ, साल था 1993, और इस समय वे स्नातक के विद्यार्थी थे, डीएवी, दून कॉलेज में |

दरअसल 1993 का वह साल उस समय 25-26 वर्ष की आयु प्राप्त कर चुके इस नवयुवक के जीवन में बहुत से मायनों में बहुत ही ख़ास महत्त्व रखता है, क्योंकि यही वो साल था, जब यह नवयुवक अनेक स्तरों पर अपनी सामाजिक-भूमिकाओं और कर्तव्य-निर्वहन का न सिर्फ़ मार्ग निर्धारित कर रहा था, बल्कि अपने अनेक लक्ष्य भी तय कर रहा था | उसमें ‘साक्षरता अभियान’ में शामिल होने से लेकर, कला-जत्थे में शामिल होकर नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से समाज को वैज्ञानिक एवं संवैधानिक रूप से सचेत करने एवं जागरूक करने की, देश के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, कलाकारों, साहित्यकारों की संगत में रहते हुए देश एवं समाज के बौद्धिक-विकास में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने तक की गतिविधियाँ एवं ज़िम्मेदारियाँ शामिल थीं |

इसपर विस्तार से बातचीत अगले आलेखों में की जाएगी…

इतने बेहतरीन अवसरों के मिलने के बावजूद मनोहर किसी राजनीतिक दल से कभी नहीं जुड़े | इस सम्बन्ध में पूछने पर प्रायः उनका उत्तर होता है— “राजनीतिक रूप से सक्रिय होने पर शायद मैं वह सब काम नहीं कर पाता, जो मैंने किए और जिन्हें करना राजनीति में जाने से कहीं अधिक ज़रूरी समझता हूँ… राजनीति में जाने के लिए वैसे भी बहुत से लोग हैं हमारे देश में, लेकिन लोगों को अंधविश्वासों, कूपमंडुकता, निरक्षरता वगैरह से बाहर निकालने के बारे में कम लोग सोचते हैं… और मेरा क्षेत्र तो पढ़ने-लिखने का है, इसलिए मेरा काम भी इसी मामले में होना चाहिए था…!”

जब मनोहर डीएवी कॉलेज में पढ़ते थे, तब उसी दौरान उन्हें वहाँ प्रगतिशील विचारों के कई लोग मिले, जिन्होंने उनके विचारों को माँजने में, उन्हें एक ठोस आकार-प्रकार देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | उनमें प्रमुख रूप से लॉ डिपार्टमेंट के अभिनंदा एवं दून साइंस फोरम के एस. के. कुलश्रेष्ठ शामिल थे | उनके साथ मिलकर मनोहर ने कॉलेज में मनाए जाने वाले ‘छात्र संघ सप्ताह’ के दौरान नुक्कड़-नाटकों की शुरुआत की | वस्तुतः नुक्कड़-नाटक की यह गतिविधि उस कॉलेज के इतिहास में पहली बार हुई थी | इसमें मनोहर और उनकी टीम ने सफ़दर हाशमी के गीत उन नाटकों के दौरान प्रयोग किए |

यह शुरूआती घटना भी बेहद दिलचस्प है | मनोहर चमोली ने बताया, कि उस कॉलेज में किसी को नहीं मालूम था, कि नुक्कड़-नाटक क्या चीज होते हैं, इसलिए किसी को भी साधारण खादी का कुरता और जींस पहनने वाले उन युवकों के कार्यक्रम में तनिक भी दिलचस्पी नहीं थी | उन्हें तो उन रंगारंग कार्यक्रमों में दिलचस्पी थी, जिसमें भरपूर मनोरंजन था, चमक-दमक थी, तड़क-भड़क थी, भरपूर आकर्षण था, जिसमें नामी-गिरामी लोग बुलाए जाते थे | ये युवक इस बात को जानते थे, उन्हें इस बात का बख़ूबी एहसास था, कि उनका बेहद खुरदरा नुक्कड़-नाटक, जिसमें कोई चमक-दमक या तड़क-भड़क नहीं थी, मनोरंजक नाच-गाने नहीं थे, लोगों को इस हद तक नापसंद हो सकता है, कि लोग उन युवकों पर काग़ज़ वगैरह भी फेंक सकते हैं, गालियाँ दे सकते हैं | अतः उन्होंने अपने-आप को मानसिक रूप से इसके लिए तैयार कर लिया, ख़ुद को बहुत मज़बूत किया और हाँ, दृढ़-निश्चय भी किया | क्योंकि सोए हुए समाज को जगाने के लिए उनकी धिक्कार सुनना भी ज़रूरी था, उन्हें स्वीकार्य था |

