एक था अँगूठा…
जो हर रोज़ चुनौती देता था
राजपुत्रों की दिव्यता और अद्वितीयता को
राजमहलों की एकान्तिक योग्यता को…!!!
पुरोहित चौंके, गुरू अचंभित…
उस ‘नाक़ाबिल’ अँगूठे से
डर गए सभी दिव्यदेहधारी राजगुरु अतिविशिष्ट…
सर्वश्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य भी…!
भविष्य की किसी आशंका से…!!!
उस ‘जाहिल’ अँगूठे से घबराए सभी राजपुत्र…
चिंतित, हैरान औ’ परेशान
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन भी…!
राज्य सचेत औ’ सचेष्ट
कर्तव्यनिष्ठ, लोक-कल्याणकारी वह
रोकने को अनिष्ट कोई भविष्य में
गुरु को सौंप कर्तव्य महान, उपाय हेतु
औ’ गुरु सचेष्ट…
धर्म, आदर्श और परम्परा की दुहाई दी गई
उस जंगली शिष्य को
और…
माँग लिया गया गुरु-दक्षिणा में
उसी अँगूठे का दान…!!!
और वह ललकारता, चुनौती देता, उपहास करता ज़ाहिल अँगूठा
धर्म, आदर्श और परंपरा के चरणों में काटकर रख दिया गया
और उसी के साथ उन अँगूठाधारियों का जीवन और भविष्य भी…!!!
…किन्तु वह ‘जाहिल’ जंगली अँगूठा
अब भी करता है उपहास,
राजपुत्रों की अद्वितीयता और एकान्तिक योग्यता का
दिव्यदेहधारी राजगुरुओं की दिव्य गुरुता का भी…!!!