बतकही

बातें कही-अनकही…

सत्य के जो प्रयोग आपने किए थे, ‘राष्ट्रपिता’
जिसमें शामिल थे आपके कामुक-प्रयोग भी
जिसके लिए आपने ली थी सहायता अपनी सेविका स्त्रियों की
मैं सहमत नहीं हूँ उनसे !
घृणित हैं वे कामुक-प्रयोग !
और आपका समाज के सामने मुझे ‘बा’ कहना—
‘बा’ अर्थात् ‘माँ’ !
अपनी इस ‘महानता’ को खूब प्रचारित किया आपने
और महान बन गए, सबकी नज़रों में !
सबने श्रद्धा से कहा—- ‘बापू’ कितने महान हैं,
पत्नी को भी ‘माँ’ का दर्जा दे दिया !’
किन्तु मैं सहमत नहीं हूँ उससे भी…!
अपमानजनक है पति द्वारा पत्नी के लिए यह संबोधन;
…एकतरफ़ा…!

एक सवाल मैं पूछूँ आपसे ?
क्या सच-सच बताएँगे आप ?
विश्वास रखिए, मैं किसी से नहीं कहूँगी
चुप रहूँगी…
जैसे अब तक रही !

आपके द्वारा ‘बा’ कहे जाने के प्रत्युत्तर में
यदि मैं आपको कहने लगती—
‘बेटा’
सार्वजनिक रूप से
और फ़िर अपने पास भी न फटकने देती आपको
‘बेटे’ के नाते
तो क्या आपको यह स्वीकार्य होता ?
क्या इससे आहत नहीं होता
आपका ‘पति का अधिकार’…?
देती आदेश यदि बनकर ‘माँ’, आपको विविध प्रकार;
क्या मानते आदेश मेरा, आदेश ‘माँ’ का, बनकर उदार ?
करती यदि अवैध गतिविधियों पर नियत्रण कठोर, माँ के समान;
तो क्या रखते मेरा मान, ‘माँ’ के वचनों का सम्मान ?
और यह समाज भी, करता क्या मेरा अभिनन्दन इसी प्रकार ?
जैसा वह आपका करता है, मुझे ‘बा’ कहने पर ?
अथवा जैसा करता रहा है मेरा सत्कार अब तक, मेरे मौन रहने पर ?

अथवा कहते सभी संस्कारशील पुरुष एक साथ मिल—
कहा गया ‘माँ’ तुझे, बस केवल इस निमित्त
बढ़े क़द बापू का, स्त्री का आदर करने के लिए, हों वे विशिष्ट !
पर औरत है तू, याद रहे तुझको हरपल, तू बन विनीत
कर्तव्य तुम्हारा बन आज्ञाकारी, और रहे तू सती सभीत
सेवा है एकमात्र बस धर्म तेरा, आज्ञा देना कर्म नहीं तेरा |

और यदि करते हुए आपका ही अनुसरण,
करती मैं भी कुछ ‘कामुक-प्रयोग’— आपकी ही तरह
‘सत्य के प्रयोग’ के लिए
मिलकर आपके आश्रम के कुछ पुरुषों के साथ |
तब भी क्या मुझे मिलता वही आदर,
जो मिला है अब तक समाज से— मेरे अनंत मौन पर ?
क्या देता यह समाज मुझे सम्मान
जैसा वह आपको देता है— आपके ‘कामुक-प्रयोगों’ के बावजूद…?
क्या स्वयं को रोक लेता यह समाज, मुझे ‘चरित्रहीन’ कहने से तब ?

और तब स्वयं आपका ही क्या व्यवहार होता मेरे साथ ?
क्या तब भी आप कहते मुझे— ‘बा’ ?
अथवा करते मेरा तिरस्कार और अपमान
परोक्ष रूप से, मिलकर समाज के साथ ?
करते मुझे अपमानित घर के भीतर
और देते उपदेश सार्वजनिक स्थानों पर
ओढ़कर चोला सहृदयता, सहिष्णुता, उदारता, अहिंसा का ?