दुर्भाग्य से हुआ भी ऐसा ही…| लेकिन उस दिन पहली बार खेले गए नुक्कड़-नाटकों ने कहीं भीतर ही भीतर समाज को, कॉलेज के उन नवयुवा लड़के-लड़कियों को छू भी लिया | इतना ही नहीं, जब उसी दिन या अगले दिन शाम को वहाँ के स्थानीय दिश सिस्टम द्वारा टेलीविज़न पर उन युवकों के नुक्कड़-नाटक बार-बार दिखाए गए, तो एकाएक समाज का ध्यान इस ओर खिंचा | लोग अचंभित हुए, लोगों को पहली बार वहां नुक्कड़ नाटकों के बारे में पता चला, कि यह भी कोई चीज है |

आगे चलकर इसके बहुत ही सुखद परिणाम इन युवकों को मिले, अब कॉलेज में उनके सहपाठी ही नहीं, शिक्षक और दूसरे छात्र-छात्राएँ भी बड़ी हैरत और सम्मान से उन युवकों को देखते थे, कहीं मिल जाने पर लोग उनसे बात करने को उत्सुक और लालायित रहते थे | जिन लड़के-लड़कियों ने उनका प्रतिरोध किया था, वे बेहद शर्मिंदा हुए, लड़कियाँ तो रोने लगी थीं | और तो और उन नुक्कड़ नाटकों का असर यह हुआ, कि कई युवक उसमें दिलचस्पी लेने लगे | उसके बाद ऐसे युवकों का एक समूह ही वहाँ बन गया, जो इन क्रान्तिकारी युवकों की तरह खादी का कुरता और जींस पहनने लगा | मनोहर चमोली एवं उनके साथियों की यह पहल एवं मेहनत काफ़ी रंग लाई, अब वहाँ नुक्कड़ नाटक काफ़ी दिलचस्पी और उत्साह से खेले जाने लगे थे, उन नाटकों में सामाजिक मुद्दे, शिक्षा से संबंधित मुद्दे उठाए जाने लगे थे…|

एक और चीज, जिससे मनोहर को यहीं रहते हुए परिचय प्राप्त हुआ, वह था, ‘कविता पोस्टर’ | वे कहते हैं, कि “…वहीँ रहते हुए मैंने जाना, कि ‘कविता पोस्टर’ क्या होता है ?” दरअसल वहीं देहरादून में रहने और सामाजिक-क्षेत्रों में काम करने के दौरान दो प्रसिद्द कलाकारों, हरजीत और अवधेश, से मुलाक़ात हुई | हरजीत कविता, गजल और कला की दुनिया में देहरादून का एक बड़ा नाम है और ये अपनी कविता-पोस्टरों की प्रदर्शनी लगाया करते थे | इन्हीं की भाँतिअवधेश भी कला की दुनिया में एक प्रसिद्द व्यक्ति थे, जो पत्रिकाओं आदि के कवर पेज बनाया करते थे | मनोहर पर इनके इन कार्यों का बहुत असर पड़ा | दरअसल कविता-पोस्टर एक स्तर पर अपने-आप में किसी आन्दोलन से कम नहीं है, क्योंकि एक बड़े पैमाने पर इस कला का प्रयोग लोगों में चेतना एवं जागरूकता पैदा करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रयोग किया जाता है | ‘कविता-पोस्टर’ वस्तुतः एक बड़े से पोस्टर में किसी जन-जागरण से संबंधित बेहतरीन कविताओं को बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा भी जाता है और उसमें अभिव्यक्त भावों को चित्रों के माध्यम से भी उसी पोस्टर में चित्रित किया जाता है | ऐसे पोस्टरों का प्रयोग सामान्य तौर पर जनता को किसी ख़ास मुद्दे के सम्बन्ध में बताने के लिए किया जाता है, इस रूप में इन पोस्टरों का प्रयोग जन-चेतना के लिए बेहद उपयोगी है |

