बतकही

बातें कही-अनकही…

भाग-एक : बहुमुखी प्रतिभा का धनी अध्यापक

एक अनुकरणीय अध्यापक वह होता है, जो न केवल अपने विद्यार्थियों को ‘पढ़ाने’ का काम सफ़लतापूर्वक कर रहा हो, बल्कि इसके समानान्तर उसके द्वारा समाज को भी ‘पढ़ाने’ और जगाने का काम निरंतर किया जा रहा हो | एक शिक्षक केवल अपने विद्यार्थियों-मात्र का ही शिक्षक नहीं होता है, बल्कि वह कम-से-कम उस पूरे समाज का शिक्षक होता है, जहाँ वह रह रहा है, जहाँ वह कार्य कर रहा है, जिस समाज के बच्चों को वह पढ़ा रहा है…| और वह समाज भी अपने ऐसे अध्यापकों को आसानी से भुला नहीं पाता है, न भुलाता है |

…दरअसल हमारे समाज में शिक्षक-वर्ग को जो सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठित हैसियत (बौद्धिक, वैचारिक हैसियत एवं सम्मान की दृष्टि से समाज द्वारा दी गई उच्च हैसियत) प्राप्त है, वह भी बताता है कि हमारे समाज को अपने अध्यापकों पर कितना विश्वास है | अभिभावक यूँ ही तो अपने बच्चों को अध्यापकों के सुपुर्द करते हुए यह नहीं कहते हैं कि “मास्टरजी/ मैडमजी, मेरा यह बच्चा/मेरी यह बच्ची अब आपके ही हाथ में है | आज से आप ही इसके माता-पिता हैं” ? मेरे माता-पिता ने भी मेरे अध्यापकों से यही बात कही थी और यही वाक्य सैकड़ों बार दूसरे विद्यार्थियों, अर्थात् सहपाठियों के माता-पिता के द्वारा भी थोड़े परिवर्तनों के साथ सुन चुकी हूँ | और स्वयं भी अपने विद्यार्थियों के माता-पिता से यही बात दर्जनों बार सुन चुकी हूँ | सवाल है कि ऐसा हमारा समाज क्यों करता है?

दरअसल हमारा समाज शिक्षक को सम्पूर्ण समाज का मार्गदर्शक और शिल्पी समझता है और विश्वास करता है कि उसकेका अध्यापक/अध्यापिका समाज को हर ऐसे समय में सही मार्ग दिखाएँगे, जब समाज भटकाव का शिकार हो रहा होगा | वह अपने अवचेतन में कहीं न कहीं यह विश्वास लेकर चलता है कि उसके अध्यापक एक कुशल शिल्पी की भाँति समाज की रचना को नया आयाम देंगे और उसे बेहतर बनाएँगे |

इसलिए यह स्वतः ही तय हो जाता है कि शिक्षक का दायित्व केवल अपने विद्यालय में आने वाले विद्यार्थियों-मात्र के दिलो-दिमाग़ के अँधेरों को दूर करने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसकी शिक्षा के दायरे में सम्पूर्ण समाज को आना चाहिए | क्योंकि यदि किसी समाज को उसके समस्त ‘अंधेरों’ से बाहर निकालना हो, तो केवल उस समाज के बच्चों की शिक्षा पर्याप्त नहीं हो सकती | क्योंकि यदि केवल बच्चों को शिक्षित करने के माध्यम से समाज को बदलने के सपने देखे जाएँगे और उतनी ही कोशिश की जाएगी, तो अपेक्षित सकारात्मक परिवर्तन लाने में कई पीढ़ियाँ और सदियाँ गुजर जाएँगी | क्योंकि बच्चे तो शिक्षित होने की प्रक्रिया में शायद लोकतांत्रिक तरीक़े से सोचना शुरू कर देंगे, लेकिन शिक्षा एवं तार्किक चिंतन के अभाव में उनके अभिभावक एवं पूरा समाज कहीं पीछे छूटता चला जाएगा | ऐसे में वह अपने ही बच्चों की तार्किक एवं बौद्धिक बातों को शायद समझ नहीं पाएगा, उनके एवं अपने भविष्य के लिए उचित और आवश्यक क़दम नहीं उठा पाएगा, बल्कि अपनी ही बात पर अड़े रहते हुए बाधाएँ खड़ी करने लगेगा | दो पीढ़ियों के बीच का यह परस्पर टकराव, हो सकता है कि तब उस समाज एवं उससे आगे बढ़कर उस देश के समुचित विकास को इस हद तक नकारात्मक ढंग से प्रभावित करे, जिससे निकलने में पुनः सदियों का समय लग जाए ! हमारे समाज में पीढ़ियों के बीच मौजूद बौद्धिक-वैचारिक अंतराल और आधुनिक लोकतान्त्रिक मूल्यों को लेकर बहुत अधिक टकराव की स्थिति का इस इक्कीसवीं सदी में भी निरंतर दिखाई देना, क्या इसी बात का समर्थन करते हुए प्रतीत नहीं होते हैं?

