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भाग-तीन : बच्चों के लिए ‘विशिष्ट’ व्यवस्थाएँ 

बच्चों में आत्म-विश्वास पैदा करने और उसको पल्लवित-पुष्पित करने के कई तरीक़े हो सकते हैं; मसलन उनके कार्यों की उचित मात्रा में प्रशंसा करना, अच्छे कार्यों के लिए शाबाशी देना एवं प्रोत्साहित करना, उनका उत्साह एवं हौसला बढ़ाना…| एक उपाय और हो सकता है—उनको उनके अस्तित्व की विशिष्टता का एहसास कुछ ख़ास तरीक़ों से दिलाना |

यह कार्य हमारे देश के सरकारी-विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए बहुत ज़रूरी है, क्योंकि वर्तमान समय में यहाँ अब प्रायः उन तबकों के बच्चे ही पढ़ने के लिए आते हैं, जिनके पास संसाधन नहीं हैं अथवा कोई अन्य मजबूरी; और जिनके आत्म-विश्वास की धज्जियाँ ‘वर्चस्ववादी-समाज’ अक्सर उड़ाता रहता है, ताकि उनमें आत्म-सम्मान नष्ट किया जा सके और वे अपने व्यक्तित्व एवं व्यवहार में भी दीन-हीन, याचनामय, लाचार बने रहें |

ऐसे में कम-से-कम विद्यालय में, उनके बच्चों के भीतर अपने अस्तित्व के प्रति सम्मान-भाव को जागृत करना बहुत ज़रूरी है | ताकि वे भी अपने ऊपर गर्व कर सकें, अपने ‘होने’ पर शर्मिंदा या दयनीय भाव से न भरे रहें | और अपने विद्यालय में यह कार्य करती हैं विनीता देवरानी, राजकीय प्राथमिक विद्यालय, खैरासैंण (जयहरीखाल, पौड़ी-गढ़वाल) की प्रधानाध्यापिका; अपने सहकर्मियों, ख़ासकर सहायक-अध्यापक अनूप कुमार बर्थवाल के साथ मिलकर | लेकिन वे तरीक़े क्या हैं, यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है…

यदयपि उनमें से कुछ का ज़िक्र विनीता से संबंधित पिछले लेख में हुआ है, जैसे बच्चों की पसंद के चित्र विद्यालय में बनवाना, उनको सम्मानजनक तरीक़े से भोजन कराने एवं आधुनिक जीवन के तौर-तरीक़ों से परिचित करवाने तथा भविष्य के लिए भी उसकी चाह जगाने की ख़ातिर विद्यालय में ख़ास तरीक़े से भोजन करवाना और उसके लिए सीमेंट की ‘अर्द्ध-गोलाकार’ टेबल बनवाना | लेकिन बच्चों के अस्तित्व से जुड़ी एक ख़ास क़िस्म की व्यवस्था भी यहाँ की गई है— वह है, सिंहासनासीन ‘बाल-राजा’ की अवधारणा !

सिंहासनासीन ‘बाल-राजा’…?!? इसका क्या तात्पर्य है…? दरअसल विनीता ने विद्यालय में ही नई बिल्डिंग के एक कोने में एक ऊँचा आसन जैसा बनवाया है, जिसे ‘सिंहासन’ कहा जाता है | दरअसल यह एक सिंहासन का चित्र है, जिसके सामने एक छोटी सी कुर्सी या टेबल रखी होती है | सिंहासन के ऊपर लिखा है ‘KING OF THE DAY’ | जब विद्यालय में किसी विद्यार्थी का जन्मदिन होता है, तब उसको उस दिन अपने विशिष्ट और अद्वितीय होने का एहसास कराने के लिए उसे उस दिन का ‘राजा’ (King) बनाया जाता है और जन्मदिन को ख़ास बनाया जाता है | शिक्षिका के सकारात्मक कार्यों से प्रभावित माता-पिता, शिक्षिका के इस पहल में प्रसन्नतापूर्वक यथासंभव अपनी इच्छानुसार सहयोग करते हैं और विद्यालय में आकर अपने बच्चों का जन्मदिन मनाते हैं |