इसी दौरान मनोहर को उस कॉलेज में आए कला-जत्थे में शामिल होने एवं देश में चल रहे शिक्षा अभियान के उद्देश्य से जत्थे के साथ देश के अनेक भागों, जैसे पश्चिम बंगाल, आसाम और केरल जाने का मौका मिला, जिसका खर्चा ज्ञान-विज्ञान समिति उठाया करती थी | इन सभी लोगों को इन भ्रमणों के दौरान शिक्षा और साक्षरता को बेहद क़रीब से देखने-जानने के बहुत अच्छे मौक़े मिले | इस भ्रमणों के दौरान जो अनुभव मिले, उनसे भारत-भर में फैले ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘बुद्धिवाद’ (कि बुद्धि जन्मतः या प्राकृतिक रूप से केवल कुछ जातियों या तथाकथित श्रेष्ठ सामाजिक-समुदायों को ही जन्मजात रूप से मिलती है, जिनका दुनिया में राज चलता है, जैसे भारत में सवर्ण-समाज, और उसमें भी ब्राह्मण-वर्ग) के प्रति बहुत सारे भ्रम टूटे | मनोहर और उनके साथियों ने आसाम के लोगों को ब्रह्मपुत्र में आनेवाली बाढ़ के कारण वहाँ हर साल अपना घर बदलते देखा, जिससे उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती थी, तो पश्चिम बंगाल के लोगों का शिक्षा के प्रति अलग क़िस्म का दृष्टिकोण देखा | जब केरल में रिक्शेवाला भी अख़बार पढ़ता नज़र आया और रसोईघर में काम करती स्त्रियों के घरों में भी छोटी-मोटी लाइब्रेरी दिखी, तब इन विशेषताओं ने इन युवकों का शिक्षा के प्रति नज़रिया ही बदल दिया |

इन घटनाओं का सम्मिलित प्रभाव इन युवकों के भावी जीवन पर पड़ा | जहाँ एक आम शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक आम भारतीय भी केवल रोजी-रोटी के लिए नौकरी करता है, नौकरी में रहते हुए घर बनाने की जुगत लगाता है, मामूली ही सही, लेकिन चार पहिया एक वाहन ख़रीदना चाहता है | लेकिन ये युवक इस बनी-बनाई परिपाटी से अलग तरीके से जीवन को देखते हैं | हालाँकि ऐसा तो कहा नहीं जा सकता कि अपने परिवार एवं बच्चों के लिए एक सुन्दर घर और एक अच्छे वाहन की उनकी इच्छा नहीं होती होगी, लेकिन उनके जीवन में इससे भी अधिक महत्वपूर्ण चीजें शायद कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही होती हैं | क्या ये असंभव है, कि इन युवकों के मन में यह बात किसी रूप में नहीं उठती होगी, कि सुन्दर घर सबके लिए क्यों नहीं हो सकता ? या अपनी संतानों के लिए अच्छी गाड़ी का सपना हर पिता के मन में क्यों आशा पैदा नहीं कर सकती ? मनोहर चमोली ने एक बार कहा था, “…अच्छा जीवन जीने का हक़ हर किसी को मिलना चाहिए, सुन्दर साफ़-सुथरे कपड़े, अच्छा भोजन, अच्छी शिक्षा हर बच्चे को अधिकार के रूप में मिलना चाहिए… लेकिन दुर्भाग्य से केवल कुछ लोगों ने इन सभी पर कब्ज़ा कर रखा है…”

