बतकही

बातें कही-अनकही…

भाषा के माध्यम से शिक्षा की उपासना में संलग्न एक अध्यापक

भाग-एक:-

भाषा से शिक्षा की जुगलबंदी एवं शिक्षा के उद्देश्य

लगभग डेढ़ सदी पहले ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य’ के प्रणेता भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखा था——

निज-भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिनु निज-भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल |

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज-भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ||       (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

…तो कुछ इसी सिद्धांत पर चलते हुए उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की अपनी स्थानीय गढ़वाली-भाषा की मशाल लेकर शिक्षा की लौ जलाने चल पड़ने वाले अध्यापकों में से एक अध्यापक का नाम है— संदीप रावत, गवर्नमेंट इंटर कॉलेज धद्दी घंडियाल, बड़ियारगढ़, टिहरी (उत्तराखंड) के रसायन-शास्त्र के प्रवक्ता | दरअसल संदीप रावत का मानना है, कि प्रत्येक समाज को अपनी भाषा का संरक्षण और संपोषण करना चाहिए, क्योंकि भाषा अपने-आप में केवल एक भाषा नहीं होती है, बल्कि उसमें उस समाज की सदियों में विकसित परम्पराएँ होती हैं, विचार होते हैं, विश्वास एवं आस्थाएँ होती हैं, विभिन्न सन्दर्भों में दिखनेवाले व्यवहार और समस्त मानसिकताएँ भी उसी भाषा में दिखाई देती हैं | इसलिए किसी भाषा के संरक्षण का तात्पर्य है, उसकी संस्कृति एवं उससे जुडी समस्त चीजों का संरक्षण |

दरअसल किसी भी समाज की उसकी अपनी पारंपरिक-भाषा के अध्ययन से हम उस समाज के बारे में बहुत कुछ जान और समझ सकते हैं— कि उस भाषा के प्रयोक्ताओं का वैचारिक आचरण कैसा है, स्वतन्त्र या कूपमंडूक; कि अपने भीतर के बेहद कमज़ोर लोगों के प्रति उनके व्यवहार एवं विचार किस प्रकार के हैं, मानवीय या क्रूर-कठोर; कि अपनी ही स्त्रियों एवं बच्चों के प्रति उनका व्यवहार किस तरीक़े का है, सदय या अधीनतावादी; कि धर्म, परंपरा, पर्व-त्योहारों को लेकर उनकी सोच कैसी है, प्रगतिशील या रुढ़िवादी; कि समय के साथ विकसित होने वाले नए विचारों के प्रति उनकी सोच कैसी है, बंद या चिन्तनशील…! इसलिए सभी समाजों को अपनी भाषा का संरक्षण करना ही चाहिए, इससे उनका इतिहास जीवित रहता है, जिससे उनके वर्तमान एवं भविष्य की संरचना होती है, उनकी विरासत संरक्षित होती है, उनकी मूल पहचान कायम रहती है…

…लेकिन सवाल तो यह है, कि इससे एक अध्यापक का क्या लेना-देना…? अध्यापक का काम तो बच्चों को पढ़ाना है, उन्हें भविष्य में अच्छा जीवन जीने के लायक एवं एक अच्छे नागरिक के रूप में विकसित करना है, तब इससे भाषा का क्या संबंध…? भाषा का संरक्षण तो वयस्कों की ज़िम्मेदारी है, उससे बच्चों का क्या लेना-देना…? ऐसे अनेक सवाल उठ सकते हैं, जिनके जवाब इतने आसान नहीं हैं…

…लेकिन संदीप जैसे अध्यापकों के कार्यों में इन प्रश्नों के उत्तर दिखाई देते हैं, जब वे अपनी स्थानीय-भाषा के संरक्षण एवं विकास को लेकर अपने विद्यार्थियों के बीच काम करते हुए नज़र आते हैं, …जब अपनी कोशिशों में उस भाषा के माध्यम से उसमें संचित समस्त तथ्यों के प्रति बच्चों को सजग एवं सचेत करते हुए प्रतीत होते हैं | क्योंकि शायद वे भी जानते हैं, कि भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों एवं समाजों में वर्चस्ववादी-शक्तिशाली-संस्कृतियों द्वारा स्थानीय-संस्कृतियों को लगातार उदरस्थ करने की कोशिशें होती रही हैं और हो रही हैं | इससे पीढियाँ अपने इतिहास एवं अपनी मूल-पहचान से कटती चली जा रही हैं…    