इस दिन शिक्षिका उस बच्चे से कहती हैं— “आज के राजा तुम्हीं हो ! इसलिए महसूस करो कि तुम्हारा जन्म कितना ख़ास है, तुम अपने माता-पिता, भाई-बहन, दोस्तों, शिक्षकों और बहुत सारे लोगों के लिए कितने ख़ास हो, जो तुमसे बहुत प्यार करते हैं | तुम ख़ास उद्देश्य से संसार में आए हो; इसलिए तुम्हें बहुत सारे अच्छे काम करने हैं, जिससे दुनिया तुम्हें याद रखे !” इस प्रकार प्रत्येक विद्यार्थी को साल में एक बार ‘राजा’ बनने, अपने-आप को ‘ख़ास’ महसूस करने, अपनी ‘विशिष्टता’ को जीने और अनुभूत करने का मौक़ा मिलता है | यानी यहाँ प्रत्येक विद्यार्थी ‘राजा’ है, ख़ास है |

ऐसे कार्यों या गतिविधियों पर सवाल उठाए जा सकते हैं और यह आरोप भी लगाया जा सकता है कि ‘ऐसी गतिविधियाँ बच्चों के मन में यह भावना स्थापित कर सकती हैं कि ‘ख़ास व्यक्ति’ केवल ‘राजा’ ही हो सकता है, अन्य लोग ‘ख़ास’ नहीं हो सकते !’ अथवा ‘प्रकारांतर से शिक्षिका ‘राजशाही’ और ‘राजा के शासन’ को सही ठहराने की कोशिश कर रही हैं, जो अलोकतांत्रिक है !’

लेकिन सत्य तो यह है कि कोई भी बात, घटना, गतिविधि, तर्क, व्यवहार, विचार, व्यवस्था, संस्कार, धारणा-अवधारणा… ऐसी हो ही नहीं सकती, जिसका केवल और केवल एक ही पहलू हो | इनमें से कौन-सी चीज किस उद्देश्य से अपनाई जा रही है, महत्वपूर्ण तो यह है ! एक छोटा-सा उदाहरण देखते हैं…| यदि नमक जैसी बेहद सामान्य वस्तु का प्रयोग भोजन का स्वाद बढ़ाने एवं कुछ लवणीय पोषक तत्वों को भोजन में शामिल करने के लिए किया जाता है, तो नमक अपने-आप में ‘सही’ और बेहद आवश्यक चीज हो जाता है; लेकिन जब इसी नमक का प्रयोग छोटी नवजात बालिका-शिशुओं की हत्या के लिए किया जाता है, जैसाकि सदियों से अनेक सामाजिक-समुदाय करते रहे हैं, तो यही नमक उन मासूमों के लिए ‘विष’ से कम नहीं है !

इसलिए उक्त विद्यालय किस उद्देश्य से इस प्रक्रिया को अपने यहाँ ज़ारी रख रहा है, महत्वपूर्ण बात यह होनी चाहिए | और विद्यालय का उद्देश्य प्रधानाध्यापिका के कथन से स्पष्ट है ! क्योंकि यह बहुत ही ज़रूरी है कि दमित-समाज के उन बच्चों को विशिष्ट महसूस करवाया जाए; ताकि समाज द्वारा अपने माता-पिता को निरंतर अपमानित और तिरस्कृत होते देखनेवाले और उससे अपने-आप में अपराधबोध की भावना से भर रहे उन बच्चों में आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान की भावना पुनः विकसित और संवर्द्धित की जा सके | हालाँकि इन अवसरों को मैं कुछ अलग नज़रिए से भी देखती हूँ…

मैं समझती हूँ कि इन गतिविधियों के साथ-साथ यदि बच्चों के जन्मदिन के अवसरों को कुछ ऐसे मौक़ों में तब्दील कर दिए जाएँ, जो न केवल बच्चों को खुशनुमा माहौल दे सकें, बल्कि उनके अनुभवों में और संसार के ज्ञान में एक नया अध्याय जोड़ सकें, तो ये बच्चों के अनुभव-जगत को एक और विस्तार दे सकते हैं | ऐसे अवसरों को ‘शैक्षणिक-भ्रमण से जोड़ा जा सकता है और आस-पास के किसी ऐसे इलाक़े में बच्चों को सुविधानुसार एक-दो घंटों के लिए ले जाया जा सकता है, जिसके बारे में बच्चे अमूमन नहीं जानते; जैसे कोई भग्नावशेष, कोई क़िला, पंचायत-भवन, अस्पताल, डाकघर, आकाशवाणी, कॉलेज, संग्रहालय, बड़ा पुस्तकालय, पौधों की नर्सरी, बैंक आदि |

