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भाग-दो : अंग्रेज़ी कोई हौवा नहीं !

एक नई भाषा सीखना किसी के लिए भी किन रूपों में और कैसे मददगार होता या हो सकता है? किसी व्यक्ति के जीवन में किसी भी नई भाषा की क्या भूमिका हो सकती है? विद्वान् कहते हैं कि एक नई भाषा किसी व्यक्ति को ज्ञान की नई दुनिया में ले जाने में बहुत अधिक मददगार होती है | लेकिन ऐसा क्यों? ज्ञान-अर्जन के लिए तो प्रायः साहित्य, इतिहास, दर्शन, राजनीति या विज्ञान को तरजीह दी जाती है, फिर कैसे और क्योंकर यह श्रेय किसी ‘भाषा’ को दिया जा सकता है कि वह व्यक्ति को ज्ञान की एक नई दुनिया में ले जाने की क्षमता रखती है?

दरअसल हम सभी यह जानते हैं कि कोई भी भाषा अपने-आप में केवल प्रतीक-चिह्नों, अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का समुच्चय-भर नहीं होती है; बल्कि उसमें उसके प्रयोक्ता व्यक्तियों और समाजों का एवं उनकी समस्त संस्कृतियों का इतिहास होता है, सामाजिक-संरचनाएँ, वैचारिक चिन्तनों के तमाम आयाम उसमें प्रतिबिंबित होते हैं, उसके संघर्ष, उसकी जय-पराजय की कहानियाँ होती हैं, उसके मिथकों, किंवदन्तियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के पीछे के इतिहास और उन इतिहासों की पृष्ठभूमि भी सरलता से देखी जा सकती है… न जाने कितनी बातें, कितनी चीजें विद्यमान रहती हैं किसी की भी भाषा में | इसलिए किसी भी भाषा का एक-एक शब्द उन समाजों और उनकी संस्कृतियों की न जाने ऐसी कितनी ही बातें और जानकारियाँ अपने-आप में समेटे रहता है | इसलिए जब हम किसी भी भाषा को सीखने-समझने की ओर बढ़ते हैं, तो हम दरअसल उन संस्कृतियों के इन सभी पक्षों से रू-ब-रू होने की ओर अग्रसर होते हैं | और तब स्वाभाविक रूप से उस संस्कृति के वर्तमान और अतीत से हमारा सामना होता है और हम उनके बारे में स्वतः ही अनेक तथ्य और सत्य के अनेक पक्षों से साक्षात्कार करते हैं |

उदाहरण के लिए अंग्रेज़ी और लैटिन भाषा के बीच शब्दों और उनके प्रयोग को लेकर पिछले कुछ दशकों से हो रही रसाकस्सी | लैटिन भाषा हमारे देश में ‘संस्कृत-भाषा’ की तरह ही अनेक यूरोपीय एवं पश्चिमी एवं मध्य एशिया सहित अनेक संस्कृतियों की भाषा की जननी है, या इसने अनेक स्थानीय भाषाओं को प्रभावित किया है | उस रसाकस्सी में हम देख सकते हैं कि अभी कुछ समय पहले तक हम अंग्रेज़ी के जिन अनेक शब्दों का उच्चारण अलग तरीक़े से करते रहे थे, आज उन्हीं को उनके मूल रूप ‘लैटिन’ के रूप में करने लगे हैं, क्योंकि दुनियाभर में यही किया जा रहा है | इससे स्वतः ही इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि अंग्रेज़ी-भाषी समाजों के अनेक भाग (जो मुख्यतः ‘अभिजात्यवादी’ और ‘वर्चस्ववादी’ प्रवृत्ति के हैं) ‘संस्कृतीकरण’ की प्रक्रिया में पीछे की ओर लौटने की कोशिश में हैं, जहाँ इसकी आकांक्षा रखनेवाले अपने अतीत को पुनः गौरव की दृष्टि से देखने की इच्छा रखते हैं | इस परिवर्तन से हम इस निष्कर्ष पर भी पहुँच सकते है कि दुनियाभर में ‘दक्षिणपंथी-विचारधाराओं’ का प्रभाव बढ़ रहा है, जो राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज में अपने वर्ग या जाति अथवा नस्ल की सत्ता और वर्चस्व के समर्थक हैं और इसी कारण ‘शुद्धतावाद’ के आग्रही भी हैं | यह अभिजात्यवादी मानसिकताओं एवं साधारण-जनता के बीच के टकराओं के पुनः जागने एवं गहन होने की ओर भी इंगित कर रहा है…