लेकिन यदि किसी समाज के भीतर उसके अध्यापकों द्वारा बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ उनके अभिभावकों के साथ भी निरंतर संवाद स्थापित करने की कोशिशें हो रही हों, उस संवाद की प्रक्रिया में उनके भी बौद्धिक-वैचारिक चिन्तक को निरंतर तराशा जा रहा हों, उनकी संवेदनाओं को व्यापक बनाने की कोशिशें हो रही हों, तो निश्चय ही सकारात्मक परिवर्तन लाने में बहुत अधिक संघर्ष करने की सम्भावना कम हो सकती है, उस अपेक्षित परिवर्तन के लिए बहुत अधिक समय भी शायद नहीं लगे, उसके लिए संभवतः बहुत ज्यादा ऊर्जा भी अपव्यय नहीं होगी…

महेशानंद एक ऐसा ही नाम है, जो न केवल अपने विद्यार्थियों को शिक्षित करने की कोशिश करते हैं, बल्कि पिछले कई सालों से उनके माता-पिता सहित सम्पूर्ण समाज को भी जागरूक बनाने की कोशिश निरंतर कर रहे हैं; चाहे वह प्रकृति या पर्यावरण के महत्त्व को समझाने एवं उसको संरक्षित करने का मुद्दा हो, चाहे बच्चों की शिक्षा की महत्ता समझाने का मसला हो, अथवा लगातार भुलाई-बिसराई जा रही अपनी स्थानीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने एवं लोगों को उसका स्मरण कराने के लिए साहित्य-रचना के माध्यम से लगातार कोशिश करने की बात हो…|

महेशानंद…! पूर्व माध्यमिक विद्यालय (जूनियर हाई स्कूल), बाड़ा (पौड़ी, उत्तराखंड) के अध्यापक ! एक ऐसा अध्यापक जो अपने विद्यार्थियों की बेहतरीन शिक्षा के लिए जो भी संवैधानिक रूप से उचित हो, वह सारे उपाय करता है, सारे मार्ग तलाशता है | एक ऐसा अध्यापक जो इतना दूरदर्शी है कि जब हमारा देश अपने ‘आर्थिक-विकास’ के लिए लगातार पेड़ों को काटता हुआ जंगलों का सफ़ाया करता चला जा रहा था और अभी भी यह प्रक्रिया ज़ारी है, तब यह शिक्षक पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से निरंतर अपने विद्यार्थियों को पर्यावरण के महत्त्व एवं संरक्षण की न केवल सीख दे रहा है, बल्कि उन्हीं बच्चों को और अपने सहकर्मियों को अपने साथ लेकर निजी संसाधनों से हज़ारों पेड़-पौधे लगाता जा रहा है, ताकि उसके सभी ‘बच्चे’ अर्थात् विद्यार्थी एवं समाज के अन्य बच्चे भविष्य में भी साफ़ हवा में साँस ले सकें, वन के निरीह पक्षियों को आश्रय और भोजन मिल सके, जंगल के जानवरों को घर मिल सके | एक ऐसा अध्यापक जो अपने स्थानीय समाज द्वारा हर दिन थोड़ा-थोड़ा करके भुलाए चले जा रहे अपने अतीत एवं उसकी गौरवशाली संस्कृति एवं साहित्य को याद दिलाने की कोशिश में अपनी लेखनी निरंतर चला रहा है…!

महेशानंद…! मूलतः केवर्स, जिला पौड़ी के निवासी | केवर्स, जिसका मूल नाम शायद ‘किबस’ था, मुख्य शहर पौड़ी से सड़क-मार्ग से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित है, जो पौड़ी से कोटद्वार जाने के रास्ते में पड़ता है, कल्जीखाल की ओर जाने वाले मार्ग में | पौड़ी में शिक्षा के क्षेत्र में काम करनेवाली एक सामाजिक संस्था में कुछ समय तक काम करने के दौरान मैं महेशानंद से मिली थी | जब भी उनसे भेंट होती और बातचीत होती, तो मैं प्रायः ही यह महसूस करती रही हूँ कि वे अपने व्यक्तित्व, अपने चिंतन, अपने व्यवहार का एक अनकहा-सा प्रभाव सामनेवाले पर छोड़ जाते हैं | हालाँकि देखने में वे बेहद मामूली और अतिसाधारण हैं, इतने साधारण कि यदि वे आपके पास से गुजर जाएँ, तो आपको एहसास भी नहीं होगा, उनपर ध्यान जाना तो दूर की बात है | लेकिन जब कोई उनसे बात करे, तो उनकी बातचीत का, उनके विचारों का और अंततः उनके उस ‘साधारण’ व्यक्तित्व का एक अद्भुत-सा असर सामने वाले पर धीरे-धीरे पड़ता ही है और देर तक बना रहता है, मुँह में गुड़ की तरह…|