यद्यपि सवाल उठ सकता है कि इतनी छोटी उम्र के बच्चे भला यहाँ जाकर क्या करेंगे | लेकिन मेरा अनुभव कहता है और बहुत से बाल-मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि जिज्ञासाओं की शुरुआत इसी उम्र में तीव्रतम गति से होती है; मन में सपनों के जाल इसी समय से बुनने शुरू होते हैं; आत्म-विश्वास, भय से मुक्ति, झिझक एवं संकोच से छुटकारे की शुरुआत इसी उम्र में यदि हो जाए, तो आगे चलकर यह बच्चों के लिए बहुत कारगर और लाभदायक हो सकता है | यही कारण है कि यायावरी (विभिन्न स्थानों पर घूमना) करनेवाले राहुल सांकृत्यायन केवल आठवीं कक्षा तक पढ़े होने के बावजूद इतना ज्ञान रखते थे कि उनके सामने बड़े-बड़े पीएचडी टिक नहीं पाए और उन्होंने पचासों पुस्तकें लिख डालीं, जिसको आज विश्वविद्यालयों में ससम्मान शामिल किया गया है |

यही कारण है कि साधन-संपन्न लोगों के बच्चे, जो माता-पिता के साथ दुनिया देखते रहते हैं, कहीं अधिक स्वप्नशील, कहीं अधिक तीव्र-बुद्धि वाले, तार्किक, व्यावहारिक, आत्म-विश्वासी होते हैं; जबकि ग़रीब परिवारों के बच्चे मजदूरी से आगे नहीं सोच पाते हैं |

मैं समझती हूँ कि यदि अध्यापक साल में कुछ ख़ास दिन चुन लें और उपरोक्त उल्लिखित किसी स्थान पर या जो भी उनको उपयुक्त लगे, वहाँ बच्चों को लेकर जाएँ; बच्चों के मन में प्रश्नों को उठने दें, उनसे उनके प्रश्नों को पूछें, उनकी जिज्ञासाओं का यथासंभव समाधान करें, इस प्रक्रिया में उक्त स्थान के लोगों/कर्मचारियों को शामिल करने की कोशिश करें (जिसके विषय में मैं निश्चिन्त हूँ क्योंकि ऐसा करके मैं स्वयं देख चुकी हूँ कि कर्मचारी जब अपने संस्थान के बारे में विद्यालय और बच्चों की ऐसी रूचि देखते हैं, तो बढ़-चढ़कर सहयोग करते हैं), तो इसके ग़ज़ब के नतीज़े आते हैं |

साल-भर में यदि इस तरह के तीन-चार भी शैक्षणिक-भ्रमण हों, तो बच्चों पर इसका इतना अधिक जादुई असर होता है कि उसका शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है | मैं इस अनुभव की साक्षी हूँ, क्योंकि मैंने ऐसे कई प्रयोग कुछ विद्यालयों के बच्चों के साथ किए हैं |

इसके बाद विद्यालय वापस लौटने के उपरांत उसी दिन या अगले दो-तीन दिनों के भीतर इस भ्रमण से संबंधित दर्ज़नों काम बच्चों से करवाए जा सकते हैं— जैसे उन स्थानों के बारे में बच्चों के साथ विस्तार से बातचीत, बच्चों की जानकारियों को कक्षा में साझा करना, उनके अनुभव लिखवाना, उनके सवाल और जवाबों को लिखवाना, उक्त स्थान का चित्र बनवाना, मुखौटे बनवाना, उनका नाट्य-रूपांतरण, बच्चों से उनके सपनों के बारे में बात करना; बच्चों की लिखित सामग्री को पोस्टर पर चिपकाकर ‘दीवार-पत्रिका’ बनवाना और यदि किसी संस्थान की बजाय किसी अन्य गाँव, पंचायत भवन जैसे किसी ऐसे स्थान का भ्रमण किया गया हो, जिसके बारे में बच्चों को कोई ‘ख़बर’ जैसी जानकारी मिल रही हो, तो उससे ‘दीवार-अख़बार’ बनवाना…