इस तरह उक्त महाविद्यालय में पढ़ते-लिखते, काम करते, जीवन और समाज के अनुभव प्राप्त करते, अपने व्यक्तित्व को तराशते-निखारते एवं लोगों में जागरूकता पैदा करते हुए मनोहर ने वहाँ 3-4 साल बिताए | उनका मानना है, कि “…उस कॉलेज में मेरे वे कुछ साल मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन एवं ख़ूबसूरत दिनों में से एक हैं, जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता…”

इस प्रकार उनकी शिक्षा और सामाजिक ज़िम्मेदारियों का सफ़र साथ-साथ चलता रहा | चूँकि उन्होंने साल 2000 में अपना वक़ालत का कोर्स पूरा कर लिया था और अगले साल पत्रकारिता का कोर्स भी पूरा हो गया था, इसलिए आर्थिक आत्म-निर्भरता के लिए इन दोनों क्षेत्रों में कुछ बेहतर प्रयास शुरू किए | हालाँकि बतौर रुड़की संवाददाता उन्होंने साल 1996 से ही स्वतन्त्र संवाददाता के रूप में काम करना शुरू कर दिया था, ‘राष्ट्रीय सहारा’ (दैनिक) में, जिसके लिए उन्हें पंद्रह सौ रुपए का एक मानदेय मिलता था | बाद में पत्रकारिता के इस क्षेत्र में उपरोक्त पत्र ‘राष्ट्रीय सहारा’ (दैनिक) में साल 1999-2005 तक नियमित रूप से भी काम किया और इसके साथ ही साल 2000-2005 के दौरान ‘सहारा समय’ (साप्ताहिक) में भी नियमित (रेगुलर) पत्रकार के रूप में काम किया | इस तरह 10 सालों तक, अर्थात् 1996 से 2005 तक, पत्रकारिता से सीधे-सीधे जुड़े रहे | यह काम बाद में भी ज़ारी रहा, लेकिन अवैतनिक और अंशकालिक | यद्यपि वे बताते हैं, कि वर्तमान में एक पारिश्रमिक के रूप में अवश्य वे कुछ राशि लेते हैं, अपने काम की क़ीमत के रूप में |

खैर, इसी अवधि मेंपत्रकारिता के साथ-साथ 2000-2005 के दौरान वे वक़ालत की भी प्रैक्टिस करते रहे, जिसमें वे अपने सहयोगियों के साथ उपभोक्ता फोरम और फैमिली-कोर्ट के मामले देखते थे |

समय बीतता गया और उनके पास अनुभवों का ख़जाना आता गया, समाज को समझने का, देश की स्थिति को देखने-जानने का… और उसी अनुपात में उनके व्यक्तित्व को भी ठोस आकार और दिशा मिलती गई | इसी बीच साल 2005 में शिक्षा-विभाग में, बतौर शिक्षक, उन्हें स्थाई नौकरी मिल गई | और इस रूप में उनकी पहली पोस्टिंग 26 नवम्बर 2005 को राजकीय उच्च विद्यालय, नलई, विकासखंड-कल्जीखाल में हुई | यह उनके जीवन में पुनः एक महत्वपूर्ण मोड़ (टर्निंग पॉइंट) था |

इस बारे में बात करते समय मनोहर चमोली की आँखों में कुछ ऐसा होता था, जो इस अध्यापक के ‘कठोर ठोस व्यक्तित्व’ के पीछे से झाँकता रहता था, जब वे यह कहते थे— “…उन बच्चों में मैंने अपना और अपने भाई-बहन का खोया हुआ बचपन देखा, …उनकी सूरत में मुझे अपनी सूरत अक्सर नज़र आती थी, उनकी परिस्थितियों में मुझे अपनी परिस्थितियाँ दिखाई देतीं, …इसलिए मुझे उनके संघर्ष में अपने संघर्ष नज़र आते, …उनके दुःख, उनकी तकलीफ़ें मुझे अपने दुःख और अपनी तकलीफ़ें प्रतीत होते रहते…!”