अपनी स्थानीय-भाषा ‘गढ़वाली’ को शिक्षा की मशाल बनाना और उसके माध्यम से बच्चों को उनके परिवेश की जानकारी देना, उनके आसपास के इतिहास, भूगोल और सामाजिक ताने-बाने को समझने में विद्यार्थियों की रूचि जगाना, अपनी परम्पराओं, मान्यताओं, विश्वासों, विचारों आदि के पीछे के तर्कों को समझने की जिज्ञासा पैदा करना… उसी शिक्षकीय-दायित्व का एक हिस्सा है, जिसका निर्वहन संदीप रावत पिछले डेढ़-दो दशकों से कर रहे हैं |

संदीप रावत वर्तमान में गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, धद्दी घंडियाल, बड़ियारगढ़, टिहरी (उत्तराखंड) में मूलतः रसायनशास्त्र के अध्यापक/प्रवक्ता हैं, किन्तु उनकी रूचि अपनी भाषा के विकास में बहुत अधिक है | उनका जन्म 30 जून 1972 को ग्राम अलखेतू, पोखड़ा ब्लाक, पौड़ी (उत्तराखंड) में महावीर सिंह रावत (वर्तमान में अवकाश-प्राप्त अध्यापक) एवं कमला रावत (स्वर्गीया) के घर उनकी दूसरी संतान के रूप में हुआ था | उनसे बड़ा उनका एक भाई (संजय रावत) एवं एक छोटा भाई (सुनील रावत) हैं |

जहाँ तक उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रश्न है, तो उनकी 10 वीं (1986) तक की शिक्षा वेदीखाल (बीरोंखाल) में हुई, जहाँ उनके पिता एक विद्यालय में अध्यापक थे | इसी बीच, जब वे 11 वीं के छात्र थे, उनके पिता का ट्रान्सफर बीरोंखाल से देवप्रयाग (1987) हो गया और उनका परिवार देवप्रयाग आ गया | इस कारण उनकी इंटर (12 वीं) की पढ़ाई यहीं से हुई | अगले साल उनके पिता का पुनः ट्रान्सफर हुआ और वे लोग श्रीनगर (1988) चले गए, इस कारण संदीप की आगे की पढ़ाई यहीं हेमवती नन्दन बहुगुणा विश्वविद्यालय से हुई | यहाँ से उन्होंने बी.एससी.(1991), एम.एससी.(1993) एवं बी.एड.(1995) की पढ़ाई संपन्न की |

जब वे नौकरी में थे, तब संगीत में गहरी रूचि के कारण उन्होंने संगीत का कोर्स भी किया जिसके लिए उन्हें ‘संगीत प्रभाकर’ (2013) की डिग्री प्राप्त हुई | दरअसल संदीप स्वयं को मूलतः एक गीतकार मानते हैं, जो गीत-संगीत में उनकी गहरी रूचि का परिचायक है और जो उनके व्यक्तित्व को एक और आयाम प्रदान करती है | इसी रूचि का परिचायक संगीत के क्षेत्र में यह डिग्री भी है |

…बकौल संदीप, स्वभाव से वे कुछ अंतर्मुखी हैं, लेकिन फ़िर भी यह स्थिति चिंताजनक नहीं है, क्योंकि कक्षा-8 से ही उनमें गढ़वाली गीत गाने एवं कविताएँ लिखने की एक अच्छी आदत विकसित हो गई थी, जिन्हें वे अपने विद्यालय में होने वाले स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस के साथ-साथ अपने विद्यालय की बाल-सभाओं में भी सुनाया करते थे | वे बताते हैं, “स्कूल के दिनों में मुझे उन कार्यक्रमों का बेसब्री से इंतज़ार रहता और उनमें अपनी प्रस्तुति को लेकर ख़ासा उत्साह भी रहता था | मैं उसके लिए काफ़ी तैयारियाँ करता था |”