महेशानंद…! एक बेहद शांत व्यक्तित्व, जिसमें अस्थिरता का नामोनिशान कम-से-कम मैंने नहीं देखा; विचारों में वैसी कोई हड़बड़ाहट नहीं देखी, जो एक चंचल और अस्थिर व्यक्ति की पहचान होती है; किसी के प्रति वह क्रूरता भी नहीं दिखती है, जिससे व्यक्ति आहत होकर उनसे खिंचाव महसूस करे; समाज के वंचित ग़रीब तबकों के प्रति विद्वेष या घृणा भी नहीं दिखती है, बल्कि वहाँ एक अनकही-सी संवेदना ही नज़र आएगी…| लेकिन उस शांत चेहरे, बेहद साधारण व्यक्तित्व एवं स्थिरचित्त इंसान के पीछे कितनी अशांति, कितने संघर्ष और कितनी तकलीफ़ें छिपी हुई हैं, ये तो महेशानंद ही जानते हैं अथवा उनके अति-निकट रहनेवाले परिजन और प्रियजन | अनेक किश्तों में बातचीत करने के बाद जो थोड़ा-बहुत मैं जान सकी, उसे शब्दों में पिरोने की कोशिश है यहाँ, लेकिन जो अपने आप में इतना कम और अपर्याप्त होगा उनके बारे में मोटा-मोटा ख़ाका खींचने के लिए भी, कि उसे ऊँट के मुँह में जीरा भी कहना मुश्किल है |

…पौड़ी जिले में स्थित केवर्स के निवासी महेशानंद का जन्म 15 नवम्बर 1967 को पिता सन्तूलाल मिस्त्री और माँ सतरी देवी के घर हुआ | वे उनकी सबसे छोटी और तीसरी संतान हैं | उनसे बड़े उनके एक बड़े भाई और दोनों भाइयों से बड़ी एक बहन है | उनका विवाह सुनीता देवी से 1992 में हुआ और अब वे दो बेटों (अनूप कुमार और विमल कुमार) एवं एक बेटी (रूचि कुमारी) के माता-पिता हैं |

उनके पिता मुख्यतः एक राजमिस्त्री थे, जो मकान बनाने का काम किया करते थे, लेकिन यह काम भी कभी कभार ही मिलता था, क्योंकि कोई रोज़-रोज़ तो मकान बनवाएगा नहीं | इसलिए परिवार को चलाने के लिए पिता ने लोहार का काम भी साथ-साथ किया, लेकिन उसका भी उचित मूल्य नहीं मिलता था, इस काम के बदले में ज़मींदार कुछ अनाज दे दिया करता था, जिससे परिवार का काम कितने दिन चल पाता होगा, क्योंकि लोहारी का काम भी कोई रोज़-रोज़ थोड़े न करवाता है, वह आम इन्सान हो या ज़मींदार? समाज के हाशिए पर मौजूद इस परिवार एवं उनके जैसे सैकड़ों कारीगर परिवारों की ज़मीनें तो सदियों पहले समाज के वर्चस्ववादी तबकों द्वारा बलपूर्वक छीनी जा चुकी थीं, अतः वे वंचित तबक़े एवं उनके परिवार समाज के ‘बड़े लोगो’ के बँधुआ मजदूर बनने को सदियों से विवश किए गए | लेकिन यह तो अब शायद वर्त्तमान पीढ़ी महसूस भी नहीं कर सकती कि बँधुआ मजदूरों को कोई पारश्रमिक नहीं दिया जाता, मुट्ठी भर अनाज के अलावा | इसलिए इस परिवार के सामने भी भूख और भोजन की समस्या हमेशा मुँह खोले खड़ी ही रहती थी | किन्तु माता-पिता ने अनिश्चित भविष्य और ग़रीबी एवं भूख से लड़ते परिवार की दयनीय स्थिति के बावजूद अपने बच्चों को पढ़ाना आवश्यक समझा और बच्चों की पढ़ाई शुरू हो गई गाँव के ही सरकारी विद्यालय में |