यह सवाल करने पर, कि बाल-साहित्य लिखने का ख्याल उन्हें कैसे और क्यों आया, जो जवाब मिलता, वह इस साहित्यकार-अध्यापक की संवेदना के स्तर को ही नहीं, उसकी प्रतिबद्धता और दायित्व-बोध को भी अच्छी तरह उजागर करता है— “…मुझे अख़बार में काम करना अच्छा लगता था | मुझे लगता था, कि इसके माध्यम से मैं देश-दुनिया से जुड़ा हूँ, अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभा पाता हूँ, समाज में संवैधानिक मूल्यों की स्थापना करने में, समाज में समानता, भाईचारा, सौहार्द, शिक्षा की स्थापना में अपना योगदान दे पाता हूँ…! …लेकिन मेरे सामने आर्थिक समस्या भी थी, जो स्कूल में स्थाई सरकारी नौकरी के माध्यम से हल हो सकती थी | अतः उसे स्वीकार करना ही था | …तब मैंने सोचा, कि यदि मैं अख़बार में काम नहीं कर सकता, तो क्या हुआ, बच्चों के लिए लिख तो सकता हूँ…| मेरा उद्देश्य तो इस माध्यम से भी पूरा हो सकता है… इस रूप में भी तो मैं समाज के विकास और उत्थान में अपना योगदान दे ही सकता हूँ…! सरकारी मुलाज़िम होने के कारण मैं अख़बार के माध्यम से सरकार की नीतियों की समीक्षा और आलोचना करते हुए संविधानिक मूल्यों की स्थापना में अपना योगदान नहीं दे सकता, तो क्या हुआ… भावी पीढ़ी को तो इसके लिए तैयार कर ही सकता हूँ, कि वह आगे चलकर उस दिशा में काम करे, समाज को आगे ले जाय…! स्कूल में लगातार बच्चों के साथ रहते हुए बच्चों के लिए काम करना बहुत सही है, अनुकूल है, आवश्यक भी है | …इसके पहले मैं बाल-साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानता था, उसका केवल नाम भर सुना था | इसलिए मेरे सामने चुनौती तो बहुत बड़ी थी, लेकिन मैंने कोशिश शुरू की…!”  

वाकई में यह काम एक ऐसे व्यक्ति के लिए किसी बड़ी और गंभीर चुनौती से कत्तई कम नहीं रहा होगा, जिसका मस्तिष्क वक़ालत के क्रूर दाँव-पेंच के लिए अभ्यस्त था, जो कठोर खुरदरी मारक भाषा में सरकारी नीतियों की आलोचना करता रहता था | ऐसा व्यक्ति किस प्रकार छोटे नौनिहालों के लिए कोमल मधुर शब्दों में साहित्य की रचना कर पाता…? जो व्यक्ति तथ्यों और घटनाओं के बीच से ‘सत्य’ को बलपूर्वक बाहर खींच लाने का आदी हो, वह बच्चों की कल्पनाओं की मोहक दुनिया में किस प्रकार विचरण कर पाता और किस प्रकार अपने साथ उन छोटे बच्चों को उन मोहक संसारों में सैर पर ले जा पाता…? सवाल तो निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं… और विचारणीय भी…  

लेकिन आज हम सब इसके गवाह हैं, कि उन्होंने न केवल सफ़लतापूर्वक बच्चों के लिए बेहतरीन कहानियाँ और कविताएँ लिखीं, बल्कि बच्चों की दुनिया में उनकी गहरी पैठ भी है, केवल हिंदी-पट्टी के भारत में ही नहीं, बल्कि भारत की ही अनेक संस्कृतियों, भाषाओँ और दूसरे देशों के बच्चों की दुनिया में भी…! 2006 से बाल-कहानियों को लेकर शुरू हुई इस बाल-साहित्यकार की यह साहित्यिक-यात्रा आज अनेक देशों एवं भाषाओँ तक अपना विस्तार प्राप्त कर चुकी है…