इसके अलावा वे रामलीलाओं में भी भाग लिया करते थे, जो उनके स्कूल में और आसपास के गाँवों में आयोजित होती थीं | उनकी पतली आवाज़ के कारण इन लीलाओं में प्रायः उनको स्त्री-पात्रों (सुलोचना-मेघनाद की पत्नी, शूर्पणखा आदि) की भूमिकाएँ दी जाती थीं | यह पक्ष निश्चित रूप से एक विद्यार्थी के जीवन में न केवल अनेक कलात्मक आयामों का विकास करता है, बल्कि उसके व्यक्तित्व में भी बहुत कुछ जोड़ता है— शर्म, संकोच एवं झिझक का पिघलना, सत्साहस, उत्साह, सद्भावना, संवेदनशीलता जैसे मानवीय-पक्षों का उभरना, उसी ‘जोड़ने’ के हिस्से हैं | वस्तुतः यह सर्वविदित तथ्य है, कि नाटक और रंगमंच एवं दूसरी कलाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारती हैं; इसलिए संदीप के जीवन, व्यक्तित्व एवं विचारों पर नाटकों एवं कविता-प्रेम का गहरा असर हुआ | यद्यपि वे पढ़ाई में कुछ सामान्य विद्यार्थी रहे, लेकिन उसकी पूर्ति कलाओं के माध्यम से होती रही |

बतौर शिक्षक इनका कैरियर प्राथमिक-विद्यालय से आरंभ होता है, जहाँ इनकी पहली नियुक्ति बतौर सहायक-अध्यापक प्राथमिक विद्यालय चौंदा, थलीसैंण में दिसम्बर 1999 में हुई | इस समय तक उत्तराखंड नहीं बना था, इसलिए यह विद्यालय ‘बेसिक शिक्षा परिषद्’ के अंतर्गत आता था | उसके छः साल बाद दिसम्बर 2005 में उनका प्रमोशन हुआ और उनकी नियुक्ति जूनियर हाई स्कूल, छैतुड़, कोट ब्लॉक, पौड़ी (उत्तराखंड) में हुई |

लेकिन वे वहीँ नहीं रुके, बल्कि उन्होंने ‘उत्तराखंड लोक सेवा आयोग’ द्वारा आयोजित प्रतियोगिता परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रवक्ता पद की योग्यता अर्जित की और तब उनकी नियुक्ति मई 2006 में राजकीय इंटर कॉलेज, बरसूड़ी, रुद्रप्रयाग में हुई, जहाँ वे लगभग 6 महीने रहे | दरअसल वहाँ विज्ञान विषयों में बच्चों की संख्या बहुत ही कम थी, इसलिए उसी साल दिसम्बर में उनका ट्रान्सफर राजकीय इंटर कॉलेज धद्दी में हो गया और तब से लेकर अभी तक वे वहीँ कार्यरत हैं |

…संदीप का कला की ओर रुझान तो वस्तुतः कक्षा 8 से ही था, जब उन्होंने अपने किशोरावस्था में गढ़वाली-गीत गाने एवं गढ़वाली-कविता लिखनी शुरू की | लेकिन आगे चलकर उनकी कलाओं का एक मुकाम हासिल करना एक हद तक उनके अकेलेपन का परिणाम भी है, जिसे उन्होंने थलीसैंण में अपनी नियुक्ति के दौरान जिया | इस दौरान वे अपने परिवार से दूर रहे | हालाँकि उनका विवाह लक्ष्मी रावत से दिसम्बर 2000 में संपन्न हो चुका था, लेकिन पत्नी के साथ भी वहाँ वे केवल डेढ़ साल ही रहे |

इस अवधि में उन्होंने जो कठोर अकेलापन महसूस किया, उसी अकेलेपन ने उनको कला की ओर सायास सक्रिय किया, ख़ासकर साहित्य-रचना के क्षेत्र में | उनकी रचनाएँ (लेख, गीत, कविताएँ) कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं, जैसे ‘युगवाणी’ (देहरादून), ‘उत्तराखंड ख़बरसार’ (पौड़ी), ‘रंत रैवार’, ‘उत्तराखंड निराला’ (जयपुर), ‘दस्तक’ (अगस्त्यमुनि), ‘जागो उत्तराखंड’ (पौड़ी), ‘धाद’, ‘शैलवाणी’ (कोटद्वार)…| इन पत्र-पत्रिकाओं (इनमें से कुछ अब बंद हो चुकी हैं या अनिश्चित-सी स्थिति में हैं) में वे लगातार कविताएँ, गीत, लेख आदि लिखते रहे हैं, जो आज भी जारी है | उनके संगीत आदि के कार्यक्रम भी विभिन्न टीवी चैनलों में प्रसारित होते रहे हैं, जैसे ईटीवी, दूरदर्शन, आकाशवाणी (नज़ीबाबाद एवं देहरादून) |