और इन भ्रमणों से संबंधित कुछ चित्र, कुछ स्केच आदि बच्चे अपने विद्यालय की दीवारों पर भी उकेर सकते हैं— ‘मेरी आँखों में दुनिया’, ‘जब हमने यायावरी की’ जैसे शीर्षकों से…

अस्तु, उक्त विद्यालय के निःस्वार्थ कार्यों का असर यहाँ की भोजनमाता ऐश्वर्या पर भी हुआ है, जोकि स्वाभाविक है कि होना ही था; जैसाकि पिछले लेख में कहा गया है, कि किसी स्थान के नेतृत्वकर्ता का सकारात्मक अथवा नकारात्मक व्यवहार वहाँ के कार्यों एवं अन्य लोगों को उसी तरीक़े से प्रभावित करता है !

ऐश्वर्या अपने बच्चों के जन्मदिन पर साल में दो बार उक्त विद्यालय के विद्यार्थियों को अपने ख़र्च पर दावत देती हैं, जिसमें बच्चों के भोजन के लिए काफ़ी अच्छी व्यवस्था होती है | यह सोचनेवाली बात है कि हमारे समाज में अधिकांश साधन-संपन्न लोग किन्हीं ‘अन्य लोगों’, ख़ासकर कमज़ोर तबकों के बच्चों पर एक पैसा ख़र्च नहीं करना चाहते, वहाँ दो-ढाई हज़ार रुपए वेतन पानेवाली एक स्त्री साल में दो बार 20-25 बच्चों के बेहतरीन भोजन की व्यवस्था करे, तो यह उस महिला के ह्रदय की विशालता का ही परिचायक है ! दरअसल यह कुछ ऐश्वर्या का अपना व्यक्तित्व है, तो कुछ प्रधानाध्यापिका की संगत का असर | सत्य है, जब हमारे आसपास हमारी ही भावना के अनुकूल लोग मिल जाते हैं, तो हमारे व्यक्तित्व में मौजूद सकारात्मक/नकारात्मक तत्व अपने-आप बाहर आ जाते हैं |

और, जैसाकि ऊपर कहा गया है, कि इस तरह के अवसरों को भी बच्चों के शैक्षणिक-भ्रमण में तब्दील करके और भी सार्थक, सुखद, आनंददायक, लाभदायक बनाया जा सकता है | और शायद अध्यापक एवं उक्त भोजनमाता भी उस अलौकिक आनंद को महसूस कर सकेंगीं, जो इस स्थिति में प्राप्त हो सकता है |

विनीता एवं उनके सहकर्मी अध्यापक अनूप कुमार के कार्यों के वैसे तो अनेक प्रकट-अप्रकट सकारात्मक पक्ष हैं और हो सकते हैं, लेकिन एक और उल्लेखनीय उपलब्धि है, वह है अभिभावकों को यह समझा पाना कि बच्चों की शिक्षा कितनी ज़रूरी है, भोजन-पानी की तरह आवश्यक !

शिक्षकों के प्रयासों से ही बच्चों के अभिभावकों के मन में अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर सचेतनता आई है और वे उसकी आवश्यकता महसूस करके उसके लिए अतिरिक्त कोशिशें करने लगे हैं | इसे हम विद्यालयों में उन अभिभावकों की यदा-कदा उपस्थिति से भी समझ सकते हैं |

अब सवाल उठता है कि इन अध्यापकों के कार्यों के परिणाम क्या हुए हैं? क्या बच्चों के जीवन, भविष्य, व्यक्तित्व आदि पर उनके कार्यों का कोई असर दिखता है?