इस तरह बालक महेश की प्रारम्भिक शिक्षा, अर्थात् कक्षा 1 से 5 तक, अपने गाँव में ही सरकारी विद्यालय में हुई | लेकिन कक्षा 5 से आगे के विद्यालय की व्यवस्था वहाँ नहीं थी, जिस कारण बालक महेश को वहाँ से 4 किलोमीटर दूर दोमटखाल (जिला पौड़ी) में नामांकन कराना पड़ा, जहाँ उसका बड़ा भाई उस समय पढ़ रहा था, विद्यालय था जूनियर हाई स्कूल दोमटखाल (जिला पौड़ी) | भयानक ग़रीबी के कारण यातायात के किसी समुचित साधन के अभाव में अपनी शिक्षा के लिए बालक महेश अपने बड़े भाई के साथ प्रतिदिन पैदल 8 किलोमीटर की यात्रा करता, घर से दोमटखाल स्थित विद्यालय तक 4 किलोमीटर पैदल चलना और छुट्टी के बाद पुनः उतना ही पैदल चलकर वहाँ से वापस घर आना 10 एवं 11 साल के बच्चों के लिए कोई आसान काम तो रहा नहीं होगा? शिक्षा की इस यात्रा में न जाने कितनी ऊँची-नीची घाटियाँ, गड्ढे और चढ़ाइयाँ एवं ढलानों से भरे रास्ते, जिसमें न जाने कितने जहरीले कीड़े-मकोड़े, साँप-बिच्छू, जंगली हिंस्र वन्य-जीव उन बालकों को मिलते होंगे? और यह कष्ट किसलिए? केवल इसलिए कि वे बालक पढ़ना चाहते थे और माता-पिता शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों का अच्छा भविष्य देखना चाहते थे | क्या समाज और देश की व्यवस्थाओं के लिए यह शर्म की बात नहीं है? क्यों देश के प्रत्येक बच्चे के लिए उसका विद्यालय उसके घर के पास नहीं होना चाहिए?

अस्तु…! उन्होंने उस विद्यालय में कक्षा 6 से 8 तक की पढ़ाई की, जहाँ दोनों बच्चे घर में माता-पिता को एक-एक दाने के किए संघर्ष करते हुए प्रतिदिन देखते और हर दिन हतोत्साहित होते जाते थे | जिसका परिणामस्वरूप कई बार परीक्षाओं में असफ़लता के रूप में सामने आया |

दरअसल केवल ग़रीबी ही एक वजह होती तो गनीमत थी, लेकिन यहाँ तो ग़रीबों और असहाय जनों के के लिए कोई मुसीबत अकेली नहीं आती है, बल्कि वह अपने पूरे कुनबे के साथ आती है | 1977 में पिता के एक ग़लत ऑपरेशन ने उनके सम्पूर्ण परिवार पर जो दुःखों का पहाड़ गिराया, उसने तात्कालिक रूप से ही नहीं, बल्कि आगे जीवनभर के लिए इस पूरे परिवार की आर्थिक एवं भावनात्मक स्थिति की कमर ही तोड़ डाली | क्या पिता को शारीरिक पीड़ा से छटपटाते देख कोमन-मन बच्चों का नन्हा ह्रदय काँप नहीं उठता होगा? क्या उस असहनीय शारीरिक पीड़ा के बावजूद पिता को परिवार के जीवन-यापन की ख़ातिर मर-मरकर काम करते देखकर बच्चों को अपनी पढ़ाई से ‘मोहभंग’ नहीं होता होगा? उनका मन उचाट नहीं हो जाता होगा? बच्चों ने जितनी भी पढ़ाई की वह कैसे की होगी? अपने दिल को कितना मज़बूत कर पाते होंगे नन्हे बालक? परीक्षा में असफ़लता इसी ‘मोहभंग’ और ‘उचाटपन’ का परिणाम थी | बड़े भाई ने अंततः परिवार की मदद के लिए मजदूरी करना स्वीकार किया | माता-पिता के दिलों पर तब क्या बीतती होगी, जब वे अपने छोटे बच्चों को क़िताब और खिलौने थामने की उम्र में मजदूरी करते देखते होंगे?…

… लेकिन तब भी फ़ेल-पास होते हुए दोनों भाई एक साथ 1980-81 में 8 वीं कक्षा उत्तीर्ण कर गए | समझा जा सकता है की महेशानंद के भीतर समाज के बेबस लोगों, अपने विद्यार्थियों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों के प्रति जो ये गहरी संवेदना और समर्पण-भाव है, उसका उत्स कहाँ है !   