…माधवी ध्यानी…! वर्तमान में राजकीय प्राथमिक विद्यालय डकमोलीधार (पौड़ी, उत्तराखंड) की प्रधानाध्यापिका, और उससे भी पहले एक अंग्रेज़ी की अध्यापिका ! वे अपने पूर्व के विद्यालयों में विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी भाषा केवल पढ़ाती ही नहीं रही हैं, बल्कि उनके लिए इस विदेशी भाषा को सरल-सहज और सुगम बनाती रही हैं | लेकिन सवाल तो है कि विद्यालयों में बच्चों के साथ अंग्रेज़ी पढ़ना-पढ़ाना क्यों आवश्यक है? …और यह भी कि क्या छोटे बच्चे एक विदेशी भाषा पढ़ और समझ सकते हैं?

एक तथ्य यह है कि एक नई भाषा सीखने की सर्वाधिक क्षमता बड़ों की तुलना में बच्चों में ही होती है; भाषा ही नहीं, कोई भी विधा | माधवी भी स्वीकार करती हैं कि कोई भी नई भाषा या कोई भी नई चीज सीखने में सर्वाधिक सक्षम बच्चे ही होते हैं | लेकिन ऐसा क्यों? इसका कारण है बच्चों की मनःस्थिति; उनमें डर, संकोच, झिझक, शर्म अभी उस अंश में विकसित नहीं हुई होती है, जो बड़ों की दुनिया की चीज है, जिसका अभ्यास समाज करवाता है | माधवी कहती हैं— “बच्चों को नई भाषा सिखाने के लिए बहुत अधिक परिश्रम की भी ज़रूरत नहीं होती है, बस उनके प्रति थोड़ा-सा ममत्व या लगाव रखने की ज़रूरत होती है, उनके सिर पर ममत्व से हाथ रखकर और प्रेम से उनका विश्वास जीतने की ज़रूरत है, दण्ड की बजाय सहानुभूति एवं संवेदनापूर्ण ढंग से पेश आना होता है, थोड़ी-सी लगन और छोटी-सी योजना के साथ उनके संग-संग परिश्रम करना होता है…बस…!” सत्य है, …और बच्चों का विश्वास जीतना भी कोई मुश्किल काम नहीं बल्कि बहुत आसान है; जहाँ बड़ों का विश्वास जीतने में महीनों और सालों लग जाते हैं, वहीँ बच्चों के मामले में बस कुछ दिन !

जहाँ तक अंग्रेज़ी भाषा के सीखने की आवश्यकता का प्रश्न है, तो यह तो हम सब अपने अनुभव से जानते और रोज़ ही देखते हैं कि यह विदेशी भाषा किस प्रकार बच्चों का आत्म-विश्वास जगाने में बहुत मददगार रही है | चूँकि अंग्रेजी की प्रतिष्ठा पूरी दुनिया में है, इसलिए अंग्रेज़ी जानने वालों का आत्मविश्वास केवल इस भाषा को जानने के कारण ही चरम पर होता है | यह सही है या ग़लत, उचित है या अनुचित, यह बाद का प्रश्न है, किन्तु वर्तमान समय में हमारे अपने देश में इस भाषा की इस भूमिका से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है | वर्तमान में कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में उगते अंग्रेज़ी-माध्यम के विद्यालय और उनमें पढ़ते सरकारी विद्यालयों के ही अध्यापकों के बच्चे तो यही सत्य स्थापित कर रहे हैं !

