बतकही

बातें कही-अनकही…

उठो याज्ञसेनी…
कि समय तुम्हारी प्रतीक्षा में है…
जिसे आगे ले जाना है तुम्हें…!
कि परिवर्तन का कालचक्र तुम्हें पुकार रहा है…
जिसे घुमाना है तुम्हें…!
कि समाज की नियति तुम्हारा आह्वान कर रही है…
जिसे गढ़ना है तुम्हें…!
अपने दृढ-संकल्प से
अपनी ईच्छा-शक्ति से
अपने सामर्थ्य से
अपने लहू से
अपने जीवन से
अपने प्राणों से…

दुःखी मत हो
उदास भी नहीं होओ,
आँसू भी मत बहाओ
तुम्हारे जिस आँचल को भरे दरबार में खींचा गया
उस आँचल को युद्ध का परचम बना दो
उड़ा दो उसे आसमान में…
जो युद्ध की घोषणा करे
दूर दूर तक…
उन सबके विरुद्ध
जो स्त्री को साधन समझते हैं-–-
प्रतिद्वंद्वी से अपने बदले का,
अहंकार-प्रदर्शन का,
सत्ता-प्रतिष्ठापन का,
भोग का…!

तुम्हारा अपमानित दामन दूर-दूर तक उद्घोष करे
उस संघर्ष का, जो तुम्हें करना है
संसार एवं समाज की समस्त स्त्रियों के लिए
उनके साथ मिलकर
सत्ता और शक्ति के विरुद्ध
अहंकार के समुद्र में डूबे समाज के विरुद्ध
सत्ता के मद में लीन राजनीति के विरुद्ध
दमनकारी परंपराओं, मान्यताओं और आदर्शों के विरुद्ध…!

अपने आँसुओं को रोक लो
और दहकते आग्नेयास्त्र बना दो उन्हें
जो विस्फोटित हो उड़ा दे चीथड़े
उन सभी के—-
जिन्होंने भाग लिया था तुम्हारे बहाने हर पीड़ित के अपमान में
सम्मिलित होकर या सहमति देकर अथवा मौन रहकर
अपने क्रोध को नई धार दो याज्ञसेनी
और लगा दो आग उससे उन राजमहलों में
हिला दो उन दरबारों की नीवें
जिसमें रहते हैं
स्त्री को निष्प्राण भौतिक वस्तु समझने वाले
स्त्री को जुए में दाँव पर रखने वाले
स्त्री को अपनी काम-पिपासा की वस्तु समझने वाले
स्त्री को अपने वर्चस्व की प्रतीक मानने वाले
स्त्री को अपनी सत्ता का पायदान बनानेवाले
स्त्री को पाँव तले रखने वाले…

तुम याज्ञसेनी हो
तुम जन्मी थीं उस समय
जब तुम्हारे पिता ने आयोजन किया था विशाल यज्ञ का
उसी यज्ञ के दौरान जन्मी थीं तुम माता की कोख से
और प्रसन्न होकर यज्ञ का सुफल समझ तुम्हारे पिता और पुरोहितों ने
तुम्हारा नाम रखा था—-याज्ञसेनी
जलाओ यज्ञ की उस ज्वाला को अपनी अंतरात्मा में
और फूँक दो उस समाज को
जो चाहता है किसी एक का वर्चस्व सम्पूर्ण समाज पर
जो समर्थक है उस व्यवस्था का
जो अनुमति देती है रौंदने की हर पीड़ित का सिर
अपने अहंकारी सत्ता के नशे में मत्त समर्थों को
जो देती है प्रश्रय उन आदर्शों, मर्यादाओं, परम्पराओं को
जो केवल दमन की खातिर सृजित की गई हैं शक्तिमत्तों द्वारा …

याज्ञसेनी उठो…
कि तुम प्रतीक हो अहंकारियों के विनाश की
और तुम्हें पुनः विनाश-लीला रचनी है…!
कि तुम माध्यम हो सत्ता के गर्व-विखंडन की
और तुम्हें पुनः खण्डित करना है गर्व उस अहंकारी सत्ता का…!
कि तुम आशा हो उन सभी पीड़ितों-शोषितों की
जो तुम्हारी ही तरह अपमानित और पद-दलित किए गए सदियों तक
तुम्हें जगानी है उम्मीद उनके भीतर जीने, लड़ने और जीतने की…!