…उन दो सद्यःकिशोरों की शिक्षा पाने के लिए संघर्षों भरी यह यात्रा न तो यहीं ख़त्म होने वाली थी और न ही उनके संघर्ष कम होनेवाले थे | दोनों भाइयों ने एक साथ ही 8 वीं पास करने के बाद जब अपनी आगे की पढ़ाई के बारे में सोचा, तो उन्होंने देखा कि न तो उनके घर के पास उनके लिए कोई विद्यालय उपलब्ध था और न ही उनके पूर्व-विद्यालय के स्थान दोमटखाल में | झख मार कर उस जमाने में उन्होंने जब आसपास देखा तो दूर में पौड़ी शहर नज़र आया | तब उन्होंने एवं उनके माता-पिता ने एक अच्छे विद्यालय के रूप में डीएवी इंटर कॉलेज को वहाँ पाया और बच्चों की पढ़ाई को महत्त्व देते हुए कक्षा 9 से 12 तक की पढ़ाई के लिए उसी विद्यालय में दाख़िला करवा दिया गया |

लेकिन यह शहर पौड़ी एवं उक्त विद्यालय उनके गाँव से कम-से-कम 9 किलोमीटर दूर था (सड़क मार्ग से 12 किलोमीटर) और उक्त विद्यालय जाने के लिए भी उनके पास संसाधनों का अभाव आड़े आने लगा | लेकिन उन्होंने पुनः हिम्मत नहीं हारी और अपने पैरों पर भरोसा किया | और पुनः एक बार पैदल प्रतिदिन कुल 18 किलोमीटर की यात्रा शुरू हुई, 9 किलोमीटर केवर्स से पौड़ी एवं शाम को 9 किलोमीटर वापसी पौड़ी से केवर्स तक की यात्रा | और हाँ, इस यात्रा में भी पहले की ही तरह तेंदुए, चीते, बाघ, पैने दाँतों वाले जंगली सूअर जैसे खूंखार वन्य-हिंस्र जीवों एवं ज़हरीले कीड़े-मकोड़े, साँप-बिच्छू आदि से भरे जंगल मिलते ही होंगे, साथ ही ऊँची-ऊँची चढ़ाइयाँ, गहरी घाटियाँ, खाइयाँ, खड्ड, गदेरे… यही रोज़ का क्रम पुनः बन गया होगा |

लेकिन मुश्किलों एवं मुसीबतों ने यहाँ भी उनका साथ नहीं छोड़ा, जिस कारण दोनों भाइयों का फ़ेल और पास होने का सिलसिला यहाँ भी चलता रहा | महेशानंद कहते हैं— “ रोज़ 18 किलोमीटर पैदल चलकर हम थक कर चूर हो जाते थे | शाम घर लौटते हुए आधा रास्ता किसी तरह पार करने के बाद हमारे पैर थकन और दर्द से उठ नहीं पाते थे | इस लम्बी यात्रा को याद करके ही हमारा पढ़ाई में मन लगता ही नहीं था | इसके अलावा घरेलू ज़िम्मेदारियाँ भी कम नहीं होती थीं, जो कभी पूरी होने का नाम नहीं लेती थीं |” इसके अलावा कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही कई बार पता चलता था कि पिता बेहद सीरियस हालत में अस्पताल पहुँच गए है, तब दोनों भाई दौड़ते-भागते पिता के पास अस्पताल पहुँचते थे | तब समझा जा सकता है कि क्यों पढ़ने के बेहद इच्छुक इन लड़कों को बार-बार असफ़लता का मुँह देखना पड़ता था |

लेकिन धीरे-धीरे ही सही, इस तरह महेशानंद एवं उनके बड़े भाई की विद्यालयी शिक्षा पूरी हुई | उक्त विद्यालय से महेशानंद ने 1985 में 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1987 में भाई के साथ ही 12 उत्तीर्ण की परीक्षा |