लेकिन उन्होंने अपने इस रुझान को आगे चलकर और व्यवस्थित किया और इस कोशिश में गढ़वाली भाषा के विकास के लिए अनेक पुस्तकों की रचना की, जिसमें अन्य गढ़वाली-रचनाकारों की रचनाओं का संकलन भी शामिल है | साहित्य एवं संगीत से सम्बद्ध इस रचना-कार्य ने उनको पहचान देनी शुरू की | उनकी अपनी गढ़वाली-कविताओं एवं गीतों के संकलनों का प्रकाशन ‘एक लपाग’ एवं ‘तू हिटदि जा’ नाम से हुआ है, तो गढ़वाली-कथाओं का संकलन एवं प्रकाशन ‘उदरोळ’ नाम से हुआ है; ‘लोक का बाना’ उनकी स्व-रचित गढ़वाली-भाषा के आलेखों का संग्रह है, तो 14 वीं सदी से लेकर 2013 तक के गढ़वाली-भाषा के इतिहास को उन्होंने ‘गढ़वाळि भाषा-अर साहित्य कि विकास जात्रा’ नाम से लिखा |

इसके अलावा संदीप रावत ने अपने मित्र एवं सहयोगी गीतेश सिंह नेगी के साथ मिलकर गढ़वाली-साहित्य की महिला-रचनाकारों की कविताओं का संकलन ‘आखर’ नाम से प्रस्तुत किया है, जिसके वे दोनों मित्र सम्मिलित रूप से संपादक हैं | वस्तुतः यह पुस्तक इन दोनों की कोशिशों का नतीजा है | यह पुस्तक इस भाषा में पहली बार ऐसे उल्लेखनीय प्रयास के रूप में सामने आई है | इस संकलन में गढ़वाली-भाषा की 89 महिला रचनाकारों/कवयित्रियों की कविताएँ शामिल हैं, साथ ही 11 अन्य कवयित्रियों का उल्लेख भी उक्त पुस्तक के परिशिष्ट में किया गया है |यह पुस्तक इस भाषा में पहली बार ऐसे उल्लेखनीय प्रयास के रूप में सामने आई है, जिसे गढ़वाली कवयित्रियों की कविताओं के पहले वृहद् संकलन का गौरव प्राप्त है, इस कारण इस पुस्तक का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है |

संदीप ने आगे चलकर 5 दिसम्बर 2016 को गढ़वाली-भाषा एवं सहित्य के विकास एवं प्रसार के लिए ‘आखर’ नामक समिति की स्थापना की, जिसके वे अध्यक्ष भी हैं | इस समिति का उद्देश्य है— गढ़वाली समाज की नई पीढ़ी को उनकी मातृभाषा ‘गढ़वाली’ से जोड़ना और समाज में इस दिशा में महत्वपूर्ण काम करनेवाले उन लोगों को सामने लाना, जो गुमनामी के अँधेरे में कहीं खोए हुए हैं | अपने इसी अभियान के अंतर्गत, गढ़वाली-भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करनेवाली महिला-रचनाकारों को सबके सामने लाने के उद्देश्य से ‘आखर’ के माध्यम से उसी के बैनर तले मंच प्रदान कर 2018 में गढ़वाली-कवयित्री-सम्मलेन करवाया, जो बकौल संदीप, अपनी तरह का पहला आयोजन था |  

इसके अलावा गढ़वाली-भाषा एवं साहित्य के विकास एवं प्रसार के लिए विभिन विद्वानों की जयंतियाँ भी ‘आखर’ के द्वारा मनाई जाती हैं, जिसमें डॉ. गोविन्द चातक का जन्मदिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसका आयोजन हर साल 19 दिसम्बर को किया जाता है | इसमें किसी ऐसे गढ़वाली-भाषा के विद्वान को सामने लाकर उन्हें सम्मानित किया जाता है, जिसने अपनी गढ़वाली-भाषा के लिए बहुत काम किया हो, लेकिन उसके बावजूद गुमनामी के अँधेरे में गुम-सा हो |