विनीता एवं अनूप कुमार के कार्यों का परिणाम देखना हो, तो इसके प्रमाण रूप में केवल विभिन्न क्षेत्रों (सेना, पुलिस, सिंचाई-विभाग, मेडिकल-क्षेत्र आदि) में उनके सफ़ल विद्यार्थी ही नहीं हैं, बल्कि सफ़लता एवं गुणवत्ता का पैमाना माने जाने वाले ‘राजीव नवोदय विद्यालय’, ‘जवाहर नवोदय विद्यालय’, ‘हिम ज्योति’ आदि में उनके ‘बच्चों’ का दाख़िला हेतु चयन को देखा जा सकता है |

हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जिन सरकारी विद्यालयों में बच्चे कई साल तैयारी करने के बाद और उसी तैयारी के बल पर उपरोक्त विद्यालयों (‘राजीव नवोदय विद्यालय’, ‘जवाहर नवोदय विद्यालय’, ‘केन्द्रीय विद्यालय’,‘हिम ज्योति’ आदि) में दाख़िला लेने के क़ाबिल बनते हैं, वे ही सरकारी विद्यालय ‘योग्यता’ के पैमाने नहीं माने जाते हैं, न समाज के द्वारा, न शिक्षा-प्रणाली के द्वारा, न सरकार के द्वारा ! इसलिए इन ‘बेकार सरकारी-विद्यालयों’ पर बहुत दबाव डाला जाता है कि वे अपने विद्यार्थियों को उन ‘योग्य’ और ‘गुणवत्तापूर्ण’ विद्यालयों में दाख़िला लेने हेतु तैयारी करवाएँ | यह हमारे समाज और शिक्षा-व्यवस्था की विडंबना नहीं तो और क्या है…?!

अस्तु, उस विद्यालय के विद्यार्थी भी उन ‘योग्य विद्यालयों’ में बड़ी संख्या में पहुँचते रहे हैं; और यह वहाँ के शिक्षकों की योग्यता और अतिशय परिश्रम का ही परिणाम है |

इससे भी एक क़दम आगे बढ़कर प्रमाण और अच्छी बात यह है कि कुछ ‘योग्य’ निजी विद्यालयों के बच्चे भी उन ‘योग्य’ विद्यालयों को छोड़कर विनीता के इस ‘बेकार और अयोग्य’ सरकारी विद्यालय में आए हैं और शिक्षिका ने उनमें से कई को एक बेहतरीन मुक़ाम तक पहुँचाया है | एक विद्यार्थी के बारे में बात करते हुए वे बताती हैं कि वंचित-समाज का वह बच्चा एक प्राइवेट स्कूल में था और स्कूलवालों ने कक्षा 5 तक उसकी पढ़ाई में कोई ख़ास विकास न देख उसे विद्यालय से निकाल दिया ! तब उसके माता-पिता ने उसे उक्त सरकारी विद्यालय में 5 वीं कक्षा में दाख़िला करवाया | लेकिन विनीता ने जब बच्चे को पढ़ाना शुरू किया, तो उन्हें समझ में आ गया कि बच्चा कुशाग्र-बुद्धि का है | शिक्षिका ने तब उसके पिछले निजी विद्यालय में उसके पढ़ाई में पिछड़ने का कारण पूछा तो पुनः वही सत्य उजागर हुआ— बच्चे के वंचित-समाज से होने के कारण अध्यापक उसे कक्षा में सबसे पीछे बैठाते थे और उसे पढ़ना-लिखना सिखाने की बजाय हमेशा डाँटते-डपटते एवं दुत्कारते रहते थे |

तब उन्होंने उसकी पढ़ाई पर मेहनत की और बच्चे ने कुछ ही महीनों में इतना बेहतर परिणाम दिखाया कि उसके माता-पिता भी हैरान रह गए | उसके बाद बच्चे को आगे की पढ़ाई के लिए ‘नवोदय-विद्यालयों’ आदि में दाख़िले की तैयारी करवाई गई और बच्चे ने भी निराश नहीं किया; वह इस समय जवाहर नवोदय विद्यालय में 8 वीं कक्षा का विद्यार्थी है |

विनीता कहती हैं—“मैं हर बच्चे को समझने की कोशिश करती हूँ और जानने की कोशिश करती हूँ कि वह किस तरीक़े से सबसे बेहतर ढंग से समझ और सीख सकता है; और उसके लिए वही तरीक़े अपनाती हूँ; इसलिए हमारे विद्यालय में हर बच्चे के लिए उसके अनुसार नवाचारी तरीक़े अपनाए जाते हैं |”