बेटों की पढ़ने की ललक पिता से छुपी नहीं थी | महेशानंद कहते हैं— “मेरी आगे पढ़ने की बहुत अधिक इच्छा थी, लेकिन पौड़ी आने-जाने का ख़र्चा, कपड़े-जूते, क़िताबें, फ़ीस आदि का इतना बड़ा ख़र्चा देखकर मैं हिम्मत नहीं कर सका | लेकिन मेरे पिताजी ने अपने आप पर विश्वास किया और वहाँ मेरा बीए में एडमिशन दिलवा दिया |” लेकिन जिस समाज को स्कूल का मुँह भी देखने की इजाज़त समाज ने नहीं दी हो, उसका एक बच्चा यदि आलिशान विद्यालयों-विश्वविद्यालयों के दरवाज़े पर अचानक पहुँच जाए, तो उसकी मनःस्थिति क्या होगी? खासकर तब जब वहाँ साधन-संपन्न घरों के लड़के-लडकियाँ रोज़ नए-नए कपड़े, जूते आदि पहनकर आते हों, कभी-कभी आपस में फर्राटेदार इंग्लिश में बातें भी करते हों, महँगे रेस्टोरेंट में खाना खाते हों, जिनके पास प्रत्येक सुविधा हो, साधन हो, ज़िंदगी का आनंद हो | जबकि ग़रीबी का मारा युवक महेश जब अपने फ़टे-पुराने, जगह-जगह से घिसे कपड़े एवं पुरानी टूटी प्लास्टिक की चप्पल पहनकर आता होगा, तो कैसे उन चमक-दमक से लबरेज़ लड़के-लड़कियों के सामने अपने आत्म-विश्वास को बनाए रख पाता होगा? जिसके पास अपनी ज़रूरी क़िताबें ख़रीदने के पैसे न हों, वह महँगे कपड़े और जूते कहाँ से लाता? जो साधन के अभाव में कॉलेज में दिनभर भूखा ही रहता हो, वह महँगे रेस्टोरेंट में खाना कैसे खा सकता था? महेशानंद को अपने पिता की उस आर्थिक स्थिति का ख़ूब एहसास था, जो वे सभी सालों से देखते-झेलते आ रहे थे | इस बारे में पूछने पर महेशानंद कहते हैं—“डिग्री कॉलेज के भीतर जाने पर वहाँ की चकाचौंध और भव्यता देखकर मेरे होश उड़ गए | उस ज़माने में हाशिए के समाज के लोगों को व्यावहारिक रूप से पढ़ने का अधिकार नहीं दिया गया था, सांविधानिक रूप से और सरकारी आँकड़ों में जो भी हो | इसके अलावा हमारे समाज के नसीब में जैसे ग़रीबी और अपमान ही लिख दिया गया हो, तो मैं उन नए-नए महँगे कपड़ों, जूतों में सजे लड़के-लड़कियों के सामने अपने फ़टे-पुराने, घिसे कपड़ों और टूटी चप्पल के साथ कैसे खड़ा रख पाता? मैं इस कारण धीरे-धीरे अपने-आप को बहुत हीन, दयनीय और तुच्छ समझने लगा | वे लोग मुझ जैसे ग़रीब-फ़टेहाल से बात भी करना पसंद नहीं करते थे | और इससे हुआ यह कि मैं धीरे-धीरे अपने-आप में सिमटता चला गया, इससे मेरा आत्म-विश्वास बुरी तरह डगमगा गया | मैं हर किसी से डरने, दबने, झेंपने लगा | दरअसल मैंने अपने समाज के बच्चों को इतने सुन्दर और विशाल भवन एवं विश्वविद्यालय में जाते बहुत ही कम देखा था, एकदम ‘नहीं’ के बराबर |और बेहतरीन कपड़े या अच्छा खाना तो हमारे समाज के लिए एक सुन्दर सपने जैसा ही रहा |” 

इसलिए जब स्नातक की पढ़ाई शुरू हुई तो एक साल के भीतर ही 21 वर्षीय नवयुवा महेश की हिम्मत पुनः एक बार जवाब दे गई और परिणाम यह हुआ कि वह प्रथम वर्ष के इम्तहान में असफ़ल हो गए | जिसका एक कारण तो विश्वविद्यालय की भव्यता और विशालता देखकर भयभीत होने एवं समाज के दुर्व्यवहारों के कारण भी उनका लगातार टूटता आत्म-विश्वास था ही; साथ ही लगातार पीछा करता हुआ वह कारण भी था, जिसके बारे में बताने की ज़रूरत अब तो नहीं होनी चाहिए | गले तक क़र्ज़ में डूबे अपने बीमार-लाचार माता-पिता को परिवार की प्रतिदिन की छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए संघर्ष करते देखते इस नवयुवा को क्या अपना ही मन कभी धिक्कारता नहीं होगा, निरपराध होने के बावजूद? क्या उसका मन यह नहीं सोचता होगा, कि ‘काश, मैं माता-पिता को इस यातनामय जीवन से बाहर निकालकर कुछ राहत के पल दे पाता’? इस निरंतर चिंतन का असर एक बार फ़िर उनकी पढ़ाई पर पड़ा, जिसका परिणाम हुआ, स्नातक के पहले वर्ष में असफ़लता | इस चिंता एवं असफ़लता ने कुछ समय के लिए महेश की हिम्मत को पूरी तरह से तोड़ने में क़ामयाबी पाई और उनकी पढ़ाई छूट गई; साल था 1988-89 |

इसके बाद महेशानंद कुछ साल जीवन के अँधेरों में बुरी तरह भटकते रहे— शहर-दर-शहर, …नगर-दर-नगर; राज्य-दर-राज्य; अपने-आप से छिपने की कोशिश में कभी यहाँ भागना तो कभी वहाँ भागना; इस दौरान अपनी आजीविका के लिए कभी यह काम, तो कभी वह काम | कई साल इसी तरह बीतते चले गए | इस बीच कई घटनाएँ जीवन में घटित होती चली गईं— जीवन-यापन के लिए होटलों-ढाबों में काम करना, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना, कुली का काम करते हुए दूसरों के सामान ढोना, खेती करना, लिखने का शौक उनको पहले से था तो कविताएँ आदि लिखना, गाँव की महिलाओं की चिट्ठियाँ लिखना, उनकी कविताएँ और अन्य रचनाओं का कभी-कभार स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में छपना, विवाह होना (1992), बड़े बेटे का जन्म (1993), ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने से कोई भी छोटा-मोटा काम करना, विद्यालयों में श्यामपट्ट बनाना, कई तरह के काम सीखना और करना, और भी न जाने कितनी घटनाएँ….