इतना ही नहीं, दुनियाभर में ज्ञान की अनेक विधाओं को स्वर देने या अभिव्यक्त करने के लिए अक्सर इसी भाषा का प्रयोग किया जाता है, चाहे वह विज्ञान और तकनीक के विषय हों, या इतिहास, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र अथवा दूसरी अन्य विधाएँ | इसलिए भी इस भाषा का ज्ञान बच्चों का आत्म-विश्वास बढ़ाने में महती भूमिका निभाता है | इसके अलावा, इसके माध्यम से बच्चों के लिए ज्ञान की अनेक नई खिड़कियाँ भी खोली जा सकती हैं, जिससे एक नई दुनिया से उनका परिचय होता है और उसका ज्ञान भी बच्चों को होता है | दुनिया के संबंध में यह ज्ञान उनके बीच आपसी समन्वय में भी बहुत मदद करता है |

इस सवाल, कि ‘अंग्रेज़ी भाषा पढ़ाने के लिए सबसे ज़रूरी क्या है’ के ज़वाब में माधवी से जवाब मिलता है— “कोई भी विषय हो, सबसे ज़रूरी होता है अध्यापक का अपने बच्चों के प्रति उसका अपना नज़रिया, बच्चों के प्रति उसका व्यवहार और पढ़ाने की उसकी रणनीति | यदि बच्चों के साथ थोड़ा-सा भी प्रेम और ममत्व से पेश आया जाए, तो उनका विश्वास जीतकर उनको सरलता से कोई भी विषय पढ़ाया जा सकता है | अध्यापक में समाज के सभी बच्चों को पढ़ाने के प्रति लगन होनी चाहिए और यदि वह अपनी छोटी-छोटी योजनाएँ बनाकर बच्चों को पढ़ाए, तो बहुत आसानी से बच्चों को अंग्रेजी भाषा भी पढ़ाई जा सकती है | एक पंक्ति में कहा जाय तो शिक्षक की पढ़ाने के प्रति लगन, बच्चों के प्रति प्रेम और पढ़ाने के लिए ठोस योजना हो, तो पढ़ाना बहुत आसान है…|”

माधवी इसके लिए तीन मूल-मंत्रों की बात करती हैं— एक, अध्यापक की अपनी नॉलेज या ज्ञान कि वह अपने विषय की कितनी समझ रखता है; दूसरा, शिक्षक का स्वयं अपना आत्म-विश्वास कि वह मुश्किल काम भी कर सकता है; तथा तीसरा, अपने सभी बच्चों यानी प्रत्येक विद्यार्थी की क़ाबिलियत पर भरोसा |

विद्यार्थी की क़ाबिलियत पर भरोसा…?! क्या किसी विद्यार्थी को कोई नया विषय पढ़ाने के लिए यह भी आवश्यक है…?! इस संबंध में माधवी जैसे अध्यापक क्या सोचते हैं, यह जानना भी बहुत दिलचस्प है, और आवश्यक तो है ही ! माधवी का मानना है कि “अध्यापक का अपने हर बच्चे पर विश्वास होना चाहिए, क्योंकि हर बच्चा क़ाबिल होता है | जब हम बच्चों पर विश्वास करते हैं, तो बच्चे इस बात को बखूबी समझ लेते हैं और तब वे इस बात के प्रति सचेत और सजग हो जाते हैं कि वे बड़ों के विश्वास को कायम रख सकें | इससे बच्चों में जहाँ ज़िम्मेदारी और जवाबदेही की भावना विकसित होती है, वहीँ उनका अपना आत्म-विश्वास भी बढ़ता है | …आप बच्चों की काबिलियत पर एक बार विश्वास करके तो देखिए, बच्चे कमाल करके दिखाते हैं ! किसी भी बच्चे को छड़ी का डर दिखाने की बजाय अपने स्नेह और विश्वास से काम लेकर देखिए, आप स्वयं हैरान होंगे…!”

‘तब आप बच्चों को अंग्रेज़ी सिखाने के लिए क्या विशेष प्रयास करती हैं?’ यह प्रश्न करने पर माधवी द्वारा बताया जाता है कि यह बहुत ज़रूरी है कि पढ़ने के दौरान पुस्तकों में आनेवाले शब्दों को अपना बनाने की कोशिश की जाए; अर्थात् बच्चों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाए कि उन शब्दों को वे अपने निजी शब्दकोष में शामिल कर सकें | यह कैसे किया जाता है?