विद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी करके अन्य विद्यालय या अन्य स्थानों पर जा चुके पूर्व-छात्र-छात्राएँ भी अपनी छुट्टियों में अपने इस विद्यालय आकर अपने अनुभव एवं वर्तमान बच्चों से ज़रूरी बातें साझा करते हैं | बात ठीक भी है, कोई भी व्यक्ति अपने उन विद्यालयों को नहीं भूलता, जिनकी उसके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है |

इस यात्रा के दौरान साथ रही अपनी कुछ सहयोगियों के नाम विनीता बार-बार लेती हैं— हेमलता, ममता, सोनाली ! दरअसल ये महिलाएँ अनौपचारिक रूप से विद्यालय के बच्चों को उस समय पढ़ाने में सहयोग करती रही हैं, जब विद्यालय बंद रहते हैं, या बच्चों को अतिरिक्त शैक्षणिक-मदद की ज़रूरत होती है— जैसे लॉकडाउन ! यह प्रक्रिया आज भी ज़ारी है |

लेकिन अपने कार्यों के परिणाम के बारे में यह प्रधानाध्यापिका स्वयं क्या सोचती हैं? दरअसल इस समय वे अपने काम के ‘सबसे बेहतरीन परिणाम’ का इंतज़ार कर रही हैं | वे इस समय ‘हिम-ज्योति’ (देहरादून) में पढ़नेवाली अपनी ‘बेटियों’ से बहुत उम्मीद रखती हैं, जिनपर उन्होंने उक्त विद्यालय में जाने के पहले बहुत परिश्रम किए थे |

अस्तु, विनीता के पढ़ाने के वे विशेष ढंग और शानदार तरीक़े ही हैं कि जिन विद्यार्थियों को उन्होंने एकाध दशक पहले पढ़ाये थे, आज उन्हीं विद्यार्थियों के बच्चे भी विनीता के ही विद्यालय में पढ़ते हैं या पढ़कर अगले उच्च विद्यालयों में जा चुके हैं | उन विशिष्ट तरीक़ों में, पढ़ाने के लिए वे  पाठ्यपुस्तकों से अधिक अपनी समझ का प्रयोग करती हैं |

इतने सालों के कार्यों के बाद उनके कार्यों को अनेक सम्मान और प्रमाणपत्र मिले हैं; लेकिन विनीता की अपनी दृष्टि में उनको सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगता है अपने विद्यार्थियों के अभिभावकों एवं ग्रामीणों द्वारा उनके काम के प्रति सकारात्मक नजरिया और उनके द्वारा दिया जाने वाला सम्मान ! कुछ समय पहले ही उनको ‘शिक्षा में शून्य निवेश नवाचार’ के लिए सम्मानित किया गया है |  इस उपलब्धि को ग्रामीणों एवं अभिभावकों ने ख़ास बना दिया, जब उन्होंने विद्यालय में एक अनौपचारिक कार्यक्रम करके उनको अपनी ओर से सम्मानित किया ! प्रधानाध्यापिका इससे बेहद आह्लादित और अभिभूत हैं और कहती हैं कि अब तो उनकी ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ गई है…

समय के साथ यह यात्रा भविष्य में किस पड़ाव तक पहुँचती है, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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One thought on “विनीता देवरानी : जिसकी नज़र में प्रत्येक विद्यार्थी ख़ास है !

  1. सुप्रभात कनक मैडम आप के ब्लॉग के कारण सुबहऔर भी खुशगवार हो गई।
    निश्चित तौर पर ऐसे शिक्षक अनुकरणीय हैं और समाज में बदलाव लाने में सक्षम। ऐसे लोगों की बदौलत ही हमारी जर्जर शिक्षा व्यवस्था बची है। देवरानी मैडम उन के लिए एक उदाहरण है जो कहते हैं कि ये बच्चे बेकार हैं इनके बस का कुछ नहीं ।इन पर क्या मेहनत करनी है ये कुछ नहीं कर सकते।

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