लेकिन कहते हैं ना कि डूबते सूरज को पुनः अपनी चमकती रौशनी अपने साथ लेकर आसमान में निकलने से घने-से-घना अँधेरा भी कब तक रोक सकता है? और यह भी कि यदि किसी का परिवार अपने बच्चों को बेहद प्रेम करनेवाला एवं हर हाल में अपनी छाया में रखनेवाला हो, भाई-बहन हौसलाअफजाई करनेवाले हों, परिजन साथ देने वाले हों, दोस्त सच में सुख के साथ-साथ दुःख के भी साथी हों, तो घनीभूत निराशा के बादलों में खो चुके किसी व्यक्ति को पुनर्जीवन मिलने में देर नहीं लगती | बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते-पढ़ाते महेशानंद की पुनः पढ़ने की सोई इच्छा जाग उठी और इस बार 1994 में स्नातक (विषय-हिंदी, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र) की परीक्षा प्राइवेट से दी और पास कर गए | लेकिन परिवार के भरण-पोषण के लिए काम की सख्त ज़रूरत थी, और वही कहीं नहीं मिल पाता था, सिवाय मजदूरी करने के | उन्होंने कई क्षेत्रों में प्रयास किए, लेकिन हर जगह असफ़ल हो जाते | इसी बीच बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते-पढ़ाते उनके भीतर शिक्षक बनने की इच्छा प्रबल हो उठी और इस कारण पुनः एक बार नए सिरे से प्रयास शुरू किया तथा बीए के कुछ अंतराल के बाद 1997 में बी.एड. भी कर लिया | इन बीते सालों में महेशानंद अपने साथ अपने बड़े भाई को भी निरंतर आगे बढ़ाने की कोशिशें करते रहे, जिसका अंततः सुखद परिणाम यह हुआ कि भाई की एक अच्छी नौकरी लग गई |

…इस बीच निरंतर असफ़लाताओं का मुँह देखते-देखते महेशानंद ने बीएड पूरा होने के दो सालों के बाद दिसम्बर 1999 में बतौर अध्यापक अपनी पहली स्थाई नौकरी पाई, प्राथमिक विद्यालय कनोठाखाल, पोखड़ा विकासखंड (जिला पौड़ी) में | इसके बाद अब उनकी एवं परिवार की जिंदगी पटरी पर लौटने लगी | इस विद्यालय में वे दो सालों तक रहे | उसके ठीक दो साल बाद दिसम्बर 2001 में उनकी पदोन्नति हुई और प्राथमिक विद्यालय से वे पूर्व माध्यमिक विद्यालय स्थानांतरित होकर आ गए, विद्यालय था— जूनियर हाई स्कूल, बाड़ा (पौड़ी) | उसके बाद से वे अभी तक यहीं कार्यरत हैं; जहाँ वे हिंदी, अंग्रेज़ी, पर्यावरण, कला विषय (आवश्यकतानुसार) पढ़ाते हैं | इसी विद्यालय में काम करते हुए उन्होंने अपनी छूटी हुई पढ़ाई पुनः शुरू की और प्राइवेट से ही साल 2010 में हिंदी से एमए किया |

यह विद्यालय अनेक स्तरों पर उनकी मुक्ति का माध्यम बना, उनके अपने लक्ष्य-निर्धारित करने में सहायक बना, जिसमें भरपूर सहयोग मिला उनके सहकर्मियों का | महेशानंद अपने सहकर्मियों का नाम लेना नहीं भूलते, वे कहते हैं “इस विद्यालय में आने के बाद मैं जो भी अभी तक कर पाया हूँ, या आज मैं जो भी काम कर पाता हूँ, वह मेरे इन साथियों के बिना हो ही सकता था |” वे प्रधानाध्यापक-प्रताप सिंह राणा, अन्य साथियों राकेश मोहन, कमल उप्रेती, विनोद रावत, रजनीश अंथवाल का नाम इस रूप में विशेषकर लेते हैं…