इस पर विस्तृत चर्चा फ़िर कभी, किसी और आलेख में…

…कुछ समय तक उक्त विद्यालय में काम करने के बाद उनका स्थानान्तरण दिनांक 12 दिसम्बर 2006 को राजकीय उच्च विद्यालय, भिताईं, विकासखंड-पौड़ी में हो गया, और कुछ सालों बाद पुनः दिनांक 22 मई 2019 को तीसरे स्कूल राजकीय इंटर कॉलेज केवर्स विकासखंड-पौड़ी में, जहाँ वे आज भी कार्यरत हैं |

इसी दौरान 2007 में उनका विवाह अनीता चमोली से हो गया, जो स्वयं भी एक अध्यापिका (राजकीय इंटर कॉलेज, कालेश्वर, पौड़ी) हैं और इसके साथ-साथ वे भी, अनीता चमोली ‘अनु’ के नाम से, वर्तमान में बाल-साहित्य की सम्पदा को समृद्ध कर रही हैं और साथ ही बड़ों के लिए भी कविता लिखती हैं | इन दोनों की दो संतानें, अनुभव चमोली और मृगांक चमोली, अपनी शरारती और बचपने भरी हरकतों, एवं लेखन (जिनमें इन दोनों बाल-साहित्यकारों के इन बच्चों, ख़ासकर बड़े बेटे अनुभव, के बाल-मन की ख़ूब झलक मिलती रहती है) के लिए भी, फेसबुक की दुनिया में ख़ासे मशहूर हैं…

                                                             …पिक्चर अभी बाक़ी है…

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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7 thoughts on “मनोहर चमोली ‘मनु’

  1. मनु जी, आपका जीवन वृतांत एक उदाहरण है उन सबके लिए जो जीवन में बिना मेहनत के ही सब कुछ पा लेना चाहते हैं। संघर्ष ही इंसान को साधारण से उत्कृष्टता की ओर ले जाता है। सुधारने की प्रक्रिया में आपके प्रयास अनुकरणीय हैं। बेजोड़ लेखक होने के साथ-साथ आप एक बेबाक समीक्षक भी हैं। आपकी लेखनी और दृढ़ इच्छा शक्ति को नमन है

    1. रेनू मंडल जी,
      आपके ऊर्जावान शब्द मनोहर जी जैसे अध्यापकों एवं अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित सभी लोगों को नया उत्साह और प्रेरणा देते हैं, मन में उत्साह भरते हैं…साथ ही लेखक को भी अपने शब्दों
      एवं लेखन के प्रति और अधिक सजग बनाते हैं…
      सादर

  2. मनु सर के कहानियों के लिए तो प्रसिद्ध हैं लेकिन अब लोग उनकी बेबाक समीक्षा के लिए भी उन्हें जानते हैं। जिस तरह से वे बेपरवाह होकर अपनी बात कहते हैं उसी से लगता है कि उन्होंने बहुत से पथरीली हक़ीक़तों का सामना किया है।

    1. आपके शब्द निश्चित रूप से मनोहर जी को और उत्साहित करेंगें…

  3. संघर्ष ही आपको साधारण धातु से सोना बनाता है । संघर्ष आपको दूसरों को जानने और समझने में मदद करता है जब आप दूसरों को समझते है उनकी पीड़ा को महसूस करते है तो आप स्वतः ही सुधारने की प्रक्रिया में जुड़ जाते हैं। आपके संघर्षों और प्रयासों को साधुवाद।

    1. आशीष जी । आपकी टिप्पणी से मैं सहमत हूँ। हाँ अभी हम मनुष्यता के एक सिरे को भी पकड़ नहीं पाए हैं। समूचा थान तो नापना संभव नहीं है। कनक जी की नज़र है जो हम आम को ऐसा देख पाईं।

    2. आशीष जी,
      अप जैसे उर्जावान एवं निरंतर अपने उद्देश्यों एवं कर्तव्य-भावना को समर्पित अध्यापकों के संपर्क में रहते हुए एक कोशिश शुरू की है… आपलोगों के शब्द एवं मूल्यांकन मेरा मार्गदर्शन करेंगे …
      ह्रदय से धन्यवाद …

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