एक बात और बताइए, सच-सच…!
अपने ‘काम-प्रयोग’ के कारण
क्या आप डर नहीं गए थे, मेरे उन संभावित प्रयोगों से…?
यह निश्चित जानते हुए भी
कि मैं नहीं करुँगी प्रयोग ऐसा कुछ भी, कभी भी
क्योंकि ‘स्त्री’ हूँ मैं, एक खाँचे में ढली
भय और आशंकाओं के बीच पली !
लेकिन तब भी आप डरे !
क्या मन में चोर नहीं था आपके ?
जिसे रोकने की ख़ातिर आपने डाल दी
जानबूझकर वह ज़ंजीर— मुझे ‘बा’ कहकर ?
सोचते हुए यह पीढियों की भाँति— ‘माँ’ कोई ‘कामुक-प्रयोग’ नहीं करती |
यह भी कि झिझक से समाज के सामने मैं कह भी न सकूँ
आपके किसी अन्याय के संबंध में, कुछ भी, कभी भी ?

यदि मैं उठाती सवाल कोई
आपके घृणित ‘कामुक-प्रयोगों’ पर
और करती विरोध उन कुत्सित कर्मों का
तो यही समाज क्या कहता नहीं–-
‘बापू’ ने जिस स्त्री को ‘माँ’ कहकर
बिठा दिया सम्मान के सर्वोच्च शिखर पर
उसी ने अपनी ‘स्त्रियोचित-वासना’ के वशीभूत, अंधी होकर
‘बापू’ की महानता पर खड़े किए घृणित सवाल
दुश्चरित्र है यह स्त्री !
त्याज्य है चरित्रहीन कस्तूरबा…!

यह समाज कभी पसंद नहीं कर सका
किसी स्त्री का स्वतंत्र निर्णय लेना |
पुरुष जब चाहें, स्त्री को ‘पत्नी’ से ‘माँ’ में बदल सकता है
और कर सकता है भोग भी, अपनी ही पुत्री का…!
चाहे वह देवता हो, या हो मनुष्य;
क्योंकि वह जन्मतः महान है, पुरुष है वह
सदैव ही सही, सदैव स्तुत्य !
किन्तु स्त्रियाँ वही नहीं कर सकतीं,
सभी कार्य पुरुषों की तरह, वे स्वतन्त्र नहीं उनकी तरह
क्योंकि उन्हें रहना होता है ‘देवी’ के पद पर—
अनिवार्यतः
अन्यथा ‘पतिता’ बनकर समाज से बाहर— ‘सर्वजनभोग्या’ होने के लिए !

सदियाँ बीतती जाएँगी,
समय और समाज भी बदलेगा,
और आप सदैव महान रहेंगे,
‘राष्ट्रपिता बापू’ बनकर !
किन्तु मेरे प्रश्न भी रहेंगे,
आपके साथ-साथ, आपके पीछे चलते हुए !
कोई तो देखेगा, मेरी मानसिक-प्रताड़ना के इन प्रश्नों को ?
कोई तो सोचेगा, मेरा सम्मान खंडित करते आपके ‘बा’ के संबोधन पर ?
कोई तो समझेगा मेरे अस्तित्व को नकारते आपके ‘सत्य के प्रयोगों’ को ?
कोई तो उठाएगा आपके घृणित ‘प्रयोगों’ पर प्रश्न ?
मैं पूछती रहूँगी हर युग में, हर समाज से
जब तक रहेगी ये धरा |
कभी तो देने ही होंगे आपको उत्तर,
मेरे इन सभी प्रश्नों के !
और समाज भी क्या कहना चाहेगा
मेरे इन प्रश्नों पर ?
कोई तो देगा उत्तर…?
जानने को मैं उत्सुक…
सदियों तक…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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One thought on “कस्तूरबा का सवाल

  1. सुप्रभात कनक मैडम। ठीक इसी तरह एक समय मेरा मस्तिष्क भी उद्वेलित हुआ था।यह प्रश्न मैंने स्वयं से किया था और शायद उस का परिणाम है कि राष्ट्र पिता को अधिक सम्मान कभी भी न दे सकी।शास्त्री जी अपेक्षाकृत अधिक सम्माननीय हैं जिन का जीवन सदा सर्वदा अनुकरणीय है मेरे लिए। जीवन पर्यंत संघर्ष शील रहते हुए जीवन के हर प्रलोभन से निस्पृह रहते हुए कैसे जिया जाता है ये शास्त्री जी सिखा गये ।बा के अस्तित्व को समाज ने गांधी जी के आभामंडल में विलीन कर दिया।

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