…किसी व्यक्ति के पचास-पचपन सालों के संघर्षमय जीवन को चंद शब्दों में पिरोना उतना ही असंभव है, जितना आसमान के तारे गिनना | महेशानंद का जीवन एवं उनके जीवन से जुड़े सैकड़ों उतार-चढ़ावों को, उनकी तकलीफ़ों को, मानसिक द्वंद्वों और तमाम उथल-पुथल को चंद शब्दों में पिरोना असंभव है, जिसको थोड़े अंशों में संभव एक जीवनीकार ही बना सकता है | मेरी लेखनी इस अध्यापक की उन संवेदनाओं का उत्स ढूँढ रही है, जो इस अध्यापक के भीतर प्रवाहित होती गहरी संवेदनाओं एवं समाज के प्रति उसकी अटूट प्रतिबद्धताओं को अपने भीतर समेटे हुए है, विशेष रूप से अपने विद्यार्थियों के सन्दर्भ |

इस विद्यालय में काम करते हुए महेशानंद की प्रतिभाएँ एक-एक कर सामने आने लगीं | दरअसल जैसे-जैसे विद्यालय में काम करना शुरू किया, वैसे-वैसे चुनौतियाँ सामने आने लगीं | ये चुनौतियाँ बहुस्तरीय थीं, चाहे वह विद्यालय में बच्चों की चिंताजनक संख्या एवं बच्चों की विद्यालय में अनुपस्थिति को लेकर हो अथवा समाज में शिक्षा को लेकर जागरूकता के अभाव से संबंधित हो या अभिभावकों का अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर उदासीन नज़रिया, चाहे विद्यालय में मूलभूत ढाँचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) की कमी से संबंधित समस्याएँ हो अथवा देश एवं राज्य में विकास के नाम पर अनेक स्थानों पर बड़ी संख्या में लगातार पेड़ काटे जाने की समस्या हो अथवा लोगों का इस वन-क्षरण के प्रति उदासीन व्यवहार |

जैसे-जैसे महेशानंद से संबंधित लेखों का क्रम आगे बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे उनके कार्यों को समझने की क़वायद में इन तमाम जिज्ञासाओं के समाधान भी एक हद तक तो मिलेंगे ही…|

तब तक इंतज़ार…

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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9 thoughts on “महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

  1. वाकई श्री महेशानन्द जी एक बहुत ही अच्छे-सच्चे शिक्षक हैं। साथ ही आज वे गढ़वाली कथा साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
    आपको साधुवाद ?जो उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को आपने सभी के सम्मुख रखा।

  2. महेशानंद जी एक संवेदनशील साहित्यकार सचेत नागरिक तार्किक और समर्पित शिक्षक हैं। उनका संघर्ष इस देश समाज को अधिक मानवीय संवेदनशील न्यायप्रिय और सभ्य बनाने की दिशा में अनवरत रूप से प्रयत्नशील मानवता का संघर्ष है।उनके हिस्से अभी और उपलब्धियां जुड़नी शेष हैं।उनकी मुखर बेबाक उपस्थिति प्रत्येक मंच के लिए इसीलिए भी जरूरी है कि ताकि कहीं समानता ब्रदरहुड आधुनिक तार्किक साइंटिफिक टेंपर केवल हवा हवाई न रह जाए। हमें हजार नहीं लाखों लाख की संख्या में ऐसे महेशानंद चाहिए जिनकी फिक्र में इस देश समाज का भविष्य हर पल शामिल हो, जो इस देश समाज को अंधेरे कुंवे से खुले आकाश की ओर उन्मुख एक रास्ता बनाने को अपनी उम्र खर्च कर रहे हों।उनका भोगा यथार्थ सख्त और खरदुरा है जो उन्हे राज्य स्तरीय सबसे बड़े पुरुष्कार से सम्मानित होने और तमाम प्रकाशित पुष्तकों के रचियेतन्होन के बावजूद कभी जमीन नहीं छोड़ने देता..! मै उन्हें सलाम करता हूं और उम्मीद करता हूं कि अभी उन्हें एक लम्बा रास्ता तय करना है, मंजिले अभी और भी हैं ,?

  3. महेशानंद सर जी उत्कृष्ट अध्यापक,शानदार कथाकार और बेहतरीन व्यक्तित्व वाले हैं। बहुत कुछ सीखने को मिला है सर से। एक बेबाक व्यक्ति जो अपनी बात बेहतरीन तरीके और तर्क के साथ रखता है। हमेशा समाज के लिए चिंतित । मेम आपकी लेखनी को भी साधुवाद।
    शानदार,जबरदस्त,जिंदाबाद।।।।।

  4. लेखनी की धनी कनक मैडम आप चुन चुनकर समाज के हीरों को प्रकाशमान कर रही हैं। महेशानंद सर वास्तव में शिक्षक-समाज के कोहेनूर हीरा हैं। जीवन संघर्षों ने उन्हें तराशा है।सादा जीवन उच्च विचार उनके ऊपर ही चरितार्थ होती है।आपका पुनः धन्यवाद ऐसी शख्सियत से रूबरू कराने के लिए।

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