संदीप को साहित्य-रचना के अलावा नए-नए स्थानों पर जाकर उनके बारे में जानना, वहाँ की संस्कृति, लोगों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं आदि के सम्बन्ध में जानना पसंद है | और यह तो सर्व-विदित है, कि इस प्रकार की जिज्ञासा-भरी यायावरी-प्रवृत्ति एवं इस तरह की किसी भी प्रवृत्ति से किसी भी व्यक्ति का भाव-जगत समृद्ध होता है, विचार खुलते हैं, भावनाएँ विस्तार प्राप्त करती हैं | इस उद्देश्य से संदीप ने स्वतन्त्र या व्यक्तिगत रूप से मुंबई, दिल्ली, जयपुर, उदयपुर आदि शहरों की यात्राएँ की हैं | साथ ही CCRT द्वारा आयोजित विभिन्न प्रशिक्षण-कार्यक्रमों में भी शिरकत करते हुए उन्हें अनेक स्थानों के बारे में जानने-समझने के मौक़े मिले हैं | इस उद्देश्य से उन्होंने गुआहाटी (2010) में 24 दिनों तक प्रवास किया और हैदाराबद (2013) में 10 दिनों तक | वे बताते हैं, कि जब यहाँ आनेवाले विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान एवं प्रोफ़ेसर अपनी भाषा, संस्कृति, समाज, धरोहरों आदि के बारे में बातें किया करते थे, तब अपनी भाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और सुदृढ़ हो जाया करती थीं |

यही कारण है, कि अपनी भाषा के प्रति उनकी गहरी तन्मयता, लगाव, प्रेम समर्पण और कोशिश को देखकर CCRT ने उन्हें यह दायित्व सौंपा कि वे अपने आसपास के विद्यालयों के विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के साथ मिलकर स्थानीय-संस्कृति, इतिहास, पौराणिक-सन्दर्भों, साहित्यिक-परिदृश्यों आदि के विकास एवं प्रसार के सम्बन्ध में काम करें एवं उनकी जानकारी को समृद्ध करें तथा प्रशिक्षण दें |

वर्तमान में वे अपने साहित्यिक-ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ विद्यालय में भाषा के माध्यम से अपना अध्यापकीय-दायित्वों का निर्वहन भी काफ़ी संतोषजनक ढंग से संपन्न करने में संलग्न हैं, जिसपर बातचीत संदीप रावत से संबंधित अगले आलेख में होगी…

…तब तक प्रतीक्षा……….!!!

  • डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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9 thoughts on “संदीप रावत

  1. रावत जी गढ़वाली भाषा के कर्मठ सिपाही हैं. ईश्वर से प्रार्थना है कि वो निरंतर इसी जोश और जनून के साथ ऐसे ही आगे बड़ते रहें.

  2. संदीप सर का गढ़वाली साहित्य संरक्षण और उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान है।सर समाज में अपनी भूमिका को बड़ी प्रेरणादायी रूप से निभा रहे हैं।ऐसे व्यक्तित्व को हमारे सामने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करने के लिए कनकलता मेम का हार्दिक धन्यवाद।

  3. गढ़वाली भाषा को बचाने तथा उसकी उन्नति एवं विकास के लिए जो कार्य संदीपजी ने किया है वह काबिले तारीफ है।

  4. आपके द्वारा मेरी जीवन यात्रा एवं मेरी साहित्यिक यात्रा को अपनी बेहतरीन लेखनी से जो सभी के सम्मुख रखा गया, इस हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद ?साधुवाद

  5. संदीप रावत जी के बारे में, कनकजी, आप की लेखनी ने बहुत कुछ उकेरा है पुनः आप धन्यवाद की पात्र हैं। संदीप जी का नाम सुना है और संभवतया उन्हें पढ़ा भी है। वास्तव में अपने उनके बारे में सटीक जानकारी दी है। अगले भाग की प्रतीक्षा में।
    अंजलि डुडेजा

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