दामिनी याज्ञसेनी ….
तुम हार नहीं सकतीं
क्योंकि तुम सखी हो उस चक्रधारी की,
जिसने रचाया था महाभारत
स्त्रियों के अपमान, तिरस्कार और शोषण के प्रतिकार में…!
तुम दुर्बल नहीं हो सकतीं
क्योंकि तुम बहन हो उस अर्धनारी शिखंडिनी की
जिसने विनाश किया था सत्ता-पोषक अजेय भीष्म का…
जिसे स्वाभाविक लगता था, किसी की भी कन्या का बलात् हरण…!
तुम वि-माता हो उस किशोर अभिमन्यु की
जो भारी पड़ा था अकेला ही, अपने समय के सभी अजेय योद्धाओं पर…!
तुम्हें उठना ही होगा…
क्योंकि समाज में घूम रहे हैं
हजारों लाखों युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन
जो असहायों को निर्जीव वस्तु समझ विभिन्न जुओं में दाँव पर रखते हैं…!
समाज भर गया है सैकड़ों अहंकारी सत्तासीन दुर्योधनों, दुःशासनों से
जो हर पीड़ित का सिर कुचलने को सदैव आतुर रहते हैं…!
सत्ता की बागडोर शक्ति के मद में अंधे धृतराष्ट्रों के हाथों में है
जिन्हें हर हाल में सत्ता प्रिय है…!
और सत्ता के पोषक भीष्मों, द्रोणाचायों और कृपाचायों ने
पहन ली हैं किन्हीं अज्ञात ‘कर्तव्यों की विवशता’ की बेड़ियाँ…
स्वेच्छा से…
और उनको भी जुए में हारी गई स्त्री को…
सर्वजन-भोग्या मानने में कोई आपत्ति नहीं…!

तुम्हें अंत करना है इन सभी का
बनाना है उत्पीड़न-मुक्त नया समाज
रचनी है नवीन संवेदनशील परम्पराएँ
स्थापित करनी है प्रगतिगामी मानवीय मर्यादाएँ
गढ़ने है समानता के पोषक नवीन आदर्श…!

उठो कृष्ण-सखी कृष्णे…
और अपने अपमानित आँचल को युद्ध का परचम बना
सम्पूर्ण आसमान को ढँक दो उससे
कि थर्रा उठे अहंकारी सत्ता और उसके पोषक…
अपने गर्म आंसुओं को जलते बारूद बना दो
कि ध्वस्त हो जाय यह शोषक समाज…
अपने अपमान को दहकती ज्वाला में बदल दो
कि जल जाएँ सभी अमानवीय परंपराएँ, मर्यादाएँ और आदर्श…

डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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5 thoughts on “उठो याज्ञसेनी

  1. समाज को स्त्री ही बदल सकती है। लेकिन पुरुषों ने उसे धर्मान्धता में उलझा रखा है।

  2. मार्मिक भावनाओं के साथ साथ शब्द संयोजन की कुशलता को आपसे बेहतर कौंन समझ सकता है।आप लेखनी की सारथी बनकर समाज में नारी को नई ताकत नयी ऊर्जा देने का प्रयाश कर रही हो।आपके अतुलनीय लेखनी को दिल की गहराइयों से तमन।बढ़ती रहो सदा इसी तरह प्रगति पथ पर।

    1. धन्यवाद मैडम,
      आप जैसे प्रगतिशील सोच एवं उत्साहवर्द्धक व्यक्तित्वों के सान्निध्य में कुछ लिखने की कोशिश भर है …

  3. समाज भर गया है सैकड़ों अहंकारी सत्तासीन दुर्योधनों, दुःशासनों से
    जो हर पीड़ित का सिर कुचलने को सदैव आतुर रहते हैं…!
    वाह! सामयिक!

    1. उत्साह-वर्द्धन के लिए तहे-दिल से आपकी आभारी हूँ….

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