उसके लिए माधवी बार-बार स्वयं ही उन शब्दों का बच्चों के साथ होनेवाली अपनी रोजमर्रा की बातचीत में प्रयोग करती हैं | उसके साथ ही वे बच्चों को भी उन शब्दों को अपने नित्य-प्रति के व्यवहार में शामिल करने को कहती हैं | इस प्रतिदिन के अभ्यास से जब बच्चे उनके प्रयोग में अभ्यस्त हो जाते हैं तो रोज़ प्रयोग से उनका उच्चारण करना सीखते ही हैं, साथ ही जिन शब्दों का सीधे-सीधे अर्थ वे नहीं भी जानते हैं, तब भी इस प्रयोग से उनको सन्दर्भ मालूम होने लगता है | जैसे wonderful जैसा बड़ा शब्द, जिसके प्रयोग से अध्यापक भी कई बार यह सोचकर कतराते हैं कि जो बच्चे छोटे-छोटे शब्द भी समझ नहीं पाते हैं, वे ऐसे बड़े-बड़े या लम्बे शब्द कैसे याद करेंगे और समझेंगे | माधवी बच्चों के अपने वातावरण में उससे संबंधित सन्दर्भ आने पर इस तरह के शब्दों का प्रयोग बार-बार करती हैं, जैसे बच्चों द्वारा कोई अच्छा या प्रशंसनीय काम किए जाने पर मुस्कुराकर बच्चे को शाबाशी देते हुए ‘wonderful’ कहना | धीरे धीरे बच्चे समझने लगते हैं कि इस शब्द का सम्बन्ध प्रशंसा और प्रोत्साहन से है | उन्हें तब ये शब्द लुभावना लगने लगता है और उनकी रोजमर्रा का हिस्सा बन जाता है |

और इस प्रकार माधवी ध्यानी के बच्चों यानी विद्यार्थियों की अंग्रेज़ी जानने-समझने की अपनी प्राथमिक क्षमता अपनी कक्षा के अनुसार बढ़ती जाती है | इसलिए ये विद्यार्थी अंग्रेज़ी से डरनेवाले विद्यार्थियों में नहीं बल्कि उसे अपने जीवन में आत्मसात करनेवाले विद्यार्थियों में शामिल हैं |

इसका स्पष्ट कारण है शिक्षिका का समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चों के प्रति (एवं निश्चित रूप से उनके वर्गों तथा समुदायों के प्रति भी) स्वस्थ और निष्पक्ष नजरिया, सभी वर्गों के बच्चों की क्षमता और योग्यता पर भरोसा, अपने अध्यापकीय-दायित्व के प्रति स्वतः की अपनी जवाबदेहिता सुनिश्चित करना, अध्यापक के अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेते हुए उसका ज़िम्मेदारीपूर्ण तरीक़े से निर्वहन करना और इसके लिए अपनी भी क्षमता और योग्यताओं को निरंतर बढ़ाने की कोशिश करते रहना |

जब तब हमारे देश की शिक्षा-प्रणाली में सरकारी विद्यालयों के अध्यापक, कुछ गिने-चुने ही सही, अपने कर्तव्यों का ज़िम्मेदारीपूर्वक निर्वहन करने की कोशिशें करते रहेंगे, तब तक शिक्षा-प्रणाली से उम्मीदें भी क़ायम रहेंगीं | और यह सत्य सभी जानते हैं कि भारत के लगभग नब्बे फ़ीसदी बच्चे इसी सरकारी शिक्षा-प्रणाली पर निर्भर हैं…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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2 thoughts on “माधवी ध्यानी : अंग्रेजी भाषा से बच्चों की दोस्ती कराती अध्यापिका

  1. कनक मैडम आप की सक्रियता को सलाम।
    माधवी मैडम के बारे मे एक एक शब्द अक्षरशः सही है उन का सभी के साथ दोस्ताना व्यवहार जब बडों को प्रभावित करता है तो बच्चे इससे अछूते कैसे रहेंगे। और अंग्रेजी भाषा ही क्या वो तो कोई भी विदेशी भाषा सीख सकेंगे ,शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति करेंगे।

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